उपन्यास को परिभाषित कीजिए। इसके विभिन्न तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उपन्यास को परिभाषित कीजिए। इसके विभिन्न तत्त्वों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर— उपन्यास का अर्थ—हिन्दी में उपन्यास ‘उप’ तथा ‘न्यास’ दो शब्दों के मेल से बना है। ‘उप’ एक उपसर्ग है तथा इसका अर्थ है – समीप, सामने, संगति या युक्ति। ‘न्यास’ का अर्थ है- धरोहर । अतः उपन्यास का व्युत्पत्ति लभ्य अर्थ होगा- ‘एक ऐसी रचना जिसमें वर्णित मूल कथ्य एवं कथानक को लेखक समाज से उसी धरोहर के रूप में अपने पास रखता है। वह अपनी रागात्मक अनुभूति द्वारा उसे सजा-संवार कर समाज को वापिस लौटा देता है।” संस्कृत साहित्य में भी ‘उपन्यास’ शब्द का उल्लेख मिलता है। आचार्य भरत ने इसे संधियों के अंतर्गत आने वाली प्रतिमुख नामक सन्धि का एक उपभेद माना है। ‘ उपन्यास- प्रसादनम्’ कहकर आचार्य भरत ने इसके आनन्दित करने के गुण पर बल दिया है। बाद में दशरूपककार आचार्य धनंजय, काव्यादर्श के रचयिता आचार्य मम्मट तथा आचार्य विश्वनाथ ने उपन्यास को कथा साहित्य के रूप में मान्यता प्रदान की। इस दृष्टि से बाणभट्ट की ‘कादम्बरी’ संस्कृत का महान् उपन्यास माना जा सकता है। लेकिन जिस रूप में आज उपन्यास लिखे जा रहे हैं वह पूर्णतया पश्चिमी साहित्य की देन है।
परिभाषाएँ—
(i) फ्रांसिस बेकन के अनुसार, “उपन्यास कल्पित इतिहास है। “
(ii) जयशंकर प्रसाद के अनुसार, “मुझे कविता और नाटक की अपेक्षा उपन्यास में यथार्थ का अंकन करना सरल प्रतीत होता है । “
(iii) जैनेन्द्र कुमार के अनुसार, “ पीड़ा में ही परमात्मा बसता है। मेरे उपन्यास आत्म- -पीड़ा के साधन हैं। इसलिए मैंने उनमें कामवृत्ति की प्रधानता रखी है। क्योंकि काम-भावनाओं में ही आत्म-पीड़न का तीव्र समरूप है । “
(iv) प्रेमचन्द के अनुसार, “मैं उपन्यास को मानव का चित्र मानता हूँ। मानव चित्र पर प्रकाश डालना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है।”
(v) डॉ. श्याम सुन्दर के अनुसार, “उपन्यास मनुष्य के वास्तविक . जीवन की कल्पित कथा है । “
(vi) फिल्डिंग के अनुसार, “उपन्यास एक मनोरंजक गद्य-महाकाव्य है । “
(vii) बेकन के अनुसार, “उपन्यास वह रचना है, जिसमें किसी कल्पित गद्य-कथा के द्वारा मानव जीवन की व्याख्या की जाती है। “
(viii) कलोस के अनुसार, “उपन्यास समकालिक युग के यथार्थ जीवन, उसकी रीति-नीतियों का चित्र है । “
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि उपन्यास मानव जीवन की कौशलपूर्ण अभिव्यक्ति है। इसमें उपन्यासकार जीवन की व्यावहारिक नीतियों का यथार्थ चित्रण करता है। उपन्यास मनोरंजन के साथ-साथ पाठकों को जीवन से कटु सत्यों से भी अवगत कराता है ।
उपन्यासों के प्रकार—उपन्यास प्रमुख रूप से चार प्रकार के होते है—
(1) घटना प्रधान उपन्यास—जिस कथा में जिज्ञासा बनी रहती है– फिर क्या हुआ ? आगे क्या हुआ ? और अन्त में क्या होगा ? आश्चर्य के इस विश्वजनित तत्त्व पर खड़े किए गए उपन्यासों को हम घटना प्रधान उपन्यास कहते हैं ।
(2) अन्तरंग जीवन के उपन्यास—प्रादेशिक सीमाओं को संकुचित कर काल या समय की गति को ही प्रधानता देते हुए पात्रों के सुख-दुःख के अतिरंजित एक स्मृति मात्र बना देने वाले उपन्यास इस कोटि में आते हैं ।
(3) देशकाल सापेक्ष और निरपेक्ष उपन्यास—ऐसे उपन्यासों में देशकाल दोनों ही ध्यानस्थ रखे जाते हैं अथवा दोनों ही समान रूप से विस्मृत कर दिए जाते हैं ।
(4) सामाजिक उपन्यास—समाज की परम्परानुयायी घटनाओं को लक्ष्य में रखकर लिखे गए उपन्यासों को सामाजिक चरित्र प्रधान अथवा व्यवहार विषयक उपन्यास कहते हैं। ऐसे उपन्यासों में समाज के नर-नारियों के क्रियाकलाप और पारस्परिक व्यवहारों को वर्णित किया जाता है।
उपन्यास के तत्त्व—विद्वानों ने उपन्यास के निम्नलिखित छः तत्त्व स्वीकार किए हैं—
(1) कथानक (उद्देश्य )—कथानक उपन्यास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । घटनाओं के समूह को ही कथानक कहते हैं । यह उपन्यास का आधार स्तम्भ कहा गया है, जिस पर उपन्यास का सारा ढाँचा खड़ा रहता है । यथासम्भव कथानक सम्भाव्य, सत्य, मौलिक, रोचक तथा सुगठित होना चाहिए। कथानक के दो रूप हैं–मुख्य तथा गौण। उपन्यास की मुख्य कथा आदि से अंत तक चलती है। लेकिन गौण कथाएँ बीच में आरम्भ होकर बीच में ही समाप्त हो जाती हैं।
(2) देशकाल ( वातावरण )—देशकाल के अन्तर्गत उपन्यासकार तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक तथा धार्मिक परिस्थितियों का वर्णन करता है। उपन्यास के कथानक को वास्तविक रूप प्रदान करने में देशकाल का विशेष महत्त्व रहता है। समय और स्थान को सामने रखकर ही उपन्यास का निर्माण करना चाहिए, तभी उपन्यास पाठकों पर वांछित प्रभाव डाल सकता है। उपन्यासकार जिस प्रकार का वातावरण बनाता है, उसी के अनुसार घटनाओं तथा पात्रों की योजना करनी चाहिए ।
(3) संवाद ( कथोपकथन)—संवाद अथवा कथोपकथन उपन्यास का तीसरा महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । संवाद का अर्थ है— पात्रों के मध्य होने वाला वार्तालाप । संवाद उपन्यास में दो कार्य करते हैं – एक तो कथानक को आगे बढ़ाते हैं, दूसरा पात्रों के चरित्र का उद्घाटन भी करते हैं । उपन्यास के संवाद स्वाभाविक, रोचक, सरल, पात्रानुकूल तथा प्रसंगानुकूल होने चाहिए, तभी उनकी सार्थकता सिद्ध हो सकती है।
(4) पात्र और चरित्र चित्रण—यदि उपन्यास जीवन की व्याख्या है तो पात्रों का चरित्र चित्रण भी जीवन के अनुसार ही होना चाहिए। अन्य शब्दों में पात्र, हाड़-माँस के सजीव और गतिशील होने चाहिए। कथानक की दृष्टि से पात्र दो प्रकार के हो सकते हैं— मुख्य पात्र और गौण पात्र । जो पात्र आधिकारिक कथा से सम्बन्धित होते हैं वे मुख्य पात्र कहलाते हैं, लेकिन जो पात्र प्रासंगिक कथा से सम्बन्धित होते हैं, वे गौण पात्र कहलाते हैं।
(5) भाषा-शैली—यह उपन्यास का अंतिम तत्त्व माना गया है। भाषा में अभिव्यक्ति होकर ही साहित्यकार के भाव कहानी अथवा नाटक का रूप धारण करते हैं। कुछ विद्वानों ने तो भाषा-शैली को उपन्यास रूपी पुरुष का शरीर कहा है। भाषा-शैली उपन्यास की अपनी होती है। इसी कारण हमें उपन्यासों की भाषा में भिन्नता देखने को मिलती है। लेकिन यह भी आवश्यक है कि उपन्यास की भाषा सरल, सहज और बोधगम्य हो और उसमें मुहावरों और लोकोक्तियों का भी प्रयोग हो ।
(6) उद्देश्य—प्रत्येक साहित्यकार कोई-न-कोई उद्देश्य लेकर ही साहित्य की रचना करता है। वह अपनी रचनाओं द्वारा पाठकों को कोई-न-कोई संदेश देना चाहता है। यह कहना असंगत है कि उपन्यास का उद्देश्य केवल मनोरंजन है। उपन्यासकार भी एक सामाजिक प्राणी है तथा वह समाज की गतिविधियों से भली प्रकार परिचित होता है। जो समस्या उसके मन को उद्वेलित करती है, उसी को सामने रखकर वह उपन्यास की रचना करता है। अतः उपन्यास की सोद्देश्यता के बारे में किसी प्रकार का संदेह नहीं होना चाहिए।
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