चौहान वंश : राजस्थान

चौहान वंश : राजस्थान

साम्भर या अजमेर के चौहान वंश

अजमेर शाखा प्रारम्भ
नैणसी, टॉड तथा सूर्यमल्ल मिश्रण ने चौहानों के अग्निकुण्ड सिद्धांतों को स्वीकार किया है। बिजौलिया शिलालेख में चौहानों को वत्सगोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है। टॉड व स्मिथ ने चौहानों को विदेशी माना है।
डॉ. भण्डारकर ने चौहानों को खज जाति से उत्पन्न बताया है। सुन्धा माता अभिलेख में चौहानों को महर्षि वशिष्ठ की संतान बताया है। हम्मीर महाकाव्य व डॉ. गौरीशंकर हीरानंद ओझा हम्मीर रासो चौहानों को सूर्यवंशी कहा है। भाटों व चारणों ने चौहानों को अग्निवंशी बताया है। दशरथ शर्मा बिजौलिया शिलालेख के अनुसार चौहानों की उत्पति ब्राह्मण वंश से मानते हैं।
रायपाल के सेवाडी के लेख में चौहानों को इन्द्र का वंशज बताया है। कायम खां रासो व चन्द्रवती के लेख में चौहानों को ब्राह्मणवंशी बताया है। चौहान प्रारंभ में गुर्जर-प्रतिहारों के सामंत थे।
चौहानों की कुलदेवी शाकम्भरी माता, सीकर के चौहानों की कुलदेवी जीण माता, जालौर के चौहानों की कुलदेवी आशापुरा माता है व कुल देवता हर्षनाथ जी (सीकर) है।
चौहानों का मूल पुरूष ‘चहमान’ नाम का व्यक्ति रहा है
चौहानों के मूल स्थान-
सपादलक्ष / साभर – सपादलक्ष के इर्द गिर्द के क्षेत्र में रहते थे। प्रारम्भिक राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) थी। जांगलप्रदेश की राजधानी भी अहिच्छत्रपुर रही है। चौहानो का सम्बन्ध सपादलक्ष से रहा है। इनकी राजधानी सांभर से ज्यादा दूर नहीं रही होगी। अहिच्छत्रपुर व पूर्णतल्ल इनके मुख्य नगरों में से थे प्रारम्भ में ये नागौर में रहे इसके बाद
पूर्णतल्ल में किसी समय इस भूभाग में नागों की प्रबलता थी इसलिए चौहानों की आदि भूमि को अन्नत गोचर भी कहते हैं। अपनी प्राकृतिक उपज शमी, करीर पीलू के कारण ये प्रदेश जागल नाम से भी प्रसिद्ध था परम्परा से यहां की जनसंख्या सवा लाख थी। इस कारण इसे सवा लाख या सपादलक्ष भी कहते हैं साभर के चौहान शसक समरीश कहलाये।
राजधानी- शाकम्बरी (साभर) बाद में राजधानी अजमेर बन गई। इस मत का वर्णन जयानक ने पृथ्वीराज विजय में किया है।
नोट –  कवि जयानक ये कश्मीर में प्रसिद्ध कवि इन्होंने पुष्कर में रहकर पृथ्वीराज विजय की रचना की।
अनन्त प्रदेश (सीकर) – हर्षनाथ अभिलेख (973 ई) के अनुसार चौहानों का मूल स्थान
पुष्कर अजमेर- हम्मीर महाकाव्य (नैनचन्द्रसूरी) तथा सुर्जन चरित्र (चन्द्रशेखर) के अनुसार चौहानों का मूल स्थान।
वासुदेव चौहान- इसने सागर में चौहान वंश की स्थापना की वासुदेव चौहानों का संस्थापक / आदिपुरूष / मूलपुरूष कहलाता है। इसने 551 ई में चौहान वंश की स्थापना की। बिजौलिया शिलालेख (1170 भीलवाडा) के अनुसार साभर के चौहानों का मूल पुरूष वासुदेव था। लेख के अनुसार सामर झील का निर्माता वासुदेव था।
बिजौलिया शिलालेख – 
टॉड के अनुसार बिजौलिया का शुद्ध नाम विजयावल्ली था। ये शिलालेख पार्श्वनाथ मन्दिर की दीवार पर लिखा है, ये शिलालेख 1170 ई. में लिखा गया है। इसके रचयिता गुणभद्र लेखक कायस्थ केशव था बिजौलिया शिलालेख संस्कृत भाषा में लिखा गया है। इसमें 13 पद्य है, बिजोलिया शिलालेख चौहान वंश से सम्बन्धित है. इसमें चौहानों के लिए “विप्र श्रीवत्सगोत्रेभूत” शब्द का प्रयोग किया गया है इस आधार पर दशरथ शर्मा ने चौहानों को ब्राह्मणों की संतान बताया है। कायम खा रासो व चन्द्रावती लेख में भी चौहानों को ब्राह्मण वंशीय बताया है। इस शिलालेख में जालौर का नाम जाबालिपुर, सांभर का नाम शाकम्बरी, भीनमाल का नाम श्रीमाल मिलता है।
नोट- बिजौलिया शिलालेख में चौहान व राजपूतों का लेख है दुर्लभ राज के पुत्र गुवक ने सीकर में हर्षनाथ मंदिर बनवाया था। हर्षनाथ चौहानों के इष्ट देव हैं। (हर्षनाथ के मंदिर को औरंगजेब ने तोड़ा था।)
गुवक प्रथम
ये दुर्लभराज का पुत्र था। दुर्लमराज ने वत्सराज के सहयोग से मध्यप्रदेश के पालों देश तक विजय प्राप्त की थी व गौड देश पर अधिकार कर लिया था। गुवक
प्रथम नागभट्ट द्वितीय का सामत था। चौहान प्रारंभ में गुर्जर-प्रतिहारों के सामंत थे। गुवक ने हर्षनाथ मंदिर (सीकर) बनवाया। यह हर्षनाथजी चौहानों के कुल देवता हैं। गुवक प्रथम के बाद चंद्रराज द्वितीय व इसके बाद गुवक द्वितीय शासक बना।
गुवक द्वितीय
इसने कन्नौज के शासक भोजराज की बहन कलावति से विवाह किया था।
चन्दन राज
ये गुवक द्वितीय का पुत्र था, इसने दिल्ली के तोमर शासको को हराया था। इसकी पत्नी रूद्राणी या आत्मप्रभा यौगिक क्रिया में निपुण थी व शिवभक्त थी। रुद्राणी रोजाना पुष्कर में शिवजी के सामने एक हजार दीपक जलाती थी।
वाकूपतिराज प्रथम- 
चन्दनराज का पुत्र था हर्षनाथ अभिलेख में वाक्पति राज की उपाधि ‘महाराज मिलती है। वाक्पतिराज ने अनेक युद्ध किये पृथ्वीराज विजय के अनुसार इसने 188 युद्ध किये थे।
सिंहराज
वाक्पतिराज का पुत्र 956 ई. के मिले एक शिलालेख के अनुसार यह विजयपाल प्रतिहार के समकालीन था सिहराज ने अनेक राजाओं को कारागार में बंद कर लिया
तब प्रतिहार सम्राट स्वयं उन्हें छुडवाने के लिए आया था। सिहराज ने परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर की उपाधि धारण की. ऐसी उपाधि स्वतंत्र राजा धारण करते थे।
विग्रहराज द्वितीय –
जयानक व चन्द्रशेखर के अनुसार इसने मूलराज चालुक्य को परास्त किया, मूलराज ने काण्ठा किले में शरण ली। जब विग्रहराज की सेना शत्रुओं के विरुद्ध चलती थी तब घोड़ों की टापो से उठी धूल से आकाश ढक जाता था। इस कारण लोगों ने इसे सुर-रजोन्धकार की उपाधि दी। इसके समय चौहान सेना नर्मदा व भृगुकच्छ पत्तन तक पहुंची थी। दुर्लभराज द्वितीय इसने नाडौल के महेन्द्र चौहान को हराया शक्राई अभिलेख में इसकी उपाधि ‘महाराजाधिराज’ मिलती है।
गोविन्द तृतीय-
पृथ्वीराज विजय में इसकी उपाधि ‘वैरीघरट्ट’ मिलती है। फरिस्ता ने गोविन्द तृतीय को गजनी के शासक को मारवाड में आगे बढ़ने से रोकने वाला कहा है।
वाक्पति राज द्वितीय
ये गोविन्द तृतीय का पुत्र था। इसने मेवाड शासक अम्बाप्रसाद को युद्ध में मार दिया व चितौड पर अधिकार करने की कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली।
पृथ्वीराज प्रथम
इसने 1105 ई. में 700 चालुक्य को मारा जो पुष्कर में ब्राह्मणों को लूटने आये थे। इसकी उपाधि परम भट्टारक-महाराजाधिराज परमेश्वर’ थी। यह शिव भक्त
था। सोमनाथ मार्ग में यात्रियों के लिए निःशुल्क भोजन की व्यवस्था की थी।
अजयराज ( 1113 से 1133 )
अजयराज शैव धर्म को मानता था। पृथ्वीराज प्रथम का पुत्र, इसके समय चौहान साम्राज्य के विस्तार का दौर प्रारम्भ हुआ। इसनें अवन्ति के राजा नरवर्मा को हराकर उसके सेनापतियों का वध करके श्रीपथ (बयाना) पर अधिकार कर लिया। परमार दण्डनायक सोल्लण को जीवित ही पकड़कर ऊँट पर बाघ दिया। अजयराज ने सांभर छोड़कर अजमेर को अपनी राजधानी बनाई। 1113 ईस्वी में अजयमेरू (अजमेर) नगर बसाया। अजयराज ने ताबे व चादी के सिक्क भी चलाये। अजयप्रिय, द्रम्स नाम जिन पर रानी सोमलवती का नाम भी लिखवाया। अजयराज चौहानों का प्रथम शासक है जिसने अपनी मुद्राएँ चलायी। इन चाँदी व ताम्बे की मुद्राओं के सामने की और लक्ष्मी की मूर्ति है। इसके समय दिगम्बर व श्वेताम्बर विचारधारा के मध्य शास्त्रार्थ हुआ जिसकी अध्यक्षता स्वयं अजयराज ने की थी। अजयराज ने राजगद्दी अर्णोराज को सौंपकर पुष्कर चले गये। अजयराज ने तुर्क शहाबुद्दीन को हराया, मालवा के नरवर्मन को हराया, अहिलपाटन (गुजरात) मूलराज ॥ को हराया। अजयराज ने पार्श्वनाथ मंदिर के सुवर्ण कलश का दान किया था।
अजयमेरू दुर्ग-
 1113 में अजयराज ने बनवाया।
 गढबीठली पहाड़ी पर होने कारण गढबीठली दुर्ग कहते हैं।
मेवाड रायमल पुत्र पृथ्वीराज सिसोदिया की पत्नी तारा के नाम पर इस दुर्ग का नाम तारागढ पडा (तारागढ दुर्ग बूंदी में भी है)
मालदेव की पत्नी रूठी रानी उमादे यहीं रही थी। यहा रूठी रानी का महल है।
विशप हैबर ने इसे राजस्थान का जिब्राल्टर / पूर्व का जिब्राल्टर कहा है। इस दुर्ग को राजपुताने की कुजी, सर्वाधिक स्थानीय आक्रमण झेलने वाला दुर्ग, अरावली का अरमान भी कहा जाता है। (सर्वाधिक विदेशी आक्रमण मटनेर दुर्ग ने झेले हैं।)
नोट–  हरविलास शारदा ने अखबार-उल-अखयार में तारागढ को राजस्थान का प्रथम गिरी दुर्ग बताया है।
तारागढ़ दुर्ग में घोड़े की मजार, मीरानशाह / मीर सैयद हुसैन दरगाह, रूठी रानी महल, पृथ्वीराज स्मारक आदि स्थित हैं।
 तारागढ दुर्ग में घूघट, पगडी बादरा, इमली आदि बुर्ज हैं।
अर्णोराज/आनाजी (1133 से 1155)
इससे सम्बन्धित रेवासा में दो शिलालेख मिले हैं। इनमें इसकी उपाधि महाराजाधिराज परमेश्वर है। अजमेर में शिव मंदिर का निर्माण करवाया, पुष्कर में वराह मंदिर का निर्माण करवाया, वराह मंदिर का जिर्णोद्धार समरसिंह ने करवाया, इस मूर्ति को जहाँगीर ने पानी में फिंकवा दिया था। अर्णोराज के दरबार में देवबोध व धर्मघोष नामक विद्वान थे।
अर्णोराज की मुख्यतः चार उपलब्धियां हैं:-
(1) इसमें अजमेर के निकट तुरूषकों का वध किया।
(2) उसने मालवा के राजा नरवर्मा को हराया व मालवा से हाथी छीने।
(3) चौहान सेना को सिन्धु व सरस्वती नदी तक ले गया।
(4) हरितानक प्रदेश पर भी अर्णोराज ने एक बार अभियान किया था।
हरियाणा के समीपवर्ती वारण (वर्तमान बुलंदशहर) क्षेत्र में डोड राजपूतों को हराया। अर्णोराज के दक्षिण पश्चिम दिशा में गुजरात के चालुक्य शासक थे। इस क्षेत्र में अर्णोराज को ज्यादा सिद्धराज सफलता नहीं मिली। यहां अर्णोराज के समय दो शक्तिशाली शासक थे। प्रथम जयसिंह सिद्धराज व दूसरा कुमारपाल । ने अपनी पुत्री कांचन देवी का विवाह अर्णोराज से कर दिया। अर्णोराज व कुमारपाल के मध्य दो युद्ध हुये। एक आबु के निकट 1145 ई. मे जिसमें किसी को सफलता नहीं मिली दूसरा 1150 ई. में जिसमें अर्णोराज पराजित हुआ। अर्णोराज ने अपनी पुत्री जलना का विवाह कुमारपाल से किया ।
आनासागर झील – अर्णोराज के समय यामिनी सुल्तान  ने इस पर आक्रमण किया। तब इसने तुकी का उस स्थान पर संहार किया जहाँ आज आनासागर झील है। यहां भारी संख्या में सैनिक मरे, लोगों ने शवों को जला दिया फिर भी शुद्धि न हुई। अर्णोराज ने इसकी शुद्धि के लिए तालाब बनवाया व इन्दु नदी का जल भरवाया। बिजोलिया शिलालेख के अनुसार इस झील का निर्माण 1133 ई. से 1137 ई. के मध्य हुआ था। पृथ्वीराज रासो के अनुसार इस झील का निर्माण 1135-37 के मध्य हुआ था। वर्तमान में अनासागर झील में लूणी या चन्द्रा नदी गिरती है। आनासागर झील पर जहांगीर ने शाही बाग / दौलत बाग़ बनवाया जिसे वर्तमान में सुभाष बाग’ कहते हैं। इस बाग
में जहांगीर की पत्नी नूरजहां की मां अस्मत बेगम ने इत्र का आविष्कार किया था।
अर्णोराज के दो विवाह हुए, एक मरूदेश की यौधेय राजकुमारी सुधवा से व दूसरा जयसिंह सिद्धराज की पुत्री कांचन देवी से। कांचनदेवी से सोमेश्वर का जन्म हुआ व सुधवा से जगदेव विग्रहराज (बीसलदेव) व देवदत्त । पृथ्वीराज विजय के अनुसार अर्णोराज के ज्येष्ठ पुत्र जग्गदेव ने अणोराज की हत्या कर दी। सामन्तों ने जग्गदेव को शासक न बनाकर विग्रहराज का पक्ष लिया। जग्गदेव युद्ध में मारा गया। विग्रहराज चतुर्थ की उपाधि धारण कर राजगद्दी पर बैठा। जग्गदेव को “चौहानों का
पितृहन्ता’ कहा जाता है।
नोट – मेवाड़ का पितृहन्ता – उदा (कुम्भा की हत्या की), मारवाड़ का पितृहन्ता मालदेव जिसने अपने पिता गंगा की हत्या की !
विग्रहराज चतुर्थ/बीसलदेव (1158 से 1163)
तोमरों से दिल्ली छीन ली मुस्लिमों से झांसी व हिसार का क्षेत्र, चालुक्य कुमार पाल से पाली, जालौर व नागौर छीन लिया। अजमेर को इस समय बारहवीं शताब्दी में भारत की राजधानी होने का गौरव हासिल हुआ। विग्रहराज का समय चौहानों का स्वर्णकाल माना जाता है। इसने गजनी शासक खुसरो शाह (1153–60 ई.) को हराया था, नाडौल के कुन्तपाल को हराया व नगर को जला दिया था। इसने वित्तौड़ के चालुक्य दण्डनायक सज्जन का कप किया और उसकी हाथियों है की सेना छीन ली। चौहानों का तैवरों से भी युद्ध हुआ, चौहान व वैये का युद्ध चन्दनराज के समय प्रारम्भ हुआ और इसकी समाप्ति विग्रहराज के समय हुई थी. विग्रहराज ने झाँसी व दिल्ली को अपने क्षेत्र में मिलाया किन्तु राजकीय कार्य तेंवरों के ही हाथ में रहने दिया।
उपाधि –
कवि बान्धव (जयानक ने दी) दिल्ली पर अधिकार करने वाला विग्रहराज चौहानों का प्रथम शासक है। किलहान ने कहा है कि विग्रहराज, कालिदास व भवभूति की होड़ करता है।
हरिकेली नाटक-
इस नाटक की रचना विग्रहराज चतुर्थ ने संस्कृत भाषा में की थी हरकेलि नाटक में किरात के भेष में भगवान शिव व अर्जुन के मध्य सवाद है। हरकेलि नाटक की कुछ
पंक्तिया ढाई दिन के झॉपढे में लिखी है व इसकी कुछ पंक्तिया ब्रिस्टल (इंग्लैण्ड) के राजा राममोहन राय स्मारक पर लिखी है। राजा राममोहन राय की मृत्यु ब्रिस्टल इंग्लैण्ड में हुई थी।
संस्कृत पाठशाला :- 
परमार भोज की धारा नगरी की तर्ज पर संस्कृत पाठशाला बनवाई तथा उसमें हरिकेलि नाटक को उत्कीर्ण करवाया। मोहम्मद गौरी के गुलाम कुतुबद्दीन ऐबक ने इस पाठशाला को तोड़कर एक मस्जिद में बदल दिया ये राजस्थान की प्रथम मस्जिद है इसे ढाई दिन का झोपडा भी कहा जाता है, इस मस्जिद की डिजाइन अबू बकर ने तैयार की थी। जॉन मार्शल के अनुसार ये मस्जिद ढाई दिन में बनकर तैयार हुई थी. इसलिए इसे ढाई दिन का झोंपड़ा कहा जाता है। पर्सी ब्राउन के अनुसार यहाँ पंजाब शाह पीर का ढाई दिन का उर्स लगता है इसलिए इसे ढाई दिन का झोपडा कहा जाता है।
टॉड ने ढाई दिन के झौंपडे को हिन्दू शिल्पकला का सबसे प्राचीनतम व परिष्कृत नमूना कहा था। टॉड ने इस झौंपडे के लिए कहा था मैनें इतनी प्राचीनतम व सुरक्षित इमारत और कहीं नहीं देखी। ढाई दिन का झोपडा राजस्थान की प्रथम मस्जिद है, इसमें 16 खमे हैं।
नोट :- (1) भारत की प्रथम मस्जिद 629 ई. की चेरामन जुमा मस्जिद (केरल के कोडगलूर तालुक के मेथला गाँव मे) यह भारत की प्रथम जुमा मस्जिद है। इस जुमा मस्जिद का निर्माण मोहम्मद साहब के जीवनकाल में ही हुआ था। जब अरब के मुसलमानों का व्यापार भारत के दक्षिणी तट पर हुआ तब यहाँ धर्मप्रचारकों ने कई मस्जिदें बनवाई। उत्तरी भारत की प्रथम मस्जिद कुवैत-उल- इस्लाम है जिसे कुतुबद्दीन ऐबक ने बनवाई।
(2) ढाई सीढ़ी की मस्जिद (भोपाल मध्यप्रदेश) में है। ये भोपाल की प्रथम व एशिया की सबसे छोटी मस्जिद है। इस नाटक का विषय-वस्तु किरात के वेश में शिव तथा तपस्या करते अर्जुन का कथानक है।
(3) भारवी के किरातार्जुनीयम् नाटक का विषय-वस्तु यही है जो हरिकेलि नाटक का है।
विद्वान धर्मघोष के कहने पर विग्रहराज ने एकादशी के दिन पशुवध पर प्रतिबंध लगाया। विग्रहराज के दरबारी विद्वान व राजकवि सोमदेव थे। जिन्होंने ललित विग्रहराज की रचना की।
विग्रहराज के समय के नाटक :-
1. ललित विग्रहराज –  सोमदेव ने लिखा इसमें इन्द्रपुरी की राजकुमारी देसलदेवी व विग्रहराज के मध्य प्रेम संबंधों का वर्णन है।
2. बीसलदेव रासो :- ये नरपति नाल्ह ने लिखा था।
बीसलदेव रासो के चार खण्ड हैं :-
1. प्रथम खण्ड :- इसमें मालवा के परमार भोज की पुत्री राजमति व बीसलदेव के मध्य विवाह का वर्णन है।
2. द्वितीय खण्ड :- बीसलदेव का राजमति से नाराज होकर उडीसा जाने का जिक्र है। बीसलदेव रासो में उड़ीसा विजय का भी जिक्र मिलता है।
3. तृतीय खण्ड:- इसमें राजमति के विरह का वर्णन है।
4. चतुर्थ खण्ड :- भोज द्वारा अपनी पुत्री को वापस ले
जाना व बीसलदेव को वहाँ से चित्तौड़ जाने का वर्णन है। विग्रहराज की मृत्यु छोटी अवस्था में हो गई। इनके दो पुत्रों का उल्लेख आता है एक अमरगांगेय जो इसके बाद शासक बना दूसरा नागार्जुन जिसने पृथ्वीराज तृतीय के समय विद्रोह किया था। अमरगांगेय अपने चचेरे भाई जगदेव के पुत्र पृथ्वीराज द्वितीय से लड़ते हुए मारा गया। पृथ्वीराज द्वितीय की मृत्यु होने के बाद इसकी कोई संतान नहीं होने के कारण मंत्रियों ने गुजरात की राजकुमारी कांचन देवी के पुत्र सोमेश्वर को अजमेर
की गद्दी पर बैठा दिया।
सोमेश्वर (1169-70 )
सोमेश्वर ने प्रतापलकेश्वर’ की उपाधि धारण की । इसने नवीन मूर्तिकला को प्रोत्साहन दिया। सोमेश्वर का विवाह दिल्ली के अनंगपाल तोमर की पुत्री कर्पूरी देवी से हुआ जिनसे हरिराज व पृथ्वीराज नामक दो पुत्र हुए। पृथ्वीराज का जन्म 1166 ई. में हुआ था। अनंगपाल के कोई पुत्र नहीं था इस कारण इसने पृथ्वीराज को दिल्ली का उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 1177 में अनंगपाल की मृत्यु हो गयी। पृथ्वीराज दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। जब पृथ्वीराज दिल्ली के सिंहासन पर बैठा उस समय
उनकी उम्र मात्र 11 वर्ष थी।
पृथ्वीराज (तृतीय) चौहान (1177-1192)
पिता- सोमेश्वर
माता – कर्पूरी देवी
उपनाम – 1. रायपिथौरा (युद्ध में पीठ न दिखाने वाला) 2. दलपंगुल (विश्व विजेता) (दलथंभन उपाधि जोधपुर के गजसिंह की है।), 3. हिन्दू सम्राट
पृथ्वीराज जब शासक बना तब उनकी उम्र 11 वर्ष थी तब राजकार्य माता कर्पूरी देवी ने सभाला। इनके प्रारम्भिक सहयोगी मुख्यमंत्री कदम्बवास / कैलास / वेम्बवास था। कंबवास अहीरावती जागीर का दाहिमा राजपूत था व विद्वान भी था। इसने जिनपति सूरी के शास्त्रार्थ की अध्यक्षता की थी। पृथ्वीराज का सेनापति भुवनमल था जो कर्पूरी देवी का रिश्तेदार था। भुवनमल ने पृथ्वीराज की वैसे ही रक्षा की जैसे कि गरुड़ ने राम व लक्ष्मण की मेघनाद के नागपाश से की थी। भुवनमल ने नागों का दमन
किया था।
नागार्जुनों का दमन :- नागार्जुन विग्रहराज का पुत्र था। यह स्वयं दिल्ली का शासक बनना चाहता था। नागार्जुन के साथ चाचा अमरगागेय भी था। नागार्जुन अपनी सेना लेकर गुडगांव पहुँच गया व गुड़गांव पर अधिकार कर लिया। नागार्जुन के सेनापति देवमट्ट ने कुछ देर तक पृथ्वीराज का मुकाबला किया लेकिन वह मारा गया। नागार्जुन के परिवार को बंदी बना लिया गया। नागार्जुन युद्धस्थल से भाग गया इसके बाद उसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है। गुड़गांव पर पुन पृथ्वीराज का अधिकार हो गया।
1178 में गुड़गांव के नजदीक युद्ध हुआ था। पृथ्वीराज का चाचा अपारगम्य व उनका भाई नागार्जुन का दमन किया नागार्जुन भाग गया। नागार्जुन के सेनापति देवभट्ट ने मुकाबला किया व मारा गया।
भण्डानकों का दमन (1182) –
भण्डानक सतलज प्रदेश से आई हुई एक जाति थी, इस जाति का उल्लेख स्वन्धपुराण में भी मिलता है। भण्डानको को पूर्व में विग्रहराज चतुर्थ ने भी हराया था। ये जाति गुडगाँव व हिसार के आस-पास थी तथा आगे बढ़कर मथुरा, अलवर व भरतपुर तक आ गई थी। पृथ्वीराज ने भण्डानकों की शक्ति का पूर्णतः दमन कर दिया। इसका उल्लेख समकालीन इतिहासकार जिनपति सूरी ने भी किया है व जिनपालोपाध्यायादि रचित बृहद् गुर्वावलि में भी भण्डानको का पृथ्वीराज द्वारा पराजित होने का उल्लेख मिलता है

पृथ्वीराज की दिग्विजय नीति –

महोबा विजय/ तुमुल विजय व दिग्विजय का प्रथम सौपान – 1182
भण्डानकों के दमन के बाद पृथ्वीराज के क्षेत्र की सीमा परमरदी देव चन्देल से मिल गई। एक बार पृथ्वीराज समेता से दिल्ली की ओर आ रहा था। पृथ्वीराज के घायल सैनिकों को परमरदी देव ने मरवा दिया। इस कारण पृथ्वीराज ने परमरदी देव से बदला लेने की सोची उस समय महोबा की राजनैतिक स्थिति सही नहीं थीं। परमरदी देव के वीर सेनापति आल्हा व ऊदल किसी कारण परमरदी से नाराज होकर कन्नौज शासक जयचन्द गहड़वाल की शरण में चले गये थे। इस कारण महोबा की सैन्य शक्ति कमजोर थी। पृथ्वीराज बड़ी सेना के साथ सिरस्वा पहुँचा। सिरस्वा, सिन्धु की सहायक नदी पहूजा के निकट था। पृथ्वीराज की सेना ने नारायणा में अपना बेरा डाल दिया और चंदेल राजा के क्षेत्र मे पहुँच गया। परमरची देव घबरा गया।  चंदेल व चौहानों के बीच भयंकर युद्ध हुआ परमरदी देव की सहायता लिये कन्नौज के जयचन्द गहड़वाल ने भी अपनी रोना भेजी 19 युद्ध को तुमुल का युग कहते है। चन्देल व महडवाली की संयुक्त सेना हार गई। पृथ्वीराज की इरा विजय ने पृथ्वीराज को महान विजेता की श्रेणी में खड़ा कर दिया। परमरंदी गिरफ्तार करके पृथ्वीराज के समक्ष पेश किया गया। पृथ्वीराज चन्देल शासक को माफ कर दिया। पृथ्वीराज ने महोबा का सागत । पन्जुनराय को बनाया तुमुल के युद्ध में आल्हा ऊदल बढी वीरता के साथ लड़े थे। इनके लिये जगनिक ने कहा था-
“बारह बरस कुक्कर जिए ,तेरह बरस सियार
बरस अठारह क्षत्रिय जिए, बाकी जीवन चिक्कार”

नागौर विजय 1184

पृथ्वीराज के समय गुजरात का चालुक्य शासक भीमदेव द्वितीय था ये बड़ा ही शक्तिशाली था इसने मुहम्मद गौरी को भी हराया था, व पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर की हत्या की थी। इसका ध्यान दिल्ली की ओर था भीमदेव नागौर पर अधिकार करने के लिए रवाना हुआ। इधर पृथ्वीराज भी हाथी पर सवार होकर नागौर की ओर रवाना हुआ। नागौर किले पर पृथ्वीराज का अधिकार था। इस पर भीमदेव के पुत्र जगदेव ने अधिकार कर लिया नागौर किले के बाहर पृथ्वीराज व जगदेव के मध्य युद्ध हुआ जगदेव की सेना ने पृथ्वीराज की सेना के सामने हथियार डाल दिये। जगदेव के सेना पति मुकुट राय ने पृथ्वीराज से सन्धि वार्ता की चौहान व चालुक्य के मध्य संधि हो गई। नागौर किला वापस पृथ्वीराज के अधिकार में आ गया। चौहानो की इस संधि से लंबे समय से चला आ रहा चौहान चालुक्य संघर्ष समाप्त हो गया। पृथ्वीराज चाहता तो जगदेव की हत्या करके अपने पिता सोमेश्वर की हत्या का बदला ले सकता था। लेकिन पृथ्वीराज ने ऐसा नहीं किया व मैत्री संबंधों की एक नींव रखी।
पृथ्वीराज व भीमदेव द्वितीय के मध्य विवाद का कारण पृथ्वीराज रासो में आबू की परमार राजकुमारी इच्छिनी को बताया है। भीमदेव इच्छिनी से विवाह करना चाहता था लेकिन पृथ्वीराज ने इच्छिनी से विवाह कर लिया। रासो में इनके युद्ध का एक कारण ये भी बताया है कि पृथ्वीराज के चाचा कान्हड़देव ने भीमदेव के चाचा सारंगदेव के सात पुत्रों को मार दिया था इस कारण भीमदेव ने नागौर पर आक्रमण कर सोमेश्वर की हत्या कर दी थी। अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिये पृथ्वीराज ने नागौर पर आक्रमण किया था ये कारण सत्य नहीं माना जाता क्योंकि सोमेश्वर अपनी मौत मरा था व भीमदेव की मृत्यु 1241 ई में हुई थी। इन दोनों के मध्य विवाद का कारण दोनों की आपस में सीमाएँ मिलना था।
चौहान-गहड़वाल संघर्ष व दिग्विजय नीति का तृतीय सौपान :- पृथ्वीराज व कन्नौज शासक जयचंद गहड़वाल के मध्य विवाद का कारण दोनों की सीमाएँ मिलना, दोनों का शक्तिशाली होना था, व जयचन्द गहड़वाल भी दिल्ली पर अधिकार करना चाहता था। पृथ्वीराज के नागों, भण्डानकों व चन्देलों के दमन से जयचंद ईर्ष्या रखने लगा। पृथ्वीराज रासो में जयचंद गहड़वाल के मध्य विवाद का कारण संयोगिता बताया है।
संयोगिता व इसकी ऐतिहासिकता :- संयोगिता कन्नौज के राजा जयचंद गहड़वाल की पुत्री थी। यह अत्यंत सुन्दर व विदुषी राजकुमारी थी। इसने पृथ्वीराज के कई किस्से सुने थे। इसे पृथ्वीराज देवलोक से आया हुआ देवता लगता था। एक बार दिल्ली से पन्नाराय नामक चित्रकार कन्नौज आया जिसने पृथ्वीराज का संयोगिता को दिखाया, संयोगिता पृथ्वीराज से प्रेम करने लगी। जयचन्द गहडवाल ने राजसूय यज्ञ का आयोजन करवाया व संयोगिता का स्वयंवर रखा जयचंद गहड़वाल ने पृथ्वीराज को
स्वयंवर में निमंत्रण नहीं भेजा व पृथ्वीराज की छवि धूमिल करने के लिए पृथ्वीराज की एक आदमकद मूर्ति द्वार के ऊपर लगवाई व हाथ में भाला पकड़वाया जयचन्द ने द्वारपाल की उपाधि से विभूषित किया। उधर पृथ्वीराज को स्वयंवर की सभी जानकारियों मिल रही थी। जब राजकुमारी स्वयंवर में आई तब उसे पृथ्वीराज दिखाई नहीं दिया। राजकुमारी ने वरमाला पृथ्वीराज की मूर्ति के डाल दी। पृथ्वीराज भी स्वयंवर में भेष बदलकर पहुँच गया। माला डालने के बाद संयोगिता जब मूर्ति के चरण छूने लगी तो पृथ्वीराज ने संयोगिता के पास जाकर कहा तुम्हारा स्थान चरणों में नहीं, हमारे हृदय में है। पृथ्वीराज घोड़े पर बैठकर संयोगिता के साथ रवाना हुए। इधर जयचंद ने सैनिकों को आदेश दिया कि पृथ्वीराज कन्नौज से बाहर नहीं जाना चाहिए, युद्ध हुआ और कई सैनिक मारे गये। पृथ्वीराज, संयोगिता को अजमेर ले आये।
दशरथ शर्मा ने इस कहानी को प्रेम प्रधान व सत्य बताया है। चन्द्रशेखर व अबुल फजल ने भी इस कथा को सत्य माना है। डॉ. ओझा व डॉ. त्रिपाठी इस कहानी को काल्पनिक बताते हैं कि ये किसी भाट की कल्पना है। डॉ. त्रिपाठी कहते हैं कि पृथ्वीराज के समय राजसूय यज्ञ व स्वयंवर की प्रथा लुप्त हो गई थी। सुरजन
चरित में संयोगिता का नाम कांतिमति मिलता है।
शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी व पृथ्वीराज चौहान :- मोहम्मद गोरी तुर्की के शंसबानी वंश का था। गोरी प्रारम्भ में गजनी के अधीन थे। खुरासन विजय के बाद में शहाबुद्दीन की उपाधि मुइजुद्दीन हो गई। मोहम्म्द गोरी ने गोमल दर्रे से भारत पर आक्रमण किया, इसका पहला आक्रमण 1175 में मुल्तान के करमाथी जाति के सियाओं के विरूद्ध था। 1178 में गोरी ने गुजरात पर आक्रमण किया। गुजरात के शासक भीमदेव द्वितीय ने शहद मैदान में गौरी को हरा दिया से भारत मे गोरी की पहली पराजय थी।
तराइन प्रथम युद्ध 1191
गोरी ने 1188 में मटिण्डा पर अधिकार कर लिया। मटिण्डा पर पृथ्वीराज अपना अधिकार जताता था। यही युद्धका कारण बना। इसमें पृथ्वीराज के साथ दिल्ली से गोविन्द राम था व पृथ्वीराज का सेनापति खाण्डेराव था गाविन्दराय ने गौरी पर आक्रमण किया गोरी घायल हुआ गोरी के एक खिलजी अधिकारी की जान बचाई। इस युद्ध में पृथ्वीराज की विजय हुई
तराइन द्वितीय (1192)-
गोरी 1,20,000 की सेना लेकर चला लाहौर से कयाम उल मुल्क नामक दूत भेजा गोरी ने दूसरा दूत सम्मूदीन हमजा को भेजा पृथ्वीराज रवाना हुआ, लेकिन पृथ्वीराज का सेनापति उदयराज समय पर रवाना नहीं हो सका। पृथ्वीराज के मंत्री सोमेश्वर व प्रतापसिंह गौरी से मिल गये इस युद्ध में पृथ्वीराज के साथ जालौर से समरसिंह दिल्ली से गोविन्दराय, मेवाड़ से सामन्त सिंह थे। इस युद्ध में पृथ्वीराज की हार हुई। फरिश्ता के अनुसार पृथ्वीराज के पास 3 लाख रोना थी। गोरी के साथ गजनी से 4 प्रसिद्ध सेनापति खारबक, खर्मल, इलाह व मुकल्या थे। गोविन्दराय इस युद्ध में मारा गया। पृथ्वीराज को सिरसा के में नजदीक पकड़ लिया ।

पृथ्वीराज की मृत्यु से सम्बंधित विचारधाराएँ :-

1. पृथ्वीराज रासो में चन्दरबरदाई लिखता है कि गौरी पृथ्वीराज को गजनी ले गया व उसकी आँखे फुड़वा दी तब मैंने पृथ्वीराज रासो ग्रन्थ कल्हण को देकर गजनी पहुंचा और गोरी से कहा हमारे राजा आँख न होने पर भी शब्दभेदी बाण चला सकते हैं तब गोरी ने दरबार लगाया। वहाँ मैने एक दोहे के माध्यम से पृथ्वीराज से गोरी की हत्या करवा दी।
“चार बाँस चौबीस गज अंगुल अष्ट परमार,
ता पर बैठ्यो सुल्तान चूक मति चौहान”
2. हम्मीर महाकाव्य के अनुसार पृथ्वीराज को कैद करके अंत में मरवा दिया।
3. पृथ्वीराज प्रबंध के अनुसार पृथ्वीराज को बंदी बनाकर अजमेर के महल में रखा उसके सामने मोहम्मद गौरी दरबार लगाता था। पृथ्वीराज ने अपने मंत्री प्रतापसिंह से धनुष मंगवाकर गौरी को मारना चाहा। गौरी ने पृथ्वीराज को गड्ढे में फिकवा दिया जहाँ उसकी मृत्यु हो गई।
4. अबुल फजल लिखता है कि पृथ्वीराज को गौरी, गजनी ले गया वहाँ उसकी मृत्यु हो गई।
5. मिनहाज के अनुसार पृथ्वीराज की हत्या यहीं कर दी गई थी।
6. हसन निजामी के अनुसार पृथ्वीराज ने गोरी की अध दीनता स्वीकार कर ली थी और कुछ समय तक अजमेर में शासन किया इस मत की पुष्टि संस्कृत के एक ग्रन्थ
‘किसलविधिविद्धवमसा’ में भी मिलती है। पृथ्वीराज के कुछ सिक्कों में ‘श्रीमोहम्मदसाम लिखा होना इस बात की पुष्टि करता है लेकिन पृथ्वीराज ने गोरी को मारने का षड्यंत्र किया तब उसे मृत्युदंड दे दिया। इसके बाद गोरी ने पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्दराज को अजमेर का शासक बनाया।
पृथ्वीराज की छतरी गजनी तथा स्मारक अजमेर में है। पृथ्वीराज रासों के अनुसार पृथ्वीराज व गौरी के मध्य 21 बार युद्ध हुआ। हम्मीर काव्य के अनुसार 7 बार । सुर्जन चरित्र के 21 बार युद्ध हुआ था। पृथ्वीराज प्रबंध में आठ बार हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष का जिक्र है। प्रबंध कोश में बीस बार गौरी को पृथ्वीराज द्वारा कैद से मुक्त करना बताया है। चिन्तामणि में अनुसार 23 बार गौरी का हारना लिखा है।
 पृथ्वीराज के दरबार में जयानक, विद्यापति, वागीश्वर, जनदिन, विश्वरूप आदि विद्वान थे।
 दशरथ शर्मा ने पृथ्वीराज को सुयोग्य व रहस्यमयी शासक कहा है।
  पृथ्वीराज ने दिल्ली में रायपिथौरागढ का निर्माण करवाया।
अजमेर में कला व साहित्य विभाग की स्थापना की जिसका अध्यक्ष पद्मनाम को बनाया।
नोट – गौरी ने इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) को जीतकर कुतुबुद्दीन ऐबक को यहाँ छोड दिया। इधर अजमेर में हरिराज ने गोविन्दराज को हटाकर चौहानों को स्वतंत्र करने का प्रयास किया लेकिन हरिराज ऐबक से हार गया। 1194 में अजमेर को ऐबक ने प्रत्यक्ष रूप से अपने अधिकार में ले लिया। इस अवसर पर ऐबक ने दो मस्जिदें बनवाई :- 1.. कुवत-उल-इस्लाम मस्जिद। ये दिल्ली की प्रथम मस्जिद है। 2.. अजमेर में संस्कृत पाठशाल को तोडकर 1196 में अढाई दिन के झौंपडे का निर्माण प्रारम्भ करवाया जो 1200 ई. में पूर्ण हुआ।
1194 में गौरी ने चंदावर के युद्ध में यमुना नदी के किनारे कन्नौज व बनारस के गहडवाल शासक जयचंद गहडवाल को हराया। तराईन के युद्ध में जयचंद गहडवाल तटस्थ था। 1194 में गोरी वापस चला गया व अपना गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक  को छोड़ गया। मोहम्मद गौरी की मृत्यु 1206 में सिंधु नदी के किनारे दमयक नामक स्थान पर हुई चन्दरबरदाई इसका श्रेय पृथ्वीराज को देता है जो तर्कसंगत नहीं है। कुछ इतिहासकार इसका श्रेय खोखर विद्रोहियों को देते हैं। मोहम्मद गौरी को गजनी में दफनाया गया।
ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती- ये मोहम्मद गौरी के साथ पृथ्वीराज चौहान के समय भारत आए थे।
 जन्म -1143 सजरी (फारस) ईरान। वफात (मृत्यु) 1235 अजमेर
 ये भारत में चिश्ती सम्प्रदाय के संस्थापक माने जाते हैं। इन्हें गरीब नवाज व सुल्तान अलहिन्द (हिन्दुस्तान का आध्यात्मिक गुरु) कहा जाता है सुल्तान अलहिन्द की उपाधि गौरी ने दी।
 अजमेर दरगाह गुम्बद ग्यासुद्दीन ने बनवाया। दरगाह की शुरूआत इल्तुतमिश ने की व पूर्ण हुमांयू के समय में हुई। यहां बडी देग 1567 में अकबर ने व छोटी देग 1613 में जंहागीर ने दी। ये स्थान शिया मुस्लमानों के लिए पवित्र स्थान है।
यहां 1-6 रज्जब मेला भरता है जिसका उद्घाटन भीलवाडा का गौरी परिवार करता है।
चिश्ती सम्प्रदाय की शब्दावली
1. गुरू को पीर
2. शिष्य को मुरीद
3. उत्तराधिकारी वली
4. जहां चिश्ती सम्प्रदाय के लोग बैठते हैं – खानखाह
5. उपदेश स्थल – जमीदखान
6. तीर्थ यात्री – जायरीन
7. तीर्थ यात्रा जियारत
नोट – हजरत शेख उस्मानी हारूनी के शिष्य ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के शिष्य कुतुबद्दीन बख्तियार काकी थे। बख्तियार काकी के शिष्य बाबा फरीद थे। बाबा फरीद के शिष्य निजामुद्दीन औलिया (इन्होंने कहा था दिल्ली दूर है) निजामुद्दीन औलिया के शिष्य अमीर खुसरो थे।

रणथम्भौर के चौहान

तराईन के द्वितीय युद्ध के बाद में भारत की राजनीति में परिवर्तन आया। फिर भी चौहानों की शक्ति समाप्त नहीं हुई थी। इसके बाद भी एक शताब्दी तक चौहानों की शाखाएं रणथम्भौर, जालौर, नाडोल, चन्द्रावती और आबू में शासन कर रही थी। इन्होंने सुल्तानों का संघर्ष किया। इन शाखाओं में रणथम्भौर व जालौर की शाखा प्रमुख है।
रणथम्भौर के चौहान वंश का संस्थापक पृथ्वीराज तृतीय का पुत्र गोविन्द था। गोविन्दराज के बाद रणथम्भौर का शासक वल्लनदेव बना। इसका संघर्ष 1226 ई. में इल्तुतमिश से हुआ। वल्लनदेव के बाद प्रहलाद व वीरनारायण रणथम्भौर के शासक बने । वीर नारायण का भी इल्तुतमिश से संघर्ष हुआ, सुल्तान ने दिल्ली में इसकी हत्या करवा दी। वीरनारायण के बाद में शासक बागभट्ट बना। बागभट्ट के समय रजिया सुल्तान ने मलिक कुतुबद्दीन व हसन गौरी के नेतृत्व में रणथम्भौर पर अभियान किया।
बागभट्ट के बाद उसका पुत्र जयसिंह / जैत्रसिंह / जयसिम्हा शासक बना। जयसिम्हा ने अपने शासन काल में ही अपने पुत्र हम्मीर देव को रणथम्भौर का शासक बना दिया।
हम्मीर देव चौहान (1282-1301)
हम्मीर देव जैत्रसिंह का तीसरा पुत्र था इसकी माता का नाम हीरा देवी था 1881 में हम्मीर ने दिग्विजय अभियान पूर्ण कर लिया। दिग्विजय के अन्तर्गत वे भी राज्य सम्मिलित थे जिनसे कर लिया जाता था या धनराशि लेकर मुक्त कर दिया था हम्मीर ने सर्वप्रथम भीमरस के शासक अर्जुन को हराया। हम्मीर ने माडलगढ़ से कर वसूला था यहाँ से दक्षिण की ओर बढ़कर परमार शासक भोज को हराया। इसके बाद चित्तौड आबू, काठियावाड, पुष्कर, चपा होते हुए स्वदेश लौटा त्रिभुवन गिरी के शासक ने अधीनता स्वीकार की हम्मीर ने कोटियज्ञों का आयोजन किया जिससे हम्मीर की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। रणथम्भौर के राज्य में शिवपुर जिला (ग्वालियर) बलबन (कोटा राज्य) शाकम्मरी आदि राज्य सम्मिलित हो गये थे हम्मीर ने मेवाड के शासक समरसिंह को भी हरा दिया था। आबू के शासक प्रतापसिंह को हराया था। हम्मीर के दरबार में विजयादित्य नामक कवि था। हम्मीर के गुरु का नाम राघवदेव था हम्मीर ने अपने जीवन में 17 युद्ध किये जिनमें से 16 में विजयी रहा।
रणथम्भौर का अंतिम व प्रतापी शासक हम्मीर देव इतिहास में अपने हठ व शरणागत रक्षा के लिए जाना जाता है। हम्मीर देव के बारे में कहा गया है –
“सिंह सवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलत इकबार,
त्रिया तेल, हम्मीर हठ चढे न दूजी बार।”
हम्मीर से सम्बन्धित जानकारी के ग्रंथ
1. हम्मीर महाकाव्य (नयनचंद्र सूरी) व प्रबंध कोष, हम्मीर के समय के ग्रन्थ है।
2. अमीर खुसरो – ये हम्मीर के विरुद्ध आये अलाउद्दीन के साथ था।
3. हम्मीर हठ व सुरजन चरित्र, चन्द्रशेखर के ग्रन्थ है।
4. हम्मीर रासो – सारंगधर / जोधराज ने लिखा था।
हम्मीर व जलालुद्दीन खिलजी
जलालुद्दीन खिलजी ने हम्मीर की बढ़ती हुई शक्ति को समाप्त करने के लिए 1290 ई. में रणथम्भौर दुर्ग की कुंजी जाहिन (श्रीपद) दुर्ग पर आक्रमण किया। जाहिन दुर्ग की रक्षा गुरदास सैनी जो चौहान सेना का नेतृत्व कर रहा था, रक्षा करते हुए मारा गया। जाहिन दुर्ग पर जलालुद्दीन ने अधिकार कर लिया इसके बाद वह रणथम्भौर की ओर बढा। गढ़ को जीतने के लिए मजनिक (पत्थर फेंकने का हथियार), सेवात, गरगछ आदि की व्यवस्था की परन्तु दुर्ग को फतह नहीं कर पाया और वापस लौट गया। 1292 ई. में जलालुद्दीन ने दुर्ग पर वापस आक्रमण किया इस बार भी दुर्ग को नहीं जीत पाया। दुर्ग का घेरा उठाते समय सेनापति अहमद चप ने जलालुद्दीन से पूछा वापस क्यों जा रहे हो तब जलालुद्दीन ने कहा ऐसे दस दुर्गों को मैं मुसलमान के एक बाल के बराबर भी महत्व नहीं देता

हम्मीर व अलाऊद्दीन खिलजी

अलाउदीन का हम्मीर पर आक्रमण का कारण –
1. अलाउद्दीन की साम्राज्य विस्तार नीति
2. हम्मीर का कर न देना
3. जलालुद्दीन को हम्मीर द्वारा दो बार हराना
4. रणथम्भौर के दुर्ग का दिल्ली के नजदीक होना
5. हम्मीर द्वारा मंगोल मोहम्मद शाह को शरण देना।
हम्मीर महाकाव्य के अनुसार अलाउदीन के आक्रमण का कारण :- अलाउद्दीन की सेना गुजरात से सोमनाथ मन्दिर को लूटकर वापस आ रही थी. तब जालौर के नजदीक धन के बँटवारे को लेकर विवाद हुआ एक तरफ उलूग खा, नुसरत खा दूसरी तरफ मंगोल सैनिक मोहम्मद शाह, कामरू, बारक सोमनाथ थे। उलूग खां ने गुजरात से लूट के धन में से 1/5 भाग मांगा जिसे मंगोल मोहम्मद शाह ने देने में आना-कानी की मोहम्मद शाह भागकर हम्मीर की शरण में आ गया। अलाउद्दीन ने जब
मोहम्मद शाह की माग की तो हम्मीर ने मना कर दिया।
हम्मीर हठ के अनुसार अलाउदीन के आक्रमण का कारण – अलाउद्दीन की मराठा बेगम चिमना व मोहम्मद शाह के मध्य प्रेम-संबंध बताया।
हिन्दुवाट घाटी का युद्ध – जब मंगोल मोहम्मद शाह को लौटाने से हम्मीर ने मना किया तब 1299 ई. में अलाउद्दीन ने उलुग खा, अलप खां, बजीर नुसरत खां के नेतृत्व में बड़ी सेना भेजी। सेना ने बनास नदी के पास पड़ाव डाला और यहाँ लूटपाट शुरु कर दी। हम्मीर ने कोटियज्ञ समाप्त कर मुनिव्रत धारण कर रखा था। हम्मीर ने भीमसिंह व धर्मसिंह को भेजा, चौहान सेना ने बनास के किनारे शत्रुओं से मुकाबला किया, हम्मीर की विजय हुई। वापस लौटते समय धर्मसिंह की सेना आगे चल रही थी व भीमसिह की टुकडी पीछे चल रही थी। खिलजी की एक सेना अलपखा के नेतृत्व में पहाडियों में छिपी हुई थी उस सेना ने भीमसिंह पर आक्रमण किया, हिन्दुवाट घाटी में युद्ध हुआ और भीमसिंह मारा गया। उलुग खां वापस दिल्ली लौट गया।
रणथम्भौर में हम्मीर की राजनीतिक अव्यवस्था :- जब भीमसिंह की मृत्यु का समाचार हम्मीर को मिला तब हम्मीर ने इसका जिम्मेवार धर्मसिंह को ठहराया और धर्मसिंह को अंधा करवा दिया और इस पद पर धर्मसिंह के भाई भोज को नियुक्त किया। भोज इस अव्यवस्था को सम्भाल नहीं पाया क्योंकि तुक के आक्रमण के कारण फसलें नष्ट हो चुकी थी तब हम्मीर ने भोज को अपमानित कर इस पद से हटा दिया। भोज अपने भाई पृथ्वीसिंह के साथ अलाउद्दीन के दरबार में चला गया, अलाउद्दीन ने उसे जगरा की जागीर दी। हम्मीर ने पुनः धर्मसिंह को सेनापति बना दिया। इसके हृदय में भी हम्मीर से बदला लेने की भावना थी। इसने जनता पर कई कर लगा दिये और जबरदस्ती धन इकट्ठा किया इससे जनता में असंतोष फैल गया। हम्मीर के पास भी धर्मसिंह की राय मानने के अलावा कोई उपचार नहीं था। हम्मीर ने धर्मसिंह की सम्मति से दण्डनायक के पद पर रतिपाल को नियुक्त किया जो अयोग्य था। उलुग खां के अभियान के बाद ये जो किए गये परिवर्तन आगे चलकर रणथम्भौर के लिए हानिकारक सिद्ध हुए।
अलाउद्दीन का द्वितीय असफल आक्रमण :- भोज ने दिल्ली में जाकर हम्मीर के विरुद्ध अलाउद्दीन को उकसाया, सुल्तान ने हम्मीर पर आक्रमण के लिए बड़ी सेना भेजी। हम्मीर ने अपने भाई वीरम, सेनाध्यक्ष रतिपाल, जाजदेव रणमल्ल, मंगोल नेता मोहम्मद शाह, तिचर, वैचर आदि को खिलजी की सेना से मुकाबले के लिए भेजा हिन्दुवाट घाटी में युद्ध हुआ, तुर्क सेना परास्त हुई। नयनचन्द्र सूरी के अनुसार यहाँ खिलजी के सैनिक अपनी स्त्रियों को छोड़कर भाग गये। हम्मीर ने उन महिलाओं से गाँव में मट्ठा बिकवाया।
उलुग खां का आक्रमण व नुसरत खां का मारा जाना :- अलाउद्दीन ने इस बार बड़ी सेना उलुग खां व नुसरत खां के नेतृत्व में भेजी, इन्होंने जाहिन दुर्ग को जीत लिया। जाहिन में सफलता इसलिए मिली कि इन्होंने सन्धि वार्ता का बहाना बनाया, सन्धि में शर्त रखी कि हम्मीर 4 लाख मोहरें 4 हाथी व अपनी पुत्री अलाउद्दीन को सौंपे व चारों मंगोल विद्रोहियों को दिल्ली भेजें। हम्मीर ने शर्तों को ठुकरा दिया और कहा मैं सुल्तान को अपनी तलवार से उतने घाव जरूर दे सकता हूँ जितनी उसने मोहरों की मांग की है। तुर्की सेना ने सुरंगे बनाना प्रारम्भ कर दिया, रणथम्भौर की इस घेराबंदी में नुसरत खां मारा गया। तुर्क सेना पीछे हटकर जाहिन दुर्ग तक चली गई।
अलाउद्दीन का आगमन व दुर्ग का पतन :- नुसरत खां की मृत्यु के बाद अलाउद्दीन स्वयं आया। रणथम्भौर की घेराबंदी की। रणथम्भौर के पश्चिमी मोर्चे को तोड़ने के लिये बोरों में रेत भरकर खाईयों को भरा गया। जगह-जगह सुरंगे खोदी गई। राजपूत सेना ने दीवार से तेल से भीगे कपड़ों में आग लगाकर उन पर फेंकना शुरू किया घेराबंदी लम्बे समय तक चला वर्षाऋतु आ गई अलाउद्दीन को दिल्ली और अवध में विद्रोह की सूचना मिली, दुर्ग के अन्दर भी खाने-पीने की समस्या आ गई । संधि-वार्ताएँ चली, हम्मीर का सेनापति रतिपाल संधि करने के लिए गया, अलाउद्दीन ने इसे दुर्ग जीतकर रतिपाल को सौंपने का लालच दिया, रतिपाल ने रणमल्ल को भी अपनी ओर मिला लिया। रतिपाल ने दुर्ग के एक भाग से सैनिक हटा लिए जहाँ से तुर्क सेना रस्सों व सीढ़ियों से दुर्ग में प्रवेश कर गये। हम्मीर ने संघर्ष किया व वीरगति को प्राप्त हुआ।
रणथम्भौर व राजस्थान का प्रथम साका पूर्ण – अमीर खुसरों के अनुसार दुर्ग में सोने के एक दाने के बदले में अनाज का एक दाना नसीब नहीं था। हम्मीर के नेतृत्व में केसरिया, हम्मीर की पत्नी रंगदेवी व पुत्री पद्मला के नेतृत्व में जौहर हुआ। 11 जुलाई 1301 ई. को राजस्थान व रणथम्भौर दुर्ग का प्रथम साका पूर्ण हुआ। दुर्ग पर तुर्कों को अधिकार हो गया। अलाउद्दीन ने रणथम्भौर दुर्ग उलुग खां को सौंपा। अलाउद्दीन की विजय के बाद अमीर खुसरो ने कहा था आज कुफ्र (धर्म) विरोधी) का गढ़, इस्लाम का घर हो गया।
नोट :- जसवन्त सिंह की मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा था “आज कुफ्र का दरवाजा टूट गया।
दुर्ग विजय के बाद अलाउद्दीन घायल मोहम्मद शाह के पास पहुॅचा व पूछा मै तुम्हारे घाव सही कर दूँ तो तुम मेरे साथ क्या व्यवहार करोगे, मोहम्मद शाह ने कहा मैं दो काम करूँगा एक तो रणथम्भौर की गद्दी पर हम्मीर के पुत्र को बिठाऊँगा, दूसरा तुम्हारा कत्ल करूँगा। अलाउद्दीन ने मोहम्मद शाह को हाथी से कुचलवा दिया। अलाउद्दीन ने मोहम्मद शाह की प्रशंसा भी की और उसका अंतिम संस्कार भी करवाया।
हम्मीर की मृत्यु के बाद रणथम्भौर की चौहान शाखा समाप्त हो गई, दुर्ग पर तुकों का अधिकार हो गया। दशरथ शर्मा ने कहा है यदि हम्मीर में कुछ दोष थे, तो इसमें वीरोचित युद्ध वंश की प्रतिष्ठा की रक्षा तथा मंगोल शरणार्थियों की रक्षा के सामने नगण्य हो जाते हैं। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार हम्मीर ने अपना सिर भगवान् शंकर को अर्पित कर दिया।

जालौर के चौहान

जालौर एक सुदृढ दुर्ग है यहाँ से गुजरात व मालवा का रास्ता जाता है। दिल्ली के शासकों को दक्षिणी भारत में जाने के लिये जालौर दुर्ग जीतना आवश्यक हो जाता है इसी कारण यहाँ के शासक व तुकों से संघर्ष हुआ। प्रारम्भ में ये दुर्ग परमारों के अधीन था। जालौर दुर्ग कनकाचल व सुवर्णगिरी पहाड़ी पर है इसका निर्माण नागभट्ट प्रथम ने करवाया था। सिवाना दुर्ग (बाड़मेर) को, जालौर दुर्ग की कुंजी कहते है इसका निर्माण 954 ई. में परमार वीर नारायण ने करवाया था। जालौर के चौहानों की कुलदेवी आशापुरा माता है।
कीर्तिपाल
जालौर के चौहान वंश का संस्थापक ये नाबेल शाखा के अल्ख का पुत्र था। इसने 1181 ई. में जालौर को प्रतिहारों से छीनकर स्वतंत्र शासक बन गया। प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम जाबालिपुर व दुर्ग का नाम सुवर्णगिरी मिलता है. सुवर्णगिरी से सोनगढ बन गया और इसी पहाड़ी पर रहने के कारण यहाँ के चौहान सोनगरा चौहान कहलाए। नैणसी ने कीर्तिपाल को कीतु एक महान राजा कहा है।
समरसिंह
कीर्तिपाल के पुत्र समरसिंह ने जालौर दुर्ग को सुदृढ किया यहाँ शस्त्रागार व कई मन्दिर बनवाए समरसिंह ने अपनी पुत्र लीलादेवी का विवाह गुजरात शासक भीमदेव द्वितीय से किया व गुजरात से मधुर सम्बन्ध स्थापित किए। इसके समय में दिल्ली में मोहम्मद गोरी का गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक शासन कर रहा था।
उदयसिंह (1205-57 ई.)
समरसिंह के पुत्र उदयसिंह इसने जालौर का विस्तार किया। मण्डौर व नाडोल को उदयसिंह ने अपने अधिकार में कर लिया व ताजुलमासिर के अनुसार 1228 ई. में इल्तुतमिश को भी चुनौती दी। गुजरात के लवणप्रसाद को भी परास्त किया और इसने गोडवाल व मेवाड के भी कुछ भाग पर अधिकार किया। उस समय उदयसिंह उत्तर भारत में महान् व शक्ति सम्पन्न शासक था।
चाचिगदेव (1257-1282)
उदयसिंह का पुत्र ये नासिरुद्दीन व बलबन के समकालीन था। लेकिन इसके समय दिल्ली से कोई आक्रमण नहीं हुआ।
सामन्तसिंह (1282-1305)
चाचिगदेव का पुत्र सामन्तसिंह ने बाघेला राजा सारंगदेव की सहायता से 1291 ई. में जलालुद्दीन खिलजी की सेना से मुकाबला किया था।
कान्हड़देव चौहान (1296-1311 ई.)
कान्हडदेव की जानकारी से सम्बन्धित ग्रंथ व अलाउद्दीन के जालौर पर आक्रमण के कारण :-
1. कान्हड़दे प्रबन्ध : ये पद्मनाभ ने लिखा था। इसमें कान्हड़ देव की शासन व्यवस्था व अलाउद्दीन के साथ युद्ध के बारे में वर्णन है। कान्हड़दे प्रबन्ध के अनुसार 1298 ई. में खिलजी की सेना ने गुजरात जाने के लिये कान्हड़देव से रास्ता मांगा । कान्हडदेव ने कहा “सेना ब्राह्मणों की विरोधी है, गायों की हत्या करती है, स्त्रियों व लोगों का बन्दी बनाती है मैं इन्हें रास्ता नहीं दूँगा। खिलजी की सेना मेवाड़ के रास्ते से गुजरात चली गई। वापस आ रही सेना पर कान्हडदेव ने आक्रमण कर दिया। कान्हड़दे प्रबंध में उल्लेख मिलता है कि जब अलाउद्दीन को जालौर पर आक्रमण की कोई सफलता नहीं मिली तब शहजादी फिरोजा स्वयं जालौर आई थी कान्हड़देव ने स्वागत किया परन्तु वीरमदेव से विवाह करने से इनकार कर दिया। जालौर विजय के बाद जब वीरमदेव का सिर दिल्ली ले जाया गया शहजादी फिरोजा को दिया फिरोजा ने स्वयं वीरमदेव का दाह संस्कार किया व स्वयं ने यमुना नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली।
2. वीरमदे सोनगरा री बात – ये भी पद्मनाम ने ही लिखा था।
3. नैणसी री ख्यात – ये नैणसी ने लिखी थी। इसमें वीरमदेव व फिरोजा के मध्य प्रेम सम्बन्धों का वर्णन है। नैणसी के अनुसार अलाउद्दीन व कान्हड़देव के मध्य सन्धि हुई, सन्धि के बाद कान्हड़देव ने अपने पुत्र वीरमदेव को अलाउद्दीन के दरबार में भेजा वहाँ अलाउद्दीन की शहजादी फिरोजा वीरमदेव से प्रेम करने लगी। फिरोजा ने वीरमदेव से विवाह के लिए हठ किया लेकिन वीरमदेव ने शहजादी के साथ विवाह करने से इनकार कर दिया अपनी धर्म व मर्यादा के खिलाफ बताकर एक दिन रात्रि में चुपके से दिल्ली से जालौर आ गया इस कारण अलाउद्दीन ने जालौर पर आक्रमण किया।
4. तारीख-ए-फरिश्ता – इस ग्रन्थ की रचना सोलहवीं शताब्दी में फारसी भाषा में फरिश्ता ने की थी। इस ग्रन्थ में दक्षिण भारत की घटनाओं का वर्णन है व कुछ उत्तर भारत की घटनाओं का भी जिक्र मिलता है। फरिश्ता के अनुसार 1305 ई. में अलाउद्दीन ने एन-उल-मुल्क-मुलतानी को कान्हड़देव के विरुद्ध भेजा। इनके मध्य सन्धि हो गई। कान्हड़देव खिलजी के दरबार में चला गया । एक दिन अलाउद्दीन ने दरबार में कहा ‘हिन्दुस्तान में एक भी राजा ऐसा नहीं, जो मुझे चुनौती दे सके।” कान्हड़देव दरबार में अलाउद्दीन को चुनौती देकर वापस आ गया।
5. कान्हड़देव व अलाउद्दीन के मध्य युद्ध का कारण दोनों का साम्राज्यवादी होना, अलाउद्दीन की धार्मिक कट्टरता व 1298 में अलाउद्दीन की सेना गुजरात जा रही थी जाते समय कान्हडदेव ने रास्ता नहीं दिया व वापस आ रही सेना पर जैता व देवडा के नेतृत्व में कान्हडदेव ने आक्रमण कर दिया व शिवलिंग के टुकड़े छीन लिए। अलाउद्दीन के सेनापति नुसरत खां व उलुग खां यहाँ से भाग गये।
अलाउद्दीन का आगमन व सिवाणा का साका :-
सिवाणा दुर्ग जालौर दुर्ग की कुंजी है। सिवाणा दुर्ग सीतलदेव के नेतृत्व में था। 2 जुलाई 1308 ई. को अलाउद्दीन के सेनापति कमालुद्दीन ने दुर्ग को घेर लिया। सीतलदेव के सेनापति भावला को अपनी ओर मिला लिया। भावला ने दुर्ग में स्थित ‘मामादेव कुण्ड में गौ रक्त मिला दिया। सीतलदेव के नेतृत्व में केसरिया व मैणादे के नेतृत्व में जौहर हुआ। 1308 ई. में सिवाणा दुर्ग का साका पूर्ण हुआ। अलाउद्दीन ने ये दुर्ग कमालुद्दीन को सौंप दिया व इसका नाम खैराबाद कर दिया।
जालौर दुर्ग का साका:-
सिवाणा विजय के बाद खिलजी की सेना ने मारवाड को उजाड़ा उस समय भीनमाल चौहान कालीन विद्या का केन्द्र था। जिसे दूसरी ब्रह्मपुरी नगरी कहा जाता था खिलजी की सेना ने इसे जला दिया। जालौर दुर्ग पर जब आक्रमण किया उस समय खिलजी का सेनापति मालिक नाइब था। कान्हड़दे के सेनापति दहिया बीका ने कान्हड देव के साथ विश्वासघात किया व दुर्ग की गुप्त सुरंग का रास्ता बता दिया। दहिया बीका को इसकी पत्नी ने मार दिया। कान्हड़देव के नेतृत्व में केशरिया, जैतल दे के नेतृत्व में जौहर हुआ। 1311 में जालौर दुर्ग का साका पूर्ण हुआ। जालौर का नाम अलाउद्दीन ने जलालाबाद कर दिया। अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग में एक गरिजद बनवाई जिस पर तोप रखवाया इस मस्जिद का नाम ‘तोप मस्जिद’ कर दिया ये राजस्थान की दूसरी मस्जिद है। कान्हड़देव के परिवार में एक मात्र सदस्य कान्हड़देव का भाई मालदेव बचा इराने आत्मसमर्पण कर दिया। अलाउद्दीन ने चित्तौड़ दुर्ग खिजखां के स्थान पर मालदेव सोनगरा को सौंप दिया जिसे बाद में हम्मीर ने मालदेव के पुत्र जैसा / वीरा से छीन लिया था।

नाडाल (पाली) के चौहान

लक्ष्मण –
नाहौल के चौहान वंश का संस्थापक वाक्पतिराज का पुत्र लक्ष्मण था जिसने 960 ई. में चावड़ों को पराजित कर नाडौल पर अधिकार किया।
अहिल-
 माना जाता है कि महमूद गजनवी के 1025 ई. में सोमनाथ पर आक्रमण के समय अहिल ने तुर्क सेना का सामना किया था।
पृथ्वीपाल-
 इसने गुजरात के चालुक्य शासक कर्ण को पराजित किया।
असराज –
 नाडौल के चौहान शासक असराज ने गुजरात के चालुक्यों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
अल्हण-
 इसके पुत्र कीर्तिपाल ने जालौर में अपना राज्य स्थापित किया।
केल्हण-
यह 1178 ई. में मूलराज द्वितीय के सामन्त के रूप में मोहम्मद गोरी के विरुद्ध लड़ा था।
 1205 ई. में नाडौल के चौहान राज्य पर जालौर के चौहानों ने अधिकार कर लिया।

सिरोही के देवड़ा चौहान

राव लुम्बा (1311-1321 ई.)-
 सिरोही के चौहान राज्य का संस्थापक लुम्बा जालौर की देवड़ा शाखा का चौहान था, इसलिये सिरोही के चौहान ‘देवड़ा चौहान’ कहलाये। उसने आबू और चन्द्रावती को परमारों से छीनकर चन्द्रावती को राजधानी बनाया।
शिवभान (शिभान ) –
 शिभान ने 1405 ई. में शिवपुरी नगर की स्थापना की तथा इसे राजधानी बनाया।
सहसमल-
 शिभान के पुत्र सहसमल ने 1425 ई. में सिरोही बसाकर इसे अपनी राजधानी बनाया।
 इसके समय राणा कुम्भा ने आयु, बसन्तगढ़ तथा सिरोही के पूर्वी भाग पर अधिकार कर लिया था। विजय के उपलक्ष्य में राणा कुम्भा ने अचलगढ़ दुर्ग और उसमें कुम्भश्याम मन्दिर का निर्माण करवाया था।
लाखा (1451-1483 ई.)-
 इसने सिरोही के खोये हुए क्षेत्रों को पुनः प्राप्त किया।
जगमाल (1483-1523 ई. ) –
 मेवाड़ के राणा रायमल की पुत्री आनन्दाबाई जो जगमाल की पत्नी थी, के साथ मनमुटाव के परिणामतः इसने रायमल के पुत्र पृथ्वीराज को धोखे से मरवा दिया था।
अखैराज रेवड़ा-
यह ‘उड़ना अखैराज’ के नाम से भी जाना जाता है, इसने खानवा के युद्ध में राणा सांगा की ओर से भाग लिया था।
सुरताण देवड़ा-
सुरताण देवड़ा ने लम्बे संघर्ष के बाद 1575 ई. में मुगल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली।
बेरिसाल-
 इसने कालिन्दी नामक स्थान पर मारवाड़ के अजीतसिंह को शरण दी थी।
 सिरोही के शासक शिवसिंह ने 11 सितम्बर, 1823 ई. को अंग्रेजों से सन्धि कर अधीनता स्वीकार कर ली थी। सिरोही राज्य का अन्तिम शासक अभयसिंह था।

हाड़ोती के चौहान

1. बून्दी का हाड़ा चौहान वंश-
देवासिंह हाड़ा-
 बून्दी के हाड़ा वंश का संस्थापक देवासिंह (राव देवा) प्रारम्भ में मेवाड़ के अधीन बम्बावदे का ठिकानेदार था। उसने बूंदीघाटी के अधिपति जैता मीणा को पराजित कर 1241 ई. में बूंदी में अपनी राजधानी स्थापित की।
समरसिंह-
समरसिंह के पुत्र जैत्रसिंह ने 1264 ई. में कौटिया भील को पराजित कर कोटा नगर की स्थापना की तथा कोटा के किले का निर्माण करवाया।
बरसिंह-
 जैत्रसिंह के पुत्र राव बरसिंह ने 1354 ई. में बून्दी के तारागढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया था।
हम्मीर-
 राव हम्मीर के समय मेवाड़ के राणा लाखा ने बून्दी को जीतने की कोशिश की, जिसमें असफल रहने पर राणा ने मिट्टी का नकली दुर्ग बनवाकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की थी।
राव बैरीसाल-
 यह मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम द्वारा 1458 ई. में बून्दी पर आक्रमण के समय मारा गया था।
राव सुर्जन (1554-1585 ई.)-
 अकबर द्वारा 1569 ई. में रणथम्भौर पर आक्रमण के समय मेवाड़ की अधीनता में रणथम्भौर पर राव सुर्जन का अधिकार था। राव सुर्जन ने थोड़े विरोध के बाद सन्धि कर मुगल अधीनता स्वीकार कर ली। अकबर ने उसे ‘रावराजा’ की उपाधि और पाँच हजार का मनसब प्रदान किया।
राव सुर्जन ने द्वारकापुरी में रणछोड़जी का मन्दिर बनवाया था। राव सुर्जन के दरबारी कवि चन्द्रशेखर ने ‘सुर्जन चरित्र’ और ‘हम्मीर हठ’ नामक ग्रन्थों की रचना की।
राव रतन (1607-1631 ई. ) –
 राव रतन को बादशाह जहाँगीर ने ‘सरबुलन्दराय’ और ‘रामराज’ की उपाधियाँ प्रदान की थी।
राव शत्रुशाल (1631-1658 ई.)-
 यह सामूगढ़ (1658 ई.) के युद्ध में दारा की ओर से लड़ता हुआ मारा गया था।
राव अनिरुद्ध (1681-1695 ई.)-
राव अनिरुद्ध के भाई राव देवा ने 1683 ई. में वृन्दी की प्रसिद्ध चौरासी खम्भों की छतरी का निर्माण करवाया था। यह राव शत्रुशाल की छतरी है।
महाराव बुद्धसिंह (1695-1730 ई.)-
  मुगल बादशाह बहादुरशाह प्रथम ने इसे ‘महारावराणा’ की उपाधि प्रदान की थी।
 बुद्धसिंह समय कोटा के भीमसिंह ने कुछ समय के लिए बून्दी पर अधिकार कर लिया था। इसी समय बादशाह फर्रुखसियर ने बून्दी का नाम ‘फर्रुखाबाद’ किया था।
महाराव विष्णुसिंह-
 विष्णुसिंह ने 10 फरवरी, 1818 को अंग्रेजों से सन्धि कर ली थी।
महाराव रामसिंह (1831-1889 ई.)-
रामसिंह के शासन काल में ही कवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने ‘वंशभास्कर’ की रचना की थी।
 बून्दी का अन्तिम शासक महाराव बहादुरसिंह था।
2. कोटा का हाड़ा वंश-
माधोसिंह (1631-1648 ई.)-
 माधोसिंह बून्दी के राव रतन का पुत्र था, जिसे राव रतन ने 1624 ई. में कोटा की जागीर प्रदान की थी।
 1631 ई. में राव रतन की मृत्यु के बाद बादशाह शाहजहाँ ने माधोसिंह को पृथक् रूप से कोटा का शासक स्वीकार कर लिया।
मुकुन्दसिंह (1648-1658 ई.)-
 यह 1658 ई. में धरमत के युद्ध में शाही सेना की ओर से औरंगजेब के विरुद्ध लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ था।
किशोरसिंह (1684-1696 ई.) –
किशोरसिंह ने कोटा के किशोर सागर तालाब का निर्माण करवाया था।
रामसिंह (1696-1707 ई.)-
औरंगजेब के पुत्रों के मध्य हुए उत्तराधिकारी संघर्ष में रामसिंह आजम की ओर से लड़ते हुए जाऊ के युद्ध में मारा गया था।
भीमसिंह (1707-1720 ई.)-
भीमसिंह ने खींचियों से गागरोण छीन लिया तथा कुछ के लिए वृन्दी पर भी अधिकार कर लिया था।
भीमसिंह ने कृष्ण भक्ति के प्रभाव में अपना नाम ‘कृष्णा’ तथा कोटा का नाम ‘नन्दग्राम’ कर दिया था।
बारा में साँवरियाजी के मन्दिर का निर्माण महाराव भीमसिंह ने ही करवाया था।
शत्रुशाल (1756-1764 ई.)-
  इनके समय कोटा के फौजदार झाला जातिमसिंह (1758-1824 ई.) ने 1761 ई. में भटवाड़ा के युद्ध में जयपुर नरेश माधोसिंह की सेना को पराजित किया था।
 भटवाड़ा की विजय के बाद कोटा राज्य के प्रशासन में झाला जालिमसिंह का प्रभाव बढ़ता गया और अन्ततः यह ही फोटा राज्य का वास्तविक प्रशासक बन गया।
उम्मेदसिंह (1770-1819 ई.)-
 26 दिसम्बर, 1817 को अंग्रेजों से सन्धि कर अधीनता स्वीकार कर ली।
किशोरसिंह द्वितीय (1819-1827 ई.)-
 1821 ई. में माँगरोल के युद्ध में फौजदार झाला जालिमसिंह ने कर्नल टॉड के नेतृत्व वाली अंग्रेज सेना की सहायता से किशोरसिंह द्वितीय को पराजित किया था।
 कोटा के अन्तिम शासक महाराव भीमसिंह द्वितीय थे।
3. झालावाड़ का हाड़ा वंश-
 कोटा राज्य द्वारा 1818 ई. की सन्धि के बाद झाला जालिम सिंह ही कोटा का वास्तविक प्रशासक बन गया था। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र माधोसिंह 1824 ई. में कोटा राज्य का फौजदार नियुक्त हुआ। 1833 ई. में माधोसिंह का पुत्र मदनसिंह झाला कोटा राज्य का फौजदार बना।
मदनसिंह झाला-
 कोटा महाराव रामसिंह द्वितीय और मदनसिंह के मध्य मतभेदों के कारण महाराव ने कोटा राज्य का एक-तिहाई भाग 1837 ई. में मदनसिंह को दे दिया, जिसके परिणामस्वरूप झालावाड़ राज्य की स्थापना हुई।
 1838 ई. में अंग्रेज सरकार ने भी झालावाड़ राज्य को मान्यता दे दी। इस प्रकार झालावाड़ राजस्थान की नवीनतम रियासत थी।

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