राजपूतों की उत्पत्ति : राजस्थान

राजपूतों की उत्पत्ति : राजस्थान

इतिहास में राजपूत जाति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। राजपूत काल 7वीं से 12वीं शताब्दी तक माना जाता है। लगभग 5 सदी तक मुस्लिम आक्रमणों का राजपूत जाति ने मुकाबला किया राजपूत जाति ने धर्म व देश की रक्षा के लिए बलिदान दिया। राजपूत युद्ध के कुशल व वचन के भी पक्के माने जाते थे। विश्वासघात करना ये धर्म के विरुद्ध मानते थे। कर्नल टॉड लिखते है- यह स्वीकार करना पड़ता है कि ऊँचा साहस देश-भक्ति, स्वामी भक्ति, आत्म सम्मान, अतिथि का आदर राजपूतों में विद्यमान था।”
अब हम जिक्र करते हैं राजपूत कौन थे? 7वीं शताब्दी में इनका नाम क्यों सुना गया। ये लोग भारतीय थे या विदेशी थे। यह विषय आज भी विवादास्पद है व निरन्तर इस विषय में शोध होता रहेगा। विभिन्न विद्वानों के अनुसार हम इसे जानने का प्रयास करते हैं।
1. राजपूत क्षत्रिय थे – राजपूत शब्द राजपुत्र से बना है। राजपुत्र शब्द प्राचीन समय में राजाओं के राजकुमारों के लिए प्रयुक्त होता था। उस समय शासक अधिकांश क्षत्रिय होते थे। राजपुत्र शब्द किसी जाति के प्रयोग न करके केवल क्षत्रियों राजकुमारों के लिए ही प्रयोग होता था। राजपुत्र शब्द चाणक्य की अर्थशास्त्र बाणभट्ट की हर्षचरित्र, अश्वघोष के ग्रंथ आदि में भी मिलता है। राजपूत शब्द भारत में मुसलमानों के आने के बाद हुआ क्योंकि राजपुत्र बोलने में कठिनाई होती है। इस आधार पर
कह सकते हैं कि राजपूत विदेशी नहीं भारतीय थे। यह प्राचीन समय में जो क्षत्रिय थे उसके वंशज हैं। जनश्रुतियों के अनुसार राजपूत क्षत्रियों की सन्तान है। वे स्वयं को सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी मानतें हैं। प्रारम्भ में सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी दो शाखाऐं थीं। बाद में तीसरी शाखा यदुवंशी बनी। कुमारपाल चरित्र व वरण रत्नाकर ने राजपूतों की 36 शाखाओं का वर्णन है। राजपूतों की उत्पति में सर्वप्रथम चर्चा गुर्जर प्रतिहार वंश की हुई क्योंकि यह महान राजपूत वंश रहा है। इतिहास में भी यह शक्तिशाली रहा है।
प्रतिहार स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं। ग्वालियर अभिलेख में प्रतिहारों को राम के भाई लक्ष्मण का वंशज बताया है। हम्मीर महाकाव्य में चौहानों को सूर्यवंशी बताया है। चन्देल स्वयं को चन्द्रमा व ब्राह्मण पुत्री की सन्तान मानते है। चालुक्य हारिती ऋषि के कमण्डल से मानते है। हेनसांग ने चालुक्य राजा पुलकेशिन-II को क्षत्रिय बताया है। महाभारत में द्रोपदी को राजपुत्री कहा है।
1. आर्यों की सन्तान / क्षत्रियः- इस सिद्धान्त को मानने वाले गौरीशंकर हीरानन्द ओझा तथा श्री सी. एम. वैद्य हैं। इसके अनुसार राजपूत आर्यो/ क्षेत्रिय की तरह अश्व, अस्त्र-शस्त्र तथा युद्ध को महत्व देते थे। इनका शारीरिक गठन भी आर्यों की तरह लम्बा-चौडा व गठीला था।
2. अग्निकुण्ड सिद्धान्त – इस सिद्धान्त को चन्दवरदाई ने पृथ्वीराज रासो में बतलाया है। इसके अनुसार प्राचीन समय में आबू पर्वत पर ऋषियों के यज्ञ में राक्षसी प्रवृति के लोग हड्डियां व मांस डालकर यज्ञ को अपवित्र कर देते थे। वशिष्ठ मुनि ने यज्ञ करके चार राजपूत वंशों को अग्निकुण्ड से पैदा किया यथा- प्रतिहार, परमार, चालुक्य, चौहान। अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने के कारण इन्हें अग्निवंशी कहा जाता है। इस सिद्धान्त को अधिकतर इतिहासकार एक जनश्रुति व चारणों द्वारा मनगढंत कहानी मानते हैं।
अग्निकुण्ड सिद्धान्त को पृथ्वीराज विजय के लेखक जयानक थोडा सा परिवर्तित करके पेश किया कि मलेच्छ लोग यज्ञ को अपवित्र करते थे। ब्रह्मा द्वारा असुरों के वध के लिए विष्णु का अवतार हुआ और वही व्यक्ति चौहान कहलाया। इसी अग्निकुण्ड सिद्धान्त को हम्मीर रासों के लेखक जोधराज व नैनसी व सिसाणा अभिलेख (बेदला के चौहानों से सम्बन्धित) में भी माना गया है।

    अग्निकुण्ड सिद्धान्त की आलोचना

1. इतिहास सत्य घटनाओं का वर्णन है। इसमें कल्पनाओं को स्थान नही दिया जा सकता है। अग्निकुण्ड में राजवंशों की उत्पत्ति चमकदार तरीके से बताई गयी है। जो विश्वसनीय प्रतीत नहीं होती।
2. अग्निकुण्ड की उत्पत्ति सर्वप्रथम चन्द्रबरदाई ने की, बाद के विद्वानों ने इसी सिद्धान्त को तोड़-मरोड़ कर पेश किया। पृथ्वीराज रासो ग्रंथ इतिहास की दृष्टि से पूर्णतया विश्वसनीय नहीं है। जयचन्द्र विद्यालंकार ने पृथ्वीराज रासो की घटनाओं को चदुखानें की गप्प बताया है।
3. अधिकतर विद्वान यह मानते हैं कि पृथ्वीराज रासो की रचना 15-16वीं शताब्दी से पहले नहीं हुई है। जबकि इन चारों राजवंशों का इतिहास बहुत पुराना है।
4. पृथ्वीराज रासों में वर्णित चारों राजवंशों में केवल परमार ही स्वयं को अग्निवंशी मानते हैं। शेष प्रतिहार चालुक्य, चौहान अग्निवंशीय नहीं मानते हैं। प्रतिहार चौहान स्वयं को सूर्यवंशी मानते हैं। चालुक्य अपने लेखों में स्वयं चन्द्रवंशी मानते हैं।
5. चौहानों से सम्बन्धित अन्य ग्रंथ पृथ्वीराज विजय हम्मीर महाकाव्य में अग्निकुण्ड सिद्धान्त नहीं मिलता इस कारण पृथ्वीराज रासों की ऐतिहासिकता पर संदेह है। इस कारण दशरथ शर्मा पृथ्वीराज रासों के लिए लिखते है- “अग्निकुण्ड की उत्पत्ति केवल ऐसी कल्पना पर आधारित है जो मध्यकाल में चारण व भाटों की चाटूकारी प्रवृति का प्रमाण है।
इस सिद्धान्त का खण्डन में टॉड कहते हैं कि यह शुद्ध यज्ञ / संस्कार था, जिसमें 1. विदेशी शक व सिथियन (अनार्य) को संस्कार द्वारा क्षत्रिय राजपूत बनाया गया।
3. ब्राह्मणो से उत्पति के सिद्धान्त- बिजौलिया शिलालेख के आधार पर इतिहासकार राजपूतों को ब्राह्मणों की संतान बताते है, जिसमें चौहानों का नाम विशेष रूप से आता है। डॉ स्मिथ चंदेल राजपूतों को मध्य भारत की गौड़ जाति से बताते हैं। डॉ भण्डारकर ने चितौड व अचलेश्वर अभिलेखों के आधार पर गोहिल व सिसोदियों को ब्राह्मणों की संतान बताया है।
डॉ दशरथ शर्मा ने परमारों को ब्राह्मण बताया है। इनके अनुसार शुग सातवाहन, कदम्ब पल्लव जातियों ने जिस प्रकार अस्त्र उठाए उसी प्रकार ब्राह्मणों ने अस्त्र उठाए। विकट परिस्थिति में धर्म की रक्षा के लिए ब्राह्मणों ने क्षत्रिय धर्म धारण कर लिया। पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर को बिजौलिया शिलालेख में ब्राह्मण बताया है। गोपीनाथ शर्मा ने गुहिलों को नागर जाति के ब्राह्मणों का वंशज बनाया है। महाराणा कुंभा ने रसिकप्रिया में गुहिलों को नागर जाति के ब्राह्मणों की संतान बताया है।
राजपूतों की उत्पत्ति ब्राह्मणों से मुख्यतः भंडारकर व गोपीनाथ शर्मा मानते है।
1. मण्डोर के प्रतिहार राजपूत ब्राह्मण हरिशचन्द्र व मादरा की सन्तान थी।
2 आबू के प्रतिहार ब्राह्मण ऋषि वशिष्ठ की सन्तान थी।
  बुंदेलखंड के चंदेल चन्द्रमान व ब्राह्मण गान्धर्व कुमारी की सन्तान थी।
  दक्षिणी भारत के चालुक्य (सोलंकी) हारित ऋषि के कमण्डल से उत्पन्न हुए।
  बिजौलिया शिलालेख में चौहानों को वत्स गोत्रीय ब्राह्मण कहा गया है।
  राजपूत अग्निवंशीय थे तथा अग्निहोत्री ब्राह्मण होते  थे। जब इन ब्राह्मणों को सुरक्षा के लिए हथियार उठाना पड़ा तब ये राजपूत कहलाए।
4. सूर्य व चन्द्रवंशी सिद्धान्त – चारणों द्वारा लिखे गए साहित्यों में राजपूतों को सूर्यवंशी व चंद्रवंशी कहा गया है। गवालियर अभिलेख में प्रतिहारों को सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया है, राम के भाई लक्ष्मण की संतान बताया है। चंदेल स्वयं को चन्द्रमा की संतान मानते हैं। चौहानों को हम्मीर महाकाव्य में सूर्यपुत्र कहा गया है। पृथ्वीराज रासौ में सभी 36 राजपूत वंशों को सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी व यदुवंशी बताया है। हर्षनाथ अभिलेख में चौहानों को सूर्यवंशी कहा गया है। राजपूत भी सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी सिद्धांतों को मानते हैं।
डॉ दशरथ शर्मा राजपूतों को भारतीय जाति मानते हैं। इन्हें आर्यों की संतान बताया व सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी कहा। डॉ. जी. एन. शर्मा दशरथ शर्मा का समर्थन करते हैं। इन्हीं तथ्यों के आधार पर जगदीश गहलोत कहते हैं, राजपूत न विदेशी थे और न ही अनार्य थे। ये सूर्य व चन्द्रवंशी क्षत्रियों की संतान थे। श्री जगदीश गहलोत व दशरथ शर्मा इस सिद्धान्त को मानते हैं।
5. विदेशी उत्पति का सिद्धान्त – राजपूतों की उत्पत्ति का विदेशी मत कनिघम क्रुक व स्मिथ मानते हैं कनिंघम राजपूतों को यू-ची जाति का वंशज मानता है व राजपूतों का सम्बन्ध कुषाण जाति से बताया जाता है। इसका आधार कनिंघम ने ब्रोच गुर्जर नामक एक ताम्र पत्र माना जाता है जो 978 ई. का है। क्रुक महोदय शक, कुशाण, पल्लव व हूणों से राजपूतों की उत्पत्ति बताता है। इनका कहना है गुर्जर जाति हूणों से सम्बन्धित थी। इस जाति व अन्य विदेशी जातियों ने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया और इन्हीं सब जातियों से राजपूतों की उत्पत्ति हुई।
इतिहासकार डॉ. आर.जी. भण्डारकर कहना है कि गुर्जर विदेशी थे ये खिजर जाति से सम्बन्धित थे खिजर हूणों के साथ भारत आये राजपूत इन्हीं विदेशी गुर्जरों की सन्तान हैं। आगे चलकर भण्डारकर ने प्रतिहार, चालुक्य, परमार, चौहानों को भी गुर्जर सिद्ध करने का प्रयास किया। अपने कथन की प्रमाणिकता के लिए इन्होंने पुराणों का सहारा लिया। इनका कहना है कि पुराणों में हैहय (राजपूत) जाति का उल्लेख विदेशी शक व यमन जाति के साथ हुआ है अतः हैहय विदेशी हुये। भण्डारकर कहते हैं भारतीयों के साथ विवाह सम्बन्ध स्थपित करने के कारण हूण क्षत्रिय कहलाये।
भण्डारकर के राजपूतों को विदेशी गुर्जरों के वंशज मानने में निम्न कठिनाइयों आती हैं-
1. भारत में गुर्जर बाहर से आये इसके प्रमाण नहीं मिलते।
2. गुर्जर खिजर जाति के थे इसका उल्लेख नहीं मिलता।
3. गुर्जर व खिजर जाति में भिन्नता है। खिजर जाति स्थायी रूप से रहने वाली थी। जबकि गुर्जर जाति भ्रमणशील थी।
4. हैहय जाति को पुराणों में चन्द्रवंशी आर्य बताया है।
5. राजपूतों में 36 शाखाओं में कही भी हूणों का उल्लेख नहीं है। हूणों को कही भी क्षत्रिय नहीं बताया गया है।
6. अगर हूणों के साथ भारत आये होते तो श्रोतो में हूण व गुर्जरों का साथ में उल्लेख मिलता लेकिन कहीं भी इनका एक साथ उल्लेख नहीं मिलता। बाणभट्ट के हर्षचरित्र में हूण व गुर्जरा का उल्लेख अलग-अलग में है। महाभारत में हूणों का उल्लेख है गुर्जरों का नहीं है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर राजपूत विदेशी गुर्जरों की सन्तान सिद्ध नहीं होते। लेकिन डॉ. भण्डारकर राजपूतों को गुर्जरों की सन्तान सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। वह कहते है गुर्जर विदेशी थे राजपूत भी विदेशी थे। V.A. स्मिथ के अनुसार विदेशी हूणों को राजपूतों में परिवर्तित किया गया था। कनिंघम राजपूतों की उत्पत्ति कुषाणों से मानता है। टॉड राजपूतों को शक व शिथियन जाति से मानता है।
राजपूत विदेशी थे, इस धारणा की आलोचना-
1. टॉड कुछ प्रथाओं के मिलने से राजपूतों को विदेशी बताता है। प्रथाएं मिलने से रक्त सम्बन्ध हो यह जरूरी नहीं क्योंकि प्रथाओं का विकास स्वतंत्र रूप से भी हो सकता है। इसके अतिरिक्त राजपूतों की कुछ प्रथाएं ही शिथियन जाति से मिलती है जबकि वैदिक आर्यों से राजपूतों की अधिकतर प्रथाएं मिलती हैं। प्रथाओं के मिलने के आधार पर हम राजपूतों को विदेशी नहीं कह सकते।
6. मिश्रित मूल का सिद्धान्तः – डी. पी. चट्टोपाध्याय सर्वाधिक मान्य मत के समर्थक डी.पी. चट्टोपाध्याय के अनुसार राजपूतों की उत्पति के सम्बंध में कुछ भी कहना कठिन है। लेकिन फिर भी राजपूतों की उत्पति वैदिक कालीन क्षत्रियों से मानना सर्वाधिक संगत है।

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