राजस्थान में 1857 की क्रान्ति
राजस्थान में 1857 की क्रान्ति
राजपूताना रेजीडेन्सी
राजपूताना रेजीडेन्सी की स्थापना 1832 में हुई इसका मुख्यालय अजमेर में बनाया गया। इसका मुख्य अधिकारी ए. जी. जी (एजेन्ट टू गर्वनर जनरल) होता था। प्रथम एजीजी लॉकेट था। राजपूताना रेजीडेन्सी का 1845 में ग्रीष्मकालीन कार्यालय आबू में स्थानान्तरित कर दिया। 1857 की क्रान्ति के समय ए. जी. जी. जॉर्ज पैट्रिक लॉरेन्स था ।
क्रांति के समय गवर्नर जनरल कैनिंग था । कम्पनी का मुख्य सेनापति केपवेल था । क्रांति की तारीख 31 मई को रखी गई थी। लेकिन क्रांति 10 मई को मेरठ से प्रारम्भ हो गई । क्रांति का मुख्य नेता बहादुर शाह जफर-II था।
क्रान्ति के समय राजस्थान में 6 छावनियाँ थी-
1. नसीराबाद (अजमेर):- यहाँ 15वीं बंगाल पैदल सेना नियुक्त थी । नसीराबाद सबसे शक्तिशाली छावनी थी ।
2. ब्यावर (अजमेर):- यहाँ मेर रेजीमेन्ट नियुक्त थी ।
3. देवली (टोंक):- कोटा कंटीनेंट के सैनिक थे ।
4. एरियनपुरा (पाली):- जोधपुर लीजन के पुर्बिया सैनिक थे।
5. खेरवाड़ा (उदयपुर):- यहाँ मेवाड़ भील कोर के सैनिक थे।
6. नीमच (m.p.) यहाँ भारतीय ब्रिगेड के सैनिक थे।
नीमच एकमात्र राजस्थान से बाहर सैनिक छावनी थी इसके नियन्त्रण का कार्य मेवाड़ के पॉलिटिकल एजेन्ट के अधीन था।
सभी छावनियो में लगभग 5 हजार सैनिक थे । ब्यावर व खेरवाड़ा छावनी में प्रत्यक्ष रूप से कोई विद्रोह नही हुआ था।
10 मई 1857 की मेरठ में हुई क्रान्ति की सूचना AGG को आबू में 19 मई 1857 को मिली । AGG लॉरेन्स ने घोषणा की कि रियासती शासक 1818 की सहायक सन्धियों के तहत हमारे प्रति वफादार रहे । लॉरेन्स के सामने सबसे बड़ी समस्या अजमेर की सुरक्षा की थी क्योंकि अजमेर में अंग्रेजों का गोला बारूद व धन था ।
नसीराबाद की क्रान्ति ( 28 मई 1857 ) राजस्थान में सर्वप्रथम क्रान्ति नसीराबाद में हुई
अजमेर में अंग्रेजों का कार्यालाय, खजाना व आयुध भण्डार था। इसका मुख्य केन्द्र मेंग्जीन का दुर्ग था । यहाँ पर 15वीं बंगाल पैदल सेना व 30वीं बंगाल पैदल सेना नियुक्त थी। 15वीं पैदल सेना कुछ दिन पूर्व मेरठ से आयी थी लॉरेन्स को भय था कि ये अपने साथ क्रान्ति का बीज लेकर तो नही आ गए है। इसलिए 15वीं बंगाल सेना को अजमेर से नसीराबाद स्थानान्तरित कर दिया ।
अजमेर में ब्यावर से दो मेर रेजीमेन्ट बुलाई क्योंकि मेर रेजीमेन्ट विश्वसनीय थी क्योंकि इन पर गाय व सूअर की चर्बी की अफवाह का कोई प्रभाव नहीं था । बम्बई से बॉम्बे लॉचर्स के सैनिक नियुक्त किए तथा दुर्ग के चारों ओर तोपें तैनात कर दी। साथ ही यूरोपीयन रेजीमेन्ट की भी मांग की गई। जोधपुर से मेकमोसन ने कुशल राज सिंघवी के नेतृत्व में जोधपुर से अश्वारोही सेना अजमेर भेजी।
नसीराबाद में मेरठ तथा दिल्ली क्षेत्रों से आए क्रान्तिकारी साधुओं के भेष में घूमकर प्रचार कर रहे थे कि सैनिकों को दिए जाने वाले खाने में हड्डियों का चूरा मिला है। 27 मई 1857 को अंग्रेज रिचर्ड / पिचयार्ड से सैनिक बख्तावर सिंह ने पूछा कि क्रान्तिकारियों के विरूद्ध क्या यूरोपियन रेजीमेन्ट बुलाई जा रही है। सन्तोषप्रद जवाब नहीं मिलने पर 28 मई 1857 को 15वीं बंगाल पैदल सेना के सैनिक बागी हो गए, छावनी को लूट लिया, न्यूबरी व स्पोटिश नामक अंग्रेज अधिकारी को मार दिया। नसीराबाद में विद्रोह 2:30 बजे प्रारम्भ हुआ ये सैनिक अजमेर नही जाकर सीधे दिल्ली गए।
नीमच की क्रान्तिः- 3 जून 1857 रात्रि 11 बजे
अन्य सैनिक क्रान्तियों को देखते हुए नीमच में अंग्रेज अधिकारी एबोट ने सैनिकों की परेड लेकर वफादार रहने की शपथ दिलाई किन्तु इसी समय मोहम्मद अली बेग ने कहा कि हम आपके प्रति वफादार क्यो रहे, क्या आप हमारे प्रति वफादार रहे है? अली का इशारा अवध की तरफ था । वह अवध का ही एक सैनिक था। इस रियासत को अंग्रेंजों ने 1856 में प्रशासनिक अव्यवस्था की आड़ में हडप लिया था । मो. अली वेग ने एबोट को गोली मरा दी। नीमच के सैनिक 3 जून 1857 को बागी हो गए। 1857 की क्रान्ति में सर्वाधिक सैनिक अवध के थे। मोहम्मद अली व हीरालाल के नेतृत्व में विद्रोह हुआ ।
छावनी को लूटा, अंग्रेज परिवारों की हत्याएं की, कुछ बचकर भाग गए जिन्हे डुंगला गांव (चितौड़गढ़) के किसान रूघाराम ने शरण दी। इसके बाद राणा स्वरूपसिंह ने जगमंदिर में इनको ठहराया । सैनिक निम्बाहेड़ा, हम्मीरगढ़, बनेड़ा, फिर देवली छावनी को लूटा, देवली में महीदपुर की सैनिक टुकड़ी थी जो इनके साथ मिल गई इसके बाद सैनिक आगरा फिर दिल्ली पहुँचे।
नीमच की क्रान्ति का दमन करने के लिए मेवाड़ P.A. सावर्स का साथ देने के लिए कोटा का P.A बर्टन भी आया था। सावर्स ने 6 जून 1857 को दुबारा छावनी पर अधिकार कर लिया ।
नीमच सैनिकों में अफवाह फैली कि धर्म भ्रष्ट करने के लिए आटे मे हड्डियों का चुरा मिला है, मेवाड़ के सेनापति अर्जुन सिंह ने इस आटे की रोटी खाकर सैनिकों को संतुष्ट किया ।
नोट – क्रांति में सर्वाधिक सैनिक अवध से थे।
एरियनपुरा की क्रान्ति (21 अगस्त 1857 ) –
यहाँ जोधपुर लीजन के पुर्बिया सैनिक थे यहा के 90 सैनिक ट्रेनिंग के लिए आबू गये हुए थे, वहाँ लॉरेन्स के पुत्र अलेक्जेन्डर की हत्या कर दी जब ये सैनिक एरियनपुरा आए तब इनका जबरदस्त स्वागत हुआ। सीतलप्रसाद, मोती खाँ, तिलकराम आदि के नेतृत्व में आन्दोलन हुआ। शिवनाथ के नेतृत्व में चलो दिल्ली, मारो फिरंगी” का नारा दिया। पाली में अंग्रेजों ने पहले से सेना नियुक्त कर दी थी तब पुर्विया सैनिक “चलो दिल्ली मारो फिरंगी” का नारा देते हुए आहुवा आ गए। यहाँ के ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत ने इन्हें सहयोग दिया।
ठाकुर कुशाल सिंह व 1857 की क्रांति:-
कुशाल सिंह के सहयोगी
1. आसोपा का शिवनाथ
2. गूलर का बिसन सिंह
3. आलनियावास का अजीतसिंह
4. लौम्बिया के पृथ्वीसिंह
ठाकुर कुशाल सिंह व अंग्रेजों के मध्य दो युद्ध हुई –
1. बिठोड़ा युद्ध (8 सितम्बर 1857 ) –
AGG लॉरेन्स ने जोधपुर शासक तख्तसिंह पर आऊवा सामन्त को दबाने के निर्देश दिए, तख्त सिंह ने किलेदार अनाड सिंह के नेतृत्व में सेना आहुवा भेजी । बिठोड़ा युद्ध में अनारसिंह मारा गया। कुशाल सिंह की विजय हुई।
2. चेलावास युद्ध/काला गौरा युद्ध :- (18 सितम्बर 1857 ) –
AGG लॉरेन्स स्वयं अजमेर से आया, P.A. मेक मोसन की संयुक्त सेना का क्रान्तिकारियों के साथ चेलावास युद्ध हुआ। मेकमोसन को मारकर उसके सिर को काटकर आहुवा के किले पर लटका दिया। जब बड़ा अंग्रेज अधिकारी मारा गया तब गवर्नर जनरल केनिंग ने ब्रिग्रेडियर होम्स व डीसा के नेतृत्व में पालनपुर से बड़ी सेना भेजी, कुशाल सिंह के पास 700 सैनिक थे, क्रांतिकारियों ने सैनिकों को नारनौल (हरि) के रास्ते से दिल्ली भेज दिया ।। 20 जनवरी 1858 को आहुवा को घेर लिया 23 जनवरी को कुशाल सिंह ने किले का कार्यभार पृथ्वीसिंह को सौंपकर स्वयं कोठारिया के जोधसिंह के यहां रुके। इसके बाद सलूम्बर के रावत केसरी सिंह के यहां शरण ली। हॉम्स व डीसा आहुवा को बुरी तरह से लुटा, यहां से कुशालसिंह की कुल देवी सुगाली माता की मूर्ति ले गये। सुगाली माता को 1857 के क्रांति की कुल देवी कहते है। सुगाली माता के 10 सिर व 54 हाथ है। 8 अगस्त 1860 में नीमच में कुशाल सिंह ने आत्मसमर्पण कर दिया । इसकी जांच के लिए मेजर टेलर आयोग का गठन किया गया जिसमें कुशाल सिंह निर्दोश साबित हुए। 10 नवम्बर 1860 कुशाल सिंह को रिहा कर दिया। 25 जूलाई 1864 में कुशाल सिंह की उदयपुर में मृत्यु हो गयी। कुशाल सिंह के पुत्र देवी सिंह ने दुबारा आहुवा पर अधिकार कर लिया था। मेलेसन ने कहा था कुशाल सिंह तख्तसिंह विरोधी था, अंग्रेज विरोधी नहीं।
कोटा की क्रान्तिः- ( 15 अक्टूबर 1857)
कोटा में छावनी नहीं थी यहां जनता ने विद्रोह किया था यहां जन विद्रोह का नेतृत्व जयदयाल व मेहराब खां ने किया था। जयदयाल कामा (भरतपुर) व मेहराब खां करौली का था । अन्य विद्रोही नेता मोहम्मद खां, अम्बर खां, गुल मोहम्मद थे। शासक रामसिंह को कैद कर लिया, 127 तोपो पर अधिकार कर लिया। 6 माह तक जनता का शासन रहा, बर्टन व उसके डॉ. काटम की हत्या कर दी, बर्टन का सिर काटकर पूरे शहर में घुमाया। रॉबर्ट्स बड़ी सेना लेकर आया, महराब को करौली से, जयदयाल को बैराठ से गिरफ्तार किया गया इन्हें कोटा में फांसी दे दी। कोटा विद्रोह दबाने में करौली के मदनपाल ने अंग्रेजों की सहायता की। रामसिंह पर बर्टन को मारने का आरोप लगाकर केस चलाया गया जिसमें बिना सबूतो के वह बरी हो गया तथा 17 तोपों की सलामी के स्थान पर उसके तोपों की संख्या – 13 कर दी व मदनपाल की तोपों की सलामी 13 के स्थान पर बढ़ाकर 17 कर दी ।
जयपुर:- यहाँ विलायत खां, सादुल खां व उस्मान खां ने अंग्रेज विरोधी कार्य किए । किन्तु शासक रामसिंह ने अंग्रेजों की तन-मन- धन से सहायता की, अंग्रेजों ने इन्हें सितार – ए – हिन्द की उपाधि व कोटपूतली की जागीर दी।
नोट– सितार-ए-हिन्द उपाधि वीर विनोद के लेखक श्यामलदास की भी है, केसर-ए-हिन्द उपाधि गांधीजी की है।
धौलपुर:- 27 अक्टूबर
यहाँ नेतृत्व का कार्य रामचन्द्र व हीरालाल व गुर्जर देव ने किया था। यहाँ पर ग्वालियर व इन्दौर के 5000 क्रान्तिकारी भी पहुँच गए थे। धौलपुर का शासक भगवन्तसिंह था । पटियाला की सेना ने धौलपुर आकर विद्रोह दबाया।
अलवर में फैजूला खां ने नेतृत्व किया था, अलवर का शासक बन्नेसिंह था ।
भरतपुर – 31 मई
यहां का शासक जसवन्त सिंह था, यहां गुर्जर व मेवाती जनता ने विद्रोह किया।
बीकानेर:- यहां का शासक सरदार सिंह था जो अंग्रेजों की सहायता के लिए 5000 सेना लेकर राज्य से बाहर हांसी हिसार तक गया था। अंग्रेजों ने सरदार सिंह को टिब्बी तहसील के 41 परगने उपहार में दिए ।
तांत्या टोपे व राजस्थान
तांत्या का मूल नाम रामचन्द्र पांडुरंग था इसका जन्म येवला अहमदनगर (महाराष्ट्र) में हुआ। तांत्या नाना साहब का सेनापति था। तांत्या 8 अगस्त 1857 माण्डलगढ़ (भीलवाड़ा) पहुंचा, तांत्या के पास रशद की कमी थी यहां एक-एक रोटी के बदले एक-एक रुपया देना पड़ा था सैनिकों के सिर पर पगड़ियां न होने के कारण महिलाओं के वस्त्र बांधे अंग्रेज रॉबर्ट्स पीछा कर रहा था ।
कुआड़ा का युद्ध:- भीलवाड़ा कोठारी नदी के किनारें तांत्या व रॉबर्ट्स के मध्य हुआ। तांत्या हारकर बून्दी गया यहां के शासक रामसिंह ने दरवाजे बन्द कर लिए। इसके बाद नाथद्वारा चला गया श्रीनाथ जी के दर्शन किये इसके बाद अकोला, चित्तौड, सिंगोली होते हुए झालावाड़ पहुंचा झालावाड़ के पृथ्वी सिंह को हराकर इस पर अधिकार कर लिया ब्रिगेडियर पार्क तांत्या का पीछा कर रहा था। इसके बाद तांत्या छोटा उदयपुर चला गया ।
दूसरी बार तांत्या ने राजस्थान में 11 सितम्बर को बांसवाड़ा से प्रवेश किया। बांसवाड़ा शासक लक्ष्मण सिंह को पराजित कर इस पर अधिकार कर लिया। यहां से तांत्या को मेजर रॉक व लिन माउंथ ने भगा दिया। इसके बाद सलूम्बर भींडर फिर टोंक पहुंचा, टोंक के नासीर मोहम्मद ने तांत्या का सहयोग किया। 21 जनवरी को तांत्या सीकर पहुंचा, मण्डावा के आनन्दसिंह ने तांत्या का सहयोग किया। नरवर के सामन्त मानसिंह ने धोखे से तांत्या को पकड़वा दिया। 18 अप्रैल 1859 को तांत्या की नरवर में (शिप्रा नदी) फांसी के साथ ही राजस्थान की क्रान्ति को विराम लग गया। राजस्थान में 1857 की क्रांति की शुरुआत नसीराबाद से व अन्त सीकर से हुआ। तांत्या राजस्थान में जैसलमेर को छोड़कर प्रत्येक रियासत में घुमा था ।
कैप्टन सार्वस ने तांत्या की फांसी के विरोध में कहा था “तांत्या पर देशद्रोह का आरोप लगाना कहा तक सही है इतिहास में तांत्या को फांसी देना अपराध समझा जाएगा, आने वाली पीढ़ी पूछेगी कि इस सजा के लिए किसने स्वीकृति दी व किसने पुष्टि की।”
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य –
क्रांति के दौरान विद्रोहियों ने राजपूताना की छः रियासतों पर अधिकार कर लिया था –
1. धौलपुर
2. भरतपुर
3. टोंक
4. कोटा
5. झालावाड़
6. बाँसवाडा
बीकानेर का शासक सरदारसिंह राजपूताना का एकमात्र ऐसा शासक था, जो क्रांति के दौरान व्यक्तिगत रूप से अपनी सेना लेकर राजपूताना के बाहर पंजाब तक विद्रोह के दमन के लिए गया ।
अलवर के महाराजा विनयसिंह ने आगरा के किले में हुए अंग्रेजो की सहायता के लिए सेना व तोपखाना भेजा घिरे था।
अंग्रेजों का साथ देने के कारण जयपुर के रामसिंह द्वितीय को ‘सितार – ए – हिन्द’ की उपाधि और कोटपुतली का परगना | प्रदान किया गया था
अमरचन्द बाठिया (बीकानेर) को राजस्थान का 1857 की क्रांति का प्रथम शहीद माना जाता है इन्हें 22 जून 1858 को ग्वालियर में फांसी दी थी हेमु कालानी (सरदारशहर चुरू) को 1857 का राजस्थान का सबसे कम उम्र का शहीद माना जाता है। इन्हें टोंक में फॉसी हो गई थी। नसिराबाद छावनी के एक सैनिक अधिकारी कैप्टन प्रिचार्ड ने अपनी पुस्तक ‘प्यूटिनीज इन राजपूताना’ में इसे सैनिक विद्रोह माना हैं।