कुकुरमुत्ता : नयी काव्य दृष्टि और प्रयोगशीलता

कुकुरमुत्ता : नयी काव्य दृष्टि और प्रयोगशीलता

कुकुरमुत्ता : नयी काव्य दृष्टि और प्रयोगशीलता
संपूर्ण हिंदी साहित्य में निराला सर्वाधिक प्रयोगशील कवि के रूप में सामने आते हैं। वे छायावादी कविता के दौर में छायावादी कविता लिखते हुए उसका अतिक्रमण कर ‘कुकुरमुत्ता’ सदृश कविता की रचना करते हैं। डा0 दूधनाथ सिंह ने उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया है कि भाषा, संवेदना और काव्य उपकरणों के प्रयोग में विविधता उनकी शुरू से लेकर अंत तक की कविताओं में मिलती है। ‘राम की शक्तिपूजा’ में उन्होंने तत्सम प्रधान शब्दों का प्रयोग किया है, उसके तुरंत बाद ‘कुकुरमुत्ता’ जैसी भदेस शब्दावली का चुनाव नयी काव्य भाषा खोजने की बेचैनी को दर्शाता है।
‘परिमल’ में संकलित निराला की रचना ‘कुकुरमुत्ता’ उनकी अन्य सारी रचनाओं से अलग और विशिष्ट है। यही वह कविता है जहाँ से छायावाद विदा होता है और प्रगतिवादी कविता को दस्तक दी जाती है। तात्पर्य यह कि ‘कुकुरमुत्ता’ के विषय-वस्तु शिल्प और काव्यभाषा में प्रगतिवादी कविता के सारे लक्षण मौजूद हैं। ‘कुकुरमुत्ता’ और ‘तोड़ती पत्थर’ के माध्यम से निराला छायावाद के मध्य खड़े होते हैं।
गंदे में गोबर आदि पर उग जानेवाले पौधे को कई जगहों पर कुकुरमुत्ता कहा जाता है। अत्यंत निम्न धरातल पर रहने वाले लोगो के प्रतीक के रूप में निराला ने ‘कुकुरमुत्ता’ का प्रयोग किया है। उन्होंने दिखलाया है कि वे किस प्रकार सीना ताने बड़े-बड़े महलों को अंगूठ दिखा रहा है। इस कविता में ढहते हुए सामंती संस्कार पर उगते हुए पूँजीवादी स्वरूप को व्याख्या निराला ने नये तेवर और नयी विचारण पद्धति से की है। पूँजीवादी सामाजिक चेतना में वर्गीय स्वरूप की नयी व्याख्या कविता की विशिष्टता है-
                                     अबे सुन के गुलाब………..
                                     खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
                                     डाल पर इतराता है कैपीटलिस्ट
आलोचक परमानंद श्रीवास्तव ‘कुकुरमुत्ता’ की समीक्षा करते हुए लिखते हैं कि यहाँ किस्सागोई जैसा अंदाजे बयां है। कविता एकदा इतिवृत (नैरेखि) की तरह शुरू होती है – ‘एक थे नवाब, फारस के मंगाये थे गुलाब।’ फूलों के बेशुमार नाम सूची में है – बेला, गुलशब्बो चमेली, कामिनी, जूही, नरगिस – सिर्फ इस व्यंग्य के लिए कि कुकुरमुत्ते के सामने बड़ी बारी की सारी शोभा फीकी है। रामविलास शम के अनुसार कुकुरमुत्ता जिस भदेस आक्रामकता से गुलाब की पूँजीवादी संस्कृति के परोपजीवी होनेपर टूट पड़ता है वह अंदाज लुम्पेन सर्वहार का है क्योंकि वह तुरंत अपना बयान दंभपूर्ण शब्दावली में और चालाकी से भरे हुए लहजे में करता है –
                         देख, मुझको, मैं बूढ़ा
                        डेढ़ बालिश्त और ऊँचे पर चढ़ा
                             और अपने से उगा मैं
                              बिना दाने के चुगा मैं
                            कलम मेरा नहीं लगता
                           मेरा जीवन आप जगता
                           तू है नकली, मैं हूँ मौलिक
                           तू है बकरा, मैं हूँ कौलिक
इस आत्मगौरव का सिलसिला दूर तक चलता है – उसमें सब संकट में हैं – बाल्मीकि, व्यास, भाल, कालिदास, रवीन्द्र नाथ, एलियेट, रामेश्वर, मीनाक्षी, भुवनेश्वर –
                                     “मैं ही सबका जनक
                                        जेवर जैसे कनका”
दूसरे खंड में एक नयी बात आ जुड़ती है – कुकुरमुत्ता उपभोग संस्कृति का मूल्य अर्जित कर लेता है। उसके बयान से जो बिल्कुल प्रभावित नहीं हो रहे थे, वे स्वाद से पराजित हो जाते हैं – और नवाब का काम यह आदेश दिये बिना नहीं चलता कि कुकुरमुत्ता को तो बड़ी बारी में होना ही चाहिए।
कुकुरमुत्ता का स्थापत्य (शिल्प) ‘तुलसीदास’ के काव्यतंत्र का विलोम है। ‘तुलसीदास’ में छंद की व्यवस्था गरिमापूर्ण है। तत्सम प्रधान काव्य शब्दावली एक सचेत रचाव का प्रमाण देती है। उस उदात्त काव्य संगठन के विरुद्ध ‘कुकुरमुत्ता’ में अराजक छूट ली गई है। उर्दू शब्दों के साथ भदेस शब्दों का यह मेल व्यंग्य की आक्रामकता को सीधा-सपाद या लक्ष्यात्मक बनाने के लिए किया गया है।
आलोचक परमानन्द श्रीवास्तव के अनुसार ‘कुकुरमुत्त’ का यह अराजक रूपबंध व्यंग्यपूर्ण कथ्य के अनुरूप है। अनगढ़ और भदेस के तत्वों से संगठित इस लंबी कविता का अपना अनुशासन है। निराला ने स्वीकार किया है कि ‘तुलसीदास’ की रचना के पीछे जैसा श्रम है वैसा ही ‘कुकुरमुत्त’ के पीछे भी है। यह न समझा जाय कि ‘कुकुरमुत्ता’ रसविहीन रचना है।
‘कुकुरमुत्ता’ का सर्वाधिक ऐतिहासिक महत्व उसकी भाषा को लेकर है। इसमें कई ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ है जिसका उच्चारण करना अभिजात्य या कुलीन पसंद न करें। कविता का शीर्षक ही इस तथ्य को रेखांकित करता है। कोमल-कांत-पदावली में ही सौंदर्य नहीं होता बल्कि असुंदर दिखनेवाले शब्दों में भी काव्य सौंदर्य निहित होता है। इसकी खोज कविता के लिए ऐतिहासिक महत्व की बात है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *