आपदा प्रबंधन

आपदा प्रबंधन

आपदा की परिभाषा

भारत दुनिया के सबसे ज्यादा आपदा प्रभावित देशों में से एक है। इसकी भौगोलिक स्थिति और विशेषताओं के कारण चक्रवात, सूखा, बाढ़, भूकंप, आग, भूस्खलन और हिमस्खलन जैसी अनेक प्राकृतिक आपदाओं की अत्यधिक संभावनाएं हैं। आपदा वह घटना होती है जो समाज के सामान्य जीवन के लिए अचानक त्रासदी का कारण बनती है और यह संपत्ति और जन-जीवन को इस हद तक नुकसान पहुंचाती है कि उपलब्ध सामाजिक और आर्थिक तंत्र भी सामान्य स्थिति बहाल करने के लिए अपर्याप्त साबित होता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार, ‘आपदा मानव जाति एवं समाज के लिए एक गंभीर चुनौती है। के आपदा से समाज में मानव, सामग्री, आर्थिक या पर्यावरणीय नुकसान इतने बड़े पैमाने पर होता है कि स्वयं के संसाधनों का उपयोग करते हुए भी इसका सामना करना प्रभावित समुदाय या समाज की क्षमता से बाहर की बात होती है, यह निम्नलिखित कारणों का संयुक्त परिणाम है :
♦
 
  प्राकृतिक आपदाओं की अधिकता “
♦  ज्यादा नुकसान के हालात
♦  संभावित नकारात्मक परिणामों से निपटने एवं अप्रर्याप्त क्षमता
♦  जोखिम और कमजोरियों का अप्रर्याप्त प्रबंधन
आपदा एक खतरा है, जो निम्नलिखित को नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखता है तथा भविष्य के लिए विपत्ति का स्रोत है:
♦  जनसामान्य- मृत्यु, चोट, बीमारी और तनाव
♦  संपत्ति- संपत्ति का नुकसान, आर्थिक नुकसान, आजीविका और प्रतिष्ठा का नुकसान
♦  पर्यावरण- जीव और वनस्पति को नुकसान, प्रदूषण, जैव-विविधता को नुकसान
आपदा के प्रकार
आपदा को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:
(i) प्राकृतिक आपदाएं
(ii) मानव जनित आपदाएं
● प्राकृतिक आपदाएं
प्राकृतिक आपदा के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं:
♦  बाढ़
♦  भूकंप
♦  सुनामी
♦  सूखा
♦  चक्रवात
♦  भूस्खलन
♦  हिमस्खलन
♦ तूफान
♦ ज्वालामुखी विस्फोट
♦ शीत लहर
♦  जंगल की आग
>  प्रमुख प्राकृतिक आपदाएं नीचे दी गयी हैं
● मानव जनित आपदाएं
मानव जनित आपदाओं को इस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है:
♦  परमाणु आपदाएं
♦  रासायनिक आपदाएं
♦  जैविक आपदाएं
♦  देशव्यापी या विश्वव्यापी रोग वाली आपात स्थिति, महामारी
♦ आग ( भवन, कोयला, जंगल, तेल)
♦  प्रदूषण (वायु, जल, औद्योगिक)
♦  वनों की कटाई
♦  दुर्घटनाएं (सड़क, रेल, समुद्र, वायु)
♦ औद्योगिक दुर्घटनाएं
♦ दंगे
♦  अपहरण
♦  आतंक
रासायनिक, जैविक, रेडियोलॉजिकल और परमाणु (सीबीआरएन ) खतरे की रैंकिंग मानव जनित जोखिमों के बीच बहुत अधिक है।
● आपदा स्तर
आपदा प्रबंधन और विभिन्न स्तरों पर इसकी योजना को आपदा प्रभावित क्षेत्र की संवेदनशीलता, और स्थिति से निपटने के लिए अधिकारियों की क्षमता को ध्यान में रखा जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण का उपयोग करते हुए, आपदा प्रबंधन पर उच्च अधिकारप्राप्त समिति ने 2001 की अपनी रिपोर्ट में आपदा स्थितियों को तीन उच्च स्तरों में वर्गीकृत किया था।
> लेवल – L1: आपदा का वह स्तर, जिसे जिला स्तर पर क्षमताओं और संसाधनों के भीतर प्रबंधित
किया जा सकता है। हालांकि, राज्य के अधिकारी जरूरत पड़ने पर सहायता प्रदान करने के लिए तत्पर रहेंगे ।
> लेवल-L2: यह उन आपदा स्थितियों को दर्शाता है, जिनके लिए राज्य स्तर पर संसाधनों की सहायता और सक्रिय जुटान और आपदा प्रबंधन के लिए राज्य स्तर की एजेंसियों की तैनाती की आवश्यकता होती है। राज्य द्वारा आवश्यक होने पर तत्काल तैनाती के लिए केंद्रीय एजेंसियों को सतर्क रहना चाहिए ।
> लेवल-L3: आपदा का यह स्तर, लगभग एक भयावह स्थिति या बहुत व्यापक पैमाने की आपदा जैसा होता है, जो राज्य और जिला अधिकारियों को प्रभावित करता है ।
L1 से L3 के स्तर में आपदा स्थितियों का वर्गीकरण आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 में कोई उल्लेख नहीं है। इसके अलावा, आपदा प्रबंधन अधिनियम में किसी आपदा को ‘राष्ट्रीय विपदा’ या ‘राष्ट्रीय आपदा’ के रूप में अधिसूचित करने का कोई प्रावधान नहीं है।
आपदा प्रबंधन के चरण
● प्रथम चरण : आपदा से पूर्व ( आपदा न्यूनीकरण )
तैयारी: यह वह समय है जब संभावित खतरों के जोखिम और कमियों का आंकलन करते हुए आवश्यक कदम उठाए जा सकते हैं
1. संकट कम करने और रोकने हेतु, और
2. वास्तविक घटना के लिए तैयारी करना ।
संकट को छोटे-छोटे उपायों से भी कम किया जा सकता है, जो खतरे के स्तर और तीव्रता को या तो कम कर देता है या परिवर्तित कर देता है, उदाहरणस्वरूप बिल्डिंग कोड की बाध्यता व क्षेत्रीकरण नियमों, जल निकासी व्यवस्था का समुचित रख-रखाव, सार्वजनिक शिक्षा एवं जागरूकता के माध्यम से आपदा की जोखिम आदि से कम नुकसान होता है।
● द्वितीय चरण : आपदा के समय ( प्रतिक्रिया )
> आपातकालीन प्रतिक्रियाः जब कोई संकट वास्तव में घटित होता है, तो प्रभावित लोगों के दुख और नुकसान को कम करने के लिए त्वरित प्रतिक्रिया की आवश्यकता होती है। इस चरण में, कुछ ‘प्राथमिक गतिविधियाँ’ अपरिहार्य हो जाती हैं, वे हैं
1. निकासी
2. खोज और बचाव
3. बुनियादी जरूरतों का प्रावधान, जैसे- भोजन, वस्त्र, आवास, दवाएं और प्रभावित समाज के जीवन में एक हद तक सामान्य स्थिति वापस लाने के लिए आवश्यक अन्य जीवनोपयोगी वस्तुएं
● तृतीय चरण : आपदा के उपरांत ( बहाली )
1. बहाली: यह वह चरण है जब जोखिम और भविष्य के खतरों को कम करते हुए शीघ्र सामान्य हालात बहाली करने के प्रयास किए जाते हैं। इसमें पुनर्वास और पुनर्निर्माण के दो महत्त्वपूर्ण चरण शामिल होते हैं।
2. पुनर्वास : दीर्घकालिक बहाली में सहायता के लिए इसमें अंतरिम उपाय के तौर पर अस्थायी सार्वजनिक उपयोगिताओं और आवास के प्रावधान को भी शामिल किया जाता है।
3. पुनर्निर्माणः सतत् आजीविका के लिए क्षतिग्रस्त बुनियादी ढांचे का निर्माण एवं निवास का निर्माण भी शामिल है।
आपदा प्रबंधन के तत्व
ऊपर हमने आपदा प्रबंधन के तीन चरणों का उल्लेख किया है। सभी तीन चरणों में शामिल विभिन्न पहलुओं को चित्र 12.1 के माध्यम से बताया गया है:
आपदा की जोखिम को कम करना
आपदा की जोखिम को कम करने की रणनीति में सरल निवारक उपायों को अपनाते हुए हज़ारों जिंदगियों को बचाने की क्षमता चाहिए । सुसंगत आपदा न्यूनीकरण रणनीति का अभाव और आपदा के दौरान हताहतों की संख्या बढ़ाने के मुख्य कारक रोकथाम के अभाव हैं। आपदा न्यूनीकरण को सतत् विकास के व्यापक संदर्भ में आपदा के खतरे को कम करने की रणनीति व परिपाटी पूरे समाज में खतरों और आपदा के प्रभावों को कम करने हेतु व्यवस्थित नीतियों का विकास करने के तौर पर परिभाषित किया गया है।
आपदा कम करने की रणनीति में समाज की कमजोरियों का विश्लेषण करते हुए संभावना का मूल्यांकन और खतरों की तीव्रता की पहचान करना शामिल है। संस्थागत क्षमताओं का निर्माण और समुदाय की तैयारी इसके अगले कदम हैं। हालांकि ये सभी प्रयास महत्त्वपूर्ण हैं, तथापि, समाज में एक ‘सुरक्षा संस्कृति’ का अस्तित्व है। शिक्षा, प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण जैसी निविष्टियाँ बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह समझने की ज़रूरत है कि इस तरह की तैयारियों के लिए ‘एक बार’ के प्रयास ही काफी नहीं होते हैं, अपितु यह एक सतत् प्रक्रिया है।
आपदा न्यूनीकरण में जानकारी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अनुसंधान से प्राप्त जानकारी के साथ समुदाय के परंपरागत ज्ञान का इस्तेमाल और अतीत के अनुभवों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
> आपदा जोखिम न्यूनीकरण सरंचना, कार्यवाही के निम्न क्षेत्रों को मिलाकर बनता है:
1. जोखिम प्रबंधन के बारे में नीतियाँ,
2. संभावना और जोखिम के विश्लेषण सहित खतरे का आंकलन,
3. जन माध्यमों एवं सामाजिक मीडिया की मदद से जोखिम जागरूकता पैदा करना,
4.  जोखिम कम करने के लिए योजनाओं की तैयारी,
5. योजना का कार्यान्वयन,
6. आंकड़े एकत्रित करना, प्रसारण, विश्लेषण और प्रसार से संबंधित नवीनतम प्रौद्योगिकी की मदद से त्वरित चेतावनी प्रणाली,
7. अनुभव का उपयोग,
8. सूचना- प्रभावी आपदा जोखिम प्रबंधन सभी जानकार हितधारकों की भागीदारी पर निर्भर करता है। सूचना का आदान-प्रदान तथा सुलभ संचार सुविधा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आंकड़े, चल रहे अनुसंधान, राष्ट्रीय नियोजन, जोखिम की निगरानी एवं आंकलन के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। न्यूनतम एवं सटीक आंकड़ों की व्यापक और निरंतर उपलब्धता, आपदा जोखिम न्यूनीकरण के सभी पहलुओं के लिए आधारभूत है।
♦  शमन (Mitigation)
> शमन के अंतर्गत निम्नलिखित प्रक्रियाएं हैं:
♦ आपदाओं के प्रभाव को कम करने के उपाय
♦ आपदाओं से होने वाले खतरों को रोकने के प्रयास
♦  जोखिम को कम करने या बचने के लिए लंबी अवधि के उपायों पर केंद्रित
♦  एक समाज पर इसके प्रभाव को कम करने के लिए यह आपदा से पूर्व की अग्रिम कार्यवाही है।
> शमन का महत्त्व  प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव को कम करने के लिए बहुतायत में विशेष कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं तथा स्थानीय लोगों ने स्वयं के स्वदेशी तंत्र को विकसित किया है। गैर-सरकारी संगठनों द्वारा आपात स्थिति में, समाज समर्थित कार्यवाही करने से राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन सुदृढ़ होती है।
विभिन्न आपदा शमन उपायों की शुरुआत के बावजूद, थोड़ा सुधार हुआ है। तदानुसार, भारत ने विकास योजनाओं के साथ आपदा न्यूनीकरण को जोड़ने की पहल करते हुए संचार प्रणाली और सूचना प्रौद्योगिकी के प्रयोग को बढ़ावा देने, बीमा, व्यापक जन-जागरूकता एवं शिक्षा अभियान (विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में) और अन्तर्राष्ट्रीय समाज के सहयोग से निजी क्षेत्र को शामिल करते हुए संस्थागत तंत्र को मज़बूत किया है।
● त्वरित कार्यवाही (Quick Response)
त्वरित कार्यवाही से जिंदगियाँ बचाई जा सकती हैं, संपत्ति की रक्षा और आपदा की वजह से होने वाली तबाही को कम किया जा सकता है। एक प्रभावी कार्यवाही की आवश्यकता है, जिसमें नियमों के अंतर्गत सभ्य समाज के रूप में पूरे सरकारी तंत्र की समन्वित प्रतिक्रिया होनी चाहिए। कार्यवाही में सदियों से विकसित किए गए पारंपरिक तंत्र को शमिल करना ही नहीं, अपितु कुशल योजना बनाना और समन्वय भी शामिल है। पिछले कुछ वर्षों में आपदा प्रबंधन के साथ संचयी अनुभव, एक समग्र एवं प्रभावी प्रतिक्रिया तंत्र की अत्यंत आवश्यकता की ओर ईशारा करते हैं जो पेशेवर, परिणाम उन्मुख, उन्नत एवं लोगों पर केन्द्रित हों। त्वरित कार्यवाही में निम्नलिखित पर जोर देती है:
♦  इस चरण में आवश्यक आपातकालीन सेवाओं एवं आपदा क्षेत्र में त्वरित कार्यवाही संचालित करना शामिल है। इसमें मूल आपातकालीन सेवाएं, जैसे- अग्निशमन दल, पुलिस और ऐम्बुलेंस के कर्मचारी इत्यादि को पहली प्रतिक्रिया देने वालों के तौर पर शामिल किया जा सकता है। इसके साथ आपातकालीन सेवाओं, जैसे- विशेषज्ञ बचाव दल इत्यादि का सहयोग भी होना चाहिए।
♦  यह भौतिक सुविधाओं व आजीविका की बहाली प्रभावित परिवारों / आबादी के पुनर्वास और पुनर्निर्माण के प्रयासों पर बल देता है। “
♦  क्रमश: यह आधारिक संरचना, इसके स्थान, सामाजिक योजना के संबंध में निति और योजना में खामियों पर प्रकाश डालता है।
♦  महत्व
> त्वरित कार्यवाही का महत्व निम्नलिखित है:
♦  इसका तत्काल प्रभाव होता है और नुकसान को बड़े हद तक कम किया जा सकता है। बीमा उद्योग के अनुमान के अनुसार प्राकृतिक आपदा से 85% बीमित तबाही होती है।
♦  निवेशकों द्वारा आपदाओं के प्रभाव को कम करने के उपायों में निवेश करने की अनिच्छा के कारण प्रत्येक वर्ष हज़ारों जिंदगियाँ तबाह हो जाती है तथा लाखों लोग बेघर हो जाते हैं। (2002 की विश्व आपदा रिपोर्ट के मुताबिक)
♦  कमज़ोर समुदायों की लम्बे समय तक रोधक क्षमता तैयार करना ।
♦  मुद्दे
इसमें निम्नलिखित मुद्दे शामिल हैं
♦  नागरिक समाज और अंतर्राष्ट्रीय दानदाता संगठनों के बीच समन्वय एक मुद्दा है। हाल ही का उदाहरण उत्तराखंड में आई बाढ़ (जून 2013 ) है, जहां अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को वहां काम शुरू करने के लिए सरकार की तुरंत मंजूरी लेने में मुश्किलें आईं।
♦  स्थानीय स्तर पर आपदा प्रतिक्रिया संरचना का संस्थानीकरण ।
बहाली ( Recovery )
बहाली एक महत्वपूर्ण चरण है:
♦  आपदा के दीर्घकालिक परिणाम, जब बहाली के प्रयास नियमित सेवाओं के अतिरिक्त हों, इसमें आपदा के पश्चात् स्थायी पुनर्विकास (पुनर्निर्माण, पुनर्वास) को बढ़ावा देने के लिए कार्यवाही का कार्यान्वयन शामिल है।
♦ यह त्वरित कार्यवाही के चरण से भिन्न है जिसमें निर्णय और बहाली के मुद्दे, जिसका समाधान इसके तुरन्त बाद किया जाना चाहिए। बहाली के प्रयास मूलतः कार्यवाही से संबंधित हैं जिसमें नष्ट संपत्ति का पुनर्निर्माण, पुनर्रोजगार और अन्य आवश्यक बुनियादी ढांचे को खड़ा करना शामिल है।
♦  जब मानव जीवन को तात्कालिक खतरा कम हो जाता है तब बहाली चरण शुरू होता है। पुनर्निर्माण में, संपत्ति का स्थान या निर्माण सामग्री पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
♦  आपदा के बाद सामान्य स्थिति बहाली में प्रभावित लोग एक महत्वपूर्ण कारक हैं।
♦  इस चरण में 3R के अतिव्यापी चरण शामिल हैं
>  राहत (Relief ): यह आपदा के तुरंत बाद का वो समय है जब सर्वाइवर प्रभावितों की जरूरत को पूरा करने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाते हैं।
>  पुनर्वास ( Rehabilation ) : ये वो गतिविधियाँ हैं जो पीड़ितों को पुनर्एकीकृत करते हुए सामान्य स्थिति बहाल करने में सहायता के लिए की जाती हैं। इसमें अस्थायी रोजगार और आजीविका की बहाली के प्रावधान भी शामिल हैं।
> पुनर्निर्माण ( Reconstruction ): यह लोगों को आपदा पूर्व कार्यपद्धति में सुधार की ओर ले जाने के प्रयास हैं।
भारत में आपदा प्रबंधन कार्यवाही
सदियों से स्थानीय लोगों ने अपने स्वदेशी उत्तरजीवी तंत्र को विकसित किया है। अनुभव का यह समृद्ध भंडार हमारे देश की विरासत का एक हिस्सा है। ‘चाणक्य रचित अर्थशास्त्र’, (चौथी ईसवीं पूर्व) के एक खंड में अकाल से निपटने के उपायों का वर्णन किया गया है। आपदा के समय आमतौर पर स्थानीय लोग, समुदाय पहले कार्यवाही करते है। ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार की ओर से फील्ड स्तर पर कार्यवाही नजदीकी पुलिस स्टेशन एवं राजस्व पदाधिकारियों (पटवारी/ पटेल/तलाटी/कर्मण आदि) द्वारा की जाती है जबकि शहरी क्षेत्रों में सरकारी एजेंसियाँ, जैसे- जिला प्रशासन, फायर ब्रिगेड एवं स्थानीय पुलिस स्टेशन कार्यवाही करती हैं। ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए वर्तमान में, पंचायतें प्रभावी ढंग से संस्थागत कार्यवाही करने में सक्षम नहीं हैं तथा यह केवल जिला प्रशासन ही होता है जो इस तरह की आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए मूल रूप से उत्तरदायी है और इनसे निपटने में जिला कलेक्टर एक निर्णायक भूमिका निभाता है।
भारत, चुनौतियों एवं कम लागत के अद्वितीय अवसरों से समृद्ध है एवं सरकारी संगठनों, गैर-सरकारी संगठनों एवं दानकर्ताओं द्वारा किए जा रहे कार्य, आपदा शमन उपायों में बढ़ोत्तरी करते हैं। हस्तांतरण और विकेंद्रीकरण ने इस क्षेत्र के लिए नई चुनौतियां एवं जमीनी कार्यवाही करने के लिए नए सिरे से गुंजाइश पैदा की है, जहां आपदा से निपटने की तैयारियाँ और नियोजन के निर्णय सबसे प्रभावी सिद्ध होते हैं। संगठनात्मक अनुभव, तकनीकी एवं वैज्ञानिक संसाधन तथा आपदा से संबंधित जानकारी एवं लोगों के अनुभव का एक विशाल भंडार है।
भारत ने राष्ट्रीय, राज्य, जिला एवं उपजिला स्तर पर आपदा प्रबंधन के लिए प्रशासनिक मशीनरी को एकीकृत किया है। राज्यों द्वारा किए जा रहे राहत कार्यों को अपना सहयोग प्रदान करते हुए केन्द्रीय सरकार इन्हें सुदृढ़ करती है। एक विस्तृत प्रक्रिया तंत्र और आपातकालीन प्रबंधन के संचालन की सुविधा के लिए संसाधनों के आबंटन के बारे में आकस्मिक कार्य योजना नियमावली एवं राहत मैनुअल में उल्लेख किया गया है। आकस्मिक कार्य योजना (Contingency Action Plan ), राहत कार्यों, प्रक्रियाओं और केंद्रीय मंत्रियों एवं विभागों की भूमिका को सरल बनाती है। आपदा प्रबंधन समूह, कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में नोडल मंत्रालयों के साथ मिलकर (विशेषकर गृह एवं कृषि मंत्रालय) समन्वय कार्यवाही की निगरानी, आंकलन एवं सहायता के लिए सिफारिश करता है ।
प्राकृतिक आपदा के दौरान राज्य सरकारें, बचाव एवं राहत उपाय करने के लिए राज्य राहत आयुक्त, राहत एवं पुनर्वास विभाग अथवा राजस्व विभाग के माध्यम से उत्तरदायी होती हैं। जिला अधिकारी की अध्यक्षता वाली जिला समन्वय और समीक्षा समिति में संबंधित एजेंसियों, विभागों और गैर-सरकारी संगठनों की भागीदारी शामिल है।
कानूनी ढांचा
आपदा के प्रभाव को रोकने अथवा इसे कम करने के लिए सरकार के विभिन्न खंडों द्वारा किए जाने वाले उपायों को सुनिश्चित करने और आपदा की किसी भी स्थिति के लिए एक समग्र, समन्वित एवं त्वरित कार्यवाही के लिए 26 दिसम्बर, 2005 को सरकार ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 (National Disaster Management Act ) लागू किया ताकि संस्थागत तंत्र के लिए आपदा प्रबंधन योजना का खाका तैयार करते हुए इसे लागू किया जा सके।
● राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005
इस अधिनियम में निम्नलिखित बिन्दु शामिल हैं:
1. यह अधिनियम भारत के प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) की स्थापना का आह्वान करता है।
2. धारा-8 के तहत यह अधिनियम केंद्र सरकार को राष्ट्रीय प्राधिकरण की सहायता के लिए एक राष्ट्रीय कार्यकारी समिति (एनईसी) के गठन का आदेश देता है। एनईसी, अध्यक्ष, पदेन सदस्य के रूप में सेवारत गृह सचिव के साथ भारत सरकार के गृह, कृषि, परमाणु ऊर्जा, रक्षा, पेयजल आपूर्ति, पर्यावरण एवं वन, वित्त, स्वास्थ्य, बिजली, ग्रामीण विकास, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष, दूरसंचार, शहरी विकास और जल संसाधन मंत्रालय के सचिव स्तर के अधिकारियों से बना है। कर्मचारी समिति के प्रमुखों के एकीकृत रक्षा कर्मचारी प्रमुख एनईसी के पदेन सदस्य होते हैं। एनईसी पूरे देश के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना की तैयारी करने और यह सुनिश्चित करने के प्रति जिम्मेदार होता है कि इसकी ‘वार्षिक रूप से समीक्षा की गयी हो और अद्यतन’ हो।
3. इस अधिनियम की धारा 14 के तहत सभी राज्य सरकारों के लिए राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एसडीएमए) स्थापित करना अनिवार्य है। एसडीएमए में राज्य के मुख्यमंत्री शामिल होते हैं, जो इसके अध्यक्ष होते हैं, और मुख्यमंत्री आठ से अधिक सदस्यों की नियुक्ति नहीं कर सकते हैं। राज्य कार्यान्वयन समिति, राज्य आपदा प्रबंधन योजना को तैयार करने और राष्ट्रीय योजना को लागू करने के प्रति जिम्मेदार होती है। एसडीएमए के लिए यह सुनिश्चित करना अनिवार्य है कि राज्य के सभी विभाग, राज्य और राष्ट्रीय प्राधिकरणों द्वारा निर्धारित आपदा प्रबंधन योजना को तैयार करे ।
4. यह अधिनियम जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (डीडीएमए) को स्थापित करने का भी निर्देश देता है। डीडीएमए के अध्यक्ष, कलेक्टर या जिला मजिस्ट्रेट या जिले के उपायुक्त होते हैं। उस क्षेत्र के निर्वाचित प्रतिनिधि, डीडीएमए के एक पदेन अध्यक्ष के रूप में सदस्य होते हैं ।
5. आपदा वाली किसी भी खतरे की स्थिति में विशेषज्ञ की अनुक्रिया के उद्देश्य से यह अधिनियम राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया बल के गठन का प्रावधान करता है ।
अधिनियम में प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए), मुख्यमंत्रियों की अध्यक्षता में राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एसडीएमए) और जिला मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता में जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (डीडीएमए) की स्थापना का प्रावधान है। अधिनियम में आगे राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति (एनईसी), राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआईडीएम) और राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ) के गठन का भी प्रावधान है। इसमें संबंधित मंत्रालयों एवं विभागों को राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना के अनुसार विभाग वार योजनाओं के क्रियान्वयन का भी प्रावधान है। इसके अतिरिक्त, इस अधिनियम में राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ) के गठन का भी प्रावधान है।
6. इस अधिनियम में राष्ट्रीय आपदा राहत कोष तथा राज्य एवं जिला स्तर पर राष्ट्रीय आपदा शमन कोष और इसी तरह के अन्य कोषों के गठन का भी प्रावधान है।
7. यह अधिनियम, आपदा प्रबंधन में पंचायती राज संस्थाओं (पीआरआई) और शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) सहित स्थानीय निकायों के लिए विशिष्ट भूमिकाएं भी निर्धारित करता है। इस अधिनियम में दिए गए प्रावधानों के अनुसार गठित किए गए एनडीएमए, एनईसी और एनआईडीएम, अधिनियम के अंतर्गत उन्हें विनिर्दिष्ट की गई शक्तियों एवं कार्यप्रणाली के अनुसार कार्य करते हैं।
आपदा प्रबन्धन अधिनियम, 2005 के अनुसार, जिला स्तर पर जिला मजिस्ट्रेट/ जिलाधीश की अध्यक्षता में जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के गठन का प्रावधान है जबकि स्थानीय प्राधिकरण के निर्वाचित प्रतिनिधि इसके सह अध्यक्ष होंगे। उन जिलों में जहां जिला परिषद मौजूद है, आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का अध्यक्ष, पदेन सह-अध्यक्ष होगा।
8. उपमंडल, ब्लॉक एवं ग्राम स्तर पर नियोजन प्रक्रिया की जाती है। आपदा संभावित जिलों के प्रत्येक गांव में एक आपदा प्रबंधन योजना बनाई जाती है। आपदा प्रबंधन समिति में स्थानीय प्राधिकरण, ग्राम स्तर के निर्वाचित प्रतिनिधि अर्थात सरकारी कार्यकर्ताओं सहित गांव में स्थित प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के डॉक्टर/सहयोगी स्टाफ, प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक इत्यादि होते हैं, जो आपदा से निपटने की योजनाएं तैयार करते हैं। इन योजनाओं में आपदा की रोकथाम, शमन एवं तैयारियों के उपाय शामिल हैं। ग्राम स्तर पर आपदा प्रबंधन टीमों में युवा संगठनों, जैसेनेहरू युवक केन्द्र के सदस्य और अन्य गैर-सरकारी संगठनों के साथ-साथ गांवों के सक्षम स्वयंसेवक भी शामिल होते हैं। इन टीमों को निकासी, खोज एवं बचाव, आघात परामर्श के साथ प्राथमिक चिकित्सा इत्यादि का बुनियादी प्रशिक्षण भी दिया जाता है। आपदा प्रबंधन समिति साल में कम से कम एक बार आपदा प्रबंधन योजना की समीक्षा करती है। गांव की जोखिमता पर आधारित विशिष्ट खतरों के लिए यह गांव के लोगों में ‘क्या करें’ और ‘क्या न करें’ के बारे में भी जागरूकता पैदा करती है। बड़ी संख्या में गांव स्तर पर आपदा प्रबंधन समितियों एवं आपदा प्रबंधन टीमों का गठन किया गया है। –
” शुरुआत में इस अधिनियम की गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) निर्वाचित स्थानीय प्रतिनिधियों, स्थानीय समुदायों एवं नागरिक समूहों को दरकिनार करने और पदानुक्रम, नौकरशाही, प्रभुत्व एवं नियंत्रण, ‘ऊपर से नीचे’ के दृष्टिकोण को बढ़ावा देते हुए केंद्र, राज्य एवं जिला प्राधिकरणों को व्यापक अधिकार प्रदान करने के लिए आलोचना की गई।
♦ संस्थागत ढांचा
♦ राष्ट्रीय स्तर
आपदा प्रबंधन का समग्र समन्वय गृह मंत्रालय (एमएचए) के साथ निहित है। सुरक्षा पर कैबिनेट कमेटी (सीसीएस) और नेशनल क्राइसिस मैनेजमेंट कमेटी यानि राष्ट्रीय संकट प्रबंधन समिति (एनसीएमसी) आपदा प्रबंधन के संबंध में शीर्ष-स्तरीय निर्णय लेने वाली प्रमुख समितियाँ हैं।
एनडीएमए वह प्रमुख एजेंसी है, जो आपदा प्रबंधन योजनाओं की तैयारी और राष्ट्रीय स्तर पर आपदा प्रबंधन कार्यों के निष्पादन के लिए जिम्मेदार है। आंकड़ा 1-2 राष्ट्रीय स्तर पर आपदा प्रबंधन के लिए बुनियादी संस्थागत संरचना का एक योजनाबद्ध दृष्टिकोण प्रदान करता है। यह आंकड़ा महज समन्वय, निर्णय लेने और आपदा प्रबंधन को लेकर संचार के लिए संस्थागत तरीके का प्रतिनिधित्व करता है और आदेश की किसी भी श्रृंखला को लागू नहीं करता है।
ज्यादातर मामलों में, राज्य सरकारें, केंद्र सरकार के साथ आपदा प्रबंधन में सहायक की भूमिका निभाती हैं। केंद्रीय एजेंसियाँ केवल राज्य सरकार के अनुरोध पर ही भाग लेंगी। प्रत्येक राज्य के भीतर, राज्य स्तर पर आपदा प्रबंधन के लिए एक अलग संस्थागत ढांचा होता है। 2005 का आपदा प्रबंधन अधिनियम राष्ट्रीय स्तर पर एनडीएमए, और राज्य स्तर पर एसडीएमए की स्थापना का प्रावधान करता है। केंद्रीय एजेंसियों की भागीदारी की सीमा, आपदा के प्रकार, पैमाने और प्रशासनिक प्रसार पर निर्भर करेगी। यदि इस स्थिति को केंद्र सरकार से प्रत्यक्ष सहायता या केंद्रीय एजेंसियों की तैनाती की आवश्यकता होती है, तो केंद्र सरकार आपदा के वर्गीकरण (L1 से L3) के बावजूद सभी आवश्यक सहायता से प्रदान करेगी।
समय-समय पर, केंद्र सरकार विशेष प्रकार की आपदाओं के प्रबंधन में प्रमुख एजेंसी के रूप में कार्य करने के लिए खतरनाक – विशिष्ट नोडल मंत्रालयों को सूचित करती है
 विभिन्न आपदाओं के प्रबंधन / शमन के लिए नोडल मंत्रालय
● राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए)
भारत सरकार ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में 2005 में एनडीएमए की स्थापना की थी। आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत, एनडीएमए की जिम्मेदारी आपदा प्रबंधन के लिए शीर्ष निकाय के रूप में आपदाओं को लेकर समय पर और प्रभावी अनुक्रिया सुनिश्चित करने के लिए आपदा प्रबंधन के लिए नीतियों, योजनाओं और दिशानिर्देशों को निर्धारित करने की होगी। एनडीएमए के दिशानिर्देश, केंद्रीय मंत्रालयों, विभागों और राज्यों को उनकी सम्बन्धित आपदा प्रबंधन योजनाओं को तैयार करने में सहायता करेंगे। यह राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन, योजनाओं और केंद्रीय मंत्रालयों / विभागों की आपदा प्रबंधन योजनाओं को मंजूरी देगा। यह इस तरह के अन्य उपायों को अपनायेगा, जिसे किसी खतरनाक आपदा स्थिति या आपदा से निपटने के लिए आपदाओं की रोकथाम या शमन, या तैयारी और क्षमता निर्माण के लिए आवश्यक माना जा सकता है। केंद्रीय मंत्रालय/ विभाग और राज्य सरकारें अपने आदेश को पूरा करने के लिए एनडीएमए को आवश्यक सहयोग और सहायता प्रदान करेंगी। यह शमन और तैयारियों के उपायों के लिए धन के प्रावधान और उपयोग की देखरेख करेगा। >
आपदा की स्थिति या आपदा में बचाव और राहत के लिए प्रावधानों या सामग्रियों की आपातकालीन खरीद करने के लिए एनडीएमए के पास सम्बन्धित विभागों या प्राधिकारियों को अधिकृत करने की शक्ति होती है। राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया बल (एनडीआरएफ) के सामान्य अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण को एनडीएमए द्वारा नियंत्रित किया जाता है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआईडीएम), एनडीएमए द्वारा निर्धारित व्यापक नीतियों और दिशानिर्देशों के ढांचे के भीतर काम करता है। एनडीएमए के पास प्राकृतिक या मानव-जनित सभी प्रकार की आपदाओं से निपटने का शासनादेश है। हालांकि, आतंकवाद ( आतंकवाद – रोधी), कानून और व्यवस्था की स्थिति, अपहरण, हवाई दुर्घटना, सीबीआरएन हथियार प्रणाली जैसी अन्य आपात स्थिति, जिसमें सुरक्षा बलों और / या खुफिया एजेंसियों की घनिष्ठ भागीदारी की आवश्यकता होती है, और खनन आपदाएं, हवाई अड्डे और बंदरगाह की आपात स्थिति, जंगल की आग, तेल क्षेत्र की आग और तेल रिसाव जैसी अन्य घटनाओं को राष्ट्रीय संकट प्रबंधन समिति (एनसीएमसी) द्वारा नियंत्रित किया जायेगा। इसके बावजूद, एनडीएमए दिशानिर्देश तैयार कर सकता है और सीबीआरएन आपात स्थितियों के सम्बन्ध में प्रशिक्षण और तैयारियों की गतिविधियों को सुविधाजनक बना सकता है।
● राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआईडीएम)
भारत सरकार ने आपदा प्रबंधन अधिनियम के अध्याय – VII के प्रावधानों के अनुसार, इस क्षेत्र और भारत में आपदा प्रबंधन के लिए क्षमता विकास को लेकर प्रमुख संस्थान होने के लक्ष्य के साथ संसद के एक अधिनियम के तहत राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआईडीएम) का गठन किया था। एनआईडीएम का दृष्टिकोण आपदा रोकथाम और तैयारियों के लिए सभी स्तरों पर क्षमता निर्माण करके डिजास्टर रेजिलिएंट इंडिया बनाना है। एनआईडीएम को आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में मानव संसाधन विकास, क्षमता निर्माण, प्रशिक्षण, अनुसंधान, दस्तावेजीकरण और नीति प्रतिपालन के लिए नोडल जिम्मेदारियाँ सौंपी गयी हैं। एनआईडीएम ने विभिन्न मंत्रालयों और केंद्रीय, राज्य और स्थानीय सरकारों के विभागों, भारत और विदेशों में शैक्षणिक, अनुसंधान और तकनीकी संगठनों और अन्य द्विपक्षीय और बहु-पक्षीय अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ रणनीतिक साझेदारी का निर्माण किया है। यह राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थानों (एटीआई) में आपदा प्रबंधन केंद्रों (डीएमसीएस) के माध्यम से राज्य सरकारों को तकनीकी सहायता प्रदान करता है। इस समय यह ऐसे 30 केंद्रों की मदद कर रहा है। उनमें से छह को जोखिम प्रबंधन के विशेष क्षेत्रों बाढ़, भूकंप, चक्रवात, सूखा, भू-स्खलन, और औद्योगिक आपदाओं में उत्कृष्टता केंद्र के रूप में विकसित किया जा रहा है। 1
● राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया बल (एनडीआरएफ)
आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के अध्याय – VIII के अनुसार, एनडीआरएफ का गठन एक विशेषज्ञ अनुक्रिया बल के रूप में किया गया है, जिसे एक आने वाली आपदा स्थिति या आपदा में तैनात किया जा सकता है। आपदा प्रबंधन अधिनियम के अनुसार, एनडीआरएफ के सामान्य अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण एनडीएमए में निहित होगा और प्रयोग किया जायेगा। एनडीआरएफ की कमान और पर्यवेक्षण भारत सरकार द्वारा नियुक्त महानिदेशक में निहित होगी। एनडीआरएफ प्रभावी अनुक्रिया के लिए आवश्यक विभिन्न स्थानों पर अपने बटालियनों को नियुक्त करेगा। एनडीआरएफ इकाइयाँ नामित राज्य सरकारों के साथ घनिष्ठ संपर्क बनाये रखेंगी और किसी भी गंभीर आपदा की स्थिति में उन्हें उपलब्ध होगी। एनडीआरएफ प्राकृतिक आपदाओं से और ब्ठत्छ आपात स्थितियों से उत्पन्न स्थितियों का जवाब देने के लिए सुसज्जित और प्रशिक्षित होता है। एनडीआरएफ इकाइयाँ अपने संबंधित स्थानों में राज्य सरकारों द्वारा चिन्हित सभी हितधारकों को बुनियादी प्रशिक्षण भी प्रदान करेंगी। इसके अलावा, आपदा प्रबंधन में प्रशिक्षकों के लिए प्रशिक्षण प्रदान करने और सम्बन्धित राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए एक राष्ट्रीय अकादमी की स्थापना की जायेगी। प्रमुख आपदाओं में हुए अनुभव ने स्पष्ट रूप से उच्च ऊंचाई वाले क्षेत्रों सहित कुछ महत्वपूर्ण स्थानों पर राज्य स्तर पर संसाधनों को बढ़ाने के लिए कुछ अनुक्रिया बलों की पूर्व स्थिति की आवश्यकता को रेखांकित किया है।
♦  राज्य स्तर
आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के अनुसार, भारत के प्रत्येक राज्य में आपदा प्रबंधन के लिए अपना संस्थागत ढांचा होगा। अन्य बातों के अलावा, आपदा प्रबंधन अधिनियम का यह शासनादेश है कि प्रत्येक राज्य सरकार, राज्य की आपदा प्रबंधन योजनाओं की तैयारी, आपदाओं की रोकथाम के उपायों और राज्य की विकास योजनाओं का एकीकरण, धन के आवंटन, और ईडब्ल्यूएस की स्थापना के लिए आवश्यक कदम उठायेगी। विशिष्ट स्थितियों और आवश्यकताओं के आधार पर, राज्य सरकार क्ड के विभिन्न पहलुओं में केंद्र सरकार और केंद्रीय एजेंसियों की सहायता करेगी। प्रत्येक राज्य अपनी स्वयं की राज्य आपदा प्रबंधन योजना तैयार करेगा ।
आपदा प्रबंधन अधिनियम, पदेन अध्यक्ष के रूप में मुख्यमंत्री के साथ राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की स्थापना को अनिवार्य बनाता है। इसी तरह की प्रणाली प्रत्येक केंद्र शासित प्रदेश में उपराज्यपाल के साथ कार्य करेगी। जिला स्तर पर, जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (डीडीएमए), जिला कलेक्टर या जिला मजिस्ट्रेट या उपायुक्त, जैसा कि लागू हो, आपदा प्रबंधन प्रयासों और योजना के समग्र समन्वय के लिए जिम्मेदार होगा। विस्तृत डीएमपी विकसित किया जाएगा, यह राज्य, जिले, कस्बों और ब्लॉकों (तालुक) के स्तरों पर आवधिक समीक्षा और संशोधन के अधीन होगा। चित्र-1.5 विशिष्ट राज्य स्तरीय संस्थागत ढांचे का योजनाबद्ध दृष्टिकोण का प्रावधान करता है।
 राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एसडीएमए)
आपदा प्रबंधन अधिनियम के अध्याय – III में उल्लेखित प्रावधानों के अनुसार, प्रत्येक राज्य सरकार मुख्यमंत्री के साथ एक अलग नाम के तहत एक राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एसडीएमए) या इसके समकक्ष प्राधिकरण स्थापित करेगी। अन्य संघ शासित प्रदेशों के मामले में, उपराज्यपाल या प्रशासक उस प्राधिकरण के अध्यक्ष होंगे। दिल्ली के केंद्र शासित प्रदेश के लिए, मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल राज्य प्राधिकरण के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष होंगे। केन्द्रशासित प्रदेश के विधान सभा होने की स्थिति में, दिल्ली जैसे केन्द्रशासित प्रदेश को छोड़कर, मुख्यमंत्री इस खंड के तहत स्थापित प्राधिकरण के अध्यक्ष होंगे। एसडीएमए राज्य में आपदा प्रबंधन के लिए नीतियाँ और योजनायें बनायेगा। यह, अन्य बातों के साथ-साथ एनडीएमए द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों के अनुसार, राज्य योजना को मंजूरी देता है, राज्य योजना के कार्यान्वयन का समन्वय करता है, शमन और तैयारियों के लिए धन के प्रावधान की सिफारिश करता है और रोकथाम, तैयारी और शमन उपायों के एकीकरण को सुनिश्चित करने के लिए राज्य के विभिन्न विभागों की विकासात्मक योजनाओं की समीक्षा करता है। राज्य सरकार अपने कार्यों के प्रदर्शन में एसडीएमए की सहायता के लिए एक राज्य कार्यकारी समिति (एसईसी) का गठन करेगी। एसईसी की अध्यक्षता राज्य सरकार के मुख्य सचिव करेंगे। एसईसी राष्ट्रीय नीति, राष्ट्रीय योजना और राज्य योजना के कार्यान्वयन का समन्वय और निगरानी करेगा। एसईसी, आपदा प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं से संबंधित एनडीएमए को भी जानकारी प्रदान करेगा।
● जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (डीडीएमए)
आपदा प्रबंधन अधिनियम के अध्याय – IV के प्रावधानों के अनुसार, प्रत्येक राज्य सरकार राज्य के प्रत्येक जिले के लिए एक जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण स्थापित करेगी, जिसका नाम उस अधिसूचना में निर्दिष्ट किया जा सकता है। डीडीएमए की अध्यक्षता जिला कलेक्टर, उपायुक्त या जिला मजिस्ट्रेट करेंगे, जैसा कि लागू हो, सह-अध्यक्ष के रूप में स्थानीय प्राधिकारी के निर्वाचित प्रतिनिधि होंगे। राज्य सरकार, अतिरिक्त कलेक्टर या अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट या अतिरिक्त उपायुक्त के पद से नीचे के अधिकारी को नियुक्त नहीं करेगी, जैसा कि लागू हो, जिले के अधिकारी, जिले के मुख्य प्राधिकारी होंगे। डीडीएमए जिला स्तर पर आपदा प्रबंधन के लिए योजना, समन्वय और कार्यान्वयन का कार्य करेगा और एनडीएमए और एसडीएमए द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों के अनुसार आपदा प्रबंधन के उद्देश्यों के लिए सभी आवश्यक उपाय करेगा। अन्य बातों के साथ-साथ, यह जिले के लिए आपदा प्रबंधन योजना तैयार करेगा और सभी प्रासंगिक राष्ट्रीय, राज्य और जिला नीतियों और योजनाओं के कार्यान्वयन की निगरानी करेगा। डीडीएमए यह भी सुनिश्चित करेगा कि एनडीएमए और एसडीएमए द्वारा निर्धारित रोकथाम, शमन, तैयारी और अनुक्रिया उपायों के लिए दिशा-निर्देशों का पालन राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के सभी जिला स्तर के कार्यालयों द्वारा किया जाये।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना
आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 ( आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005) राष्ट्रीय, राज्य, जिला और स्थानीय स्तर पर प्रभावी आपदा प्रबंधन के लिए संस्थागत और समन्वय तंत्र का निर्माण करता है। इस अधिनियम के अनुसार, भारत सरकार ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) से युक्त एक बहु-स्तरीय संस्थागत प्रणाली का निर्माण किया था, जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री, राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एसडीएमए) की अध्यक्षता संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री करते हैं और जिला कलेक्टरों की अध्यक्षता जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (डीडीएमए) और स्थानीय स्तर पर स्थानीय निकायों की अध्यक्षता उस निकाय के अध्यक्ष करते हैं। इन निकायों को आपदा राहत, शमन, और आपातकालीन अनुक्रिया को मजबूत करने के लिए एक अधिक सक्रिय, समग्र और एकीकृत दृष्टिकोण वाला राहत केंद्रित दृष्टिकोण से एक आदर्श परिवर्तन वाली सुविधा के लिए स्थापित किया गया है।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (एनडीएमपी) आपदा प्रबंधन चक्र के सभी चरणों के लिए सरकारी एजेंसियों को एक ढांचा और दिशा प्रदान करती है। एनडीएमपी इस अर्थ में एक ‘गत्यात्मक दस्तावेज’ है कि समय-समय पर आपदा प्रबंधन में उभरते वैश्विक की सर्वोत्तम पद्धतियों और ज्ञान के आधार को ध्यान में रखते हुए सुधार किये जाने की गुंजाइश बनाने की बात करता है। यह आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के प्रावधानों, आपदा प्रबंधन पर राष्ट्रीय नीति, 2009 (एनपीडीएम) में दिये गये मार्गदर्शन और स्थापित राष्ट्रीय पद्धतियों के अनुसार ही है।
एनडीएमपी, जिम्मेदारी के ढांचे में किसी तरह की अस्पष्टता को, यदि समाप्त नहीं, तो उसे कम से कम करने की आवश्यकता को चिह्नित करता है। इसलिए, यह इस बात को निर्दिष्ट करता है कि आपदाओं के प्रबंधन के विभिन्न चरणों में किसी बात को अंजाम देने की जिम्मेदारी किसकी है। एनडीएमपी की परिकल्पना इस तरह से की गयी है कि वह देश के किसी भी हिस्से में आपातकाल की अनुक्रिया में हर समय सक्रिय रहने के लिए तैयार है। इसकी बनावट को इस तरह से तैयार किया गया है कि इसे आपदा प्रबंधन के सभी चरणों में एक लचीले और मापनीय तरीके से आवश्यकतानुसार लागू किया जा सकता है: क) शमन (रोकथाम और जोखिम में कमी), ख) तैयारियाँ, ग) अनुक्रिया और घ) बहाली (बिल्ड-बैक बेटर की तत्काल पुनर्प्राप्ति) ।
एनडीएमपी संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विश्व स्तर पर प्रचारित दृष्टिकोणों, विशेष रूप से आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए सेंदाई फ्रेमवर्क 2015-2030 के अनुरूप है। यह एक गैर-बाध्यकारी समझौता है, जिसे हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र स्वैच्छिक आधार पर पालन करने का प्रयास करेंगे। भारत, सेंदाई फ्रेमवर्क में सिफारिशों का पालन करके और वैश्विक रूप से स्वीकृत सर्वोत्तम पद्धतियों को अपनाकर भारत में संपूर्ण आपदा प्रबंधन चक्र में सुधार करके वैश्विक लक्ष्यों की प्राप्ति में योगदान देने का सभी प्रयास करेगा। सेंदाई फ्रेमवर्क के तहत कार्यवाही की चार प्राथमिकतायें हैं:
1.आपदा जोखिम को समझना
2. आपदा जोखिम प्रबंधन को मजबूत करने के लिए आपदा जोखिम का प्रबंधन करना
3. लचीलेपन के लिए आपदा जोखिम में कमी लाने में निवेश
4. पूर्व स्थिति को बहाल करने, पुनर्वास और पुनर्निर्माण में प्रभावी अनुक्रिया और ‘बिल्ड बैक बेटर’ के लिए आपदा तैयारी को बढ़ावा देना।
एनडीएमपी में सेंदाई फ्रेमवर्क में निर्दिष्ट दृष्टिकोण शामिल है और यह देश को इस फ्रेमवर्क में निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करेगा। 2030 तक, सेंदाई फ्रेमवर्क का उद्देश्य आपदा जोखिम और जीवन, आजीविका, और स्वास्थ्य के क्षेत्र में और व्यक्तियों, व्यवसायों, समुदायों और देशों की आर्थिक, भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय संपत्ति में होने वाले नुकसान को कम करना है। एनडीएमपी को मोटे तौर पर डीआरआर के लिए सेंदाई फ्रेमवर्क में निर्धारित लक्ष्यों और प्राथमिकताओं के साथ जोड़ा गया है। योजना में ऐसे उपाय शामिल हैं, जो 2030 में समाप्त होने वाले सेंदाई फ्रेमवर्क की समय परिधि में लघु, मध्यम और दीर्घकालिक रूप से लागू किये जायेंगे।
♦  विज़न
भारत को आपदा से बचाने के लिए पर्याप्त आपदा की जोखिम में कमी लाना और जीवन के नुकसान, आजीविका, और संपत्ति को आर्थिक, भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय नुकसान को कम करना और प्रशासन के सभी स्तरों के साथ-साथ समुदायों के बीच आपदाओं से निपटने की क्षमता को अधिकतम करना ।
● बहु-संकट संवेदनशीलता
भारत, अपनी भौतिक और जलवायु परिस्थितियों के कारण, दुनिया के सबसे आपदा प्रवण क्षेत्रों में से एक है। यहां रासायनिक, जैविक, रेडियोलॉजिकल और न्यूक्लियर (सीबीआरएन) मूल की आपदाओं/आपात स्थितियों वाली संवेदनशीलता भी मौजूद है। आपदा जोखिमों वाली संवेदनशीलता, बढ़ती आबादी, शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में विकास, पर्यावरणीय गिरावट और जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित हो सकती है। 2005 का आपदा प्रबंधन एक्ट और 2009 की आपदा प्रबंधन नीति भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को परिभाषित करने के लिए आपदाओं को प्राकृतिक या मानव-जनित मानते हैं। मानव-जनित श्रेणी में सीबीआरएन आपदाएं शामिल हैं। इसके अलावा, पहले उल्लेख किये जा चुके प्राकृतिक कारकों के साथ, देश में आपदाओं की आवृत्ति में तेजी से प्रभाव और वृद्धि के लिए विभिन्न मानव प्रेरित गतिविधियाँ – भी जिम्मेदार हैं। एनडीएमपी में भारत में आने वाले सभी प्रकार के खतरों प्राकृतिक और मानव-जनित दोनों प्रकार की आपदाओं के लिए आपदा प्रबंधन चक्र है।
● जोखिम का न्यूनीकरण; लचीलापन बढ़ाना
केंद्रीय एजेंसियों की भूमिका आपदा प्रभावित राज्य या केंद्र शासित प्रदेशों को सहायता के अनुरोधों के अनुक्रिया में सहायता करना है। हालांकि, केंद्रीय एजेंसियाँ आपदा स्थितियों में सक्रिय भूमिका निभायेंगी। आपदा प्रबंधन योजना, तैयारियों और क्षमता निर्माण के क्षेत्रों में, केंद्रीय एजेंसियाँ लगातार वैश्विक रुझानों के अनुसार भारतीय आपदा प्रबंधन प्रणाली और पद्धतियों के उन्नयन के लिए काम करेंगी। नियोजन ढांचे ने सेंदाई फ्रेमवर्क की कार्यवाही वाले चार प्राथमिकताओं में से एक के साथ कार्यवाही के लिए पांच विषयगत क्षेत्रों के तहत जोखिम में कमी लाने वाले परिकल्पित कार्यों को इसकी प्रमुख विशेषता के रूप में व्यवस्थित किया है।
प्रत्येक खतरे के लिए, इस राष्ट्रीय योजना में उपयोग किये जाने वाले दृष्टिकोण में कार्यवाही के लिए पांच विषयगत क्षेत्रों के तहत आपदा जोखिम न्यूनीकरण के नियोजन ढांचे में सेंदाई फ्रेमवर्क में निर्दिष्ट चार प्राथमिकतायें शामिल हैं:
1. जोखिम को समझना
2.एजेंसियों के बीच समन्वय
3. डीआरआर- संरचनात्मक उपायों में निवेश
4. डीआरआर- गैर-संरचनात्मक उपायों में निवेश
5. क्षमता का विकास
कार्यवाही वाले प्रत्येक विषयगत क्षेत्र के लिए, एनडीएमपी ने व्यापक नियोजन ढांचे के भीतर कार्यवाही करने के लिए प्रमुख विषयों के एक समूह को चिह्नित किया है। प्रत्येक खतरे को लेकर कार्यवाही के लिए विषयों को एक अलग जिम्मेदारी सांचे में प्रस्तुत किया जाता है, जो कार्यवाही वाले विषयगत क्षेत्रों में से प्रत्येक के लिए केंद्र और राज्य को भूमिका दी जाती है। एनडीएमपी और सेंदाई फ्रेमवर्क में परिकल्पित गतिविधियाँ, लघु/ तात्कालिक ( 5 वर्षों के भीतर), मध्यम (10 वर्षों के भीतर ), और दीर्घकालिक (15 वर्ष के भीतर) श्रेणियों में आती हैं, जो समवर्ती रूप से कई दृष्टांतों में लागू की जायेंगी, और जरूरी नहीं है कि क्रमिक रूप से लागू किये जायें।
अनुक्रिया
अनुक्रिया, प्रारंभिक चेतावनी, आसन्न आपदा, या उन मामलों में आपदा पश्चात की आशंका के लिए, जहां कोई घटना बिना चेतावनी के घटित होती है, के प्राप्त होने के तुरंत बाद किये गये उपाय है। आपदा की अनुक्रिया का प्राथमिक लक्ष्य जीवन को बचाना, संपत्ति की रक्षा करना, पर्यावरण, और आपदा के बाद मानव और अन्य जीवित प्राणियों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना है। तत्काल ध्यान तो प्रभावितों की खोज और बचाव और आपदा या द्वितीयक आपदा से प्रभावित होने वाले लोगों को निकालने की संभावना पर होगा | अनुक्रिया वाले खंड में भूमिका, कार्य और जिन पर मुख्य भूमिका निभाने की जिमम्मेदारी है, इन सबके बारे में व्याख्या की गयी है। चूंकि संदर्भों, ज्ञान का आधार और प्रौद्योगिकी परिवर्तन, जिसकी योजना आपदा प्रबंधन बनाता है, विशेष मंत्रालयों या एजेंसियों की परिकल्पना वाली प्रमुख भूमिकाओं में किसी भी बदलाव को प्रतिबिंबित करने के लिए इन सबको समय-समय पर अद्यतन किया जाना चाहिए।
राष्ट्रीय स्तर पर, केंद्र सरकार ने आपदा – विशिष्ट अनुक्रियाओं के समन्वय के लिए विशिष्ट मंत्रालयों को नोडल जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं। एनडीएमए, इन सम्बन्धित नोडल मंत्रालयों के साथ समन्वय करेगा। आपदा – विशिष्ट नोडल मंत्रालय, उन राज्य सरकारों के साथ संपर्क सुनिश्चित करेगा, जहां आपदा हुई है और त्वरित और कुशल अनुक्रिया के लिए विभिन्न प्रासंगिक मंत्रालयों और विभागों के बीच समन्वय स्थापित करेगा। राज्य सरकार राज्य, जिले, या ब्लॉक स्तर पर इंसिडेंट रिस्पांस टीमों (आईआरटी) को आवश्यकतानुसार सक्रिय करेगी। ये आईआरटी, राज्य ईओसी के साथ समन्वय करेंगे। एसडीएमए ( या इसके समकक्ष, सीओआर, या राजस्व विभाग) अनुक्रिया के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करेगा।
विभिन्न केंद्रीय मंत्रालय और विभाग, राज्य सरकार के अनुरोध के अनुसार अनुक्रिया प्रयास के लिए आपातकालीन सहायता प्रदान करेंगे। उल्लेखनीय है कि एसडीएमए, राजस्व विभाग या राहत आयुक्त (जैसा लागू हो) आपदा अनुक्रिया के समन्वय के लिए नोडल एजेंसी है। विभिन्न एजेंसियाँ, जिनकी जिम्मेदारियाँ राज्य और जिले के लिए डीएम योजनाओं में विस्तृत रूप से परिभाषित की गयी हैं, वे ही विशिष्ट अनुक्रिया उपायों के प्रति जिम्मेदार होंगी। डीडीएमए, अन्य जिला स्तर की एजेंसियों द्वारा समर्थित जिला स्तर पर अनुक्रिया की समन्वय करने वाली नोडल एजेंसी है। केंद्रीय मंत्रालयों और राज्य सरकार की विभागवार विशिष्ट गतिविधियों को विभिन्न एजेंसियों की भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को स्पष्टता प्रदान करने वाले सांचे में संक्षेप रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
रिकवरी एवं बिल्डिंग बैक बेटर
विश्व स्तर पर, आपदा के बाद पूर्व स्थिति को बहाल करने और पुनर्वास के प्रति अपनाये गए दृष्टिकोण को एक बेहतर पुनर्निर्माण में बदल दिया गया है। हालांकि आपदाओं से सामान्य जीवन में काफी व्यवधान पैदा होता है, भारी कष्ट, जान और माल की हानि होती है, वैश्विक प्रयास रिकवरी, पुनर्वास और पुनर्निर्माण के चरण को उस बिल्ड बैक बेटर (बीबीबी) के रूप में विकसित करने के अवसर के रूप में मानते हैं, जो आपदा जोखिम में कमी को विकास उपायों में एकीकृत करता है, और ऐसे समुदायों का निर्माण करते हैं, जो आपदाओं के प्रति लचीले हैं। बीबीबी निर्मित पर्यावरण तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें व्यापक अर्थव्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, संस्थान और पर्यावरण भी शामिल हैं। सेंदाई फ्रेमवर्क की परिकल्पना है कि हितधारकों को आपदा के बाद बीबीबी के लिए तैयार किया जायेगा। मौजूदा तंत्र को प्रभावी सहायता प्रदान करने और उसके बेहतर कार्यान्वयन के लिए उसे मजबूत बनाने की आवश्यकता हो सकती है। आपदा के बाद पूर्व स्थिति की बहाली बहुत मुश्किल और लंबा काम है। पुनर्निर्माण, वास्तविक आपदा, स्थान, आपदा की पूर्व स्थितियों और उस समय उभरने वाली संभावनाओं के आध पर अलग-अलग होगा। एनडीएमपी, पहली वाली स्थिति की बहाली के लिए एक सामान्यीकृत ढांचा प्रदान करता है क्योंकि बेहतर पुनर्निर्माण के सभी संभावित तत्वों का अनुमान लगाना संभव नहीं है
क्षमता का विकास
क्षमता के विकास में सभी स्तरों पर सभी हितधारकों की संस्थाओं, तंत्रों और क्षमताओं को मज़बूत करना शामिल होता है। यह योजना क्षमता के विकास के लिए एक रणनैतिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है और इसे प्रभावी बनाने वाले विभिन्न हितधारकों की उत्साही भागीदारी की आवश्यकता को चिह्नित करती है। यह योजना संस्थागत ढांचे, प्रबंधन प्रणालियों को उचित जगह पर तैनात करने और आपदआओं की सक्षमता के साथ रोकथाम और आपदाओं से निपटने के लिए आवंटन करने की चुनौती को संबोधित करती है। आपदा प्रबंधन के सभी चार पहलुओं के लिए क्षमता विकास की नियोजन आवश्यकताओं का वर्णन किया गया है:
 (क) संकट से जोखिम को कम करने के लिए रोकथाम या शमन
(ख) अनुक्रिया के लिए तैयारी
(ग) आपदा के समय प्रभावी अनुक्रिया
(घ) पुर्नबहाली और बिल्ड बैक बेटर की क्षमता
♦ वित्तीय व्यवस्था
आपदा राहत का वित्तपोषण, संघीय राजकोषीय संबंधों का एक महत्वपूर्ण पहलू रहा है। आपदा के दौरान बचाव, राहत और पुनर्वास उपायों के लिए प्राथमिक जिम्मेदारी राज्य सरकारों के पास होती है। केंद्र सरकार लॉजिस्टिक यानि संचालन एवं निवेश सम्बन्धित सेवाओं और वित्तीय ” सहायता के माध्यम से उनके प्रयासों को पूरा करती है। आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005, वित्तीय प्रबंधन सहित आपदा प्रबंधन और सभी संबंधित मामलों के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करता है। इस अधिनियम में दो प्रकार के निधियों के गठन की परिकल्पना की गयी है- अनुक्रिया और शमन, जिन्हें राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तरों पर स्थापित किया जाना है। इस प्रकार, आपदा अनुक्रिया के लिए, यह अधिनियम एक राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया कोष, प्रत्येक राज्य में एक राज्य आपदा अनुक्रिया कोष और राज्यों के भीतर प्रत्येक जिले में एक जिला आपदा अनुक्रिया कोष की परिकल्पना करता है। इसी प्रकार, इस अधिनियम में आपदा न्यूनीकरण के लिए एक राष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण निधि, राज्य आपदा न्यूनीकरण निधि और जिला आपदा न्यूनीकरण निधि की परिकल्पना की गयी है। राष्ट्रीय आपदा न्यूनीकरण निधि की स्थापना से संबंधित आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 47 को सरकार द्वारा अब तक अधिसूचित नहीं किया गया है। संपूर्ण आपदा प्रबंधन चक्र का वित्तपोषण भारत सरकार द्वारा निर्धारित मानदंडों के अनुसार होगा। विकास योजनाओं में आवश्यकताओं को मुख्यधारा में लाने से आपदा जोखिम में न्यूनीकरण को प्राप्त किया जा सकेगा।
♦ संभावना
आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के अनुसार, राष्ट्रीय योजना में शामिल होंगे:
(क) आपदाओं की रोकथाम या उनके प्रभावों के शमन के लिए किए जाने वाले उपाय
(ख ) विकास योजनाओं में शमन उपायों के एकीकरण के लिए किए जाने वाले उपाय
(ग)  किसी भी खतरनाक आपदा स्थितियों या आपदा का प्रभावी ढंग से जवाब देने के लिए तैयारियों और क्षमता निर्माण के लिए किए जाने वाले उपाय
(घ)  उपर्युक्त तीन पहलुओं के उपायों के संबंध में भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों या विभागों की भूमिकाएँ और जिम्मेदारियाँ
 उद्देश्य
आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 और एनडीएमपी, 2009 में उल्लेखित शासनादेश वाली राष्ट्रीय योजना ने सेंदाई फ्रेमवर्क वाली राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को शामिल किया है। तदनुसार, NDMP के व्यापक उद्देश्य निम्नलिखित हैं:
1. आपदा की जोखिम, खतरे और कमजोरियों की समझ में सुधार
2. स्थानीय स्तर से लेकर केंद्रीय स्तर तक के सभी स्तरों पर आपदा की जोखिम अभिशासन को मजबूत करना
3. संरचनात्मक, गैर-संरचनात्मक और वित्तीय उपायों, साथ-ही-साथ व्यापक क्षमता विकास के माध्यम से लचीलेपन के लिए आपदा की जोखिम में कमी लाना
4. प्रभावी अनुक्रिया के लिए आपदा की तैयारी को बढ़ाना
5. पूर्व-स्थिति की बहाली, पुनर्वास और पुनर्निर्माण में ‘बिल्ड बैक बेटर’ को बढ़ावा देना
6. आपदाओं को रोकना और जीवन, आजीविका, स्वास्थ्य और संपत्ति (आर्थिक, भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरण) में आपदा जोखिम और नुकसान में पर्याप्त कमी लाना
7. लचीलेपन की बढ़ोत्तरी और नयी आपदा जोखिमों के उद्भव को रोकना तथा मौजूदा जोखिमों को कम करना
8. ” एकीकृत और समावेशी आर्थिक संरचनात्मक कानूनी सामाजिक, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक, शैक्षिक पर्यावरण, तकनीकी राजनीतिक और संस्थागत उपायों के 2 > कार्यान्वयन को बढ़ावा देना और आपदा की जोखिम और संवेदनशीलता को कम करना
9. आपदा की जोखिमों को कम करने और प्रबंधन करने के लिए दोनों, स्थानीय अधिकारियों और समुदायों को सशक्त बनाना
10. आपदा प्रबंधन के सभी पहलुओं में वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमताओं को मजबूत करना
11. प्रभावी ढंग से कई खतरों से मुकाबला करने और समुदाय आधारित आपदा प्रबंधन के लिए सभी स्तरों पर क्षमता का विकास
12. आपदा प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं में शामिल विभिन्न मंत्रालयों और विभागों की भूमिकाओं और जिम्मेदारियों पर स्पष्टता का प्रावधान करना
13.सभी स्तरों पर आपदा की जोखिम का निवारण और शमन की संस्कृति को बढ़ावा देना
14. विकास योजना और अनुक्रियाओं में आपदा प्रबन्धन के मुद्दों को मुख्य धारा में लाना
● योजना सक्रियण
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (एनडीएमपी), आपदा चक्र के सभी चरणों अर्थात् शमन, तैयारियों, अनुक्रिया और पूर्व स्थिति की बहाली के दौरान प्रचालन में रहती है। हालांकि, एनईसी आपदा चेतावनी की प्राप्ति पर या आपदा की घटना के आधार पर आपदा अनुक्रिया प्रणाली ( स्थिति के आधार पर पूर्णत: या अंशतः सक्रिय सभी कार्य) को सक्रिय कर सकता है। आपदा की घटना को लेकर संबंधित निगरानी अधिकारियों (राष्ट्रीय और राज्य दोनों) द्वारा सबसे तेज स्रोतों से एनईसी को रिपोर्ट की जा सकती है। एनईसी, उस एनईओसी सहित आपातकालीन सहायता कार्यों को सक्रिय करेगा, जिसका पैमाना स्थिति की मांग (आकार, तात्कालिकता और घटना की तीव्रता) के अनुरूप होगा।
> आपदा की स्थिति में राष्ट्रीय अनुक्रिया को लेकर सक्रियण क्रम निम्नलिखित है:
1. संबंधित राज्य सरकार आपदा की स्थिति में सीधे जिम्मेदारी धारण करेगी ।
2.  केंद्र शासित प्रदेशों के मामले में गृह मंत्रालय प्रत्यक्ष जिम्मेदारी धारण करेगा।
3. केंद्रीय एजेंसियों से अनुक्रिया तब होगी, जब सम्बन्धित राज्य सरकार, केंद्रीय सहायता, वित्तीय, रसद, या संसाधनों के लिए एक विशेष अनुरोध करेगी- जिसमें अन्यों के अतिरक्ति, परिवहन, खोज, बचाव और वायु द्वारा राहत कार्य, राहत सामग्री के अंतर्राज्यीय आवाजाही शामिल होती है
4. केंद्रीय एजेंसियों की प्रत्यक्ष भागीदारी उन मामलों पर लागू होगी, जहां भारत सरकार के पास प्राथमिक क्षेत्राधिकार होता है, ये क्षेत्राधिकार हैं- अंतर्राष्ट्रीय सहायता, प्रचंड समुद्री लहरों पर अनुक्रिया और अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की सहायता से आपदाओं के प्रभाव का आकलन और राष्ट्रीय आपदा अनुक्रिया कोष से वित्तीय सहायता
5. आपदा की जोखिम अभिशासन को मजबूत करना
♦  सेंदाई फ्रेमवर्क
एनडीएमपी, संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वैश्विक स्तर पर प्रचारित दृष्टिकोण के अनुरूप है, विशेष रूप से आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिए सेंदाई फ्रेमवर्क 2015-2030 (इसके बाद ‘सेंदाई फ्रेमवर्क’) 18 मार्च, 2015 (UNISDR 2015 ) को सेंदाई, जापान में तीसरे संयुक्त राष्ट्र विश्व सम्मेलन में एक्शन 2005-2015 के लिए ह्योगो फ्रेमवर्क की जगह एक नये साधन के रूप में अपनाया गया। यह एक अबाध्यकारी समझौता है, जिसे भारत सहित हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्र स्वैच्छिक आधार पर पालन करने का प्रयास करेंगे। हालांकि, भारत सेंदाई फ्रेमवर्क में सिफारिशों का पालन करके और वैश्विक रूप से स्वीकृत सर्वोत्तम पद्धतियों को अपनाकर भारत में संपूर्ण आपदा प्रबंधन चक्र में सुधार करते वैश्विक लक्ष्यों की प्राप्ति में योगदान देने वाले सभी प्रयास करेगा।
सेंदाई फ्रेमवर्क, 2015 के बाद के विकास के एजेंडे के संदर्भ में अपनाया गया पहला अंतर्राष्ट्रीय समझौता था। उसी वर्ष दो अन्य प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय समझौतों भी अस्तित्व में आये। सितंबर में सतत विकास लक्ष्य 2015 – 20, और दिसंबर में मानव-जनित जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए UNCOP21 जलवायु परिवर्तन समझौता | डीडीआर इन तीन वैश्विक समझौतों में एक आम विषय है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से जुड़े नुकसान, संकट और उनके समाधान के महत्व को दर्शाता है, जिसमें चरम मौसमी परिघटनाओं और धीमी गति वाली शुरुआती घटनाओं, और संकट के जोखिम को कम करने में सतत विकास की भूमिका शामिल है। ये तीन समझौते डीडीआर में जटिल और परस्पर सामाजिक और आर्थिक प्रक्रियाओं के एक उत्पाद के रूप में वांछित परिणामों को चिह्नित करते हैं, जो इन तीन समझौतों के एजेंडों का अतिव्यापन करता है ।
डीडीआर सतत् विकास का अंतर्निहित तत्व है और आपदाओं के लिए जरूरी लचीलेपन का निर्माण है। इसके अलावा, प्रभावी आपदा जोखिम प्रबंधन सतत विकास में योगदान देता है। आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में, सेंदाई फ्रेमवर्क, 2030 में समाप्त होने वाली अवधि के लिए आगे का रास्ता देता है। सेंदाई फ्रेमवर्क में कुछ प्रमुख प्रस्थान बिन्दु हैं:
♦  पहली बार लक्ष्यों को गतिविधियों और कार्यों के समुच्चय पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय इसे परिणाम आधारित लक्ष्यों के रूप में परिभाषित किया गया है।
♦  यह सरकारों को आपदा जोखिम में कमी के केंद्र में रखता है, जिसमें आपदा जोखिम अभिशासन को मजबूत करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है।
♦  यह एक महत्वपूर्ण बदलाव है, क्योंकि पहले आपदा प्रबंधन पर बल दिया जाता है, लेकिन अब जोखिम के अंतर्निहित चालकों पर ध्यान केंद्रित करते हुए आपदा जोखिम प्रबंधन को हल करने पर बल दिया जाता है।
♦  यह न केवल प्राकृतिक खतरों से उत्पन्न होने वाली आपदाओं पर, बल्कि सभी प्रकार की आपदाओं को लगभग समान महत्व देता है।
♦  सामाजिक संवेदनशीलता के अलावा, यह एक मजबूत मान्यता के माध्यम से पर्यावरणीय पहलुओं पर काफी ध्यान देता है कि आपदा में कमी के लिए एकीकृत पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन दृष्टिकोण के कार्यान्वयन की आवश्यकता है।
♦  आपदा जोखिम में कमी को पहले से कहीं अधिक एक नीतिगत चिंता के रूप में देखी जाता है, जो स्वास्थ्य और शिक्षा सहित कई क्षेत्रों में कटौती करती है।
भारत 15 साल से सेंदाई फ्रेमवर्क का एक हस्ताक्षरकर्ता देश है, यह एक स्वैच्छिक, अबाध्यकारी समझौता है जो मानता है कि आपदा जोखिम को कम करने के लिए राज्य की प्राथमिक भूमिका है, लेकिन उस जिम्मेदारी को स्थानीय सरकार, निजी क्षेत्र सहित अन्य हितधारकों के साथ साझा किया जाना चाहिए। इसका उद्देश्य “लोगों, व्यवसायों, समुदायों और देशों की आर्थिक, भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय संपत्ति में आपदा जोखिम और जीवन, आजीविका और स्वास्थ्य में होने वाली हानियों की पर्याप्त कमी करना है। “
> सेंदाई फ्रेमवर्क द्वारा निर्धारित सात वैश्विक लक्ष्य हैं
1.  2010 – 2015 की अवधि की तुलना में 2020-2030 के दशक में वैश्विक आपदा मृत्यु दर को 2030 तक प्रति 1,00,000 वैश्विक मृत्यु दर के औसत को स्पष्ट रूप से कम करने का लक्ष्य है;
2.  2010-2015 की अवधि की तुलना में 2020-2030 के दशक में वैश्विक स्तर पर प्रभावित लोगों की संख्या को वर्ष 2030 तक प्रति 1,00,000 लोगों पर कम करने का लक्ष्य;
3.  2030 तक वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के संदर्भ में प्रत्यक्ष आपदा आर्थिक नुकसान को कम करना;
4.  2030 तक अपने लचीलेपन को विकसित करने के के अलावा अन्य माध्यमों से उन महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे और बुनियादी सेवाओं के विघटन के लिए आपदा से होने वाली क्षति को कम करना, जिनमें स्वास्थ्य और शैक्षिक सुविधाएं शामिल हैं;
5.  2020 तक राष्ट्रीय और स्थानीय आपदा जोखिम न्यूनीकरण रणनीतियों वाले देशों की संख्या में काफी वृद्धि होगी;
6. 2030 तक वर्तमान फ्रेमवर्क के कार्यान्वयन के लिए अपने राष्ट्रीय कार्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त और स्थायी समर्थन के माध्यम से विकासशील देशों को अंतर्राष्ट्रीय सहयोग बढ़ाना;
7. 2030 तक लोगों को बहु-संकट वाली प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और आपदा जोखिम की जानकारी और आकलन की उपलब्धता को काफी बढ़ाना।
NDMP के साथ सेंदाई फ्रेमवर्क का एकीकरण करना
एनडीएमपी में सेंदाई फ्रेमवर्क में निर्दिष्ट दृष्टिकोण शामिल है और यह देश को इस फ्रेमवर्क में निर्धारित लक्ष्यों को पूरा करने में मदद करेगा। 2030 तक, सेंदाई फ्रेमवर्क का उद्देश्य आपदा जोखिम और जीवन, आजीविका और स्वास्थ्य में और व्यक्तियों, व्यवसायों समुदायों और देशों की आर्थिक, भौतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय संपत्ति में नुकसान को कम करना ” एनडीएमपी को मोटे तौर पर डीडीआर के लिए सेंदाई फ्रेमवर्क में निर्धारित लक्ष्यों और प्राथमिकताओं के साथ जोड़ा गया है । इस फ्रेमवर्क में कहा गया है कि इस परिणाम को धरातल पर उतारने के लिए, नये और मौजूदा आपदा जोखिम को कम करना आवश्यक है ताकि उन एकीकृत और समावेशी उपायों को लागू किया जा सके, जो आपदा के खतरे और जोखिम को रोकते और कम करते हैं, अनुक्रिया और पूर्व स्थिति की बहाली के लिए तैयारियों को बढ़ाते हैं और इस तरह लचीलेपन को मजबूती देते हैं। इन उपायों में आर्थिक, संरचनात्मक, कानूनी, सामाजिक, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक, शैक्षिक, पर्यावरण, तकनीकी, राजनीतिक और संस्थागत जैसे विभिन्न क्षेत्रों को शामिल किया जाना चाहिए। इस योजना में ऐसे उपाय शामिल हैं, जो 2030 में समाप्त होने वाले सेंदाई फ्रेमवर्क के समय परिधि में लघु, मध्यम और दीर्घकालिक रूप से लागू किए जायेंगे।
एनडीएमपी, 2009 और आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 दस्तावेज में प्रयुक्त आपदा प्रबंधन शब्द व्यापक रूप से सभी पहलुओं के साथ शामिल है, जैसे- आपदा जोखिम में कमी, आपदा जोखिम प्रबंधन, आपदा तैयारी, आपदा अनुक्रिया, और आपदा के बाद पूर्व स्थिति को बहाल करना। यह दस्तावेज आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 में परिभाषित समान अर्थ वाले शब्द का उपयोग करता है:
“नियोजन, आयोजन, समन्वय और कार्यान्वयन उपायों की एक सतत और एकीकृत प्रक्रिया, जो निम्नलिखित के लिए आवश्यक या यथोचित प्रणाली है ” : 1) किसी भी आपदा के खतरे या खतरों की रोकथाम, 2) किसी आपदा या उसकी गंभीरता या परिणाम के जोखिम को शमन करना या कम करना, 3) क्षमता निर्माण, 4) किसी भी आपदा से निपटने के लिए तैयारी, 5) किसी भी खतरनाक आपदा स्थिति या आपदा के प्रति त्वरित अनुक्रिया, 6) किसी भी आपदा के प्रभाव की गंभीरता या परिमाण का आकलन करना, 7) निकासी, बचाव एवं राहत और 8) पुनर्वास तथा पुनर्निर्माण | “
♦  क्या आवश्यक है?
हम प्राकृतिक आपदाओं को तो नहीं रोक सकते हैं, जो हमारे भूविज्ञान, भूगोल, जलवायु, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विन्यास के लिए खतरा है, लेकिन निश्चित रूप से हम संकट का और अधिक कुशलता के साथ प्रबंधन करने का प्रयास कर सकते हैं, ताकि खतरे, आपदाओं में परिवर्तित न हो सकें। कई गुना खतरों के बावजूद एक सुसंगत और सार्थक संकट प्रबंधन रणनीति बनाकर हम अपने देश की देखभाल करना बहुत हद तक संभव बना सकते हैं, ताकि अंततः यह सभी आपदाओं से मुक्त हो जाएँ | संकट प्रबंधन के दायरे में, एक नीति की घोषणा अथवा एक कानून का प्रवर्तन अथवा एक संस्था बनाना अपेक्षाकृत एक आसान काम है, जबकि चुनौती वांछित परिणाम हासिल करने के लिए नीतियों को लागू करने में निहित है। आपदा प्रबंधन, जो मूल कि एक शासकीय मुद्दा है तथा महत्त्वपूर्ण एवं जटिल है, भारत की प्रशासनिक व्यवस्था के में विद्यमान है। आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिए की जाने वाली तैयारियों में वृद्धि करते हुए तंत्र को प्रभावी बनाना तथा इस दौरान प्रशासन की त्वरित प्रतिक्रिया के लिए व्यवस्था को अभिनव सोच एवं मौलिक परिवर्तन की आवश्यकता है। अतः यह आवश्यक है कि संकट प्रबंधन तंत्र प्रभावी तौर पर कार्य करे एवं परिणाम दे । जिस बात की आवश्यकता है, वह है वितरण तंत्र को सुदृढ़ करते हुए हमारी संस्थागत क्षमता की गुणवत्ता और प्रभाव में एक नए प्रतिमान कायम करने की। वहीं दूसरी ओर, वे प्राधिकरण के ढांचे और जवाबदेही के तंत्र दोनों में सन्निहित होंगे।
हमारा उद्देश्य केवल प्रशासन को अति कुशल बनाना ही नहीं होना चाहिए अपितु पंचायतों व समुदायों, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सामरिक अनुप्रयोगों, आपातकालीन संचार नेटवर्क, सुरक्षित गृहों एवं बुनियादी ढांचे का निर्माण तथा अनुसंधान एवं विकास तथा अतीत में संकट की स्थिति से निपटने के अनुभवों से सीख लेते हुए सभी स्तरों पर क्षमता निर्माण और सभी हितधारकों के सशक्तिकरण के अभिनव तरीको का विकास भी होना चाहिए। ये सभी कार्य चुनौतीपूर्ण हैं तथा इनके कार्यान्वयन के लिए सरकारी ढाँचे के भीतर और बाहर दोनों किस्म के कारकों के साथ मिलकर समन्वित प्रयास करते हुए सही रणनीति एवं योजना की आवश्यकता होती है। तकनीक और ज्ञान के इस युग में हमारा लक्ष्य अपनी समृद्ध सामाजिक, सांस्कृतिक प्रथाओं और स्वदेशी मुकाबला तंत्र के साथ तालमेल और अभिसरण की स्थापना होना चाहिए । व्यवस्थित तैयारी, पूर्व चेतावनी, त्वरित प्रतिक्रिया और स्थायी बहाली, अपदा प्रबंधन के प्रति दृष्टिकोण की आधारशिला
● आपदा प्रबंधन के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थानों का संस्थागत समर्थन
आपदा प्रबंधन, विभिन्न विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थानों से प्राप्त जानकारी पर निर्भर करता है। दरअसल, आपदा प्रबंधन के प्रयासों में वृद्धि के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास आवश्यक है। चूंकि संकट प्रबंधन बहु-विषयक प्रकृति वाला कार्य है। अतः प्रासंगिक अनुसंधान, बहुक्षेत्रीय अनुसंधान और विकास संगठनों में किए जाते हैं। द्वितीय प्रशासनिक सुरक्षा आयोग की अनुशंसा के अनुसार राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण एनआईडीएम की सहायता से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संगठनों तथा प्रासंगिक प्रौद्योगिकी के उपयोगकर्ताओं के बीच एक सांझे मंच की सुविधा मुहैया कराएगा। इस तरह के तंत्र को केंद्रीय एवं राज्य दोनों स्तरों पर संचालित किया जा सकता है।
● आपदा प्रबंधन की व्यावसायिकता
देश में आपदा प्रबंधन के लिए संस्थागत विकास स्पष्ट एवं व्यावसायिक रूप से योग्य कर्मियों की कमी के कारण प्रभावित हुआ है। जबकि संगठन, जैसे- पुलिस, सशस्त्र बल एवं नगर निकायों में सिविल कर्मी एवं अन्य वरिष्ठ कर्मी नेतृत्व की भूमिका निभाते हैं और उनके नेतृत्व को जारी रखने की आवश्यकता है। यह वो समय है जब देश में आपदा प्रबंधन को पेशेवराना बनाने के लिए लंबे समय से महसूस की जा रही जरूरत पर विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
कई विकसित देशों द्वारा अपनाई गई रणनीतियाँ एवं तरीके, आपदा प्रबंधन के क्षेत्र की ‘सर्वोत्तम कार्यप्रणाली’ हैं और भारत इन कार्य प्रणालियों से सीख ले सकता है। इसलिए यह वांछनीय है कि विदेशी सरकारों के साथ उनके प्रलेखन एवं अनुसंधान के प्रयासों से सीख लेने के लिए उनके अनुभवों के आदान-प्रदान संबंधी द्विपक्षीय समझौते की संभावना के हर संभव अवसर तलाशे जाने चाहिए।
● मास मीडिया और सोशल मीडिया के उपयोग
आपदा के बारे में जागरूकता फैलाने में मास मीडिया एक बहुत ही अहम भूमिका निभाता है। विश्व के किसी भी हिस्से में आई भीषण त्रासदी के तुरंत बाद समुदायों में खुद के जोखिम के बारे में जानने की उत्सुकता एवं आशंका चरम सीमा पर होती है। यह जन जागरूकता अभियान चलाने तथा समुदाय के साथ संपर्क स्थापित कर जोखिम के बारे में उन्हें जागरूक बनाने के लिए मीडिया का उपयोग करने का एक उपयुक्त समय होता है। मीडिया और आपदा प्रबंधन तंत्र के बीच बेहतर तालमेल से इसे आसानी से हासिल किया जा सकता है।
इस तरह के जागरूकता कार्यक्रमों के लिए अतीत में अथवा अन्य क्षेत्रों में आई आपदाओं से सीखा गया सबक, एक महत्त्वपूर्ण जानकारी सिद्ध हो सकता है। इसके लिए ऐसी सभी आपदाओं का ब्यौरा ठीक से प्रलेखित करते हुए सार्वजनिक रखा जाना चाहिए। जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण, राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण और एनडीएमए द्वारा आपदा के बारे में पर्याप्त जानकारी सीखे गए सबक के साथ अपनी वेब साइटों पर उपलब्ध कराई जानी चाहिए।
♦ समुदाय में आपदा – रोधी क्षमता का निर्माण
समुदाय भी अपने आप में ज्ञान और कौशल का भंडार है जो, पारंपरिक तौर पर विकसित होता है और इसे जोखिम कम करने की प्रक्रिया के तौर पर एकीकृत करने की आवश्यकता है। समुदाय के सदस्यों में कौशल विकास एवं उन्हें विशिष्ट भूमिकाएं आवंटित करते हुए आपदा की जोखिम की कमियों के बारे में पूरे समुदाय को शिक्षित करने की आवश्यकता है ताकि समुदाय की पहली प्रतिक्रिया को अच्छी तरह से समन्वित किया जा सके।
● जिला आपदा प्रबंधन योजना पर ध्यान
जिला प्रशासन को जिले के जोखिम, संकट एवं संवेदनशील रूपरेखा के बारे में विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है। प्रशासन को जिले की संवेदनशील जगहों, अतीत में घटित विभिन्न  ” आपदाओं की ऐतिहासिक रूपरेखा जिले पर उनके प्रभाव एवं जिला कैसे उनका सामना करने में सक्षम है, इन सभी पहलुओं की जानकारी होनी चाहिए। अब जिले की क्या क्षमता है? अगर कभी आपदा आती है तो क्या जिला इसे संभाल पाने में सक्षम होगा? खोज एवं बचाव, गहन व रसद-सामग्री वितरण, जीवनदायनी सेवाओं की सुनिश्चितता, लोगों की सुरक्षा, कानून और व्यवस्था की स्थिति, संसाधन जुटाने इत्यादि के लिए जिला प्रशासन अथवा डीडीएमए की तैयारी का वर्तमान मूल्यांकन। इससे जिले की क्षमता का अनुमान लगाते हुए योजना शुरू करने के दिशा-निर्देश जारी किए जा सकेंगे और साथ ही तब प्रशासन अथवा डीडीएमए जिले के जोखिम को संचित करते हुए आगे की आवश्यक कार्यवाही सुनिश्चित करने में सक्षम हो सकेगा।
♦  महत्त्वपूर्ण मुद्दे
● उत्तराखंड त्रासदी और उसका विवेचन
बादल फटने के कारण तीन दिनों ( 16 – 18 जून, 2013) तक चली मूसलाधार बारिश से 3,800 मीटर की ऊंचाई पर चौराबाड़ी ग्लेशियर पिघल गया जिस कारण मंदाकिनी नदी में आए भयानक उफान से केदारनाथ और उत्तराखंड के कुछ अन्य क्षेत्रों, जैसे- बद्रीनाथ एवं उत्तरकाशी के इलाके में भीषण बाढ़ एवं भारी शिलाखंडों के साथ भूस्खलन हुआ। 2004 में आई सुनामी के बाद यह हमारे देश की सबसे वीभत्स प्राकृतिक आपदा थी। हालांकि उत्तराखंड के सभी हिस्सों में तबाही हुई किंतु इसका ज्यादा असर मंदिरों के शहर केदारनाथ में देखने को मिला। वार्षिक तीर्थयात्रा के मध्य में मंदाकिनी नदी के तटीय क्षेत्र में हुई इस दुर्घटना के समय, वहां पर हज़ारों की संख्या में लोग मौजूद थे। परिणामस्वरूप, करीब चार हज़ार लोग मारे गए और क्षतिग्रस्त एवं अवरूद्ध सड़कों के कारण लगभग एक लाख तीर्थ यात्री एवं पर्यटक काफी दिनों तक घाटी में फंसे रहे। पूरे गांव एवं बस्तियाँ, जैसे- गौरीकुंड एवं बाजार का शहर राम बाड़ा, केदारनाथ जाने का मुहाना, पूरी तरह से मिट गए जबकि बाजारों के शहर सोनप्रयाग में बहुतायत में जीवन की क्षति एवं नुकसान का सामना करना पड़ा।
थल सेना, वायु सेना, आईटीबीपी, सीमा सुरक्षा बल, राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ), लोक निर्माण विभाग और स्थानीय प्रशासन ने एक साथ मिलकर त्वरित राहत-बचाव कार्य किया। बचाव अभियान के लिए कई हज़ार सैनिकों को तैनात किया गया था। लोगों को बचाने के लिए हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल किया गया, किंतु दुर्गम इलाके, भारी कोहरे एवं वर्षा के कारण उन्हें बचाना काफी चुनौतीपूर्ण था। भारतीय वायु सेना, भारतीय सेना एवं अर्द्धसैनिक बलों के कर्मियों ने बाढ़ से तबाह हुए क्षेत्र से लगभग एक लाख लोगों को सुरक्षित बचाया। भारतीय वायु सेना के बचाव अभियान को ‘ऑपरेशन राहत’ का नाम दिया गया। भारतीय सेना के बचाव अभियान को ‘ऑपरेशन सूर्यहोप’ नाम दिया गया।
हाल के दशकों में की गई अवैज्ञानिक विकासात्मक गतिविधियों के कारण उत्तराखंड राज्य में अभूतपूर्व विनाशकारी वर्षा देखी गई, जिस कारण संपत्ति और जीवन का भारी मात्रा में नुकसान हुआ। बेतरतीब शैली में निर्मित सड़कें, नदी के दुर्बल किनारों पर बनाए गए नए रिसॉर्ट्स एवं होटल, राज्य के जलाशयों में 70 से अधिक जल विद्युत परियोजनाएं, जैसे- कारक ‘आपदा होने के इंतजार’ जैसी स्थिति को आमंत्रित करते हैं। राज्य के पारिस्थितिक असंतुलन में 70 जल विद्युत  परियोजनाओं के लिए निर्मित सुरंगों एवं बम विस्फोटों का योगदान है। साथ ही नदी के पानी का सीमित प्रवाह व जलधारा के समीपवर्ती क्षेत्र के विकास की गतिविधियाँ, निरंतर भूस्खलन एवं बाढ़ के लिए उत्तरदायी हैं। मौजूदा बुनियादी ढांचा पूर्ण रूप से ध्वस्त है। इस कारण से सीमावर्ती गांव मुख्य धारा से कट गए हैं जो निश्चय ही हमारी सामरिक चिंताओं को बढ़ाता है।
‘इस लेखा परीक्षा के अनुसार ‘ – भारत के महालेखा परीक्षक एवं नियंत्रक (कैग: 2013 की रिपोर्ट नं. 5) द्वारा प्रकाशित, उत्तराखंड की निम्न कमियों के मुद्दे को न केवल प्रकाशित ही किया गया, बल्कि अनुवर्ती कार्यवाही करने के लिए राज्य सरकार के साथ इसे उठाया भी गया। नियंत्रक एंव महालेखा परीक्षक (सीएजी) द्वारा चिन्हित मुख्य कमियाँ निम्न थीं:
1.  राज्य में विभिन्न आपदाओं की आवृत्ति एवं तीव्रता की पहचान नहीं की गई है।
2.  मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एसडीएमए), हालांकि अक्टूबर, 2007 में गठित हो गया था, ने कोई भी नियम, विनियम, नीति एवं दिशा-निर्देश तैयार नहीं किए हैं। प्रदेश कार्यकारिणी समिति (एसईसी) का गठन जनवरी, 2008 में हुआ था लेकिन (यह शिथिलता और असमानता को दर्शाता है) अस्तित्व में आने के बाद यह कभी नहीं दिखाई दी। जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (डीडीएमए) को दिसंबर, 2007 में नैनीताल में गठित किया गया था। अपने अस्तित्व में आने के बाद से डीडीएमए केवल दो बार (अप्रैल एवं मई 2011) मिला है। इस प्रकार राज्य प्राधिकरण वस्तुतः गैर-कार्यात्मक था।
3.  राज्य आपदा प्रबंधन योजना तैयार की जा रही थी और विभिन्न आपदाओं के लिए कार्यवाही कार्यक्रम तैयार नहीं थे।
4. राज्य आपदा राहत कोष के प्रबंधन में हमने बहुत सी अनियमितताएं देखी हैं। इसमें धन का निवेश न करना भी शामिल है। जिसके परिणामस्वरूप 2007-12 के दौरान 9.96 करोड़ रुपए के हित का संभावित नुकसान हुआ । प्राकृतिक आपदा की वार्षिक रिपोर्ट एवं उपयोगिता प्रमाण पत्र 80 से 184 दिनों की देरी से जमा करने के कारण वर्ष 2011-12 में राज्य सरकार को कोई भी रकम जारी नहीं की गई।
5. पूर्व चेतावनी के लिए राज्य में कोई भी योजना तैयार नहीं की गई थी। संचार व्यवस्था अपर्याप्त थी, जिसके परिणामस्वरूप आबादी को जानकारी देर से प्राप्त हो पाती थी।
6. राज्य सरकार के जोखिम सुरक्षा कक्ष ने अब तक तीन शहरों में 7374 भवनों की पहचान की थी जिनमें से 1109 भवन हल्के भूकंप की चपेट में पाए गए। इन इमारतों को पुनः संयोजित करने की आवश्यकता थी लेकिन ऐसे कोई कदम नहीं उठाए गए।
7. भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने जून 2008 में 233 आपदा प्रभावित गांवों में से केवल 101 गांवों को ही संवेदनशील पाया। उनकी पहचान के चार साल बाद भी राज्य सरकार द्वारा उनके पुनर्वास के लिए कोई कारगर उपाय नहीं किए गए।
8. राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के लिए राज्य सरकार ने किसी भी पद की मंजूरी नहीं दी, जिससे जिला स्तर पर जिला आपातकालीन संचालन केन्द्र में प्रबंधन सूचना प्रणाली की स्थापना प्रभावित हुई, यहाँ जनशक्ति की भारी कमी थी। 13 जिलों में, 117 (13 जिलों में प्रत्येक के लिए 9 पद) मंजूर पदों की एवज में केवल 66 पदों ( 56 प्रतिशत) भरे गए।
9. यह भी देखने में आया कि जिला, ब्लॉक एवं ग्राम स्तर पर आपदा प्रबंधन की रोकथाम एवं शमन में लगे हुए कर्मचारियों को प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए किसी भी प्रधान प्रशिक्षक को प्रशिक्षित नहीं किया गया। आपात स्थिति अथवा जन हताहत घटना प्रबंधन हेतु अस्पताल की तैयारियों के लिए चिकित्सा कर्मी भी प्रशिक्षित नहीं थे।
इसलिए ऐसा कोई अन्य मामला नहीं था जिसमें राष्ट्रीय लेखा परीक्षक द्वारा ऐसी गंभीर भूलों को संज्ञान में लाया गया हो जो प्रतिबद्धता, समर्पण एवं दूर-दृष्टिता के प्रति उदासीनता को उजागर करती हैं तथा ये सभी चीजें तटीय एवं समुद्रीय क्षेत्रों के अलावा अन्य सभी प्रकार की आपदाओं के प्रवण के रूप में उत्तराखंड जैसे राज्य में पायी जानी चाहिए थीं ।
असाधारण-सी दिखने वाली बातें उस अहसास की अनूभूति हैं कि कैसे छोटी-छोटी चीजें, समाज के सभी वर्गों को जून, 2013 में आई आपदा की तरह की घटनाओं के प्रति जागरूक बनाने में सहायक सिद्ध होती हैं।
तैयारी के अतिरिक्त, संकट के दौरान कार्यवाही भी बहुत धीमी थी । उत्तराखंड सरकार शुरुआती दो दिनों तक त्रासदी के पैमाने को नहीं माप पाई थी। राज्य सरकार के पास लोगों को इस भयानक त्रासदी से बाहर निकालने के लिए पर्याप्त क्षमता नहीं थी। मुख्य रूप से निकासी का काम सेना, वायु सेना, आईटीबीपी, एवं एनडीआरएफ द्वारा किया गया । खोज एवं बचाव का कार्य भी बहुत देरी से आरम्भ हुआ।
पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण की प्रक्रिया भी बहुत धीमी थी। यह मुख्यतः दो कारणों से था- पहला, सड़कें एवं बिजली के तार बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुके थे जिस कारण आवाजाही, संचार व्यवस्था एवं विद्युत सेवाएं पूरी तरह से ठप हो गई थी। दूसरा, बारिश पूरी तरह से नहीं रूकी थी और फिर से शुरू हो गई थी। इसलिए चिकित्सा सहायता एवं खाद्य सामग्री की पर्याप्त रूप से आपूर्ति सुनिश्चित नहीं हो पा रही थी, क्योंकि सरकारी तंत्र बारिश के बंद होने का इंतजार कर रहा था। यहां तक कि अक्टूबर माह तक भी पुनर्वास के कार्य पर्याप्त स्तर तक नहीं पहुंच पाए थे।
♦  पुनर्वास कार्य में सीमा सुरक्षा बन की भूमिका
पुनर्वास कार्य में बीएसएफ की भूमिका बहुत ही उन्नत, कारगर और प्रभावी थी । सीमा सुरक्षा बल ने पुनर्वास कार्य के लिए 12 गांवों को गोद लिया था। आवाजाही के लिए बीएसएफ ने पर्वतारोहण पैटर्न पर अस्थायी पुलों, जैसे- पैदल पुल, रस्सी पुल, झूला पुल इत्यादि का निर्माण किया था। इन्होंने चिकित्सा सहायता के साथ-साथ सामुदायिक रसोई के लिए राशन की आपूर्ति में मदद की। बीएसएफ के जवानों ने भारी बारिश और विपरीत परिस्थिति के बावजूद पुनर्वास का कार्य कर दिखाया।
● क्या यह त्रासदी प्राकृतिक थी अथवा मानवजनित
नि:संदेह यह एक प्राकृतिक आपदा थी लेकिन मानव की गलतियों के कारण इसका प्रभाव कई गुना बढ़ गया था। ये मानवजनित गलितयाँ निम्न थीं
1. केदारनाथ पहुंचने वाले पर्यटकों एवं तीर्थ यात्रियों की संख्या पर कोई नियंत्रण नहीं: शहरों एवं सड़कों की क्षमता की तुलना में लगभग 5-10 गुना लोग इकट्ठे हुए थे।
2. नाजुक नदी तल पर असीमित निर्माण नदी तल नदी के बहाव के लिए होता है न कि अनियमित विकासात्मक गतिविधियों के लिए | बिना किसी उचित योजना और निर्माण के नियमों के बिना पर्यटकों की बढ़ती संख्या के अनुपात में असीमित निर्माण। उससे अचानक ज्यादा पानी आने से नदी के घाट में उसके लिए जगह ही नहीं बचती है।
3. पारिस्थितिक असंतुलन: सड़कों, सुरंगों, बांधों के निर्माण और सरंचना के लिए बेतहाशा विस्फोटकों के उपयोग से भी प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है। अगर शुरू से ही इन तीनों बातों पर मनन किया गया होता तो त्रासदी का पैमाना बहुत ही कम होता, यहां तक की वर्तमान पैमाने के मात्र दसवें हिस्से के बराबर ।
● आपदाओं के साथ जुड़ी सामाजिक और भावनात्मक समस्याएं
आपदाओं से निपटने के दौरान, हमें उन भावनात्मक और सामाजिक समस्याओं के प्रति विशेष रूप से उत्तरदायी होना चाहिए, जो लोग किसी आपदा के कारण अनुभव करते हैं। सूनामी से प्रभावित लगभग 10 प्रतिशत लोग, संभवत: 50 लाख लोग, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से इतनी गंभीर रूप से पीड़ित होते हैं कि उन्हें पेशेवर उपचार की आवश्यकता होती है। मनोसामाजिक देखभाल भावनात्मक और सामाजिक समस्याओं की एक विस्तृत श्रृंखला से संबंधित है और सामाजिक सामंजस्य बहाल करने में मदद करती है साथ ही व्यक्तियों और समूहों की स्वतंत्रता और गरिमा को बहाल करने में मदद करती है। यह पैथोलॉजिक विकास और आगे सामाजिक डिस्लोकेशन हो रोकता है। आपदाओं के बाद बचे लोगों के लिए मनोसामाजिक देखभाल में भावनात्मक प्रतिक्रिया का सामान्यीकरण एक महत्वपूर्ण कार्य है। भावनात्मक प्रतिक्रियाएं जैसे- भय, सतर्कता, सुन्नता, घुसपैठ की यादें और निराशा आकस्मिक आपदाओं का सामना कर रहे लोगों की सोच से परे हैं। भावनात्मक प्रतिक्रियाएं असामान्य स्थिति की सामान्य प्रतिक्रियाएं हैं। आपदा से पीड़ित लगभग 90 प्रतिशत लोग इन भावनात्मक प्रतिक्रियाओं का अनुभव करते हैं। इन सभी लोगों के लिए मनोसामाजिक देखभाव आवश्यक है।
Note: – यह नोट्स ऑनलाइन PDF फाइल से लिया गया हैं !!!!
Credit – Ashok Kumar,IPS
Credit – Vipul Anekant, DANIPS
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *