चिंता : कथावस्तु एवं रूप

चिंता : कथावस्तु एवं रूप

चिंता : कथावस्तु एवं रूप
‘चिंता’ कामायनी महाकाव्य का प्रथम सर्ग है। ‘कामायनी’ के अन्य सर्गों की तरह इस सर्ग का नामकरण भी मानवीय भावना के आधार पर किया गया है। कामायनी महाकाव्य में मानव सृष्टि के उदय और विकास की जो कथा प्रस्तुत हुई है, उस कथा का आरंभिक अंश यानी मानव-उदय से संबद्ध कथानक ही ‘चिंता’ सर्ग में महत्व प्राप्त करता है।
महाप्रलय से बचकर मनु हिमगिरि के उत्ताल शिखर पर चिंतामग्न बैठे हैं जहाँ उनका परिचय कामायनी (श्रद्धा) से होता है –
                        हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांव
                            एक पुरूष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह।
पवित्र प्रेम-भावना के वश में होकर श्रद्धा अपने आपको मनु के हवाले कर देती है और मनु में मानवीय संस्कार जगाने का प्रयास करती है। मनु के पवित्र सान्निध्य से श्रद्धा नयी सृष्टि को गर्भ के रूप में धारण करती है। वह उसी गर्भस्थ शिशु के बारे में सोचती-विचारती रहती है। फलस्वरूप मनु को ईर्ष्या हो जाती है और एक दिन श्रद्धा को छोड़कर चला जाता है। मनु को सारस्वत प्रदेश की रानी इड़ा से मुलाकात होती है। मनु और इड़ा एक दूसरे के करीब आते हैं। मनु इड़ा द्वारा सारस्वत प्रदेश का राजकाज चलाने के लिए रख लिये जाते हैं। राज्य की उन्नति तो होती है, पर राज्य से असंतुष्ट मनु इड़ा के साथ बलात्कार पर आमादा हो जाते हैं जिसके प्रतिक्रियास्वरूप देवता क्रुद्ध और प्रजा विद्रोही हो जाती है। घायल अवस्था में मनु बेहोश हो जाते हैं।
सपने में मनु को इस अवस्था में देखकर श्रद्धा अपने पुत्र मानव को लेकर मनु की खोज में निकल जाती है। अंततः श्रद्धा मनु को खोज ही लेती है और उपचार कर उन्हें होश में लाती है। होश आने पर मनु स्वयं पर पश्चाताप करते हैं फिर लज्जावश वहाँ से भाग खड़े होते हैं। इधर इड़ा भी दुखी होकर श्रद्धा से क्षमा-याचना करती है। पुनः श्रद्धा को मनु मिलते हैं। अपनी भूलों का भान होने पर वे श्रद्धा का अनुसरण करते हुए कैलाश तक पहुंचते हैं, जहां उन्हें विराट् नृत्य के दर्शन होते हैं तत्पश्चात् वे आनंद में लीन हो जाते हैं।
इस सर्ग में ऐतिहासिक कथा की अन्तर्धारा में प्रतीकात्मक और मनोवैज्ञानिक कथा भी साथ-साथ चलती है। इनमें एक स्थल पर चिंता की उत्पत्ति, स्वरूप और उसके कार्यों की सुंदर व्याख्या प्रस्तुत हुई है –
                           “हे अभव की चपल बलिके,
                                           री ललाट की खल रेखा!
                            हरी भरी-सी दौड़-धूप, ओ-
                                           जल-माया की चल रेखा”
वास्तव में चिंता अभाव की चंचल बालिका ही है क्योंकि मनुष्य को जब किसी वस्तु का अभाव होता है, तब उसके भीत्तर चिंता उत्पन्न होती है और उसका मन अस्थिर रहने लगता है।
शैली, शिल्प या स्थापत्य की दृष्टि से प्रसाद ने ‘कामायनी’ को पारंपरिक काव्यशास्त्र की पृष्ठभूमि में आधुनिक भाव-बोध से सम्पन करके छायावादी कविता के रूप में प्रस्तुत किया है। अलंकार की दृष्टि से इस सर्ग में वृत्यानुप्रास, अतिश्योक्ति, संदेह, उपमा, प्रतिघात, विरोध भास आदि अनेक अलंकार प्रयुक्त हुए हैं। तत्सम प्रधान किंतु सुकोमल एवं लयबद्ध भाषा का प्रयोग इस सर्ग की विशेषता है।

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