एक शिक्षाविद् के रूप में अरबिन्द की देन का मूल्यांकन कीजिए ।

एक शिक्षाविद् के रूप में अरबिन्द की देन का मूल्यांकन कीजिए । 

                           अथवा
अरबिन्दो के शैक्षिक विचारों की व्याख्या कीजिए ।
उत्तर— श्री अरविन्द का शिक्षा दर्शन— श्री अरविन्द एक महान दार्शनिक के साथ-साथ उच्च कोटि के शिक्षाशास्त्री भी थे। उन्होंने मानव जाति को सर्वोच्च आध्यात्मिक विकास का मार्ग दिखाया। इसी दृष्टि से उन्हें मानव के सच्चे धैर्यदाता की संज्ञा भी दी जाती है। उन्होंने बताया कि शिक्षक का प्रमुख उपकरण अन्तःकरण होता है । उस अन्तःकरण के चार पटल अथवा स्तर होते हैं—चित्त, मानस, बुद्धि तथा ज्ञान शिक्षा को बालक के चारों स्तरों का अधिक से अधिक विकास करना चाहिए। आदर्शवादी होने के नाते श्री अरविन्द का शिक्षादर्शन आध्यात्मिक साधना, ब्रह्मचर्य तथा योग पर आधारित है। उनका विश्वास था कि जिस शिक्षा में उक्त तीनों तत्त्व सम्मिलित होंगे उससे मानव का पूर्ण विकास होना निश्चित है।
शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त– श्री अरविन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित प्रकार से हैं—
(1) शिक्षा मातृभाषा के माध्यम से दी जानी चाहिए।
(2) शिक्षा बालक-प्रधान होनी चाहिए।
(3) शिक्षा बालक की मनोवृत्तियों तथा मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों के अनुसार होनी चाहिए।
(4) शिक्षा को बालक में छिपी हुई शक्तियों का विकास करना चाहिए।
(5) शिक्षा को बालक की शारीरिक शुद्धि करनी चाहिए।
(6) शिक्षा को चेतना का विकास करना चाहिए।
(7) शिक्षा को बालक के अन्त:करण का विकास करना चाहिए ।
(8) शिक्षा को ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित करना चाहिए।
(9) शिक्षा का आधार ब्रह्मचर्य होना चाहिए।
(10) शिक्षा के विषय रोचक होने चाहिए ।
शिक्षा का अर्थ— श्री अरविन्द भारत की प्रचलित शिक्षा के विरोधी थे। वे चाहते थे कि शिक्षा मानव के मस्तिष्क तथा आत्मा की शक्तियों का निर्माण करे। साथ ही ही उसके ज्ञान, चरित्र एवं संस्कृति के उत्कर्ष में सहायक हो। उनके कथानुसार—“सच्ची शिक्षा को मशीन से बना हुआ सूत नहीं होना चाहिए, अपितु इसको मानव के मस्तिष्क तथा आत्मा की शक्तियों का निर्माण अथवा जीवित उत्कर्ष करना चाहिए।”
शिक्षा के उद्देश्य– अरविन्द के अनुसार, “शिक्षा का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए, विकसित होने वाली आत्मा का विकास करना जो उसमें सर्वोत्तम है, उसे व्यक्त करना तथा उसे श्रेष्ठ कार्य के लिए पूर्ण बनाना ।’ के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं—
(1) मस्तिष्क एवं आत्मा की सबलता– श्री अरविन्द के अनुसार, शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मानव की आन्तरिक शक्तियों का विकास है। इसीलिए वे आध्यात्मिक शिक्षा पर अधिक बल देते हैं, जिससे मस्तिष्क और आत्मा को बल प्राप्त हो ।
(2) शारीरिक विकास और शुद्धि– अरविन्द के अनुसार, शिक्षा का महत्त्वपूर्ण एवं सर्वप्रथम उद्देश्य बालक का शारीरिक विकास करना है। उन्होंने शारीरिक विकास में शारीरिक शुद्धि को भी सम्मिलित किया, क्योंकि उनका मानना था कि शरीर के उचित विकास एवं इसकी शुद्धि के बिना मानव का आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं है। उनका कथन था कि शरीर के माध्यम से ही धार्मिक एवं आध्यात्मिक जीवन की प्राप्ति होती है। इसलिए शरीर स्वस्थ तथा पवित्र होना चाहिए।
(3) वास्तविकता का ज्ञान– बालक को अहम् भाव से ऊपर उठाकर अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकने की शिक्षा देना ही महान लक्ष्य है।
(4) आध्यात्मिक विकास– आदर्शवादी होने के नाते श्री अरविन्द ने शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास करना बतलाया है। उनका कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति में कुछ दैवीय अंश होता है। शिक्षा का उद्देश्य इसी दैवीय अंश को खोजना, विकसित करना तथा पूर्णता की ओर ले जाना है।
(5) ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा– श्री अरविन्द ने पाँचों ज्ञानेन्द्रियों (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध) के प्रशिक्षण पर अत्यधिक बल दिया है। उनके अनुसार शिक्षक का प्रथम कर्त्तव्य है कि वह बालक को इस प्रकार का शिक्षण दे जिससे वह अपनी ज्ञानेन्द्रियों का उचित प्रयोग कर सके।
(6) मानसिक विकास– श्री अरविन्द के अनुसार, शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बालक का मानसिक विकास है। मानसिक विकास से तात्पर्य स्मृति चिन्तन, तर्क, कल्पना तथा निर्णय आदि सभी मानसिक शक्तियों से है। अतः शिक्षा को उक्त सभी मानसिक शक्तियों का विकास करना चाहिए ।
(7) स्व का ज्ञान– स्वयं को पहचानना ही इस जीवन का परम लक्ष्य है। केवल उसी शिक्षा को वे वास्तविक मानते हैं जो इस ध्येय की पूर्ति कर सके अर्थात् जो मनुष्य को उसकी शक्तियों का अनुभव करा सके कि उसमें एक चैतन्य, प्राण, एक अन्त:करण, एक मन, एक अतिमानस तथा श्रेष्ठ आध्यात्मिक पुरुष भी है।
(8) व्यक्तित्व का समन्वित विकास– समन्वित व्यक्तित्व वह है जिसमें मस्तिष्क का पूर्ण विकास हो गया हो। सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्क और आत्म-चेतना का ज्ञान देकर उसे जीवन में प्रयोग करना ही शिक्षा का उद्देश्य है।
(9) चेतना की उत्पत्ति– श्री अरविन्द के विचार से प्रत्येक प्राणी में एक दैवीय शक्ति विद्यमान है। इसी दैवीय शक्ति को पहचानने की चेतना उत्पन्न करना ही शिक्षा का उद्देश्य है ।
(10) अन्तःकरण का विकास– श्री अरविन्द के अनुसार, शिक्षा का एक प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बालक के अन्तःकरण का विकास करना है। उन्होंने अन्त:करण के चार पटल अथवा स्तर बताये हैं—चित्, मानस, बुद्धि तथा ज्ञान। इन स्तरों का विकास ही अन्तःकरण का विकास है। शिक्षा को उक्त चारों स्तरों का विकास करना चाहिए।
पाठ्यक्रम– श्री अरविन्द के अनुसार, पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो बालकों के भौतिक, नैतिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास में सहायक सिद्ध हो । अतः उन्होंने पाठ्यक्रम के निर्माण हेतु निम्नलिखित सुझाव दिये—
(1) पाठ्यक्रम रोचक हो।
(2) पाठ्यक्रम में उन सभी विषयों का समावेश किया जाये जिनसे बालकों का भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में पूर्ण विकास हो ।
(3) पाठ्यक्रम में वे सभी विषय सम्मिलित किये जाने चाहिए  जिनमें जीवन की क्रियाशीलता के गुण मौजूद हों।
(4) पाठ्यक्रम ऐसा हो जिसके द्वारा विश्व ज्ञान में बालक की रुचि उत्पन्न हो सके।
श्री अरविन्द के अनुसार हम पाठ्चर्या को निम्नलिखित रूप में क्रमबद्ध कर सकते हैं—
भौतिक विषय–मातृभाषा एवं राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की भाषाएँ, इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, गणित, विज्ञान, मनोविज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, कृषि, उद्योग, वाणिज्य और  कला।
भौतिक क्रियाएँ–खेलकूद, व्यायाम, उत्पादन कार्य, शिल्प ।
आध्यात्मिक विषय–वेद, उपनिषद्, गीता, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, विभिन्न देशों के धर्म एवं दर्शन ।
आध्यात्मिक क्रियाएँ–भजन, कीर्तन, ध्यान एवं योग ।
परन्तु इन सब विषयों का अध्ययन एवं क्रियाओं का प्रशिक्षण एक दिन में नहीं किया जायेगा। श्री अरविन्द आश्रम में उसे निम्नलिखित रूप में रखा गया है—
(1) प्राथमिक स्तर– मातृभाषा, अंग्रेजी, फ्रेंच, सामान्य विज्ञान, सामाजिक अध्ययन, गणित व चित्रकला ।
(2) माध्यमिक व उच्च माध्यमिक स्तर– मातृभाषा, अंग्रेजी, फ्रेंच, सामाजिक अध्ययन, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, गणित और चित्रकला।
(3) विश्वविद्यालय स्तर– भारतीय व पाश्चात्य दर्शन, मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, सभ्यता का इतिहास, अंग्रेजी, साहित्य, गणित, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, विज्ञान का इतिहास, फ्रेंच साहित्य, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, जीव विज्ञान और विश्व एकीकरण (World Integration)।
(4) व्यावसायिक शिक्षा– चित्रकारी, फोटोग्राफी, सिलाई, सूची शिल्प कार्य, शिल्पकला सम्बन्धी, ड्राइंग, टंकण, आशुलिपि, कुटीर उद्योग, काष्ठ कला, सामान्य मैकेनिकल तथा इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग, उपचारण, भारतीय तथा यूरोपीय संगीत, अभिनय तथा नृत्य ।
शिक्षण विधियाँ— श्री अरविन्द के अनुसार निम्नलिखित शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाता है—
(1) स्वानुभव द्वारा सीखना– श्री अरविन्द का शिक्षा दर्शन प्रकृतिवादी शिक्षा दर्शन से प्रभावित था । प्रकृतिवादियों की तरह इनका भी मानना था कि स्वानुभव द्वारा बालक ज्यादा सीखता है क्योंकि स्वयं प्रयत्न तथा निरीक्षण के फलस्वरूप उसे जो व्यक्तिगत अनुभव होंगे वे अधिक स्थायी और लाभप्रद होंगे।
(2) रुचि के आधार पर शिक्षा– श्री अरविन्द ने बालक को केन्द्र मानकर शिक्षा प्रदान करने पर जोर दिया है। उनके अनुसार शिक्षक को बालक के ऊपर अपना ज्ञान थोपना नहीं चाहिए बल्कि उन्हें शिक्षा उनकी रुचियों के अनुरूप देनी चाहिए।
(3) करके सीखना– श्री अरविन्द ने करके सीखना अथवा क्रिया-विधि का समर्थन किया है। इस विधि में बालक की सभी इन्द्रियाँ क्रियाशील रहती हैं। इसलिए प्राप्त ज्ञान स्थायी और लाभदायक होता है ।
(4) पाठ्य-पुस्तक विधि– श्री अरविन्द पाठ्य पुस्तक से शिक्षा की अपेक्षा पाठ्य-पुस्तक द्वारा शिक्षा के समर्थक थे। वे पुस्तक को सहायक पुस्तक के रूप में स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार बालक को नवीन व व्यवस्थित ज्ञान प्रदान करने में ये सहायक होती हैं ।
(5) मातृभाषा द्वारा शिक्षा– श्री अरविन्द, मातृभाषा में शिक्षा के पक्ष में थे। उनका विचार है कि बालक को सर्वप्रथम उसकी मातृभाषा में ही शिक्षा प्रदान करनी चाहिए क्योंकि मातृभाषा द्वारा बालक अधिक से अधिक ज्ञान अर्जित करता है। बालक की स्मृति, तर्क और कल्पना शक्तियों का विकास मातृभाषा द्वारा सरलता से होता है।
शिक्षक– श्री अरविन्द के अनुसार अध्यापक को बालकों की अभिरुचियों का अध्ययन करके ही उन्हें शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। उसे ज्ञान को बालकों पर लादना नहीं चाहिए वरन् उसे ऐसा प्रयास करना चाहिए जिससे बालक ‘स्व-शिक्षा’ के पथ पर अग्रसर हों। श्री अरविन्द के शब्दों में, ‘अध्यापक निर्देशक या स्वामी नहीं है। वह सहायक और पथ-प्रदर्शक है। उसका कार्य सुझाव देना है, न कि ज्ञान को लादना । वह वास्तव में छात्र के मस्तिष्क को प्रशिक्षित नहीं करता है । वह छात्र को यह बताता है कि वह अपने ज्ञान के साधनों को किसी प्रकार समृद्ध बनाए वह उसे केवल यह बताता है कि ज्ञान कहाँ है और उसको बाहर लाने के लिए किस प्रकार अभ्यास किया जा सकता है। “
शिक्षक का दूसरा प्रमुख कार्य बालकों की ज्ञानेन्द्रियों का विकास करना तथा प्रशिक्षित करना भी है जिसमें वह उनके प्रयोग में कुशल बन सकें। जिससे ज्ञानेन्द्रियों द्वारा भेजी प्रतिमाएँ स्पष्ट रूप में बन सकें । शिक्षक को चाहिए कि वह ज्ञानेन्द्रियों को इस सीमा तक प्रशिक्षित करे कि बालक के अन्दर विभिन्न प्रतिमानों को तुरन्त समझने की शक्ति आ जाए। श्री अरविन्द के अनुसार शिक्षक का आचरण ऐसा होना चाहिए जिसे देखकर बालक भी प्रेरित हो सके।
बालक–श्री अरविन्द ने बालक के विकास में शिक्षा को प्रमुख स्थान दिया है। उनके अनुसार बालक का विकास उसकी रुचि तथा प्रकृति के अनुसार किया जाना चाहिए। शिक्षा ऐसी हो जो प्रत्येक बालक कें की विलक्षणताओं और क्षमताओं का विकास करने में सहायक हो । श्री अरविन्द के शब्दों में, “बालक को माता-पिता अथवा शिक्षक की इच्छानुकूल ढालना अन्धविश्वास और जंगलीपन है तथा उसकी पूर्णता को दूषित करना है । “
अनुशासन— श्री अरविन्द प्रभावात्मक अनुशासन में विश्वास रखते थे। उनके अनुसार अध्यापकों को बालकों के सामने आदर्श आचरण प्रस्तुत करना चाहिए जिसका अनुकरण कर बालक पहले तो आदर्श आचरण की ओर अग्रसर हो और फिर वैसा ही अनुशासित जीवन व्यतीत करना अपना कर्त्तव्य समझे । उनका कहना था कि दण्ड अमानवीय कृत्य है। कठोरता तथा दंड से अनुशासन कायम नहीं किया जा सकता है।
अरविन्द के अन्य शिक्षा सम्बन्धी विचार—
(1) धार्मिक शिक्षा– श्री अरविन्द का मानना था कि विश्व के सभी धर्म मनुष्य को दूसरों के लिए, ईश्वर के लिए और अपने लिए जीना सिखाते हैं। श्री अरविन्द शिक्षा को धर्म पर आधारित करना चाहते थे, परन्तु वर्तमान में शिक्षा को धर्म आधारित करना असम्भव है, क्योंकि अब हमारा उद्देश्य सर्वधर्म सम्भाव की भावना का विकास करना है ।
उनका स्पष्ट मत था कि धर्म के अभाव में मनुष्य अपने आध्यात्मिक स्वरूप को नहीं पहचान सकता ।
(2) राष्ट्रीय शिक्षा– श्री अरविन्द को उस समय की शिक्षा पद्धति से असन्तोष था। इसलिए इन्होंने देश को स्वतंत्र कराने पर बल दिया क्योंकि वे जानते थे कि बिना देश स्वतंत्र हुए शिक्षा व्यवस्था में सुधार सम्भव नहीं है। इन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा की पूरी रूप-रेखा तैयार की। इनके अनुसार “राष्ट्रीय शिक्षा वह शिक्षा है जो राष्ट्र के नियन्त्रण में, राष्ट्रीय लोगों को राष्ट्रीय पद्धति से दी जाती है ।” इस कारण ही ये शिक्षा का माध्यम राष्ट्रीय भाषा को बनाने के पक्ष में थे और उसे आध्यात्मिक एवं ब्रह्मचर्य जीवन पर आधारित करना चाहते थे।
श्री अरविन्द के शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन– श्री अरविन्द ने अपने शिक्षा दर्शन में मानव की आध्यात्मिक उन्नति पर बल दिया है क्योंकि उनके विचार में आज के भौतिकवादी युग में इस उन्नति की अत्यधिक आवश्यकता है। छठी ज्ञानेन्द्रिय की धारणा और शिक्षा द्वारा मनुष्य के अन्दर ईश्वरीय अंश का विकास उनकी आध्यात्मिक विचारधारा का ही स्वरूप है। गीता से ही प्रभावित होकर उन्होंने कर्म योग एवं ध्यान योग की व्याख्या की।
श्री अरविन्द ने शिक्षा में बालक को प्रमुख स्थान तथा शिक्षक को गौण स्थान प्रदान किया है। उनके अनुसार शिक्षक केवल पथ-प्रदर्शक होता है। उन्होंने बालक को केन्द्र मानते हुए उसके ज्ञानेन्द्रिय विकास पर भी जोर दिया है और कहा है कि बालक का विकास उसकी रुचि व क्षमता के अनुरूप होना चाहिए । उनका यह दृष्टिकोण प्रकृतिवादी दृष्टिकोण का परिचायक है ।
उनके विचारों में प्रयोजनवाद की भी झलक देखने को मिलती है। उनका विचार है कि बालक में स्वाभाविक अनुकरण एवं कल्पना की प्रवृत्ति को कला के प्रति रुचि उत्पन्न करने में प्रयोग करना चाहिए। श्री अरविन्द ने ऐसी शिक्षा की कल्पना की थी जिसके द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास हो, और वह पूर्ण व आध्यात्मिक सुखों को प्राप्त करे । अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि श्री अरविन्द का शिक्षादर्शन आदर्शवाद और प्रकृतिवाद पर आधारित है।
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