धौलपुर जाट राज्य
धौलपुर राज्य की वंशावली रिकार्ड के अनुसार इस मत की पुष्टि होती है कि इनका जाट गोत्र भस्भरांलिया है जिसकी उत्पत्ति चन्द्रवंशी सम्राट ययाति के पुत्र पुरू के वंशज जाट राजा वीरभद्र के पुत्र चन्द्र के नाम से मानी जाती है । वंश के नरेशों की पदवी राणा थी । जिस प्रकार भरतपुर जाट नरेशों की वंशावली महाराजा श्रीकृष्ण जी से आरम्भ होकर महाराजा ब्रजिन्द्रसिंह भरतपुर के अन्तिम जाट नेता तक है और वे सब यदुवंशी वंश का प्रतिनिधित्व करते हैं परन्तु श्रीकृष्ण जी से 70 वीं पीढ़ी में सूर्य (सोहेदेव) का निवास सिनसिनी गाँव में रहने से उसके वंशज सिनसिनवाल कहलाया, इसी प्रकार जाट राणा धौलपुर नरेश की राजवंशावली में वीरभद्र से लेकर धौलपुर के राजाओं तक सबके नाम लिखे हुए हैं जिनका गोत्र भम्भरांलिया है और पदवी राणा है, जिससे इनको राणा भी कहा जाता है।
इस जाट गोत्र भम्भरांलिया के संस्थापक ब्रह्मभद्र तथा उसके पिता थे जिनका संक्षिप्त ब्यौरा निम्नवत है- शिवजी महाराज का राज्य कैलाश पर्वत से लेकर काशी तक विस्तृत था। जिसमें शिवालिक की शाखाएँ एवं हरिद्वार सम्मिलित थे। उनके अनुयायी जाट पुरुवंशी राजा वीरभद्र का गणतंत्र राज्य शिवालिक के पहाड़ी क्षेत्र पर स्थित था, जिसकी राजधानी हरिद्वार के निकट थी । उसी समय महादेव जी के ससुर राजा दक्ष ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया जिसमें उसकी पुत्री सती जो शिवजी की धर्मपत्नी थी बिना आमंत्रण ही पहुँच गई। अपने पिता दक्ष द्वारा यज्ञ में नहीं बुलाने के कारण सती, अग्नि कुण्ड में भस्म हो गई । शिवजी महाराज ने इसका प्रतिकार हेतु वीरभद्र को कहा, जिसने अपनी जाट सेना ले जाकर दक्ष का सिर उखाड़ दिया । राजा वीरभद्र के 5 पुत्रों व दो पोत्रों के नाम पर 7 जाट गोत्र प्रचलित हुए । वीरभद्र के एक पुत्र ब्रह्मभद्र के नाम पुरुवंशी जाटगण का नाम भम्भरांलिया प्रचलित हुआ। भम्भरांलिया जाटों का आरम्भ में शिवालिक पहाड़ी क्षेत्र में गणराज्य रहा।
गोहद
यह ग्वालियर से उत्तर पूर्व में है इस राज्य की सीमा निम्न थीइस राज्य के पश्चिम में ग्वालियर राज्य पूर्व में काली सिन्धु नदी, उत्तर में यमुना नदी और दक्षिण में सिरमूर की पहाड़ियाँ स्थित थी।
मुसलमानों के विरुद्ध राजपूतों का साथ देने के कारण इस जाटवंश के परिवार को सन् 1505 ई. में राजपूत राजाओं ने राणा की पदवी प्रदान की थी और उनको गोहद प्रदेश का शासक मान लिया। इन्होंने बाजीराव पेशवा (सन् 1720 से 1740 ई.) को बहुत सहयोग प्रदान किया था जिसका कारण मराठों की ओर से भी इन जाटो को गोहद का शासक मान लिया गया था। परन्तु मराठे जहाँ बहादुर होते हैं वही वे स्वार्थ से भी परिपूर्ण होते हैं। मराठों की इसी मनोवृत्ति ने राणा वीर जाटों को उनसे विलग हो जाने के लिए बाध्य कर दिया ।
गोहद के राणा भीमसिंह को अपने राज्य की रक्षार्थ मराठों से अनवरत युद्ध करना पड़ा । सन् 1754 ई. में अन्ताजी माणकेश्वर के नेतृत्व में मराठा सेना ने राणा के इस प्रदेश के कई भागों को अधिकृत कर लिया। राणा भीमसिंह ने महाराजा सूरजमल से मैत्री एवं संरक्षण प्राप्त किया और सन् 1755 ई. के प्रारम्भ में मराठों से अपने प्रदेश को स्वतंत्र करा लिा ।
जब सन् 1761 ई. में मराठे अब्दाली से पानीपत के युद्ध में संलग्न थे, उस समय राणा भीमसहिं ने मराठों के ग्वालियर आदि दस किलों को अपने अधिकार में ले लिया। राणा भीमसिंह की मृत्यु होने पर उसका भतीजा राणा लोकेन्द्रसिंह सिंहासन पर बैठा
महाराजा राणा लोकेन्द्रसिंह
राणा भीमसिंह के स्वर्गवासी होने पर उनका भतीजा गोहद के सिंहासन पर बैठा। उस समय आगरा से इटावा तक भरतपुर के जाटों को बसन्ती ध्वज फहरा रहा था। इस कारण मराठे जाटों के विकासमान राज्य में हस्तक्षेप करने का साहस नहीं जुटा पाये। किन्तु 6 साल की चुप्पी के बाद सन् 1767 ई. में पेशवा माधोराव के नेतृत्व में मराठों की एक बड़ी सेना लोकेन्द्रसिंह को जीत दिलाने के उद्देश्य से भेजी, जिसने जाट राज्य पर आक्रमण कर दिया ।
राणा साहब भी रणबाकुरें व वीर थे, युद्ध की ललकार सुनकर मैदान में आ डटे । महाराजा जवाहरसिंह भी राणा की सहायतार्थ पहुँचे। भीषण युद्ध हुआ। मुगल पठान भी जिनके सामने घुटनों पर गिर गये, उन मराठों का अभिमान जाट वीरों की नंगी तलवारों ने छीन लिया। पेशवा ने अपने युद्ध के व्यय राणा से प्राप्त करना चाहा। इसकी पूर्ति देने पर राणा को उन्होंने स्वतंत्र राजा मान लेने भी आश्वासन दिया। का
राणा कीरतसिंह
13 अक्टूबर 1781 ई. में माधोजी सिंधिया और अंग्रेज सरकार के मध्य हुई संधि 1804 ई. में टूट गई। दौलतराम के पुत्र व माधोसिंह सिंधिया व अंग्रेजों के मध्य संघर्ष हुआ। अंग्रेजों ने ग्वालियर का किला तो अपने अधिकार में रखा और गोहद राणा लोकेन्द्र जो के पुत्र राणा की किरतसिंह के सुपुर्द कर दिया। किन्तु एक वर्ष पश्चात् अंग्रेजों को विवशतः सिंधिया से संधि करनी पड़ी जिसके तहत ग्वालियर और गोहद वापिस कर देने पड़ें। अंग्रेजों ने गोहद के बदले में धौलपुर, बाड़ी और राजखेड़ा के परगने राणा साहब को प्रदान किये । गोहद में राणाओं ने 300 वर्षों तक शासन किया था। अब वे गोहद के बजाय धौलपुर के राणा के रूप में प्रसिद्ध हो गये ।
चम्बल नदी को धौलपुर व ग्वालियर की सरहद नियुक्त किया गया। सन् 1837 ई. में सिंधिया की महारानी बीजाबाई और उसके भाई सिन्धुराव ग्वालियर से महाराणा की शरण में आये, इन्होंने अपने स्वाभानुकूल उनको आदर-सत्कार दिया । महाराज कीरतसिंह का देहांत 1836 ई. में हो गया ।
श्री भगवन्तसिंह जी
राणा भगवन्तसिंह अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् राजसिंहासन पर आसीन हुए। 1837 ई. में सरकार अंग्रेज की ओर से राज्य को खिलअत प्रदान की गई । कहते हैं कि जिन वैश्यों द्वारा सिंधिया धौलपुर राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र कर रहा था, उनके जैन मंदिर से पारसनाथ की मूर्ति के स्थान पर महादेव की मूर्ति की स्थापना की। सिंधिया की याचना करने को भी अंग्रेजों ने उसने हस्तक्षेप नहीं 4 किया ।
सन् 1873 ई. में महाराजा भगवन्त सिंह दिवंगत हो गये । उनका इकलौता पुत्र का 28 वर्ष की आयु में ही दिवंगत हो गया। उसका 5 वर्षीय पुत्र था। जो उसकी मृत्युकाल में भी वह नाबालिग था ।
राजा निहालसिंह
नाबालिग महाराजा निहालसिंह राणा जो “प्यारे राजा साहब” के नाम से प्रसिद्ध थे राज्य के मालिक हुए। राज्य प्रबंध दिवान सर के सुपुर्द किया गया। उनकी शिक्षा का प्रबंध माताजी को सौंपा गया। वह महाराजा नरेन्द्रसिंह पटियाला नरेश की पुत्री थी । इनको हिन्दी, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी सिखायी गई। 1876 ई. में महाराजा साहब प्रिंस ऑफ वेल्स के दरबार में शामिल हुए। यह प्रिंस साहब सप्तम एडवर्ड थे। वे दरबार के बाद धौलपुर आये उनका बहुत स्वागत हुआ।
सन् 1875 ई. में मी. स्मीथ को बंदोबस्त भूमि के लिए बुलाया गया और 1877 ई. तक यह कार्य पूर्ण हो गया ।
1884 ई. में महाराजा राणा नोनीहालसिंह को राज्य का सर्वाधिकारी नियुक्त किया गया ।
निहालसिंह एक उच्चकोटि के घुड़सवार हुआ करते थे, कहते हैं कि उन्होंने रेलगाड़ी के साथ शर्त बंदी पर घोड़ा दौड़ाया। धर्म के प्रति वे अगाध श्रद्धा रखते थे। सन् 1901 ई. में इनका स्वर्गवास हो गया।
राणा रामसिंह जी
रामसिंह अपने पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे। अपने पिता की मृत्यु उपरान्त वे सिंहासन पर बैठे। रामसिंह के समय नये कानूनों का राज्य में प्रचलन हुआ। ब्रिटिश सरकार ने आपको के.सी.एस.आई. की उपाधि प्रदान की।
1911 ई. में इनका स्वर्गवास हो गया ।
उदयभानु सिंह
महाराजधिराज श्री सवाई सर उदयभान सिंह जी लोकेन्द्र बहादुर दिलेर जंग जयदेव के.सी.एस.आई., के.सी.बी.ओ ।
इनका जन्म 1901 ई. में हुआ। महाराजा निहाल सिंह इनके छोटे पुत्र थे। भाई के बाद 1911 ई. में राज्य का अधिकार इन्हें प्राप्त हुआ। नाबालिग होने के कारण राज्य प्रबंध पॉलिटिकल एजेंट व कोंसिल के द्वारा संपादित होने लगा। अपने पूर्वजों की भाँति ही ये बड़े ईश्वर भ थे । इनको 1913 ई. राज्यधिकार में प्राप्त हुआ। इन्होंने क्रेडिट कोर में शिक्षा प्राप्त की । उपाधि सहित उनका पूर्ण नाम “रईस उद्दौला सिपाहदार उल्लमुल्क महाधिराज श्री सवाई महाराजा राणा लेफ्टीनेट कर्नल उदयभानुसिंह लोकेन्द्रबहादुर दिलेरजंग जयदेव के. सी. एस. आई. के.सी.बी.ओ. ” है। ये उपाधियाँ ब्रिटिश सरकार द्वारा इन्हें प्रदान की गई । :
उदयभानुसिंह एक तपस्वी, धर्मात्मा व सद्गुणों से युक्त नरेश थे । ईश्वर वंदना एवं संत सेवा में विश्वास करते थे। इनके राज्य में अन्याय और पक्षपात नहीं था । प्रजा कर भार और बेगार से त्रस्त न थी। राजस्थानी अन्य रियासतों की तुलना में धौलपुर की जनता सबसे सुखी व स्वस्थ थी । धौलपुर रियासत पर जाट राणा नरेशों का शासन सन् 1805 से 1948 ई. तक 143 वर्ष रहा ।