गाँधीवादी शिक्षा दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्धों की विवेचना कीजिए ।

गाँधीवादी शिक्षा दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्धों की विवेचना कीजिए । 

                                            अथवा
शिक्षा के सिद्धान्त एवं व्यवहार में गाँधी के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर— गाँधीवादी शिक्षा दर्शन– गाँधीजी ने राजनीति, समाज सुधार, सत्य और अहिंसा के क्षेत्रों में अति महान सफलताएँ प्राप्त कीं। इनके कारण शिक्षा सिद्धान्त और व्यवहार को दी जाने वाली उनकी देन बहुत ही कम याद आती है। वास्तव में शैक्षिक विचारकों में उनका स्थान अति श्रेष्ठ है। उन्होंने अपने जीवन के प्रारम्भ में ही यह अनुभव कर लिया था कि सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और नैतिक प्रगति का आधार ‘शिक्षा’ है ।
गाँधी के शिक्षा दर्शन के आवश्यक तत्त्व— गाँधीजी के शिक्षा दर्शन के आधार पर हम जिन महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों को प्राप्त करते हैं, ,वे निम्नलिखित हैं—
(1) गाँधीजी शिक्षा द्वारा व्यक्ति के मन, शरीर व आत्मा का पूर्ण विकास करना आवश्यक समझते थे ।
(2) गाँधीजी ने उस शिक्षा को अच्छा बताया जो हमें सैद्धान्तिक ज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक क्षमता भी दे सके ।
(3) सम्पूर्ण देश में 7 से 14 वर्ष तक के बालकों की शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य होनी चाहिए।
(4) वह यह भी मानते थे कि शिक्षा अक्षर ज्ञान नहीं है, वरन् वह व्यवहार का परिमार्जन करने की प्रक्रिया है।
(5) शिक्षा के द्वारा उत्तम नागरिकों का निर्माण होना चाहिए।
(6) शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होनी चाहिए।
(7) शिक्षा का सम्बन्ध जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से होना चाहिए।
(8) शिक्षा सत्य व अहिंसा के मूल्यों को विकसित करने में सहायक होनी चाहिए।
(9) शिक्षा के द्वारा बालक में आर्थिक क्षमता अथवा उत्पादन क्षमता का विकास किया जाना चाहिए।
(10) शिक्षा द्वारा बालक की क्षमताओं का पूर्ण रूप से विकास किया जाना चाहिए।
(11) शिक्षा योजना में कम से कम मैट्रिकुलेशन तक अंग्रेजी पढ़ाने की व्यवस्था होनी चाहिए ।
(12) शिक्षा को बालक के शरीर, हृदय, मस्तिष्क और आत्मा का सामंजस्यपूर्ण विकास करना चाहिए।
शिक्षा का अर्थ– गाँधीजी ने साक्षरता या लिखने पढ़ने के साधारण ज्ञान को शिक्षा नहीं माना है। उनके विचार से “साक्षरता न तो शिक्षा का अन्त है औ न शिक्षा का प्रारम्भ, यह तो केवल स्त्री- पुरुष को शिक्षित करने का साधन है । “
गाँधीजी के अनुसार शिक्षा का रूप अत्यन्त व्यापक एवं विस्तृत है। शिक्षा बालक में सभी प्रकार की क्षमताओं का विकास करती है। गाँधी ने स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है कि “सच्ची शिक्षा वह है जो बालकों की आत्मिक, बौद्धिक और शारीरिक क्षमताओं को उनके अन्दर से बाहर प्रकट एवं उत्तेजित करती है । “
शिक्षा के उद्देश्य– गाँधीजी ने शिक्षा को विभिन्न समयों में विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा है और समय-समय पर शिक्षा के अनेक उद्देश्य बताये हैं। गाँधीजी के उद्देश्य दो वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं— तात्कालिक (Immediate) व अन्तिम (Ultimate)।
(I) तात्कालिक उद्देश्य– इसके अन्तर्गत गाँधीजी ने उन उद्देश्यों को रखा है, जिनसे विद्यार्थी को तुरन्त लाभ हो सके।
गाँधीजी की शिक्षा के तात्कालिक उद्देश्य निम्नलिखित हैं—
(1) शारीरिक विकास– मानव को अपने जीवन में किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति तभी सम्भव हो सकती है, जब उसका शरीर ठीक प्रकार से विकसित हो । शारीरिक विकास आत्मिक विकास के लिए भी आवश्यक है ।
(2) नैतिक अथवा चारित्रिक विकास– शिक्षा के इस उद्देश्य के विषय में बताते हुए गाँधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है’मैंने सदैव हृदय की संस्कृति अथवा चरित्र निर्माण को प्रथम स्थान दिया है तथा चरित्र निर्माण को शिक्षा का उचित आधार माना है।” एक उत्तम चरित्र में वे सत्य, अहिंसा, निर्भयता, ब्रह्मचर्य, अस्वाद, अस्तेय और अपरिग्रह आदि गुणों का होना आवश्यक समझते थे ।
(3) मानसिक एवं बौद्धिक विकास– गाँधीजी के अनुसार, शरीर के साथ-साथ मन एवं बुद्धि का विकास करना भी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। जिस प्रकार शरीर के विकास के लिए माँ का दूध आवश्यक होता है, उसी प्रकार मानसिक विकास के लिए शिक्षा आवश्यक है।
(4) सांस्कृतिक उद्देश्य– गाँधीजी का कहना था कि मैं शिक्षा के साहित्यिक पक्ष के स्थान पर सांस्कृतिक पक्ष को अधिक महत्त्व देता हूँ। संस्कृति शिक्षा का आधार तथा विशेष अंग है। अतः मानव के प्रत्येक. व्यवहार पर संस्कृति की छाप होनी चाहिए। गाँधीजी चाहते थे कि शिक्षा द्वारा भारतीय संस्कृति का विकास होना चाहिए।
(5) पूर्ण विकास का उद्देश्य गाँधीजी के अनुसार, “शिक्षा से मेरा तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जो बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा का उत्कृष्ट एवं सर्वांगीण विकास करे। “
वे मानते थे कि शिक्षा के द्वारा बालक की समस्त शक्तियों का सामंजस्यपूर्ण विकास होना चाहिए।
(6) जीविकोपार्जन का उद्देश्य– गाँधीजी के अनुसार, को बेरोजगारी के विरुद्ध एक बीमा होना चाहिए।” “शिक्षा
शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को आजीविका उपार्जन के योग्य बनाना है, जिससे वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सके। शिक्षा के इस उद्देश्य के अनुसार गाँधीजी का तात्पर्य यह था कि प्रत्येक बालक कमाते हुए कुछ सीखे और सीखते हुए कमाये ।
(7) मुक्ति का उद्देश्य– ‘सा विद्या या विमुक्तये’ गाँधीजी के इस आदर्श के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को सांसारिक बन्धनों से मुक्ति दिलाना है और उसकी आत्मा को उन्नत जीवन की ओर ले जाना है। गाँधीजी शिक्षा के द्वारा व्यक्ति को आध्यात्मिक स्वतन्त्रता देना चाहते थे, जिससे उसकी आत्मा का विकास हो सके ।
(II) अन्तिम उद्देश्य— गाँधीजी शिक्षा का चरम उद्देश्य वास्तविकता का अनुभव, ईश्वर एवं आत्मज्ञान मानते थे । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने चरित्र निर्माण को आवश्यक माना ।
गाँधी के अनुसार शिक्षा का पाठ्यक्रम– महात्मा गाँधी ने एक नवीन शिक्षा प्रणाली का सूत्रपात किया जिसे बेसिक शिक्षा प्रणाली या बुनियादी शिक्षा के नाम से जाना जाता है । इस शिक्षा का पाठ्यक्रम क्रिया-प्रधान है तथा इसका उद्देश्य बालक को कार्य, प्रयोग तथा खोज के द्वारा उसकी शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करना है जिससे वह आत्मनिर्भर होकर समाज का आवश्यक अंग बन जाए। महात्मा गाँधी के अनुसार, पाठ्यक्रम में हस्त शिल्प को केन्द्रीय स्थान दिया जाना चाहिए ताकि प्रचलित शिक्षा के दोषों को दूर किया जा सके। इसके लिए उन्होंने आधारभूत शिल्प जैसे— कृषि, कताई, बुनाई, गत्ते का काम, लकड़ी का काम, चमड़े का काम, मत्स्य पालन आदि को महत्त्व दिया ।
(1) मातृभाषा–महात्मा गाँधी ने पाठ्यक्रम मेंमातृभाषा प्रमुख स्थान दिया।
(2) गणित |
(3) सामान्य विज्ञान(i) जीव-विज्ञान, (ii) वनस्पति विज्ञान, (iii) शरीर विज्ञान, (iv) स्वास्थ्य विज्ञान, (v) रसायन शास्त्र, (vi) प्रकृति अध्ययन, (vii) भौतिक-संस्कृति, (viii) नक्षत्र
ज्ञान ।
(4) कला– ड्राइंग व संगीत ।
(5) सामाजिक अध्ययन इतिहास, भूगोल व नागरिक शास्त्र
(6) हिन्दी — (जहाँ पर मातृभाषा न हो) ।
(7) शारीरिक शिक्षा—खेलकूद और व्यायाम ।
महात्मा गाँधी ने प्राथमिक व निम्न माध्यमिक स्तर तक के बालकों के लिए पाठ्यक्रम निर्धारित किया ।
महात्मा गाँधी के अनुसार अनुशासन-गाँधीजी ने अनुशासन को व्यक्ति के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है परन्तु उन्होंने छात्रों को स्वतन्त्र एवं आत्मानुशासन अर्थात् स्वयं अनुशासित रहने पर बल दिया है—
(1) प्रभावात्मक अनुशासन– प्रभावात्मक अनुशासन से गाँधीजी का तात्पर्य ऐसे अनुशासन से है जिससे बालक आत्मानुशासित होकर कार्य करे। इसके लिए उन्होंने शिक्षकों को अनुशासन में रहने का सुझाव दिया उनका मानना था कि अगर शिक्षक अनुशासित रहेंगे तो उनसे प्रेरित होकर बालक भी अनुशासन में रहेंगे।
(2) दण्डरहित अनुशासन– गाँधीजी कठोर दंड के विपक्ष में थे किन्तु उनका मानना था कि बालकों को पूर्ण स्वतन्त्रता भी नहीं देनी चाहिए। गाँधीजी के अनुसार दण्ड व्यवस्था आवश्यक है परन्तु दण्ड ऐसा होना चाहिए जिससे बालकों को यह अनुभव हो कि उन्हें दण्ड उनकी भलाई के लिए दिया जा रहा है न कि किसी द्वेषवश ।
(3) स्नेहयुक्त व विश्वासयुक्त अनुशासन— गाँधीजी ने अपना जीवन अनुशासित रूप में व्यतीत किया था। इसलिए वे छात्रों को भी अनुशासन सिखाना चाहते थे किन्तु वे दमनात्मक अनुशासन के कठोर आलोचक थे उनका मानना था कि बालकों को स्नेहपूर्वक बात को समझाना चाहिए। गाँधीजी के अनुसार अनुशासन बालकों को सही मार्ग दिखाने व उनका बौद्धिक व सामाजिक विकास करने के लिए होना चाहिए।
(4) आत्मानुशासन— गाँधी जी ने आत्मानुशासन को प्रमुख स्थान दिया है। उनके अनुसार, बालक में जब तक स्वयं अनुशासन की भावना नहीं जागृत होगी तब तक वह अनुशासित नहीं हो सकता है।
शिक्षण विधि— गाँधीजी द्वारा प्रतिपादित शिक्षण विधियाँ निम्नलिखित हैं—
(1) क्रियाविधि– गाँधीजी का विश्वास था कि बालक के मानसिक विकास के लिए शरीर की विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का विकास और प्रशिक्षण आवश्यक है। इसीलिए उन्होंने कार्य करके सीखने के सिद्धान्त पर अधिक बल दिया है। अतः हम उनकी शिक्षण पद्धति को क्रिया प्रधान कह सकते हैं। इसके लिए गाँधीजी ने बेसिक शिक्षा को हस्तकला केन्द्रित (Craft centred) बनाया है। इस पद्धति के अनुसार विभिन्न विषयों की शिक्षा किसी हस्तकला को केन्द्र मानकर सानुबन्धित रूप से दी जाती है।
(2) सानुबन्धित विधि– गाँधीजी ने शिक्षा की सानुबन्धित अथवा समन्वय की विधि को बहुत महत्त्वपूर्ण बतलाया है। उनका विचार है कि बालक को विभिन्न विषयों की शिक्षा एक-दूसरे से सम्बन्धित रूप से दी जाये। उदाहरण के लिए, किसी हस्तकला की शिक्षा देते समय प्रासंगिक रूप से इतिहास, भूगोल, विज्ञान, व्यापार पद्धति आदि का समुचित ज्ञान कराया जा सकता है।
(3) स्वानुभव द्वारा सीखने की विधि– गाँधीजी ने स्वानुभव द्वारा सीखने की विधि पर भी जोर दिया है। उनका विचार है कि बालक विद्यालय के वातावरण में रहकर और विभिन्न प्रकार के कार्यों को करने से जो अनुभव प्राप्त करता है वह स्थायी स्वरूप का होता है और यही उसके व्यावहारिक जीवन में बहुत अधिक काम आता है।
(4) सहयोगी विधि– गाँधीजी ने हस्तकला की शिक्षा में सहयोगी विधि को बहुत ही आवश्यक और महत्त्वपूर्ण माना है। इस विधि में छात्र अपने शिक्षक तथा सहपाठियों के पारस्परिक सहयोग से कार्य करता है और ज्ञान प्राप्त करता है।
(5) मौखिक विधि– इसके अन्तर्गत प्रश्नोत्तर विधि, तर्क विधि, व्याख्यान विधि और कहानी विधि को रखा है। गाँधीजी भाषा, इतिहास और गणित आदि के ज्ञान के लिए इस विधि को महत्त्वपूर्ण मानते थे।
(6) चिन्तन एवं मनन विधि– गाँधीजी ने भारतीय शिक्षण पद्धति मनन और निदिध्यासन विधि पर भी ध्यान रखा और कहा – “विचार करने की कला सच्ची कला है।” इस विचार में मनन की भी आवश्यकता पड़ती है जो अर्जित ज्ञान को स्थायित्व प्रदान करती है।
(7) संगीत विधि– गाँधीजी ने संगीत को शिक्षण की एक प्रभावशाली विधि माना और कहा कि इसका प्रयोग व्यायाम तथा हस्तकौशल की शिक्षा प्रदान करते समय किया जाना चाहिए, जिससे बालकों में अपने कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न होगी। धार्मिक शिक्षा के लिए भी संगीत से बालकों में नैतिक विकास के साथ ही साथ अनुशासन की भावना भी जागृत होगी ।
शिक्षक का स्थान– गाँधीजी ने अपनी शिक्षा योजना में शिक्षक की जो स्थिति बतायी है, वह अन्य दार्शनिक से भिन्न है । वह शिक्षक को छात्रों का मित्र, पथ-प्रदर्शक व सहायक मानते हैं। उन्होंने शिक्षक के व्यक्तित्व के अन्तर्गत निम्न गुणों की कल्पना की है—
(1) शिक्षक को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए, जिससे वह अपने शिक्षण को प्रभावशाली बना सके ।
(2) शिक्षक को छात्रों की मनोवैज्ञानिक समस्याओं से पूर्णतया परिचित होना चाहिए व उनका समाधान धैर्य के साथ करना चाहिए।
(3) शिक्षक के द्वारा छात्रों को स्व-अध्ययन हेतु अधिक से अधिक प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
(4) शिक्षक के ऊपर छात्रों को इतना विश्वास होना चाहिए कि वह उसके समक्ष स्वयं की स्वतन्त्रता अभिव्यक्त कर सकें।
(5) शिक्षक की कार्य प्रणाली व व्यवहार चारित्रिक व नैतिक गुणों की परिधि में होना चाहिए ।
(6) शिक्षक को अपने छात्रों के व्यक्तित्व के सभी गुणों की पूर्ण जानकारी हो, साथ ही साथ उसे छात्रों की कमियों का भी ज्ञान होना चाहिए, जिससे वह उन्हें उचित मार्ग-निर्देशन दे सके ।
(7) छात्रों द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर शिक्षक के द्वारा दिये जाने चाहिए, जिससे छात्रों की जिज्ञासा सन्तुष्ट हो सके।
विद्यार्थी— छात्र के स्थान के सम्बन्ध में गाँधीजी के विचार अधोलिखित हैं—
(1) विद्यार्थी को ब्रह्मचारी होना चाहिए, जिससे वह नियम,
संयम व सदाचारी बनकर अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह कर सके।
(2) गाँधीजी का मानना था कि छात्र के अन्तर्गत शारीरिक बल, आत्मबल, चरित्र बल व बुद्धि बल होना आवश्यक है । अतः छात्र को इन सभी के विकास की ओर उन्मुख होना चाहिए।
(3) शिक्षा के द्वारा छात्र की वैयक्तिकता का यथासम्भव विकास होना चाहिए । इसी कारण छात्र को पूर्ण रूप से स्वतन्त्र छोड़ना उचित है, परन्तु स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता कदापि नहीं है ।
(4) वह छात्र की एक अनुशासित, विनयी, देशसेवी, त्यागी, शान्त व सहिष्णु व्यक्ति के रूप में कल्पना करते हैं ।
(5) शिक्षा के द्वारा छात्र को आत्मनिर्भर व स्वावलम्बी बनाया जाना चाहिए ।
(6) शिक्षा के द्वारा विद्यार्थी को इतना जागरूक बनाया जाना चाहिए कि वह अपने अन्तःश्रम की खोज कर सके ।
महात्मा गाँधी के शिक्षा दर्शन की उपयुक्तता का मूल्यांकन–महात्मा गाँधी का शिक्षा दर्शन भारतीय परिस्थितियों के लिए सर्वदा उपयुक्त है। भारतीय आवश्यकता लघु व कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना है ताकि प्रत्येक व्यक्ति आत्मनिर्भर हो सके। यह तभी सम्भव है जब भारतीय नागरिक हृदय में ईश्वर को रखेंगे ताकि सत्य के रास्ते पर चलते हुए सही ढंग से कार्य कर सकें ।
अतः यह कहना बिल्कुल सत्य है जो कि डॉ. एम. एस. पटेल ने महात्मा गाँधी के विषय में लिखा है, “महात्मा गाँधी के दर्शन का सावधानी से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि उनके शिक्षा दर्शन में प्रकृतिवाद, आदर्शवाद तथा प्रयोजनवाद एक-दूसरे के विरोधी न होकर पूरक हैं । ” महात्मा गाँधी के दर्शन को आदर्शवाद आधार प्रदान करता है। जबकि प्रकृतिवाद और प्रयोजनवाद इसके सहायक हैं। डॉ. एम. एस. पटेल के अनुसार, “शिक्षा दर्शन अपनी योजना में प्रकृतिवादी अपने उद्देश्य में प्रयोजनवादी हैं । ” शिक्षा दर्शन में महात्मा गाँधी की वास्तविक महानता इस बात में है कि उनके दर्शन में प्रकृतिवाद, आदर्शवाद व प्रयोजनवाद की मुख्य प्रवृत्तियाँ अलग और स्वतन्त्र नहीं है वरन् मिलकर एक हो गयी हैं। जिससे ऐसे शिक्षा दर्शन का जन्म हुआ जो आज की आवश्यकताओं के लिए उपयुक्त होगा तथा मानव आत्मा की सर्वोच्च आकांक्षाओं को सन्तुष्ट करेगा।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *