रामधारी सिंह ‘दिनकर’ : संक्षिप्त जीवनी

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ : संक्षिप्त जीवनी

अपनी कविता से ‘हुंकार’ भरनेवाले कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म 23 सितम्बर 1908 को बेगूसराय जिला के अंतर्गत सिमरिया घाट नामक ग्राम में हुआ था। वे अपने पिता रवि सिंह के मंझले बेटे थे। दिनकर जब अल्प-व्यस्क थे तभी उनके ऊपर से पिता की छाया हट गयो। ज्येष्ठ भाता की देखरेख में दिनकर जी की शिक्ष-दीक्षा संपन्न हुई। जब वे केवल 13 वर्ष के थे तभी श्रीमती श्याम के साथ दांपत्य जीवन में प्रवेश किया और उनसे रामसेवक सिंह तथा केदारनाथ सिंह का जन्म हुआ। सन् 1932 में आपने पटना विश्वविद्यालय से बी.ए. (आनर्स) किया। तत्पश्चात् बरबीघ हाई स्कूल, मुंगेर में एक वर्ष तक आप प्रधानाध्यापक के पद पर कार्यरत रहे। तदंतर नौ व  तक बिहार सरकार के रजिस्ट्रेशन विभाग में ‘सब रजिस्ट्रार’ के पद पर कार्य किया।
दूसरे विश्वयुद्ध (1939-1943) के समय भारत ‘कुरुक्षेत्र’ का मैदान बन गया था दिनकर जी को रजिस्ट्रार का पद छोड़व
युद्ध-प्रचार विभाग में आना पड़ा। 15 अगस्त 1947 को जब देश को स्वतंत्रता मिली और प्रधानमंत्री के रूप में पंडित जवाहरलाल नेहरू दिल्ली के लाल किले की प्राचीर पर तिरंगा झंडा लहराया तब दिनकरजी सन् 1947 से 1950 तक बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग उपनिदेशक रहे। तत्पश्चात् लंगट सिंह कॉलेज, मुजफरपुर में दो वर्षों तक हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। सन् 1952 उन्हें राज्यसभा का मनोनीत सदस्य होने का गौरव प्राप्त हुआ। दिनकर अपने दो बार के दिल्ली प्रवास के अंतराल में 1964-65 तक भागल विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। इस विश्वविद्यालय से मानद् रूप में डी.लिट की उपाधि से अलंकृत भी रहे। अंतिम दिनों में सन् 1965 से 1971 तक ये भारत सरकार के गृह मंत्रालय में हिंदी सलाहकार भी रहे। एक साधारण अध्यापक से इतने महत्वपूर्ण पदों तक आना सधारण
बात नहीं थी। एक रचनाकार के रूप में उनकी प्रतिष्ठा और सत्ता को करीबो इसमें सहायक हुआ।
रामधारी सिंह “दिनकर’ को साहित्य के न जाने कितने पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए। ‘संस्कृति के चार अध्याय’ नामक पुस्तक पर उन्हें साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला। ‘उर्वशी’ महाकाव्य पर उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया। अन्तत: 24 अप्रैल 1974 को चेन्नई में इस शिखर पुरूष का देहावसान हो गया।
                 रामधारी सिंह दिनकर : साहित्यिक परिचय
दिनकर साहित्य का समग्र मूल्यांकन निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर संभव है – क) मुक्तक कविता ख) प्रबंधात्मक काव्, वीर रस प्रधान और शृंगार काव्य उर्वशी ग) नई कविता घ) साहित्य। दिनकर की अधिकांश मुक्त कविताएं स्वाधीनता आंदोलन की उपज है। वे राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति करने वाले अग्रणी कवि हैं। आजादी की लड़ाई उनको कविता का प्रेरणा स्रोत है। दिनकरजी कविता बहुत पहले से लिखते आ रहे थे किंतु प्रसिद्धि उन्हें सन् 1933 में मिली, जब उन्होंने ‘हिमालय के प्रति’ नामक कविता की रचना की। इस कविता का प्रचार जिस द्रुतगति से हुआ, वह आधुनिक साहित्य को उल्ले खानीय घटना है। गाँधीजी के अहिंसक आंदोलन से नवयुवकों के भीतर जो आक्रोश उत्पन्न हुआ, मानो उसी को अभिव्यक्त देते हुए दिनकर जी ने हिमालय से कहा था,
                           रे रोक युधिष्ठिर को न यहां
                           जाने दे उनको स्वर्ग धीर
                            पर फिरा हमें गांडीव गदा
                            लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
जनतंत्र दिनकर सरीखे कवियों की बड़ी आकांक्षा थी। जिस तरह से दिनकर ने जनतंत्र का स्वागत किया है, वह विरल है,
                         सदियों से ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी
                         मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
                         दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो
                         सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता का दुख और उसकी पीड़ा हरने के लिए कवि किसी भी सीमा तक जाने को तैयार हैं। जिन बच्चों को पीने के लिए दूध नहीं मिलता, उनको ओर से उन्होंने स्वर्ग को ललकारते हुए एक समय बड़े ही दुर्दात स्वर में कहा था,
                             हटो, व्योम के मेघ, पंच से
                             स्वर्ग लूटने हम आते हैं
                             दूध । दूध ! ओ वत्स ! तुम्हारा
                             दूध खोजने हम जाते हैं।
दिनकरजी ने अपने समसामयिक कवियों को भाति समय-समय पर प्रबंधात्मक काव्य रचना भी की है। ‘बार होली विजय, प्रणभंग, कलिंग विजय और परशुराम की प्रतीक्षा का शिल्पगत अध्ययन करने पर विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रारंभिक तीन कृतियां उनके शुरूआती दौर की हैं, जिनपर रत्नाकर, मैथिलीशरण गुप्त और प्रसाद की छाप स्पष्टत: लक्षित होती है। इनके विपरीत ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ उस समय लिखी गई जिस समय उनकी प्रतिमा अपने शीर्ष-शिखर पर आसीन थी। प्रबंध पटुता, कीर्ति ख्याति और विवेचन मीमांसा के लिए ये सदैव कुरूक्षेत्र, रश्मिरथी और उर्वशी की रचना से हो जाने जायेंगे। ‘कुरुक्षेत्र’ युद्ध की प्रासंगिकता और उसके औचित्यिकरण का तार्किक काव्य अभिव्यक्ति है। कुरूक्षेत्र में उन्होंने साफ-साफ कहा है कि पाशविक प्रवृत्ति को समाप्त करने के लिए युद्ध अनिवार्य है,
                               रण रोकना है तो उखाड़ विषदंत फंको
                               वृक-व्याप- भौति से मही को मुक्त कर दो।
दिनकर के अनुसार जब तक वर्ग-भेद समाज में बना रहेगा युद्ध को रोका नहीं जा सकता है,
               शांति नहीं तब तक जब तक, सुख भोग न नर का सम हो
               नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।
कुरुक्षेत्र की तरह ‘रश्मिरथी’ काव्य का उपजीय्य भी महाभारत ही रहा है। यह कुरुक्षेत्र की तुलना में अधिक घटना प्रधान है, जिसमें कवि ने कुंती के कौमार्य-जात-सुमन कर्ण को नायकत्व प्रदान किया है। रश्मिरथी में पुराकथा के माध्यम से वर्तमान समाज में व्याप्त कुरीतियों और वंश परंपरागत मिथ्या पर प्रहार करते हुए मनुष्य के कर्म-कौशल जनित उदात्त पक्ष को उजागर किया है-
                              तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं, गोत्र बतलाके
                              पाते हैं जग से प्रशस्ति पना करतब दिखालाके
वीर भाव की जैसी व्यंजना इस कृति में की गई है, वह प्रशंसनीय है। कर्म के उदात्त चरित्र का जबर्दस्त रेखांकन रश्मिरथी की विशेषता है।
            देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ के अनुसार उर्वशी में कवि ने कामाध्यात्म को मनोविश्लेषण परक आधार प्रदान किया है। पुरुरवा और उर्वशी दोनों ही सनातन नर और नारी की अतृप्त कामना के प्रतिनिधि हैं। ये दोनों ही गाद प्रेमालिंगन में निबद्ध होकर भी, पूर्ण तृप्त होकर भी अतृप्त रहने के लिए अभिशप्त है। कवि के अनुसार नर के भीतर भी एक नर है और नारी के भीतर भी एक नारी है। इस काव्य में सत्य और शिव दोनों सौंदर्य तत्व में एकाकार हो गए हैं। उर्वशी की भाषा बिंब प्रधान, रेशमी और सूक्ष्म है।
अपने अंतिम दिनों में दिनकर जी का झुकाव नयी कविता की ओर हो गया था, जिसके फलस्वरूप उन्होंने आत्मा की आँखें, कोयला और कवित्व, चेतना की शिखा और हारे को हरिनाम जैसी महत्त्वपूर्ण कविताएँ लिखीं।

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