सौन्दर्यशास्त्र के अर्थ एवं अवधारणा को स्पष्ट कीजिए। ‘पाश्चात्य एवं भारतीय विचारकों के अनुसार सौन्दर्यशास्त्र एवं सौन्दर्य को परिभाषित कीजिए।
सौन्दर्यशास्त्र के अर्थ एवं अवधारणा को स्पष्ट कीजिए। ‘पाश्चात्य एवं भारतीय विचारकों के अनुसार सौन्दर्यशास्त्र एवं सौन्दर्य को परिभाषित कीजिए।
उत्तर— सौन्दर्यशास्त्र का अर्थ–’एस्थेटिक’ शब्द यूनानी भाषा से लिया गया है जिसका मूल रूप ‘Atoantikos ‘ है । यही यूनानी शब्द बाद में ‘ऐस्थेसिस’ हुआ जिसका अर्थ है’ ऐन्द्रिय सुख की चेतना’, इसी ‘एस्थेसिस’ शब्द से ‘एस्थेसिस’ शब्द बना । हिन्दी भाषा में इसे ‘सौन्दर्यशास्त्र’ या ‘नन्दनशास्त्र’ के रूप में जाना जाता है। सौन्दर्यशास्त्र दर्शनशास्त्र की एक शाखा है जिसमें कला की प्रकृति, आस्वाद या ग्रहणीयता, सौन्दर्य, सृजन तथा सौन्दर्य प्रशंसा का विचार किया जाता है। पाश्चात्य साहित्य में ‘एस्थेटिक’ शब्द प्रथम बार 1750 ई. में दार्शनिक एलेक्जेण्डर बाउमगार्टेन (Alexander Baumgarten 1714-1762 ई.) द्वारा अपनी पुस्तक एस्थेटिका (Aesthetica) के प्रथम अनुच्छेद में ‘एन्द्रिय संवेदनाओं का विज्ञान’ कहकर परिभाषित किया।
‘ऐस्थेटिक्स’ का शाब्दिक अर्थ है-ऐन्द्रिय प्रत्यक्षों का ज्ञान के माध्यम से किया गया अध्ययन । बाद में ‘ऐस्थेटिक्स’ उस शास्त्र को कहा जाने लगा जो ऐन्द्रिय बोध से प्राप्त सौन्दर्यानुभूति के आत्मिक आनन्द का विश्लेषण करता है। प्रारम्भ में सौन्दर्यशास्त्र दर्शनशास्त्र का ही एक अंग था। इसे तत्त्व दर्शन, आचार- शास्त्र तथा मनोविज्ञान ने प्रभावित किया जिससे इसका स्वरूप विकसित होता गया। सौन्दर्यशास्त्र के अन्तर्गत चाक्षुष एवं श्रवण दोनों ऐन्द्रिय बोधों की प्रमुखता रही है क्योंकि समस्त इन्द्रियों में से ये दो इन्द्रियाँ ही सत्य के अधिक निकट हैं। इसके अतिरिक्त सौन्दर्यशास्त्र में तीन प्रकार के सौन्दर्य पर विचार किया जाता है—ऐन्द्रिय सौन्दर्य, विधानगत सौन्दर्य तथा | अभिव्यक्तिगत सौन सौन्दर्य ।
सौन्दर्यशास्त्र की अवधारणा–सौन्दर्यशास्त्र की अवधारणा को हम दो भागों में विभक्त कर समझ सकते हैं—पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र की अवधारणा तथा भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की अवधारणा।
(1) पाश्चात्य सौन्दर्यशास्त्र–प्लेटो के अनुसार सुन्दर, शिव और सत्य एक है। सुन्दर ‘परम’ है और पूर्ण है तथा सुन्दर होने के लिए नैतिक होना आवश्यक है। सुन्दर होने के लिए वस्तुओं को सौन्दर्य की आवश्यकता होती है। सौन्दर्य का ज्ञान ही प्रामाणिक ज्ञान है, क्योंकि यह सत्य के अधिक निकट है। इसकी एक परम सत्ता है जो प्रत्येक सुन्दर वस्तु में प्रतिबिम्बित होती है । सुन्दर वस्तु शाश्वत नहीं है। आवश्यक नहीं कि कोई सुन्दर वस्तु सदैव सुन्दर लगे । यह परिवर्तनशील है। इन सुन्दर वस्तुओं का ज्ञान प्रामाणिक ज्ञान नहीं है। हम सुन्दर वस्तुओं में रुचि न दिखाकर सौन्दर्य में रुचि दिखाते है। हम किसी एक सुन्दर वस्तु को सौन्दर्य नहीं कह सकते, क्योंकि सुन्दर अनेक हैं और उन सबकी सुन्दरता का कारण सौन्दर्य है, न कि वह एक सुन्दर वस्तु | सुन्दर वस्तुएँ अनेक हो सकती हैं किन्तु सौन्दर्य एक होता है। सुन्दर वस्तुएँ विशेष है और सौन्दर्य प्रत्यय है अर्थात् अनेकता में एकता ।
सौन्दर्य का प्रस्फुटन सोपानवत होता है जिसमें जितना अधिक सौन्दर्य प्रत्यय का प्रतिबिम्बन होगा वह सत्य के उतना ही निकट होगा। इस प्रकार सौन्दर्य की तात्विक व्याख्या में तीन प्रमुख विशेषताएँ हैं—
(i) सौन्दर्य ही वस्तुओं की सुन्दरता का कारण है।
(ii) समस्त सुन्दर वस्तुएँ एक ही सौन्दर्य को अलग-अलग प्रतिबिम्बित करती हैं।
(iii) सौन्दर्य किसी वस्तु में सम्पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं हो पाता।
अरस्तू के अनुसार सौन्दर्य आकांक्षा, वासना और उपयोगिता से ऊपर की वस्तु है तथा सुन्दर वस्तु में क्रम, सामंजस्य, समानता तथा निश्चितता विद्यमान होती है। किसी भी वस्तु, चित्र या काव्य आदि का निर्माण विभिन्न अंगों द्वारा किया जाता है तथा इन अंगों में एक व्यवस्था एवं सामंजस्य के साथ ही एक निश्चित आयाम या विस्तार का होना भी आवश्यक है, इसलिए सौन्दर्य उचित आयाम और व्यवस्था से ही उत्पन्न होता है अर्थात् निर्मित विषयवस्तु इतनी छोटी न हो कि वह दृष्टि से दिखाई ही न पड़े और दूसरी ओर इतनी बड़ी भी न हो कि दृष्टि-सीमा में समा ही न सके । जिस प्रकार लघुत्तम जीव सुन्दर नहीं लगता, उसी प्रकार वृहत्तम् जीव भी सुन्दर नहीं लगता, क्योंकि दोनों का रूप स्पष्ट नहीं हो पाता।
अरस्तू ने सौन्दर्य एवं शिव में भी भेद किया है। शिवत्व का अनुभव गति की अवस्था में होता है जबकि सौन्दर्य जड़ पदार्थों में भी विद्यमान होता है। अरस्तू ने सौन्दर्य को शिव से भिन्न मानते हुए भी दोनों की तदरूपता को स्वीकार किया है। उनकी परिभाषा है कि “सौन्दर्य वह शिव है जो आनन्दप्रद है क्योंकि वह शिव है।” इसलिए अरस्तू ने भी संगीत को प्रत्येक कला से अधिक रूपात्मक और व्यंजक माना है क्योंकि हमारी क्रियाएँ गत्यात्मक होती हैं और संगीत मूलतः गति पर आश्रित होता है। दोनों में सादृश्य होने के कारण ही मात्र ध्वनिमय संगिनियाँ भी हमारी आत्मा को प्रभावित करती हैं।
सौन्दर्य पर विचार करते हुए आगस्टाइन ने पूर्व-प्रचलित रूपात्मक नियमों के आधार पर सौन्दर्य की परिभाषा दी है जो सिसरो के विचार का अनुसरण करती है। मध्ययुगीन दार्शनिकों ने रूपाकार में ही सौन्दर्य को ढूंढने का प्रयास किया है। इस समय सौन्दर्य को सुन्दर परिमाण तथा पूर्ण समानता के रूप में परिभाषित किया। संत एक्विनास ने तीन दशाओं– पूर्णता, अनुपात और निर्मलता में सौन्दर्य माना। आगस्टाइन ने कहा कि सुसंगति मानवीय प्रकृति को आनन्द देती है। भ्रमात्मक वस्तुएँ सत्य नहीं है। इन वस्तुओं की स्वाधीन सत्ता उनकी दैवीय उत्पत्ति को प्रतिबिम्बित करती है। प्रत्येक वस्तु उस ‘एक’ का जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माता है, अस्तित्व दर्शा कर अनुकरण करती है। यह विश्व नश्वर और विभाजित है। उस ‘एक’ से अद्वैत भाव रखकर यह अनेकता में एकता तक पहुँचने का प्रयास है और यही सुसंगति सौंदर्य है।
(2) भारतीय सौंदर्यशास्त्र–सौन्दर्य के विषय में भारतीय विचारकों ने पर्याप्त चर्चा की है और कला के प्रसंग में सौन्दर्य को विशेष महत्त्व दिया है। उपनिषदों में ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ की अभिव्यक्ति सौन्दर्य के लिए है, परन्तु इन तीनों शब्दों का क्षेत्र भौतिक सीमा से परे आध्यात्मिकता के विचार को व्यक्त करने तक सीमित है। तात्विक दृष्टि से ब्रह्म का सत्य स्वरूप, दार्शनिक विचार से चित्त और परमार्थक दृष्टि से आनन्द है।
संगीत में सौन्दर्य की उत्पत्ति दो आन्तरिक तथा बाह्य कारणों से मानी गई है—संगीतकार, कवि या चित्रकार के मन में एक आकांक्षा वेग रहता है। यह आकांक्षा वेग अमूर्त व अरूपी होता है। इसी आकांक्षा को मूर्त रूप देने पर ही वह सौन्दर्य की सृष्टि करता है तथा जब कलाकार की अन्तर और बाह्य मूर्त रूप में एकता स्थापित हो जाती है तभी आनन्द की प्रवृत्ति होती है। भारतीय साहित्य एवं दर्शन में सौन्दर्य की व्याख्या ध्वनि, अलंकार, गुण तथा औचित्य आदि अनेक रूपों में की गई है।
भारतीय विचारक आनन्द कुमार स्वामी ने आन्तरिक सौन्दर्य के साथ-साथ बाह्य सौन्दर्य को भी महत्त्व दिया, लेकिन तभी जब वह आध्यात्मिकता का पुट लिए हुए हो । शुक्रनीति सार के अनुसार, “अनुपात का सामंजस्य सौन्दर्य उत्पन्न करता है।” डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, तत्त्व व कला तत्त्व की समन्वित अनुभूति को सौन्दर्यानुभूति माना है। ” कालिदास के अनुसार, ‘क्षणे-क्षणे यनवताभुपैति तदैव रूप रमणीयताः’ । कुमारसम्भव में भी कहा गया है कि सच्चा सौन्दर्य पापवृत्ति की ओर नहीं जाता, न ही दूसरे को जाने देता है। यह मनुष्य में सात्विकता उत्पन्न करता है। कुछ विचारकों ने बाह्य सौन्दर्य को महत्त्व दिया, परन्तु भारतीय विचारक की सौन्दर्य पूर्ण रूप से आध्यात्म से जुड़ा है।
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