भाषायी कौशल कौन-कौन से है ? श्रवण कौशल लेखन कौशल का वर्णन कीजिए।
भाषायी कौशल कौन-कौन से है ? श्रवण कौशल लेखन कौशल का वर्णन कीजिए।
उत्तर— भाषायी कौशल– विचारों के सम्प्रेषण का माध्यम भाषा है। व्यक्ति भाषा के द्वारा अपनी बात को दूसरों को सुनाता है और उनकी बात सुनता है। भाषा में विचारों का आदान-प्रदान होता है। भाषा शिक्षण के प्रमुख कौशल हैं–
(1) श्रवण (सुनना)
(2) उच्चारण (बोलना)
(3) पठन (पढ़ना)
(4) लेखन (लिखना) ।
सुनना (श्रवण) कौशल में बालक व्यक्तियों के प्रवचन, भाषण आदि को सुनकर उसका आशय / अभिप्राय या अर्थ या भाव आदि को समझा पाता है। बोलना (उच्चारण) कौशल में बालक अपने भावों, विचारों, उद्देश्यों आदि को बोलकर (उच्चारण) दूसरों के सामने प्रकट कर पाता है। पढ़ना (वाचन) कौशल के अन्तर्गत बालक अन्य व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त भाषा को समझ पाता है तथा लिखना (लेखन) कौशल में बालक अपने विचारों या भावनाओं या भावों को लिपिबद्ध कर उनको अन्य व्यक्तियों के समक्ष प्रस्तुत कर पाता है ।
श्रवण (सुनना) कौशल
श्रवण कौशल का अर्थ
श्रवण कौशल का सम्बन्ध कान से है। भाषा सीखने का यह प्रथम चरण है। छात्र कहानी, कविता, भाषण, वार्तालाप आदि का ज्ञान सुनकर ही प्राप्त करता है तथा उसका अर्थ भी ग्रहण करता है। वास्तव में श्रवण कौशल भाषा सीखने का प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण अंग है । इसके आधार पर ही अन्य कौशलों का विकास किया जा सकता है। श्रवण कौशल के पश्चात् ही पढ़ने लिखने का कौशल विकसित किया जा सकता है। किसी व्यक्ति के द्वारा प्रयुक्त वाक्यों, शब्दों, ध्वनि एवं विचारों को कानों के द्वारा सुनकर उनका अर्थ ग्रहण करने की क्रिया ‘श्रवण’ कही जाती है। दूसरे शब्दों में, सुनने के अभ्यास को श्रवण कौशल कहा जाता है।
श्रवण कौशल के उद्देश्य – श्रवण कौशल के निम्नलिखित उद्देश्य है—
(1) छात्रों में श्रवण के प्रति रुचि उत्पन्न करना जिससे वे दूसरों की बातों को ध्यानपूर्वक सुन सकें ।
(2) छात्रों में सुनकर अर्थ ग्रहण करने की योग्यता प्राप्त करना ।
(3) दूसरों के द्वारा उच्चारित शब्दों को सुनकर शुद्ध उच्चारण करने के योग्य बनाना।
(4) श्रुत सामग्री के महत्त्वपूर्ण अंशों को पहचानने की योग्यता विकसित करना ।
(5) श्रुत सामग्री के महत्त्वपूर्ण, आकर्षक तथा मर्मस्पर्शी विचारों तथा भावों का चयन करने की योग्यता विकसित करना ।
श्रवण कौशल शिक्षण की विधियाँ—
श्रवण कौशल भाषा शिक्षण का महत्त्वपूर्ण सोपान है। श्रवण कौशल का शिक्षण किस प्रकार किया जाना चाहिए यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय है। छात्रों में श्रवण कौशल का विकास करने के लिए शिक्षक को निम्नलिखित विधियों, सामग्री एवं उपकरणों की सहायता लेनी चाहिए—
(1) प्रश्नोत्तर– प्रश्नोत्तर प्रणाली एक महत्त्वपूर्ण विधि है। शिक्षक को पढ़ाई गई सामग्री पर कक्षा में प्रश्न पूछने चाहिए । कक्षा में प्रश्न पूछने से यह पता चल जायेगा कि छात्र सुनकर विषय वस्तु को ग्रहण कर रहे हैं या नहीं। प्रश्न कक्षा के सभी छात्रों से पूछे जायें । प्रश्न पूछने से छात्र सावधान हो जाते हैं तथा शिक्षक की बात को ध्यानपूर्वक सुनते हैं।
(2) कहानी कहना तथा सुनना– बालकों को रोचक कथाएँ कहानियाँ जैसे-परियों की राजा-रानी की तथा पशु-पक्षियों आदि की कहानी सुनानी चाहिए। इसके पश्चात् उसी कहानी को बालकों से सुननी चाहिए। इससे यह पता लग जायेगा कि बालकों ने कहानी सुनी या नहीं।
(3) श्रुत लेख– श्रुत लेखन में शिक्षक किसी गद्यांश आदि को बोलता जाता है तथा छात्र सुनकर लिखते हैं। जो छात्र ध्यानपूर्वक सुनेगा वह सम्पूर्ण सामग्री को शुद्ध लिख लेगा तथा कोई अंश नहीं छूटेगा । जो छात्र ध्यानपूर्वक नहीं सुनेगा उसके बीच-बीच में कुछ शब्द या वाक्यांश छूट जायेंगे।
(4) भाषण– भाषण द्वारा बालक में मौखिक भाषा का विकास किया जाता है। परन्तु इसके द्वारा श्रवण कौशल का भी विकास किया जा सकता है। भाषण द्वारा बालक की श्रवणेन्द्रियों का विकास किया जा सकता है। भाषण देने से पूर्व शिक्षक बालकों को यह बता दे कि वे उसके भाषण को ध्यानपूर्वक सुनें और तत्पश्चात् उनसे भाषण पर प्रश्न पूछे जायेंगे। शिक्षक छात्रों से प्रश्न पूछकर यह पता लगा सकता है कि उन्होंने भाषण को ध्यानपूर्वक सुना या नहीं।
(5) सस्वर वाचन– शिक्षक द्वारा किये गये आदर्श वाचन से छात्र शुद्ध उच्चारण, गति, विराम चिह्नों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों से अनुकरण वाचन कराये। इससे यह पता चल सकेगा कि छात्र ध्यान से पाठ्यवस्तु को सुन रहे हैं या नहीं। अतः छात्रों द्वारा सरस्वर वाचन कराने से उनमें श्रवण कौशल का विकास किया जा सकता है।
(6) वाद-विवाद– श्रवण कौशल का प्रशिक्षण देने के लिए वाद-विवाद भी एक महत्त्वपूर्ण क्रिया है। वाद-विवाद में छात्र को हर बात ध्यानपूर्वक सुननी होती है क्योंकि बिना सुने वे दूसरे पक्ष की बात का उत्तर न दें सकेंगे और न अपने तर्क की प्रस्तुत कर सकते हैं। शिक्षक को सभी छात्रों को वाद-विवाद के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे वाद-विवाद के तर्कों को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे या नहीं।
(7) दृश्य-श्रव्य सहायक सामग्री– श्रवण कौशल को विकसित करने तथा उच्चारण सम्बन्धी दोषों को दूर करने के लिए ग्राफोफोन, टेपरिकार्डर, रेडियो, चलचित्र, दूरदर्शन तथा वीडियो आदि की सहायता की जा सकती है। इन साधनों की सहायता से कहानी, कविता, महापुरुषों के भाषण, नाटक तथा विभिन्न शैक्षिक व मनोरंजक कार्यक्रम सुने जा सकते हैं।
श्रवण कौशल का महत्त्व—
(1) बालक के व्यक्तित्व के विकास में श्रवण कौशल का अधिक महत्त्व है । बालक जिन ध्वनियों को बड़ों से सुनता है वह उसके मन-: -मस्तिष्क में अंकित हो जाती है। ये अंकित ध्वनियों ही बच्चे के भाषा-ज्ञान का आधार बनती हैं। श्रवण कौशल अन्य भाषायी कौशलों को विकसित करने की प्रमुख आधारशिला है। बालक श्रवण के प्रति जागरूक बनता है। उसकी श्रवणेन्द्रियों का उपयोग होता है।
(2) शान्त रहकर दूसरों की बात सुनकर व समझकर ही व्यक्ति अपने विचारों के प्रतिपादन हेतु ठोस तर्क प्रस्तुत कर सकता है।
(3) साहित्य की विभिन्न विधाओं का अध्ययन तथा उनकी व्याख्या को सुनकर ही उसकी विषय वस्तु को ग्रहण किया जा सकता है। बालक कविता का रसास्वादन कहानी का आनन्द सुनकर ही कर सकता है ।
(4) भाषा अनुकरण द्वारा सीखी जाती है। नये-नये शब्दों को सुनकर बालक अपने शब्द-भण्डार में वृद्धि करता है ।
(5) बालक परिवार के सदस्यों तथा अध्यापकों की बात सुनकर स्वयं अपने उच्चारण हावभाव, उतार-चढ़ाव उचित स्वरगति के अनुसार बोलने का प्रयास करता है। इस प्रकार उसकी मौखिक अभिव्यक्ति का विकास होता है ।
श्रवण कौशल में ध्यान देने योग्य बातें—
श्रवण कौशल को विकसित करने के लिए निम्नलिखित बातों की तरफ ध्यान देना आवश्यक है—
(1) बालक श्रवण में रुचि रखे ।
(2) बालक में धैयपूर्वक सुनने की क्षमता हो ।
(3) बालक में भाव ग्रहण करने की क्षमता हो ।
(4) बालक को ध्वनि, ध्वनि के प्रकार, उनके वर्गीकरण का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।
(5) बालक की श्रवणेन्द्रियाँ ठीक हों।
लेखन कौशल
लेखन कौशल का अर्थ—
जब हम अपने विचारों, भावों को लिखकर अभिव्यक्त करते हैं तो उसे लेखन कौशल या लिखित अभिव्यक्ति कहते हैं। लेखन के अन्तर्गत सुड़ौल एवं अच्छे वर्णों में लिखना भी सम्मिलित है। साधारणतया शब्दों द्वारा लिखकर भाव प्रकाशन ही लिखित अभिव्यक्ति कहलाता है।
लिखित अभिव्यक्ति के अनेक रूप हैं जिसमें पत्र-लेखन, निबन्धलेखन, प्रार्थना पत्र लेखन, आत्मकथा लेखन, जीवन चरित्र लेखन, कहानी – लेखन, संवाद-लेखन आदि आते हैं।
लिखित अभिव्यक्ति कौशल के उद्देश्य—
लिखित अभिव्यक्ति कौशल के उद्देश्य निम्नलिखित हैं—
(1) छात्रों को लिपि, शब्द, मुहावरों आदि का ज्ञान कराना है।
(2) ध्वन्यात्मक शब्दों को लिपिबद्ध करना ।
(3) छात्रों को शुद्ध वर्तनी, वाक्य रचना तथा विराम चिह्नों आदि का ज्ञान कराना।
(4) छात्रों को सुन्दर, स्पष्ट तथा सुड़ौल अक्षर लिखने में निपुण करना ।
(5) छात्रों में विषयानुकूल भाषा-शैली और विचारों की तार्किक क्रम में अभिव्यक्ति का ज्ञान कराना ।
(6) छात्रों में भाषा साहित्य के प्रति आदर का स्थायी भाव जाग्रत करना ।
(7) प्रसंगानुसार उचित शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों, सूक्तियों का प्रयोग करना ।
(8) छात्रों को अनुलेख, प्रतिलेख तथा श्रुतिलेख लिखने में निपुण बनाना ।
(9) प्रसंगानुसार आवश्यक गति से लिखने का अभ्यास कराना।
(10) छात्रों के शब्द कोश में वृद्धि करना ।
(11) छात्रों में सृजनात्मक शक्ति का विकास करना ।
(12) छात्रों में बोध तथा तर्क शक्ति का विकास करना ।
( 13 ) छात्रों के हाथ, मस्तिष्क, हृदय तथा नेत्र में समन्वय उत्पन्न करके इन्द्रिय शिक्षण करना ।
(14) छात्रों में स्वत: लेखन की क्रिया में रुचि उत्पन्न करना ।
लेखन कौशल हेतु विधियाँ—
लेखन कौशल विकास हेतु शिक्षण की महत्त्वपूर्ण विधियाँ निम्नलिखित हैं—
(1) रूपरेखा अनुकरण विधि– इस विधि में शिक्षक स्लेट, कापी या श्यामपट्ट पर चॉक या पेन्सिल से वर्ण लिख देता है। छात्र उन लिखे वर्णों या निशानों पर पेन्सिल या चॉक फेरता है जिससे शब्द या वाक्य उभर कर आ जाते हैं। इस प्रकार बालक वर्गों का लिखना सीख जाता है।
(2) अनुकरण विधि– शिक्षक श्यामपट्ट या कापी पर कुछ शब्द या वर्ण लिख देता है। बालक लिखे गये वर्णों या शब्द को अनुकरण करके लिखता है।
(3) मनोवैज्ञानिक विधि– लिखना सिखाने के लिए मनोवैज्ञानिक प्रणाली का विशेष महत्त्व है। मनोवैज्ञानिक प्रणाली में वर्णमाला के अक्षर तथा शब्द आदि सिखाने की अपेक्षा पूर्ण वाक्य बोलना तथा लिखना सिखाया जाये। बालक जब पूर्ण वाक्य बोलने लगें तथा उनकी कर्मेन्द्रियाँ मजबूत हो जायें तो उन्हें पढ़ने व लिखने के लिए तैयार चाहिए।
(4) पेस्टालाजी की रचनात्मक प्रणाली– पेस्टालाजी यह प्रणाली सरल से कठिन सूत्र पर आधारित है। इस प्रणाली में पहले अक्षर लिखना सिखाया जाता है। सबसे पहले अक्षरों की आकृति को भिन्नभिन्न टुकड़ों में तोड़ लिया जाता है। फिर टुकड़ों के योग से उस अक्षर की रचना कराई जाती है।
(5) चित्रविधि– इस प्रणाली में चित्रों की सहायता से शब्द और शब्दों की सहायता से अक्षर सिखाये जाते हैं। वास्तव में लिपि का विकास चित्रों की सहायता से ही हुआ है। इस विधि की सहायता से खेल-खेल में बच्चों को वर्ण रचना सिखा दी जाती हैं। जैसे—स, म, त, ग, न वर्ण से सवार, मछली, तखती, गधा, नल आदि के चित्र बनाकर सिखाये जा सकते हैं । इसी प्रकार धीरे-धीरे अभ्यास होने पर बालक अन्य वर्णों को लिखना सीख जाते हैं ।
(6) माण्टेसरी विधि– इस विधि में सबसे पहले गत्ते या लकड़ी के बने अक्षरों पर हाथ फेरने का कहा जाता है। जब उनकी उंगलियाँ सध जाती हैं तब स्वतंत्र रूप से वर्ण लिखने को कहा जाता है । तब उन्हें कटे अक्षरों के बीच पेन्सिल चला कर अक्षर लिखना सिखाया जाता है। नीचे कागज रखकर खाली कटे हुए स्थानों पर पेन्सिल चलाने से नीचे के कागज पर वर्ण बन जायेंगे और वर्ण लिखने के लिए हाथ के परिचालन का अभ्यास भी बालक को हो जायेगा ।
लेखन कौशल का महत्त्व—
बोलने तथा पढ़ने की क्रिया से लेखन-क्रिया अधिक कठिन हैं। परन्तु मैडम माण्टेसरी इसे सरल मानती हैं तथा लिखना सिखाना भाषाशिक्षण का प्रारम्भिक कार्य मानती है। उनका मानना है कि लिखने के साथ पढ़ना भी आ जाता है लेखन कौशल का महत्त्व निम्नलिखित हैं—
(1) लिपि के ज्ञान के बिना बालक न तो शुद्ध वर्तनी का प्रयोग कर सकता है और न ही विचारों को लिखित रूप में अभिव्यक्त कर सकता है।
(2) जब तक बालक को लिखना नहीं आ जाता जब तक उसका भाषा पर पूर्ण अधिकार नहीं हो सकता ।
(3) लिखित अभिव्यक्ति के माध्यम से हम अपने विचारों को सुरक्षित रख सकते हैं तथा उन्हें दूसरों तक पहुँचा सकते हैं।
(4) स्वतंत्र लेखन से मानव जाति की सेवा तथा जीविकोपार्जन में भी सहायता मिलती है।
(5) बालकों में क्रियाशीलता का विकास होता है। उनकी प्रतिमा, अभ्यास, प्रेरणा तथा रुचि आदि का पता चलता है।
(6) अतीत के इतिहास को समझने व उसका ज्ञान प्राप्त करने में लिखित भाषा ही सहायता करती है ।
(7) भाषा में एकरूपता तथा स्थायित्व लेखन के माध्यम से ही आता है।
(8) लिखित भाषा साहित्य भण्डार में वृद्धि करती है ।
(9) संसार में हो रहे ज्ञान, विज्ञान से परिचित कराने के लिए मुख्य साधन लिखित भाषा ही है।
(10) व्यावसायिक व औद्योगिक प्रगति का आधार भी लिखित है। व्यवसाय में सफलता प्राप्त करने तथा व्यावसायिक रिकार्ड लिखित भाषा में ही होते हैं ।
(11) लिखित अभिव्यक्ति से ज्ञान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाया जा सकता है।
(12) हमारी संस्कृति, रीति-रिवाज आदि भाषा के लिखित रूप के कारण ही आगे वाली पीढ़ी तक हस्तान्तरित होती है।
(13) लिखित भाषा विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है ।
(14) बौद्धिक विकास के लिए लिखना सीखना परम आवश्यक है।
(15) विचार करने तथा मनन करने के लिए लेखन ज्ञान विशेष सहायक होता है ।
लिखना सिखाने में ध्यान देने योग्य बातें—
लिखना सिखाने के लिए बालकों को निम्नलिखित बातों की तरफ ध्यान देना चाहिए—
(1) लिखना सिखाने के लिए बालकों को मानसिक रूप से तैयार करना चाहिए। साथ ही यह भी देखना आवश्यक है कि उनकी उंगलियाँ तथा हाथ माँसपेशियाँ कलम पकड़ने के योग्य हैं नहीं ।
(2) लिखने के लिए समय तथा उपयुक्त वातावरण का भी ध्यान रखना चाहिए। कक्षा का वातावरण सुरुचि पूर्ण हों ।
(3) लिखना सीखने को तैयार होने पर उसे विधिवत रूप से वर्णमाला के सभी अक्षरों को लिखना सिखाना चाहिए ।
(4) जब बच्चों को देखकर व सुनकर लेख द्वारा शब्द व वाक्य लिखने का अभ्यास हो जाये तो उन्हें अपने भावों व विचारों को तार्किक क्रम तथा व्याकरण सम्मत भाषा में व्यक्त करने का अभ्यास कराना चाहिए।
(5) लिखते समय बालकों को बैठने का उचित ढंग हो। रीढ़ की हड्डी सीधी रहे । झुक कर लिखने की आदत न डाली जाये। कुर्सी पर बैठते समय बालक के पैर जमीन पर सीधे रहे। घुटने 90° का कोण बनाते हों।
(6) यदि तख्ती पर लिखना है तो वह चौरस व चिकनी हो । काली तख्ती पर खड़िया का प्रयोग होना चाहिए। कलम पकड़ने का ढंग ठीक होना चाहिए ।
(7) कलम अंगूठे व मध्य उंगली के बीच में हो तथा पहली उंगली कलम के ऊपर रहे। कलम को निब या पोइन्ट से 1 इंच ऊपर से पकड़ना चाहिये ।
(8) बालकों को सर्वप्रथम उनका नाम लिखना सिखाया जाये ऐसा करने से बालक प्रसन्नता का अनुभव करता है।
(9) बालकों के सामने सुलेख के नमूने प्रस्तुत करने चाहिए जिससे वे अपना लेख सुधार सकें ।
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