हरिवंश राय बच्चन

हरिवंश राय बच्चन

1.
लाल सुरा की धार लपट-सी कह न इसे देना ज्वाला,
 फेनिल मदिरा है मत इसको कह देना उर का छाला, 
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं ? 
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला ।।
हिंदी साहित्य में जो चंद रचनाएं अत्यंत लोकप्रिय हुई हैं उनमें ‘मधुशाला’ भी एक है। प्रस्तुत व्याख्येय पंक्ति हरिवंश राय बच्चन की प्रसिद्ध रचना ‘रंगशाला’ से ली गई है। मधुशाला में कवि ने हाला, लाला, मधु, मदिरा आदि प्रतीकों के माध्यम से जीवन- दर्शन को व्याख्यायित किया है।
कवि कहते हैं कि मद्य की जो लपट है वह ज्वाला या दाहक नहीं है, न ही फेनिल मदिरा उसके हृदय का छाला है। इसके विपरीत मदिरा का जो नशा है, वह उसके जीवन की विगत यादें है। जिसको अपनी पीड़ा में आनंद चाहिए, जिसने अपने दर्द पर विजय प्राप्त कर ली हो, वह उसकी मधुशाला में पहुँचे। उसका इस मधुशाला में स्वागत है।
उक्त पंक्तियों में कवि का आशय यह है कि जीवन में सुख और दुख दोनों का स्वीकार होना चाहिए। जो सुख में अति आनंदित और दुख में अति दुखी हो जाता है, वह जीवन का असली रस नहीं उठा सकता है।
2.
मुसलमान औ हिंदू हैं दो, एक मगर उनका प्याला, 
एक, मगर उनका मदिरालय, एक, मगर उनकी हाला 
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद-मंदिर में जाते,
लड़वाते हैं मस्जिद मंदिर, मेल कराती मधुशाला। 
सन् 1935 में हरिवंश राय बच्चन रचित ‘मधुशाला’ में कवि ने मधुशाला को एक नये रूप में व्याख्यायित किया है। प्रस्तुत पंक्तियाँ इसी रचना से उद्धृत है। इसमें उन्होंने धार्मिक रूढ़ियों पर करारा चोट किया है।
इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि भारतीय समाज की बनावट ऐसी हो गयी है कि हिंदू और मुसलमान दो फांक में बंट गए हैं। उनमें दूरियाँ काफी बढ़ गयी हैं किंतु मदिरालय में वे दोनों एक हो जाते हैं। उनका प्याला, हाला एक होता है। जब तक मंदिर और मस्जिद सामने रहता है, वे अलग-अलग सम्प्रदाय में बंटे रहते हैं। सच तो यह है कि ये धार्मिक स्थान सम्प्रदायों के बीच वैमनस्य का बीज बोते हैं, लड़ाई और फसाद करवाते हैं किंतु मधुशाला में कभी साम्प्रदायिक झगड़े नहीं होते। अर्थात् मधुशाला जहाँ दोनों को एक दूसरे से मिलाते है।, वही धार्मिक स्थल दोनों को एक दूसरे से लड़वाते हैं।
3.
मर वर्ण-वर्ण विशृंखल, चरण-चरण भरमाए,
गूंज-गूंज कर मिटनेवाले मैने गीत बनाए, 
कूक हो गयी हूक गगन की कोकिल के कंठों पर 
तुम गा हो, मेरा गान अमर हो जाये।
सन् 1945 ई0 में कवि हरिवंश राय बच्चन जी का काव्य संग्रह ‘सतरंगिनी’ प्रकाशित हुआ। आलोच्य पंक्तियाँ इसी संग्रह से है। इन पंक्तियों में कवि एक प्रेमी के रूप में अपने भाव व्यक्त करता है। कवि की अथाह वेदना इस कविता में शिथिल पड़ता मालूम होता हैं
कवि के अनुसार यद्यपि उसके गीत के शब्द पूर्व की वेदना और व्यथ के कारण टूट-से गए हैं, गीत के अंतरा भ्रमित हो गए हैं और उनके बनाए ये गीत गूंज-गूंज कर मिटने वाले हैं। उनकी वेदना और व्यथा ही इस गीत के रूप में मुखरित हुई हैं। कोयल की कूक जैसी सुनायी देनेवाली स्वरलहरी उसकी अन्तर्व्यथा अर्थात् उसके हृदय की हूक है जो गगन की कोकिल कंठों पर आ रही है। यदि उसके इस गीत को उसकी प्रिय गा दे तो उसका गान निश्चिय ही अमर हो जाएगा।
4.
जहाँ सोचा था वन के बीच मिलेंगे खिलते कोमल फूल, 
वहाँ क्या देख रहा हूँ कि छाये तीखे शूल-कबूल,
अभी अंकुरित करूँगा सृष्टि,
अभी तो अंगारों की वृष्टि।
कवि हरिवंश राय बच्चन ने भाववादी-रसवादी कविता के अतिरिक्त क्रांति और विप्लव की कविताएं भी लिखी हैं। उनकी कविता ‘विप्लव गान’ ऐसी ही कविता है। इन पंक्तियों में कवि की ओजपूर्ण वाणी राष्ट्रीय भावना को रेखांकित करती है।
कवि कहता है कि उसने सोचा था कि वन के बीच सुंदर नाजुक फूल खिले मिलेंगे पर उसे वहीं पैने शूल भरे बबूल मिले। ऐसे में कवि के कंठ से विप्लव-गान के रूम में भिन्न स्वर फूटता है। प्रेम के आह्वान और नीड़ के निर्माण के बाद कवि को देश-दशा पर ध्यान जाता है। उसका देशभक्त हृदय अपनी सृष्टि अंकुरित करना छोड़कर देश की वर्तमान दयनीय दशा से निकालने की ओर प्रेरित होता है। देश की वर्तमान दशा अंगारों की वृष्टि के रूप में दृष्टिगोचर होता है, जिससे वह देश को मुक्त कराना चाहता है।
5.
भूख धरा पर जब चलती है, 
वह डगमग-डगमग हिलती है।
 वह अन्याय चबा जाती है, 
अन्यायी को खा जाती है,
और निगल जाती है पल में
आततायियों का दुःशासन
कवि हरिवंश राय बच्चन की कई कविताएं वैचारिक रूप से भी अत्यंत सशक्त हैं। इस तरह की उनकी कई कविताएं सामाजिक सरोकारों से टकराती हैं। प्रस्तुत काव्यांश ‘बंगाल का काल’ नामक एक ऐसी सरोकार सम्पन्न कविता से गृहीत है। कवि कहते हैं कि जब इस धरती पर मनुष्य भूखा होता है तो धरती का हृदय फटने लगता है। ऐसे भूखों के कदमों की आहट से धरती डगमगाने लगती है। ऐसी विषम परिस्थिति में धरती उग्रतम रूप धारण कर लेती है। वह अन्याय चबाने लगती है, अन्यायियों को अपना आहार बनाने लगती है और क्षण भर में दुःशासन रूपी आततायियों को निगल जाती है। उसका सफाया कर देती है।
6.
स्वप्न भी छल, जागरण भी ! 
भूत केवल कल्पना है । 
औ, भविष्यत् कल्पना है,
वर्तमान लकीर भ्रम की !
और है चौथी शरण भी ! 
प्रस्तुत पद्यांश हरिवंश राय बच्चन रचित ‘छल’ नामक शीर्षक कविता से ली गयी है। इसमें कवि ने काल यानी समय के संदर्भ में जीवन की नूतन व्याख्या प्रस्तुत की है।
कवि इन पंक्तियों के माध्यम से यह कहना चाहते हैं कि स्पप्न और जागरण दोनों मनुष्य को छलते हैं, भ्रमित करते हैं। भूत केवल प्रलाप और विलाप के लिए होता है, वह कल्पना-मात्र है, भविष्य तो निरा कल्पना है ही। वर्तमान भी भ्रम है। वह भ्रम की लकीर मात्र है। ऐसे में मनुष्य को अन्ततः छल की शरण में जाने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं सूझता। जहाँ स्वप्न और जागरण के द्वारा छला जाना ही उसकी नियति बन जाती है।

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