गीत अगीत : एक समीक्षा
गीत अगीत : एक समीक्षा
रामधारी सिंह दिनकर की कविता में यदि एक ओर वीरता का आज है तो दूसरी तरफ शृंगार का माधुर्य भी है। एक ओर ‘कुरूक्षेत्र’ में ‘हुंकार’ की रणभेड़ी बजती है तो दूसरी ओर प्रेम के लुभावने गीत गाये जाते हैं। ऐसे ही गीतों में एक गीत है, ‘गीत- अगीत’। यह कविता दिनकरजी की महत्वपूर्ण रचना ‘रसवंती’ में संकलित एक शृंगारिक कविता है।
गीत और अगीत में कौन सुंदर है, कौन श्रेय है कह पाना कठिन है। नदी बहती जाती है, विरह के गीत गाती जाती है। पल दो पल के लिए किसी पत्थर या चट्टान के पास रूकती है। दिल को हल्का कर लेने के लिए शायद वह पत्थरों से कुछ कहती है। नदी किनारे चुप- प-चाप खड़ा गुलाब सोचता है, काश मुझे भी ईश्वर ने आवाज दी होती तो मैं भी पतझड़ का दुख इस संसार को सुना पाता। एक ओर निर्झरिणी नदी मस्ती में गाती हुई अपने सुख-दुख की कहानी कह जाती है किंतु किनारे खड़ा गुलाब पतझड़ के शोक से मौन साधे हुए हैं।
कवि के मन में प्रश्न उठता है कि इसमें कौन सुंदर है? नदी के मस्ती भरे गाने या गुलाब का मौन-गीत। आगे के अंतरा में कवि शुक-शुकी पर एक सुंदर चित्र खींचते हुए कहता है कि एक घनी डाल पर शुक बैठकर अपने खोते को छाया प्रदान करता है और उस खोते में शुकी अपना पंख फैलाए अंडे को सेती रहती है। वसन्ती किरण से प्रफुल्लित हो, शुकी के प्रेम से विभोर होकर शुक गीत गा उठता है, किंतु शुकी चाहकर भी गीत नहीं गा पाती।
कवि ने इस कविता में बड़े काव्य-कौशल से प्रेम के दो रूपों का वर्णन किया है। प्रेम का एक रूप व्यक्त- त-प्रेम है और दूसरा अव्यक्त। कवि कहता है कि दो प्रेमी हैं। एक प्रेमी शाम होते ही आल्हा को टेर लेता है। उसके इस प्रेम संकेत ध्वनि सुनकर उसकी राधा खींची-खींची उसके पास चली आती है। वह बिल्कुल उसके पास जाने से अपने आपको रोकती है। उसी नीम पेड़ की छाया में चोरी-चोरी, चुपके-चुपके वह अपने प्रेमी का गीत सुनती है। उसका मन प्रेम से भर उठता है। वह स्वयं को उस प्रेम-गीत की एक कड़ी बनाना चाहती है, लेकिन वह ऐसा कर नहीं पाती है। उसका अन्तर मन प्रसन्नता से भर उठता है। प्रियतम के गीत और प्रियतमा के अगीत, में कौन सुंदर है?
‘गीत-अगीत’ कविता प्रेम के अनकहे और कहे प्रेम के द्वंद्व की कविता है। प्रेम के रहस्य को समझ पाना साधारण बात नहीं। प्रस्तुत कविता दिनकर की कोमल भावनाओं से भरी रागात्मकता की सरस अभिव्यक्ति है। इस कविता के माध्यम से कवि ने व्यक्त प्रेम और अव्यक्त प्रेम को गीत और अगीत कहकर दोनों के अलग-अलग वैशिष्ट्य को रेखांकित किया है। स्वयं दिनकर के अनुसार, “गीत अन्तर की रागात्मकता की लयात्मक अभिव्यक्ति है किंतु प्रेम की परिभाषा में बहुत कुछ अनकहा रह जाता है जो शब्दों और अक्षरों का स्वरूप नहीं ग्रहण कर पाता, मगर प्रेम का वह अमूर्त और अप्रतिम स्वरूप ही व्यक्त प्रेम को संजीवनी प्रदान करता है।” दिनकर यह कहना चाहते हैं।
कि जो कुछ गीत में अभिव्यक्त होता है, वही सब कुछ नहीं है बल्कि जितना कुछ अर्गय रह जाता है वही प्रेम के दर्शन और अध्यात्म का मूलाधार है जिसकी अनुपस्थिति में प्रेम पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाता, है।