संघ सरकार

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सरकारी निर्णय लेने की प्रक्रिया

भारत एक कल्याणकारी राज्य है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारत सरकार निःस्वार्थ माता की तरह अपने सभी नागरिकों के कल्याण के लिए नीतिगत निर्णय लेती रहती है। इसे उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। उदाहरण के रूप में 10 अक्टूबर 2006 से लागू भारत सरकार के एक निर्णय को रखा जा सकता है। भारत सरकार के श्रम और रोजगार मंत्रालय ने एक आदेश जारी किया, जिसके अनुसार घरों में 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को नौकर रखने अथवा ढाबों, जलपान गृहों, होटलों, कैंटीनों, चाय की दुकानों तथा मनोरंजन केंद्रों में काम पर रखने पर 10 अक्टूबर 2006 से पाबंदी लगा दी गई। ऐसा करना दंडनीय अपराध बना दिया गया। सर्वसाधारण को इसकी सूचना भी टेलीविजन, समाचारपत्रों तथा अन्य माध्यमों से दे दी गई
इस तरह के सरकारी नीतिगत निर्णय के लिए एक प्रक्रिया अपनाई जाती है। सरकार के एक विभाग या एक व्यक्ति अथवा संस्था द्वारा ही सारे निर्णय नहीं लिए जाते हैं। सबसे पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल निश्चित करता है कि जनकल्याण के हित में कौन-सा कानून बनाया जाए। इसके लिए एक प्रस्ताव तैयार किया जाता है जिसे विधेयक कहते हैं। इस तरह के विधेयक संसद की स्वीकृति के लिए संसद में उपस्थित किए जाते हैं। संसद में भी एक प्रक्रिया के अनुसार विचार-विमर्श होता है और इस तरह का विधेयक संसद द्वारा जब पारित हो जाता है तब राष्ट्रपति के पास उनकी स्वीकृति के लिए भेजा जाता है और जब राष्ट्रपति उसपर हस्ताक्षर कर देते हैं तब वह कानून बन जाता है। संसद में कानून निर्माण की क्या प्रक्रिया है, इसे आगे ‘संसद’ नामक अध्याय में समझाया गया है। यहाँ यही समझना है कि सरकार द्वारा निर्णय लेने में कार्यपालिका और विधायिका दोनों संस्थाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। कानून जब बन जाता है तब कार्यपालिका को अधिक सक्रिय होना पड़ता है। कानून के कार्यान्वयन का उत्तरदायित्व कार्यपालिका का ही है। कानून का सही कार्यान्वयन नहीं होने पर अथवा कानून का उल्लंघन किए जाने पर संबंधित व्यक्ति न्यायपालिका के नियंत्रण में आ जाते हैं। इस प्रकार, नीतिगत निर्णय और उसके सही क्रियान्वयन के लिए तीनों संस्थाएँ एक साथ उत्तरदायी हैं।

निर्णय लेने की शक्ति किनके पास

यह स्पष्ट किया जा चुका है कि निर्णय लेने की शक्ति किसी एक व्यक्ति अथवा किसी एक संस्था को नहीं है। 14 वर्ष तक के बालश्रमिकों के संबंध में श्रम और रोजगार मंत्रालय द्वारा जनसाधारण को समाचारपत्र के माध्यम से जानकारी अवश्य दी गई, परंतु श्रम और रोजगार मंत्रालय इस संबंध में निर्णय लेनेवाला नहीं है। उसे तो लिए गए निर्णय को लोगों की जानकारी के लिए प्रसारित कर देना था। यह बात निश्चित है कि इतने बड़े नीतिगत निर्णय में सरकार के सभी विभाग और संस्थाएँ सम्मिलित रही हैं। इस तरह के निर्णय में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संघीय मंत्रिमंडल और संसद सबों का योगदान रहा है। संक्षेप में, यहाँ इन सबों के बारे में इतना जान लेना पर्याप्त रहेगा कि
(i) राष्ट्रपति संघीय कार्यपालिका का प्रधान होता है और औपचारिक रूप से वह देश का सर्वोच्च निर्णयकर्ता है।
(ii) संघीय सरकार का वास्तविक प्रधान प्रधानमंत्री होता है और सरकार के सारे अधिकारों का वास्तविक प्रयोग प्रधानमंत्री द्वारा ही होता है।
(iii) सभी नीतिगत निर्णय मंत्रिमंडल की बैठकों में ही लिया जाता है।
(iv) किसी भी सरकारी निर्णय पर संसद की स्वीकृति आवश्यक है। किसी भी निर्णय को कानूनी पोशाक पहनाने करती है का काम संसद ही ।
अब आप इतना समझ लें कि कोई निर्णय एकाएक नहीं लिया जाता है। प्रत्येक निर्णय के पीछे एक कहानी जुटी रहती है। यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि भारत एक लोककल्याणकारी राज्य है। राज्य के सभी नागरिकों के लिए कल्याणकारी योजना बनाना सरकार का कर्तव्य है। बाल श्रमिकों की समस्या भारत में गंभीर समस्या बन चुकी है। बच्चों से मजदूर का काम लेना कम खर्चीला है। बच्चे अपने मालिक के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकते और उन्हें पारिश्रमिक भी कम देना होता है। अतः, मालिक बच्चों से ही काम लेना अधिक पसंद करते हैं। उन बच्चों की संख्या अधिक है, जो घरेलू नौकरों के रूप में तथा ढाबों, कैंटीनों, रेस्तराओं, होटलों, मनोरंजन केंद्रों आदि में काम करते हैं। अधिक बदकिस्मत वे बच्चे हैं, जो जोखिमवाले कामों में लगे हैं। बच्चों का शोषण निरंतर जारी है। ऐसे बच्चे जान नहीं पाते कि बचपन है क्या? इनके बचपन को बचाने की चिंता सरकार को भी सताती रही है। इनके कल्याण के लिए कई कदम उठाए गए। संविधान में यह व्यवस्था कर दी गई है कि 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को किसी खतरनाक काम में नहीं लगाया जाएगा। पुनः, सरकार ने बचपन बचाओ कार्यक्रम के तहत 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिए 2002 में प्राथमिक शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बना दिया। पुनः, 10 अक्टूबर 2006 से 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को घरेलू नौकर रखना अथवा ढाबों, कैंटीनों, होटलों, चाय दुकानों आदि में काम पर रखना दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया है।
संघीय सरकार के ये निर्णय कहाँ तक कारगर होंगे यह तो भविष्य ही बताएगा, परंतु इतना अवश्य है कि इन निर्णयों से बच्चों में उत्साह है और सभी जगह सरकार को समर्थन मिल रहा है।

शासकीय संस्थाओं की आवश्यकता

लोकतांत्रिक सरकारों के काम शासकीय संस्थाओं द्वारा ही संपन्न होते हैं। ऊपर के उदाहरण से ही यह बात बहुत हद तक स्पष्ट हो चुकी है कि कोई भी सरकारी आदेश जारी करने मात्र से ही काम समाप्त नहीं हो जाता है। विभिन्न शासकीय संस्थाओं को उन्हें कार्यरूप में परिणत करने के लिए भी सक्रिय होना पड़ता है। एक ओर बाल-मजदूरी के संबंध में जारी सरकारी आदेश को जनसमर्थन मिल रहा है तो दूसरी ओर बाल मजदूरों और अभिभावकों की सरकार से शिकायत भी है। सरकार के आदेश के पक्ष में रैलियाँ निकाली जा रही हैं और ‘काम नहीं, किताब दो’, ‘बाल-मजदूरी अपराध है’, ‘बाल-मजदूरी बंद करो’, ‘कलम उठा लो हाथ में, हम रहेंगे तेरे साथ में’ जैसे सुहावने नारे लगाए जा रहे हैं। परंतु, साथ ही बाल मजदूरीवाले परिवारों पर संकट के बादल घिर रहे हैं। मजदूरी करनेवाले बच्चे प्रायः गरीब परिवारों के हैं, जहाँ दो समय की रोटी का जुगाड़ करना कठिन होता है। वे न तो बच्चों का भरण-पोषण कर पाते हैं और न उन्हें स्कूल भेजने में समर्थ हैं। ऐसी परिस्थिति में शासकीय संस्थाएँ ही समस्याओं को सुलझा सकती हैं। शासकीय संस्थाएँ ही श्रमिक बच्चों के पुनर्वास की व्यवस्था कर, उनके भरण-पोषण की व्यवस्था कर तथा उनके परिवार को आर्थिक मदद करके इस समस्या का निदान ढूँढ़ सकती हैं।
इस समस्या को अखबार में प्रकाशित एक कहानी से अच्छी तरह समझा जा सकता है। भारत की एक महत्त्वपूर्ण शासकीय संस्था संसद, जो नई दिल्ली में अवस्थित है, के निकट ही बिहार के सुपौल का गरीब राय विगत 17-18 वर्षों से चाय बेचने का रोजगार कर रहा है। इस चाय की दुकान में मध्य प्रदेश के छतरपुर का छोटू उर्फ विश्वनाथ नामक 13 वर्षीय बालक मजदूर का काम कर रहा था। 10 अक्टूबर 2006 को बाल मजदूरी पर कानूनन रोक लगने के बाद भी वह बालक ग्राहकों की सेवा में जुटा हुआ है। दुकान का मालिक यूनीवार्ता से बातचीत में कहता है कि बालमजदूरी पर रोक-संबंधी कानून की जानकारी उसे हो चुकी है, परंतु यदि वह विश्वनाथ को काम से निकाल देगा तो विश्वनाथ और उसके परिवार के सामने भुखमरी की समस्या आ जाएगी। गरीब राय का यह भी कहना है कि जिन बच्चों के माता-पिता नहीं हैं और जिन्हें कोई देखनेवाला नहीं है उनको रोजी-रोटी कौन देगा? पहले सरकार रोजी-रोटी की व्यवस्था करे फिर देश में कानून लागू करे। बहुत-से बाल मजदूरों की कहानी विश्वनाथ जैसी ही है। इस कहानी में एक सवाल है— पेट की आग बुझाने के लिए बच्चे क्या करें? यह सवाल शासकीय संस्था संसद के सामने है, देश के शासकों के सामने है तथा न्यायपालिका के सामने है। बाल-मजदूरों को इंतजार है कि उनके सवालों का जवाब कौन देगा?
निश्चित रूप से इन सवालों का जवाब शासकीय संस्थाओं को ही ढूँढ़ना पड़ेगा। अतः, प्रत्येक स्थिति में शासकीय संस्थाओं की आवश्यकता पड़ेगी ही। अब यह कार्य सरकार का है कि वह बाल मजदूरों के पुनर्वास की व्यवस्था करे, उन्हें काम पर से हटाकर विद्यालय भेजने की व्यवस्था करे और आवश्यकता पड़ने पर कानून में संशोधन का प्रावधान करे। संसद इस कानून की बारीकियों पर बहस करे और आवश्यकता पड़ने पर कानून में संशोधन के प्रस्ताव को पारित करे। इस कानून से उत्पन्न विवादों को निपटाने का उत्तरदायित्व न्यायपालिका का है। इस प्रकार, तीनों शासकीय संस्थाएँ कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका मिलकर ही समस्याओं का निदान ढूँढ़ती हैं। इससे किसी निर्णय पर पहुँचने में समय अवश्य लगता है, परंतु अंततोगत्वा लोकहित को ही सर्वोपरि स्थान प्राप्त होता है। स्वाभाविक है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक व्यक्ति के ऊपर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाता। विचार-विमर्श के बाद लिया गया निर्णय प्रायः लाभदायक ही सिद्ध होता है। कठिनाइयाँ आती हैं, विरोध होते हैं, परंतु सही निर्णय करने में शासकीय संस्थाओं की आवश्यकता अवश्य होती है। आगे तीन अध्यायों में इन्हीं शासकीय संस्थाओं— संसद, कार्यपालिका तथा सर्वोच्च न्यायालय के गठन, अधिकार एवं कार्यों तथा उनकी भूमिका के बारे में बताया जाएगा।

स्मरणीय

भारत में संघीय शासन है जो देश की शासन व्यवस्था के लिए महत्त्वपूर्ण निर्णय लेता है।
 भारत एक कल्याणकारी राज्य है। अतः, भारत सरकार निःस्वार्थ माता की तरह अपने सभी नागरिकों के कल्याण के लिए नीतिगत निर्णय लेती रहती है।
किसी भी तरह के सरकारी निर्णय में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संघीय मंत्रिमंडल और संसद सबों का योगदान रहता है।
केवल निर्णय लेने मात्र से ही काम समाप्त नहीं हो जाता है। किसी भी सरकारी आदेश को कार्यरूप में परिणत करने के लिए शासकीय संस्थाओं को सक्रिय होना पड़ता है।

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