19वीं सदी के उत्तरार्ध से भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।

19वीं सदी के उत्तरार्ध से भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिए।

( 64वीं BPSC/2019 )
अथवा
‘राष्ट्रवाद’ को परिभाषित करते हुए अंग्रेजों के भारत पर पूर्ण आधिपत्य के उपरांत उनके अत्याचार पूर्ण आर्थिक शोषण एवं दोहनवादी नीतियों के कारण भारतीयों में उत्पन्न असंतोष और विद्रोह को उद्घाटित कीजिए। 
अथवा
पाश्चात्य शिक्षा से भारतीयों में उत्पन्न आधुनिक एवं वैज्ञानिक विचारों के कारण दासत्व जीवन से छुटकारे के लिए संघर्ष के चरणों का वर्णन करें।
अथवा
जनजागरण पत्र-पत्रिकाओं के योगदान का उल्लेख करें।
अथवा
भारतीय कांग्रेस की स्थापना और उसका योगदान को भी दर्शाएं ।
उत्तर – राष्ट्रवाद एक विचारधारा है जो भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से बद्ध किसी राष्ट्र के प्रति निष्ठा, गर्व और भक्ति की भावना उत्पन्न करती है। भारतीय संदर्भ में, यह ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए लोगों में जागृति और संघर्ष की भावना पैदा कर राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा के लिए सभी को मानसिक रूप से तैयार करने से है। भारत में राष्ट्रवाद के विकास की अवधारणाएं ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध चले लंबे स्वाधीनता संघर्ष के दौरान उभरीं और विकसित हुईं, क्योंकि कोई भी चीज शून्य से पैदा होकर अचानक शिखर तक नहीं पहुंचती | विचार और अवधारणाएं आकार लेने में लंबा समय लेती हैं। सामान्यतः भारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास उन कारकों का परिणाम माना जाता है, जो भारत में उपनिवेशी शासन के कारण उत्पन्न हुए, जैसे- नयी-नयी संस्थाओं की स्थापना, रोजगार के नये अवसरों का सृजन, संसाधनों का अधिकाधिक दोहन आदि को भारतवासियों ने देश के आर्थिक पिछड़ेपन की उपनिवेशी शासन का परिणाम माना। उनका विचार था कि • देश के विभिन्न वर्ग के लोगों यथा – कृषक, शिल्पकार, दस्तकार, मजदूर, बुद्धिजीवी, शिक्षित वर्ग एवं व्यापारियों आदि सभी के हित विदेशी शासन की भेंट चढ़ गये हैं। देशवासियों की इस सोच ने आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास में योगदान दिया। उनका मानना था कि देश में जब तक विदेशी शासन रहेगा लोगों के आर्थिक हितों पर कुठाराघात होता रहेगा। वैसे इस आन्दोलन की औपचारिक शुरुआत 1885 ई. में कांग्रेस की स्थापना के साथ हुई थी, जो कुछ उतार-चढ़ावों के साथ 15 अगस्त, 1947 ई. तक अनवरत रूप से जारी रहा। दूसरे शब्दों में भारत में राष्ट्रवाद का उदय कुछ उपनिवेशी नीतियों द्वारा एवं कुछ उपनिवेशी नीतियों के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ। किन्तु विभिन्न परिस्थितियों के अध्ययनोपरांत यह ज्यादा तर्कसंगत लगता है कि भारत में राष्ट्रवाद का उदय किसी एक कारण या परिस्थिति से उत्पन्न न होकर विभिन्न कारकों का सम्मिलित प्रतिफल था।
संक्षिप्त रूप में देखा जाए तो भारत में राष्ट्रवाद के उदय एवं विकास के लिए निम्न कारक उत्तरदायी थे
1. विदेशी आधिपत्य का परिणाम ।
2. पाश्चात्य चिंतन तथा शिक्षा ।
3. फ्रांसीसी क्रांति के फलस्वरूप विश्व स्तर पर राष्ट्रवादी चेतना एवं आत्म-विश्वास की भावना का प्रसार ।
4. प्रेस एवं समाचार पत्रों की भूमिका ।
5. भारतीय पुनर्जागरण।
6. अंग्रेजों द्वारा भारत में आधुनिकता को बढ़ावा देना ।
7. ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध भारतीय आक्रोश पैदा होना ।
8 . भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना इत्यादि ।
> देश का राजनीतिक, प्रशासनिक एवं आर्थिक एकीकरण
भारत में ब्रिटिश शासन का विस्तार उत्तर में हिमालय से दक्षिण में कन्याकुमारी तक तथा पूर्व में असम से पश्चिम में खैबर दर्रे तक था। अंग्रेजों ने देश में मौर्यो एवं मुगलों के बाद इतने बड़े साम्राज्य की स्थापना की। कुछ भारतीय राज्य सीधे ब्रिटिश शासन के नियंत्रण में थे तो अन्य देशी रियासतें अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी शासन के अधीन थीं। ब्रिटिश तलवार ने पूरे भारत को एक झंडे के तले एकत्र कर दिया। एक दक्ष कार्यपालिका, संगठित न्यायपालिका तथा संहिताबद्ध फौजदारी तथा दीवानी कानून, जिन पर दृढ़ता से अमल होता था भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक लागू होते थे । इसने भारत की परम्परागत सांस्कृतिक एकता को एक नए प्रकार की राजनैतिक एकता प्रदान की। प्रशासनिक सुविधाओं, सैन्य रक्षा उद्देश्यों, आर्थिक व्यापन तथा व्यापारिक शोषण को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों द्वारा परिवहन के तीव्र साधनों का विकास किया गया। पक्के मार्गों का निर्माण हुआ जिससे एक स्थान के लोग दूसरे स्थान से जुड़ते गए।
परंतु देश को एक सूत्र में बांधने का सबसे बड़ा साधन रेल था। 1850 के पश्चात रेल लाइनें बिछाने का कार्य प्रारंभ हुआ। रेलवे से अन्य कई लाभों के अतिरिक्त इसने देश को अप्रत्यक्ष रूप से एकीकृत करने का भी कार्य किया।
1850 के उपरांत प्रारंभ हुई आधुनिक डाक व्यवस्था ने तथा बिजली के तारों ने देश को समेकित करने में सहायता की। इसी प्रकार आधुनिक संचार साधनों ने भारत के विभिन्न भागों में रहने वाले लोगों को एक-दूसरे से संबंध बनाए रखने में सहायता दी। इससे राष्ट्रवाद को बढ़ावा मिला। राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से एकीकरण के इन प्रयासों को दो प्रकार से देखा जा सकता है
1. एकीकरण से विभिन्न भाग के लोगों के आर्थिक हित आपस में जुड़ गए। जैसे किसी एक भाग में अकाल पड़ने पर इसका प्रभाव दूसरे भाग में खाद्यानों के मूल्यों एवं आपूर्ति पर भी होता था।
2. यातायात एवं संचार के साधनों के विकास से देश के विभिन्न वर्गों के लोग मुख्यतः नेताओं का आपस राजनीतिक सम्पर्क स्थापित हो गया। इससे विभिन्न सार्वजनिक एवं आर्थिक विषयों पर वाद-विवाद सरल हो गया।
> भारत में आधुनिक राष्ट्रवाद के उदय के कारण
पाश्चात्य चिंतन तथा शिक्षा का प्रभाव – आधुनिक शिक्षा प्रणाली के प्रचलन से आधुनिक पाश्चात्य विचारों को अपनाने में मदद मिली, जिससे भारतीय राजनितिक चिंतन को एक नयी दिशा प्राप्त हुई। जब ट्रेवेलियन, मैकाले तथा बैंटिक ने देश में अंग्रेजी शिक्षा का श्रीगणेश किया तो यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण निर्णय था। पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार यद्यपि प्रशासनिक आवश्यकताओं के लिए किया गया था। परंतु इससे नवशिक्षित वर्ग के लिए पाश्चात्य उदारवादी विचारधारा के द्वार खुल गए। बेन्थम, लियो टॉलस्टॉय, कार्ल मार्क्स, शीले, मिल्टन, स्पेंसर, स्टुअर्ट मिल, पेन, रूसो तथा वाल्टेयर जैसे प्रसिद्ध यूरोपीय लेखकों के अतिवादी और पाश्चात्य विचारों ने भारतीय बुद्धजीवियों में स्वतंत्र राष्ट्रीयता तथा स्वशासन की भावनाएं जगा दी और उन्हें अंग्रेजी साम्राज्य का विरोधाभास खलने लगा।
इसके साथ ही अंग्रेजी भाषा ने सम्पूर्ण राष्ट्र के विभिन प्रान्तों एवं स्थानों के लोगों के लिए संपर्क भाषा का कार्य किया। इसने सभी भाषा-भाषियों को एक मंच पर ला कर खड़ा कर दिया, जिससे राष्ट्रवादी आंदोलन को अखिल भारतीय स्वरूप मिल सका। अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त कर नवशिक्षित भारतीयों जैसे-वकीलों, डाक्टरों आदि ने उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड की यात्रा की जिनमें गांधीजी भी एक थे। इन्होंने यहां एक स्वतंत्र देश में विभिन्न राजनैतिक संस्थाओं के विकास की प्रक्रिया देखी तथा वस्तुस्थिति का भारत से तुलनात्मक आकलन किया, जहां नागरिकों को विभिन्न प्रकार के अधि कारों से वंचित रखा गया था। इस नवपाश्चात्य भारतीय शिक्षित वर्ग ने भारत में नए बौद्धिक मध्यवर्ग का विकास किया, कालांतर में जिसने राष्ट्रीय आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत की विभिन्न राजनीतिक एवं अन्य संस्थाओं को इसी मध्य वर्ग से नेतृत्व मिला।
> प्रेस एवं समाचार –  पत्रों की भूमिका
समय-समय पर उपनिवेशी शासकों द्वारा भारतीय प्रेस पर विभिन्न प्रतिबंधों के बावजूद 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय समाचार पत्रों एवं साहित्य की आश्चर्यजनक प्रगति हुई। 1877 में प्रकाशित होने वाले विभिन्न भाषाई एवं हिंदी समाचार पत्रों की संख्या लगभग 170 थी तथा इनकी प्रसार संख्या लगभग एक लाख तक पहुंच गई थी।
भारतीय प्रेस, जहां एक ओर उपनिवेशी नीतियों की आलोचना करता था वहीं दूसरी ओर देशवासियों से आपसी एकता स्थापित करने का आह्वान भी करता था। प्रेस ने आधुनिक विचारों एवं व्यवस्था जैसे- स्वशासन, लोकतंत्र, दीवानी अधिकार एवं औद्योगिकीकरण इत्यादि के प्रचार-प्रसार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। समाचार पत्रों, जर्नल्स, पेम्फलेट्स तथा राष्ट्रवादी साहित्य ने देश के विभिन्न भागों में स्थित राष्ट्रवादी नेताओं के मध्य विचारों के आदान-प्रदान में भी सहायता पहुंचाई। इस प्रकार भारतीय समाचार पत्र भारतीय राष्ट्रवाद के दर्पण बन गए तथा जनता को शिक्षित करने का माध्यम।
साहित्य की भूमिका – 19वीं एवं 20वीं शताब्दी में विभिन्न प्रकार के साहित्य की रचना हुई उससे भी राष्ट्रीय जागरण में सहायता मिली। विभिन्न कविताओं, निबंधों, कथाओं, उपन्यासों एवं गीतों ने लोगों में देशभक्ति तथा राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत की। हिन्दी में भारतेंदु हरिश्चंद्र, बांग्ला में रवींद्रनाथ टैगोर, राजा राममोहन राय, बंकिमचंद्र चटर्जी, मराठी में विष्णु शास्त्री चिपलंकर, असमिया में लक्ष्मीदास बेजबरुआ इत्यादि उस काल के प्रख्यात राष्ट्रवादी साहित्यकार थे। इन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं द्वारा भारतीयों में स्वतंत्रता, समानता, एकता, भाईचारा तथा राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ावा दिया। साहित्यकारों के इन प्रयासों से आधुनिक राष्ट्रवाद के विकास को प्रोत्साहन मिला।
> सुधारवादी आंदोलनों का राष्ट्रीय स्वरूप
” 19वीं शताब्दी में भारत में विभिन्न सामाजिक एवं धार्मिक सुधार आंदोलन प्रारंभ हुए। इन आंदोलनों ने सामाजिक, धार्मिक नवजागरण का कार्यक्रम अपनाया और पूरे देश को प्रभावित किया । बौद्धिक पुनर्जागरण ने राष्ट्रवाद के उदय एक अहम् भूमिका निभाई। राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती स्वामी विवेकानंद आदि ने भारतीयों के अन्तर्मन को झकझोरा । आदोलनकारियों ने व्यक्ति स्वातंत्र्य, सामाजिक एकता और राष्ट्रवाद के सिद्धांतों पर जोर दिया और उनके लिए संघर्ष किया। इन आंदोलनों ने विभिन्न सामाजिक कुरीतियों को दूर कर सामाजिक एकता कायम की। समाज सुधार के प्रस्तावों को सरकारी तकी अनुमति में टालमटोल अथवा लेटलतीफी ने समाज सुधारकों को यह सोचने पर विवश कर दिया कि जब तक स्वशासन नहीं होगा सुधार संबंधी विधेयकों को पूर्णत: सरकारी सहमति एवं सहयोग नहीं मिल सकता । सुधार आंदोलनों ने देशवासियों में साहस जुटाया कि वे अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करें।
ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध भारतीय आक्रोश का पैदा होना – अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के प्रति हर जगह सेना, सरकारी नौकरियों, उद्योगों एवं आर्थिक क्षेत्रों में अपनाई जाने वाली नस्लीय भेद-नीति ने भी भारत में राष्ट्रवाद को जन्म दिया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना – 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में अंग्रेज अधिकारी एओ ह्यूम महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस संगठन की स्थापना भारत की स्वतंत्रता के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। इस संगठन ने संपूर्ण भारत में राष्ट्रवाद के विकास और सभी महत्वपूर्ण नेताओं को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  इसकी स्थापना के बाद भारत में आजादी की लड़ाई बहुत तेज हो गई और आजादी दिलाने में इस संगठन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उदारवादी चरण ( 1885-1905)- दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, दिनशॉ वाचा, डब्ल्यू सी बनर्जी, आदि जो इस अवधि के दौरान कांग्रेस पर हावी थे, उदारवाद में विश्वास करते थे। वे प्रार्थनाओं, याचिकाओं और संवैधानिक तरीकों की नीति में विश्वास करते थे। इस समय मध्यम वर्ग के बुद्धिजीवियों का संगठन में वर्चस्व था।
अतिवादी चरण ( 1905-1919) – बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय, अरबिंदो घोष जैसे नेताओं ने ‘स्वराज’ अथवा ‘स्व-शासन’ के उद्देश्यों के साथ इस चरण में कांग्रेस पर प्रभुत्व स्थापित किया। अतिवादियों ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, स्वदेशी का उपयोग, राष्ट्रीय शिक्षा, असहयोग और औपनिवेशिक सरकार के लिए निष्क्रिय प्रतिरोध की वकालत की।
गांधीवादी चरण (1919-1947)- इसे गांधीवादी युग के रूप में भी जाना जाता है जिसमें राष्ट्रवाद महात्मा गांधी के नेतृत्व में विभिन्न आयामों के साथ जन आंदोलन के रूप में विकसित हुआ। गांधीजी ने ‘सत्याग्रह’ और ‘अहिंसा’ के साधनों का उपयोग किया, जिसने पूरे देश को असहयोग (1920-21), सविनय अवज्ञा (1930) और भारत छोड़ो (1942) जैसे जन आंदोलनों में शामिल कर दिया। 1930-1940 के बीच सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए कई बहुआयामी कार्यक्रमों पर जोर दिया गया। इससे आन्दोलन में समाज के वंचित वर्गों की भागीदारी भी बढ़ी।
> राष्ट्रीय आंदोलन के विकास की समीक्षा से पता चलता है कि –
1. भारतीय राष्ट्रवाद ब्रिटिश हुकूमत के 200 वर्षों की अवधि में बहुत धीरे-धीरे विकसित हुआ। यह एक धीमी लेकिन सतत प्रक्रिया थी।
2. राष्ट्रवाद औपनिवेशिक शासन के परिणामस्वरूप और प्रतिक्रिया के रूप में विकसित हुआ। एक ओर पश्चिमी शिक्षा और उदारवाद ने सामाजिक सुधारकों और मध्यस्थों को प्रभावित किया, वहीं दूसरी ओर, दमनकारी नीतियों के कारण जनता में प्रतिरोध और क्रांति की भावना उत्पन्न हुई ।
3. इसने भारत के राजनीतिक भू-भाग को एक इकाई में बांधने का काम किया और संस्कृतियों, भाषाओं, रीति-रिवाजों और परंपराओं के सरगम को एक राष्ट्रीय पहचान दी।
4. इसने भारतीय समाज के अन्य पहलुओं को भी प्रभावित किया जैसे शिक्षा, सामाजिक सुधार, स्वदेशी, अहिंसा, शराब के सेवन से परहेज, ग्रामोद्योग को बढ़ावा देना आदि।
5. इसने दुनिया के अन्य हिस्सों में विशेष रूप से दक्षिण-पूर्व एशिया में राष्ट्रवादी संघर्षों को प्रभावित किया।
 6. राष्ट्रवाद ने भारत को कई आंदोलनों के मुख्य अविभावक, नयी दृष्टि और नेतृत्व दिए, जो स्वतंत्रता के बाद के समय में देश के विकास और एकीकरण में आवश्यक हो गए।
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