शेरसिंह का शस्त्र समर्पण : कथावस्तु

शेरसिंह का शस्त्र समर्पण : कथावस्तु

शेरसिंह का शस्त्र समर्पण : कथावस्तु
शेरसिंह का शस्त्र समर्पण जयशंकर प्रसाद की अत्यंत महत्वपूर्ण रचना है जो उनको प्रसिद्ध संकलन ‘लहर’ में संकलित है। यह एक ऐतिहासिक प्रगति है। पंजाब केसरी महाराजा रणजीत सिंह के शासन काल में उनके पास सैन्य शक्ति पर्याप्त थी। उनके कुशल नेतृत्व में महाराजा की सैन्य टुकड़ी सदा विजय प्राप्त करती थी। उनकी मृत्यु के उपरांत उनमें कुछ शैथिल्य आ गया। उनकी सेना का एक सरदार लाल सिंह बागी हो गया और शत्रुओं की ओर जा मिला। सेना के शस्त्रागार में बारूद के स्थान पर आटा और तोप के गोलों के स्थान पर लकड़ी के टुकड़े मिले। फलतः सिक्ख सेना की शत्रुओं के समक्ष पराजय होने लगी। जब यह बात शेरसिंह को पता चली तो वह दुख और क्षोभ में डूब गया। उसने अपनी आत्महत्या करके ही शस्त्र समर्पित करने की ठान ली। उसने आवेश में कहा कि आज वह अपने शस्त्र को समर्पित
कर रहा है, क्योंकि आज तक तो इस तलवार ने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की है, पर आज उसे पराजय का मुख देखना पड़ रहा है। यवन घोर अत्याचार कर रहे हैं, युद्ध में विधवाओं के लाल छिन रहे हैं। वीरों की यह भूमि पंजाब शौर्य से वंचित नहीं है किंतु इसमें लालसिंह जैसे दगाबाज आ गए हैं, जिसके कारण विजय मिलने के कारण आज हार मिल रही है। सतलज के तट पर वीर वृद्ध योद्धा श्यामसिंह वीरगति को प्राप्त हुए थे। वापस आने का पुल ही तोड़ दिया गया था। आज विधाता ही जब वाम हो रहा है तो कोई क्या कर सकता है।
वैसे यह पंजाब देश वीरों की भूमि है। सतलज नदी की शत-शत लहरें इस बात की साक्षी है। सिख जाति में ऐसे अनेक वीर हैं जिनके सामने आग के गोले साधारण गेंद के समान हैं। युद्ध के क्षेत्र में लड़ना जिनके लिए बायें हाथ का खेल था। वीर पंजाब के वे वोर चिर-निद्रा में लीन हो गए। आज इस अंतिम समय वह प्रेरणा की भीख नहीं मांगता, वरन् अपने उस शस्त्र का समर्पण करता है जिससे कि उस शस्त्र का अपमान न हो।
प्रस्तुत कविता में देशद्रोही लालसिंह के कारण पराजित हुई सिक्ख जाति के महान गौरव के अध:पतन से उत्पन उनकी गहरी अन्तर्व्यथा की अभिव्यक्ति के माध्यम से देशवासियों में करूणा और वेदना जाग्रत कर उन्हें राष्ट्रीय संदेश दिया गया है।
छंद-विधान की दृष्टि से प्रस्तुत कविता मुक्त छंद में रचित है। यहाँ लय और गति के साथ प्रसादजी की कला का स्वच्छंद विलास अपूर्व है। भाषा शैली की दृष्टि से प्रस्तुत कविता में व्यवहत भाषा तत्सम प्रधान खड़ी बोली है। इसमें स्निग्धता, कोमलता आदि विद्यमान हैं। कहीं-कहीं भाषा चुरूट बन गई है। निष्कर्ष स्वरूप कहा जा सकता है कि इस कविता में देशद्रोहियों के पापपूर्ण षड्यंत्रों की चर्चा करने के साथ उनके कारण मिली पराजय से उत्पन्न सिक्ख जाति की अन्तर्वेदना को अभिव्यक्ति की गई है। करूणा और वेदना से आपूरित यह कविता मर्मस्पर्शी होने के कारण पाठकों को संवेदित करती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *