राजस्थान कांस्य युगीन सभ्यता / सिंधु घाटी सभ्यता / नगरीय सभ्यता

राजस्थान कांस्य युगीन सभ्यता / सिंधु घाटी सभ्यता / नगरीय सभ्यता

हड़प्पा सभ्यता- सिन्धु सभ्यता का नाम जॉन मार्शल ने दिया था। 1826 में सर्वप्रथम चार्ल्स मेनन ने सर्वप्रथम हड़प्पा में एक टीला खोजा और लोगों का इस ओर ध्यान आकर्षित किया। सर्वप्रथम हड़प्पा स्थान खोजने के कारण हड़प्पा को सिन्धु घाटी का प्रवेश द्वारा या तोरण द्वार कहा जाता है। सर्वप्रथम हड़प्पा स्थान खोजे जाने के कारण इसे हडप्पा सभ्यता भी कहते हैं, सिन्धु सभ्यता त्रिभुजाकार रूप में 13 लाख वर्ग किलोमीटर में फैली है । रेडियों कार्बन प्रद्धति से डी.पी. अग्रवाल ने इसका समय 2350 से 1750 ई. पूर्व में बताया है। यह सभ्यता मध्य व उतरी पश्चिमी भारत के साथ-साथ अफगानिस्तान व पाकिस्तान तक फैली है। हड़प्पा नगर प्रथम स्थल था जिसका उत्खनन 1920-21 तक माधव स्वरूप वत्स व दायाराम साहनी ने किया। ये नगर रावी नदी के बायें तट पर पंजाब (पाकिस्तान) में स्थित है। यहां से नटराज की नृत्य मुद्रा में मूर्ति मिली है। इसका दूसरा महत्वपूर्ण स्थल मोहनजोदड़ों था जिसका उत्खनन 1922 में राखलदास बनर्जी ने किया था ।
लोथल स्थल जो भोगवा नदी के किनारे गुजरात में स्थित था, यह प्रमुख व्यापारिक नगर था, यहां से गोदीवाड़ा (बन्दरगाह). के अवशेष मिले है। धोलाविरा (गुजरात) से स्टेडियम के अवशेष मिले हैं। बनवाली व राखीगडी, हरियाणा में स्थित है। राखीगडी भारत में स्थित सिंधु सभ्यता का सबसे बड़ा स्थल है। इस सभ्यता की सबसे बड़ी इमारत “अन्नागार” होती थी। भारत में सिन्धु घाटी का खोजा गया प्रथम स्थान रोपड़ (पंजाब) था । इसे वर्तमान में रूपनगर कहते हैं। इसे 1950 में बी.वी. लाल ने खोजा था व उत्खन्न 1953-54 में यक्ष दत्त शर्मा ने किया। रोपड़ में मनुष्य के साथ कुत्ते को भी दफनाया गया था । सिन्धु घाटी के नगर दो भागों में विभक्त मिले। नगर का पूर्वी भाग अदुर्गीकृत व पश्चिमी भाग दुर्गीकृत होता था। एक मात्र धौलावीरा (कच्छ, गुजरात) स्थान है जहाँ नगर तीन विभागों में विभक्त मिला । धौलावीरा से सुनामी के साक्ष्य भी मिले, धौलावीरा से साइनबोर्ड व खेल स्टेडियम भी मिला ।
चहुदड़ों (पाकिस्तान) से अधर राज प्रसाधन सामग्री, मनके निर्माण के कारखाने मिले हैं। इस सभ्यता का समाज मातृसत्तामक था। सिन्धु सभ्यता कांस्य युगीन थी, ये सभ्यता एक नगरीय सभ्यता थी । यह प्रथम नगरीय क्रान्ति का साक्ष्य है इसमें 16 की इकाई का महत्व था । इसके अंक 16 के गुणज में थे।
राजस्थान कांस्य युगीन सभ्यता / सिंधु घाटी सभ्यता / नगरीय सभ्यता

ताम्र पाषाणिक संस्कृति के राजस्थान में स्थान

ताम्र पाषाणिक का अर्थ है पत्थर व तांबे की उपयोग की व्यवस्था । मानव ने सर्वप्रथम 5 हजार ईसा पूर्व तांबे की खोज की थी। इस संस्कृति के लोग पत्थर के साथ-साथ तांबे की वस्तुओं का उपयोग करते थे। कई बार कांसे का उपयोग भी करते थे। यह सभ्यता ग्रामीण पशुचारी व कृषक समुदाय से संबंधित थी। यह लोग पहाड़ियों व नदियों के आस पास रहते थे। इस संस्कृति के लोग गैरिक मृदभाण्ड प्रयोग में लेते थे। इसके अलावा काले व लाल (कृष्ण-लोहित) मृदभाण्ड इस संस्कृति में सर्वाधिक प्रचलित व सर्वाधिक प्राप्त हुए हैं। यह मृदभाण्ड चाक से बनाये जाते थे। सर्वाधिक तांबे के उपकरण (424 ताम्रवस्तु) मध्यप्रदेश के गुनेरिया स्थान से प्राप्त हुए ।
राजस्थान कांस्य युगीन सभ्यता / सिंधु घाटी सभ्यता / नगरीय सभ्यता

 विभिन्न ताम्रपाषाणिक स्थल

ताम्र व पाषाण युगीन सभ्यता अवशेष – 
1. आहड़  – उदयपुर
2. गिलुण्ड – राजसमंद
3. बालाथल – उदयपुर
4. ओडियाणा – भीलवाड़ा
5. गणेश्वर
6. कालीबंगा
1. कालीबंगा सभ्यता :- यह सिन्धुघाटी सभ्यता के समकालीन राजस्थान का महत्वपूर्ण स्थल है। सिन्धु घाटी में सर्वप्रथम 1921 में हड़प्पा को खोजा गया। 1922 में मोहनजोदड़ों को खोजा गया । ये दोनों स्थान वर्तमान में पाकिस्तान में चले गये । सिन्धु घाटी का तीसरा महत्वपूर्ण स्थल कालीबंगा है। दशरथ शर्मा ने कालीबंगा को सिन्धु घाटी की तीसरी राजधानी कहा है। इसकी खोज 1951–52 में अमलानन्द घोष ने की तथा इसका विस्तृत उत्खनन 1961 से 1969 तक ब्रजवासी लाल व बालकृष्ण थापर ने किया था। यह क्षेत्र घग्घर नदी के किनारे हनुमानगढ़ जिले में स्थित है। ( घग्घर नदी सरस्वती नदी का अवशेष है)
नोट:- घग्घर सरस्वती के अवशेष पर बहती है। ऋग्वेद में उल्लिखित 99 नदियों में से सरस्वती का सबसे महत्वपूर्ण नदी के रूप में उल्लेख हुआ है। सरस्वती को ऋग्वेद में नदीत्मा ( नदियों में श्रेष्ठ) कहा गया है। ऋग्वेद में राजस्थान की 3 नदियों का उल्लेख है।
1. सरस्वती ।
2. दृषद्वती ।
3. अपाय ।
बंगा शब्द पंजाबी भाषा का है जिसका अर्थ है बंगड़ी या चूड़ी कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ काली चूडियाँ है । कालीबंगा से हड़प्पा व प्राक् हड़प्पा युग के अवशेष मिले हैं। इस सभ्यता का समय 2350 से 1750 ई. पू. है, रेडियो कार्बन पद्धति द्वारा माना गया है ।
कालीबंगा की विशेषता – नगर नियोजन दो भागों में विभाजन
पश्चिमी भाग दुर्गीकृत पूर्वीभाग अदुर्गीकृत
समकोण पर काटती सड़कें । ग्रीन सिस्टम / शतरंज जैसी ।
पक्की व ढकी हुई नालियों की व्यवस्था ।
सिन्धु घाटी सभ्यता के नगर नियोजन पर आधारित राजस्थान का आधुनिक नगर- जयपुर है।
ऋग्वेद के सातवें मण्डल की रचना सरस्वती नदी (घग्घर ) की उपत्यका (किनारे) में हुई थी।
जुते हुए खेत के एकमात्र साक्ष्य यहीं से प्राप्त हुए हैं। अग्निकुण्ड के दृश्य, 7 अग्नेवैदिकाए मिली, युग्म समाधियां, बेलनाकार मुहरे, तांबे के बैल की आकृति, भूकम्प के साक्ष्य, ईंटों के मकान के साक्ष्य मिले हैं।
मुख्य फसलें गेहूँ व जौ थी । कपास को इस सभ्यता में सिण्डन कहा जाता था। कालीबंगा सिंधु सभ्यता का एकमात्र स्थल है। यहाँ से मातृदेवी की मूर्तियां प्राप्त नहीं हुई । सिंधु सभ्यता की तीसरी राजधानी (प्रथमः द्वितीय हडप्पा, मोहनजोदडों) व इसे दीन हीन बस्ती कहा जाता है।
ये लोग शव को गाड़ते थे, शव के पास बर्तन, गहने आदि रखते थे। ये पुनर्जन्म में विश्वास करते थे। इनकी लिपी दायें से बायें लिखी जाती थी जिसे सर्पाकार, गोमूत्राकार या बोस्ट्रॉफेदम कहते हैं। इसको अभी तक पढ़ा नही गया है । यहाँ से अग्नि वैदिकाएं भी ( हवन कुण्ड) मिली हैं। इनमें जानवरों की हड्डियां भी मिली हैं जो उनकी बली प्रथा प्रचनल को सिद्ध करती हैं। इनके चूल्हे वर्तमान तन्दूर की तरह के थे ।
सिन्धु घाटी में जो घर मिले हैं उनके दरवाजे मुख्य सड़क पर न खुलकर गली में खुलते हैं। कालीबंगा में भी ऐसे ही घर मिले हैं। इसका एकमात्र अपवाद लोथल (गुजरात) है। यहाँ पर घर के दरवाजे मुख्य सड़क पर ही खुलते हैं। कालीबंगा से खिलौना गाड़ी मिली है भूकम्प के अवशेष मिले हैं। लकड़ी की बनी नालियाँ मिली हैं। कालीबंगा से काले मृद पात्र मिले हैं। हरिण चित्र युक्त बाहर खुरदरे चित्र मिले। यहां से जो प्राकृ हड़प्पा मृदभाण्ड मिले है उन्हें “सोथी मृदभाण्ड” कहा अमलानंद घोष ने। गेहूँ व जौ के अवशेष मिले समकोण पर दो फसलें एक साथ बोयी जाती थी । सिन्धु घाटी में कपास को ‘सिडन’ कहा जाता था; कालीबंगा से बालक की खोपड़ी मिली है जिसमें छह छेद हैं ये ‘शल्य चिकित्सा’ का अवशेष माना गया । कालीबंगा से 7 अग्नि वैदिकाएं मिली हैं। सिन्धु से किसी प्रकार के मंदिर अवशेष नहीं मिले; कालीबंगा से ‘स्वास्तिक’ का चिह्न मिला है; यहां सिक्के मिले हैं। एक सिक्के पर व्याघ्र व दूसरे पर कुमारी देवी चित्र मिला है। ये कुत्ते को पालते थे। यहां पक्की ईटों के साथ कच्ची ईटों के भी मकान मिले हैं, कच्ची ईटों के मकान मिलने कारण इसे “दीन हीन बस्ती” कहा गया है। कालीबंगा नगर भी रक्षा प्राचीन से घिरा था इसलिए कालीबंगा को “दोहरे परकोटे की सभ्यता” कहा है। कालीबंगा सड़के 5-7.20 मी. तक चौड़ी थी व गलियों की चौड़ाई 1.8 मी. । कालीबंगा से पशु अलंकृत ईटें मिली हैं। कालीबंगा से मिट्टी, तांबे, कांसे की चूड़ियां मिली । कालीबंगा में बलि प्रथा का प्रचलन था। कालीबंगा से तीर भी मिले हैं। कुत्ता कालीबंगा का पालतु पशु था । कालीबंगा हड़प्पा की तरह अवतल चक्की, सालन, सिल बट्टा सेलखड़ी मिट्टी की मुहरें मिली । कालीबंगा में शव दफनाते थे; कालीबंगा से मातृदेवी कोई मूर्ति नहीं मिली।
2. सोंथी सभ्यता – बीकानेर, खोज – 1953 ए घोष इसे “कालीबंगा प्रथम” कहते हैं ।
3. रंगमहल सभ्यता – हनुमानगढ़, घग्घर नदी, उत्खनन् 1952 हन्नारिड (स्वीडन) द्वारा । यह समय 1000 से 300 ई.पूर्व है। यहां कनिष्क प्रथम व कनिष्क तृतीय की मुद्रा पंचमार्क के सिक्के मिले हैं। रंगमहल से 105 तांबे के सिक्के मिले। गुरु शिष्य की मूर्तियां मिली, गांधार शैली की मूर्तियां मिली हैं। यहां सें मृणमूर्तियाँ मिली जिन पर गांधार शैली की छाप के कुछ पंचमार्क सिक्के मिले। यहां से कनिष्क I व कनिष्क III सिक्के मिले। वासुदेव काल के सिक्के मिले। यहां से 105 तांबें सिक्के मिले। गुरू शिष्य की मूर्ति मिली। यहां से घंटाकर मृदपात्र, रोटींदार घड़े, प्याले कटोरे, बर्तनों के ढक्कन, दीपक, दीपदान, धूपदान मिले। अनेक मृणमूर्तियाँ मिली। जिन पर श्रीकृष्ण के अंकन मिले। ये मूर्तियां गांधार शैली की हैं। बच्चों के खेलने की मिट्टी की छोटी पहियेदार गाड़ी मिली ।
पीलीबंगा – सरस्वती / घग्घर, हनुमानगढ़ सिंधु सभ्यता अवशेष । विशेष प्रकार के घड़े मिले। बाबा रामदेव का मंदिर मिला। पीपल वृक्ष के प्रमाण मिले ।
4. गणेश्वर सभ्यता :- कांतली नदी नीमकाथाना सीकर ।
इस सभ्यता की खोज 1972 में रतनचन्द्र अग्रवाल ने की व इसका उत्खनन 1978 रतनचन्द्र अग्रवाल व विजय कुमार ने किया । गणेश्वर को “ताम्र सभ्याताओं की जननी” कहा जाता है। ध्यान रहे तांबा जिला झुन्झुनु को व ताम्रवती नगरी आहड़ को कहा जाता है। इस सभ्यता का समय 2800 ईसा पूर्व से 2000 ईसा पूर्व माना गया है।
यहां से प्राक् हड़प्पा व हड़प्पा युग के अवशेष मिले हैं। यहां भवन निर्माण में पत्थर का उपयोग होता था। यहां से पत्थर के पूल व मकान, तांबे का मछली पकड़ने का कांटा मिला है। दोहरी पेचदार पिनें मिली हैं। ऐसी पिने मध्य एशिया में मिली हैं। सिन्धु घाटी में तांबा यही से निर्यात होता था। इसलिए इसे ‘पुरातत्व का पुष्कर’ कहा जाता है। यहां के लोग मांसाहारी थे। यहां से 2 हजार तांबे के उपकरण मिले, गणेश्वर से नालीदार प्याला मिला। यहां से प्राप्त तांबें की सामग्री में 99 प्रतिशत तांबा था। गणेश्वर से जो मृदपात्र प्राप्त हुए हैं वे ‘कृष्णवर्णी मृदपात्र/गैरूक मृदपात्र’ कहलाते हैं। गणेश्वर से प्राप्त ‘रिजवर्ड शिल्प मृदभाण्ड’ गणेश्वर के अलावा सिन्धु घाटी के बनवाली (हरियाणा) से मिला है।
गणेश्वर सभ्यता को तांबा, खेतड़ी एवं अलवर की खो-दरीबा नामक तांबे की प्रसिद्ध खान से प्राप्त होता था ।
5. आहड़ सभ्यता / ताम्रवती नगरी / आघाटपुर / धुलकोटा- उदयपुर- आहड़ में मेवाड़ के महाराणाओं का दाह संस्कार होता था इसे ‘महासतियों का टिल्ला’ भी कहा है। शिलालेखों में आहड़ का प्राचीन नाम ‘ताम्रवती’ मिलता है। 10वीं 11वीं शताब्दी में इसे ‘आघाटपुर’ नाम से जाना जाता था। स्थानीय लोग इसे धूलकोट कहते थे। यहां के लोग लाल भूरे व काले मृदभाण्ड प्रयोग में लेते थे जिन पर रेखीय व सफेद बूंदों वाले डिजाइन बने हुए हैं।
आहड़ सम्यता आयड़ नदी के किनारे है। आहड़ संस्कृति बनास व उसकी सहायक नदियों के आस-पास पनपी इसलिए इसे बनास संस्कृति भी कहते हैं। इसकी खोज- 1953 में अक्षय कीर्ति व्यास, 1956 आर. सी. अग्रवाल ने तथा विस्तृत उत्खनन–1961–62 में हंसमुख धीरजलाल सांकलिया, वी.एन. मिश्र ने किया। आहड़ से पाषाण – ताम्र तथा लौह युगीन अवशेष मिले हैं।
इस सभ्यता का समय 1800BC से 1200 BC है। गोपीनाथ शर्मा ने इस सभ्यता का समय 1900 से 1200 ई.पू. बताया है। यहा से काले व लाल, भूरे रंग के मृद्भांड मिले हैं, कृष्ण लाहित दपात्र मिले हैं श्वेत रंग चित्रित पात्र विशेष हैं। चित्रों पर रेखा 1 ज्यामितिय आकार की बहुलता है। बड़े अनाज रखने के मृद्भाण्डो को स्थानीय भाषा में गोरे व कोट कहते हैं। ये सभ्यता आठ बार बनी व उजड़ी। आहड़वासियों के आभूषण सीप, बीज, मूंगा, मूल्यवान पत्थरों के बने होते थे। मृतक को आभूषण के साथ गाड़ते थे। जिसका सिर उत्तर व पाँव दक्षिण में करते थे। ये तांबा गलाना जानते थे ।
सिन्धु सभ्यता को ताम्रधातु तथा उससे बनी वस्तुओं की सप्लाई (आपूर्ति) आहड़ सभ्यता से होती थी। यहां ताम्र उद्योग में बर्तन व उपकरण बनाना प्रमुख व्यवसाय था। आहड़ सभ्यता के लोग मकान गीली मिट्टी (गारा) व पत्थर से बनाते थे। नींव में प्रायः पत्थरों का प्रयोग करते थे। पशुपालन इस अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार था। आहड़ से 6 यूनानी ताम्र मुद्राएं व तीन मोहरें मिली हैं। जिन पर एक तरफ त्रिशूल व दूसरी तरफ अपोलो देवता का चित्र व यूनानी भाषा में मोहरों पर ‘बिहितम् ‘विस’, ‘पलितसा’ तथा ‘तातीय तोम सन’ अंकित हैं। आहड़ से एक बैल की मूर्ति मिली जिसे ‘बनाशियल वूल’ नाम दिया गया। इसके अलावा आहड़ से बहूमुखी चूल्हे, पैर से चालित चक्की, सूत कातने के चरखे, लोहे की वस्तुएं, ईरानी धूप, दीप पात्र मिले हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में लोहे का प्राचीनतम साक्ष्य आहड़ से मिला है। चावल व बाजरा आहड़वासियों का मुख्य खाद्यान्न फसल थी । ध्यान रहे सिन्धु घाटी में चावल के अवशेष लोथल (गुजरात) से मिले हैं। ताम्र निर्मित छल्ले, चूडियां, सुरमें की सलाइयां, कुल्हाड़ियां आदि भी बनाई जाती थी। जहां कालीबंगा सभ्यता नगरीय थी वहीं आहड़ सभ्यता ग्रामीण थी । आहड़ में पानी सोखने के लिए गड्ढे बने मिले जिनमें घड़े के उपर घड़ा रखते थे। इस सभ्यता का संबंध ईरान से है, जबकि सिन्धु सभ्यता का संबंध मेसोपोटोमिया से है। बर्तन निर्माण में चाक का प्रयोग किया गया। आहड़ में तांबे की छह मुद्राएँ मिली। एक मुद्रा त्रिथूल अन्य मुद्रा यूनानी शैली।
कपड़ों की छपाई के ठप्पे, शरीर से मैल छुड़ाने के लिए झांबे । तौल के बाँट मिले। गेहूं, ज्वार, चावल के प्रमाण मिले। पत्थर की अन्न पीसने की चक्की, रंगों का प्रयोग, तांबा गलाने भट्टी। कुत्ता, गेंडा, हाथी, मेढ़क पशु पालने के प्रमाण मिले।

आहड़ के प्रमुख स्थल

1. गिलूण्ड (राजसमंद) – इसकी खोज 1957-58 में बी. बी. लाल ने की। बनास नदी के पास ताम्र व लौह युगीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं। यहां पक्की इंटों का प्रयोग भी ज्ञात है। यह आहड़ संस्कृति का स्थानीय केन्द्र माना जाता हैं। यह एकमात्र ताम्रपाषाणिक स्थल है जहां से पत्थर के फलक उद्योग के साथ मकानों के निर्माण मे पक्की ईंटों के साक्ष्य मिले हैं। यहां से ‘स्तम्भ गर्त’ के प्रमाण भी मिले हैं। ये सभ्यता ताम्रयुगीन मानी जाती है। इसका समय 1700-1300 ई. पूर्व माना जाता हैं। यहां से काले रंग के चित्रित पात्रों पर नृत्य मुद्रा में चकतेदार हरिण के चित्र मिले। यहां से सरसों के दाने मिले।
2. बागौर (भीलवाड़ा) – कोठारी नदी के किनारे भीलवाड़ा जिले में कपड़े के अवशेष, बैल, कुत्ते मृणमूर्ति प्राचीन पशुपालन के अवशेष आदिम संस्कृति संग्रहालय कोठारी नदी के किनारे स्थित इस स्थान से मध्य पाषाण काल तथा ताम्रयुग के अवशेष मिले हैं। इसका उत्खनन 1967-69 में V.N. मिश्र व डॉ. L. S. लेस (जर्मनी) ने किया था। बागोर से हाथ कान के काँच के बने आभूषण मिले हैं। बागोर व आदमगढ़ (M.P.) से भारत में पशुपालन के प्राचीनतम पाषाणकाली साक्ष्य मिले । बागोर से 14 प्रकार सर्वाधिक कृषि किए जाने के अवशेष मिले। पत्थर के उपकरण मिले । हस्त कुठार बागोर सभ्यता का प्रमुख हथियार था । हाथ व कान के काँच के बने आभूषण मिले । बागोर में पाषाणीक काल के पत्थर के औजारों का विशाल भण्डार मिला । यह भारत में पाषाणीक औजारों का विशाल भण्डार मिला। यहां से जली हुई हड्डी के 5 नर कंकाल, मांस के भुने जाने के साक्ष्य मिले ।
3. बालाथल (उदयपुर) – नवीनतम ज्ञात ताम्र पाषाण स्थल से ताम्र व पाषाण युग के अवशेष मिले हैं। इसका उत्खनन भी V. N. मिश्र ने 1993 में किया था। यहां से रेड स्लिप वेयर (लाल लेप मृदभाण्ड) यू आकार के चूल्हों के साक्ष्य मिले। यहां से 11 से 12 कमरों से युक्त दुर्गनुमा भवन मिला । योगी मुद्रा में शवाधान के साक्ष्य मिले । बालाथल से एक विशाल मिट्टी की दीवार द्वारा की गई घेरे बंदी के प्रमाण मिले हैं। बालाथल से 4 हजार वर्ष पुराना कंकाल मिला है जो भारत में कुष्ठ रोग का प्राचीनतम प्रमाण माना जाता है । इसके अलावा तांबें की ढेर सारी वस्तुएं, हड्डियों के बने औजार, बड़े पैमाने पर पशुओं की हड्डियां मिली हैं। बालाथल बौराठ के बाद दूसरा स्थान है जहां से कपड़े के अवशेष मिले । बालाथल से बैल, सांड, कुत्ते, मृण्मय मूर्ति मिली। यहां से हड़प्पा समय के मृदभाण्ड मिले। हाथी व चन्द्रमा अंकित तांबे के सिक्के. मिले। पशुपालन, मछली पकड़ना, तांबे के औजार बनाने, के अवशेष प्राप्त हुए। यहां से 500 ई.पू. का हाथ से बुना कपड़ा मिला। लोहा गलाने की 5 भट्टी मिली, तांबे के सिक्के मिले जिन पर हाथी व चन्द्रमा की आकृति थी।
4. ओझियाण (भीलवाड़ा) – कोठारी नदी के किनारे । उत्खनन 2000 ई. बी. आर. मीना व आलोक त्रिपाठी । सर्वाधिक गायों के अवशेष मिले। गायों व सफेद बैल की मूर्ति मिली। इस बैल को ओझियाणा बुल कहा गया ।
ताम्र अवशेष मिलने वाले स्थान :-
-पिण्ड पाडलिया (चितौड़)
-कुराडा (नागौर).
-झाड़ोल (उदयपुर)
– पुंगल (बीकानेर)  –   आहड़ का नहीं
– किरोडोत (जयपुर)  – आहड़ का नहीं
– मलाह (अलवर)  –  आहड़ का नहीं
– एलाना (जालौर) यहां से तांबे के अवशेष मिले हैं।

लौह युगीन सभ्यताएं 

लोहे का प्रथम साहित्यिक उल्लेख अथर्ववेद में हुआ है । अथर्ववेद में लोहे के लिए ‘श्याम अयस या कृष्ण अयस’ शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रथम पुरातात्विक साक्ष्य 1000 BC में अन्ता नामक स्थान (एटा जिला, UP) से प्राप्त हुआ है। सर्वप्रथम एशिया माइनर की हिती नामक जाति ने 1300 ईसा पूर्व में लौह का प्रयोग किया। भारत में सर्वप्रथम लौह का प्रचलन ईरान के हकामनी शासकों द्वारा किया गया । अष्टाध्यायी में लोहे के हल को ‘कुशी’ कहाँ गया है। पाली साहित्य में कुम्हार को कम्मार कहा गया है। उत्तर वैदिक काल में भारतीयों को लोहे का ज्ञान हो गया था। भारत में लौहयुगीन संस्कृति के अधिकांश तल मध्यभारत व उत्तरी गंगाघाटी में मिले हैं। लौहयुगीन सभ्यता के लोग विशिष्ट प्रकार के मृदभाण्डों का प्रयोग करते थे जिन्हें ‘चित्रित धूसर मृद भाण्ड’ कहा गया है। जबकि राजस्थान के नोह से काले लाल मृदभाण्डों के साथ लोहा प्राप्त हुआ है। जिनकी तिथि 1400 ईसा पूर्व है। सर्वप्रथम अतंरजीखेड़ा व नोह से लोहे की निर्मित हल्की हाल प्राप्त हुई।

राजस्थान लौह युगीन सभ्यता के स्थान

1. रैड सभ्यता, 2. सुनारी सभ्यता, 3. जोधपुरा सभ्यता, 4. ईशवाल सभ्यता, 5. नगर सभ्यता, 6. नगरी सभ्यता, 7. तिलवाड़ा सभ्यता, 8. नोह सभ्यता, 9. बैराठ सभ्यता, 10. नलियासर, 
1. रैड (टोंक) – ढील नदी किनारे। उत्खन्न 1938-40 केदारनाथ पुरी। राजस्थान में लौह युगीन सभ्यता का सबसे महत्वपूर्ण स्थल है। यहां लोहे के विशाल भण्डार प्राप्त हुए हैं। इसलिए इसे प्राचीन राजस्थान का टाटा नगर कहा जाता है। यहां से पूर्व गुप्त कालीन समय तक के अवशेष मिले हैं। यहां टूटे प्याले, मणके, यहां से अपोलाडोट्र्स का सिक्का व इण्डोससेनियन सिक्के मिले हैं।
रैड (टोंक) से 3075 पंच मार्ग / आहत सिक्के मिले है जो भारत के प्राचीनतम सिक्के हैं। इन सिक्कों पर चिह्न उकेरित है। लेख विहिन ये सिक्के अधिकांशतः चांदी के बने हैं।
2. सुनारी (झुंझुनू) – सुनारी कांतली नदी के किनारे है। यहां से लोहे की भट्टियां प्राप्त हुई है। सुनारी से लोहे को पिघलाने के लिए दो भट्टियां प्राप्त हुई। यह भट्टियां खुले प्रकार की हैं तथा इनमें धौकनियां लगी हुई हैं। यह लोग चावल का प्रयोग नहीं करते थे। घोड़े से रथ खींचते थे। धान (अनाज) संग्रहण का कोठा मिला है।
3. जोधपुरा (जयपुर) – साबी नदी के किनारे है। यहां से लोहे की प्राचीनतम भट्टियां मिली हैं। जोधपुरा से विशेष प्रकार के लौहे गलाने के फर्नेस मिले है जिनमें अवकरण प्रक्रिया द्वारा लोहा गलाया जाता था फिर उसे खुले फर्नेस में रखकर गम किया जाता था। शुंग कुषाणकालीन सभ्यता के अवशेष मिले। काली पॉलिश युक्त मृदभाण्ड मिले। मौर्यकालीन अवशेष भी मिले हैं। जोधपुरा से डिश ऑन स्टैण्ड मिला है।
4. ईशवाल ( उदयपुर ) – यह प्राचीन औद्योगिक नगर के रूप में जाना जाता है। इसकी खोज 200 ई. में हुई है, यहां से भी लौह युगीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं। ऊँट के दांत मिले। नोह (भरतपुर) भी लौह युगीन सभ्यता का स्थल है।
5. नगर (टोंक) – इसे खेड़ा सभ्यता भी कहते हैं। मालव जनपद का प्रमुख स्थान था। यहां से 6000 तांबे के सिक्के मिले हैं । जो मालव जनपद के थे, सर्वाधिक सिक्के मालव जनपद के से मिले हैं। इन सिक्कों को कार्लाइल ने खोजा था। ये सिक्के हल्के व छोटे हैं। यहां से महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा व रति-कामदेव मूर्ति मिली। पत्थर पर मोदक के रूप में गणेश जी का अंकन मिला। देवी दुर्गा का अंकन मिला। फनधारी नाग का अंकन, कमल धारण किए लक्ष्मी की खड़ी प्रतिमा मिली है। –
6. नगरी (चित्तौड़गढ़ ) – उत्खनन 1904 डी. आर. भण्डारकर । नगरी का प्राचीन नाम मध्यमिका था। यहां से शिवि जनपद के सिक्के मिले । गुप्तयुगीन मन्दिर, चार चक्राकार कुएं, 5वीं शताब्दी (गुप्तकाल) निर्मित नटराज शिव मूर्ति में राज. नटराज मूर्ति निर्माण के प्राचीनतम साक्ष्य भी मिले हैं।
7. तिलवाड़ा (बाड़मेर) – यह लूणी नदी के किनारे स्थित है। इसकी खोज वी.एन. मिश्र ने की। इसे 500 ई.पूर्व से 200 ई. पूर्व बताया गया है। अग्नुिकुण्ड मिला जिसमें मानव अस्थिभस्म मिले। लोहे के टुकड़े, कांच की चूड़ियाँ, सीप की चूड़ी मिली है।
8. नोह (भरतपुर) – रुपारेल नदी के किनारे । इसका उत्खनन 1963–67 रतनचन्द्र अग्रवाल व डेविडसन ने किया। यहां से लौह युगीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं। यहां से काले, लाल मृदभाण्ड मिले। कुल्हाड़ी व चम्मच मिली। यहां से 5 संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं। वैदिक सभ्यता के अवशेषों में ताम्र सिक्के, चित्रित स्लेटी तथा गैरू रंग के मृदभाण्ड मिले हैं। कुषाण युगीन सभ्यता के अवशेष मिले। मौर्य युगीन सभ्यता के अवशेष मिले। पूर्व गुप्त कालीन सभ्यता के अवशेष मिले। बाहरवीं शताब्दी के अवशेष मिले। नोह (भरतपुर) से 1700 वर्ष पुरानी पक्षी चित्रित ईंटें भी मिली हैं। नोह से 1.5 मीटर उँची यक्ष की मूर्ति मिली है जिसे ‘जोख बाबा’ नाम दिया गया। कुषाण शासक हुविष्क व वासुदेव के सिक्के मिले हैं तथा गंदे पानी को एकत्रित करने के लिए चक्रकूप मिले है
नोट– अनूपगढ़ व तरखान वाला का डेरा (गंगानगर) से वैदिक युगीन मिट्टी के बर्तन मिले हैं। सुनारी (झुंझुनूं) से भी .क सभ्यता के अवशेष मिले हैं।
बैराठ सभ्यता बाणगंगा नदी जयपुर | बैराठ वर्तमान में जयपुर जिले के शाहपुरा उपखंड में स्थित है। सर्वप्रथम यहां से 1837 में कैप्टन बर्ट ने बीजक की डूंगरी से भाब्रु शिलालख खोजा था। इस शिलालेख में बुद्ध धम्म व संघ नाम मिलते है। शिलालेख में बौधधर्म से संबंधित त्रिरत्न (बुद्ध धम्ब व संग) का उल्लेख एकमात्र इसी शिलालेख में हुआ है। वर्तमान में यह शिलालेख कोलकाता के म्यूजीयम में है। इसके बाद यहां से 1871-72 में कार्ननाईल ने भीम की डूंगरी से एक दूसरा शिलालेख खोजा था ।
यह स्थल मौर्यकाल में बौद्धधर्म का राजस्थान की लिहाज / दृष्टि से केन्द्र बिन्दु था। इसका उत्खनन 1936-37 में दयाराम साहनी 1962-63 में नील रत्न व कैलाश दीक्षित ने किया । उससे पूर्व के अवशेष मिले हैं। यहां भीम जी की डूंगरी, बीजक पहाड़ी तथा महादेव डूंगरी है। बीजक पहाड़ी पर अशोक कालीन बौद्ध मंदिर व बौद्ध मठ के अवशेष मिले हैं, जो हीनयान सम्प्रदाय से संबंधित थे। सम्राट अशोक का ब्रह्मी लिपी से संबंधित भाब्रु शिलालेख भी यहीं से मिला है। यहां से भगवान बुद्ध की कोई मूर्ति नहीं मिली। यहां से मौर्यकालीन चमकीली मिट्टी के पात्र मिले हैं जिन्हें एन. बी. पी. नाम दिया गया है। यहां से एक बाला की मूर्ति मिली जिसके सिर व पैर नहीं है।
विराटनगर का उल्लेख महाभारत में भी हुआ है। यहां पर पाण्डवों ने अपना एक वर्ष का अज्ञातवास में बिताया था। यहां से मंदिर के अवशेष मिले। बैराठ में पत्थर होते हुए भी ईंटों का प्रयोग किया गया है। यहाँ सूती कपड़े से लिपटी 36 मुद्राएं मिली एवं 8 पंचमार्क सिक्के भी मिलें तथा 28 इण्डोग्रीक यूनानी शासकों के सिक्के भी मिले हैं। अंलकृत घड़ें मिले। स्वास्तिक का चिह्न (स्वास्तिक का चिह्न कालीबंगा से भी मिला था मिला, त्रिरत्न चिह्न मिला, काले चमकीले मृदपात्र मिले। बैराठ से एक स्वर्ण कलश मिला जिसमें भगवान बुद्ध की अस्थियां भी बतायी जाती हैं। बैराठ में ईंटों का बना फर्श मिला ।
बैराठ का ध्वंस (विनाश) शैवधर्म के अनुयायी हूणों ने (विहीर कुल हूण) ने किया था।
नोट – बाडौली (चित्तौड़) का शिव मंदिर मिहिर कुल हूण ने बनवाया था। इतिहासकारों का अनुमान है कि बैराठ के बौद्ध मंदिर को अशोक ने बनवाया था। (अनुमान)
10. नलियासर (जयपुर ) – जयपुर जिले में साँभर के पास स्थित नलियासर से खुदाई में आहत मुद्राएँ, उत्तर इण्डोससेनियन सिक्के, हुविष्क के सिक्के, इण्डोग्रीक (यूनानी) सिक्के, यौधेय गण के सिक्के तथा गुप्तयुगीन चाँदी के सिक्के प्राप्त हुए हैं ।
यहाँ से सोने से निर्मित खुदा हुआ सिंह सिर, ताँबे की घण्टिका, मिट्टी के तोलने के बाट, मिट्टी की तलवार, नालियों के गोल पाईप, हड्डी का बना पासा तथा ताँबे की 105 मुद्राएँ भी मिली हैं जिनमें एक सिक्का कुषाण शासक नष्क का है।
नलियासर से प्राप्त सामग्री के आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है यह स्थल तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से चौहान संस्कृति का केन्द्र रहा है।
राजस्थान कांस्य युगीन सभ्यता / सिंधु घाटी सभ्यता / नगरीय सभ्यता

 सभ्यता संबंधी अन्य तथ्य

राजस्थान में पुरा पाषाण कालीन प्रमाण लूणी नदी के किनारे पोकरण, बड़ी ढाणी में प्रारम्भिक प्रस्तर युग के उपकरण प्राप्त हुए हैं।
नाहरगढ़ (जयपुर) के समीप स्थित ‘चरण मन्दिर’ का प्रमाण है।
महाभारतकालीन शाल्व जाति का निवास राज्य में भीनमाल-साँचोर है।
विराटनगर से आदिम मानव की गुफाएं ज्ञात हुईं ।
उत्तरपाषाणकालीन मृदभाण्ड/शस्त्र/औजार चित्तौड़गढ़ जिलों में गम्भीरी, बेड़च, चम्बल नदियों से प्राप्त ।
भैसरोड़गढ़- बामनी नदी से, बनास नदी (हमीरगढ़, देवली, जहाजपुर) लूणी नदी (पाली, समदड़ी, सोजत) से प्राप्त ।
अनूपगढ़ के ढेर, तरखान वाला (श्रीगंगानगर) में आर्यों के भाण्ड के साक्ष्य ।
आर्यकालीन चित्रित भाण्ड नोह भरतपुर, जोधपुर, जयपुर, विराटनगर, सुनारी (झुंझुनूं) से प्राप्त ।
✰ जनपदयुग- राज्य में विराटनगर, पुष्कर, वियागा, खोल्बे (झालावाड़) बौद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्र थे ।
पुष्कर की पुष्टि साँची में दूसरी सदी ईसा पूर्व के बौद्ध कालीन शिलालेख की प्राप्ति ।
497 ई. पूर्व जैनाचार्य ‘स्वयं प्रभुसूरी’ श्रीमाल (जालोर) में वहाँ के क्षत्रिय राजा जैसन के समक्ष हजारों लोगों ने जैन धर्म की दीक्षा ली ।
पूर्वी राजस्थान में बौद्ध संस्कृति, पश्चिमी राजस्थान में जैन संस्कृति ।
मालवों की शक्ति का केन्द्र नगर (टोंक के समीप ) था ।
टोंक-अजमेर- भीलवाड़ा क्षेत्र में राज्य जनपद था ।
225 ई. में सोम मालव ने क्षत्रपों (शत्रु) को हराकर एकषष्ठी यज्ञ किया था- ब्राह्मणों को गोदान दिया। *
✰ अर्जुनायन ने मालवों की क्षत्रपों के विरुद्ध सहायता की थी (अलवरभरतपुर क्षेत्र ) ।
✰ कुमारनामी- यौद्धेय जाति का वीर था, यौद्येय गणतन्त्र को शक्तिशाली बनाया।
राजस्थान कांस्य युगीन सभ्यता / सिंधु घाटी सभ्यता / नगरीय सभ्यता

मुदभाण्डों से संबंधिात विशेष जानकारी

सर्वप्रथम फ्लिंडर्स पेट्री ने मृदभाण्डों पर अध्ययन किया । इसने मृदभाण्डों को पुरातत्व की वर्णमाला’ कहां। मृदभाण्डों का प्रचलन उत्तर या नवपाषाण काल में माना जाता है। मृदभाण्ड मानव का प्रथम रासायनिक आविष्कार था। चौपानीमाण्डों ( उत्तर प्रदेश) से प्राचीनतम मृदभाण्ड के साक्ष्य मिले है।
1. गेरुए चित्रित / गैरिक मृदभाण्ड (octree coloured poltery) O.P.C (2000 से 1200 ईसा पूर्व) : ये मृदभाण्ड परिपक्व हड़प्पा संस्कृति के अन्तिम चरण व उत्तर हड़पा संस्कृति में मिले हैं। गैरिक मृदभाण्ड चाक से बनाये गये थे। इन पर गहरे लाल रंग का लेप तथा काले रंग की कलाकृति पायी गई। नोह से गैरिक काला व लाल चित्रित धूसर मृदभाण्ड मिले हैं।
2. कृष्ण लौहित (काले लाल) मृदभाण्ड (B.R.W.) (1200 से 1000 ईसा पूर्व) : ये प्रागैतिहासिक काल के प्रमुख मृदभाण्ड थे। गैरिक मृदभाण्ड व चित्रित धूसर मृदभाण्ड के मध्य की संस्कृति काला लाल मृदभाण्ड थी। हड़पा संस्कृति के मृदभाण्ड मुख्यतः लाल व गुलाबी है जिन पर काले रंग की आकृति बनी हुई है।
काले लाल मृदभाण्डों को अथर्ववेद में कृष्ण लौहित कहा गया है । इन भाण्डों की बाहर के बारी के चारों ओर का भाग काला शेष बाहरी भाग लाल होता है। इन मृदभाण्डों को उलटकर पकाया गया है तभी ऐसा संभव है। सामान्यतः काले लाल मृदभाण्डों के प्रयोगकर्ता ताम्रपाषाणीक लोग थे।
3. चित्रित धूसर मृदभाण्ड (Painted Grey Ware (P.G.W.)) ( 1000 से 600 ईसा पूर्व ) : ये मृदभाण्ड सर्वप्रथम अहिच्छत्र (बरेली) से खोजे गये। ये मृदभाण्ड राजस्थान में नोह, जोधपुरा व गिलुण्ड से मिले हैं। ये मृदभाण्ड बहुत ही उच्च कोटि की बारीक चिकनी मिट्टी से बनाये थे। इनका रंग धूसर इस कारण हो गया कि मिट्टी में काले रंग में फैरिस ऑक्साइड की मात्रा थी। ये मृदभाण्ड उत्तरवैदिक व महाभारत काल के समय के है। महाभारत कालीन स्थलों की खोज चित्रित धूसर मृदभाण्डों से की गई है।
4. उत्तरीकृष्णमार्जित (पॉलिशदार) मृदभाण्ड (N.B.P.W.) ( 200 ईसा पूर्व से 200 ई ) : मौर्यत्तर काल, गुप्तकाल में मिले हैं। बौद्धकाल में भी ये मृदभाण्ड मिले हैं।
राजस्थान कांस्य युगीन सभ्यता / सिंधु घाटी सभ्यता / नगरीय सभ्यता
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