ज्ञान के सम्प्रत्यय को परिभाषित कीजिए और इसकी प्रकृति को भी स्पष्ट कीजिए।

ज्ञान के सम्प्रत्यय को परिभाषित कीजिए और इसकी प्रकृति को भी स्पष्ट कीजिए।

उत्तर— ज्ञान का सम्प्रत्यय–’ज्ञान’ शब्द ‘ज्ञ’ धातु से बना है जिसका अर्थ ‘ जानना’, ‘बोध’, ‘साक्षात् अनुभव’ एवं ‘प्रकाश’ से माना गया है। सरल शब्दों में कहा जाए तो किसी वस्तु अथवा विषय के स्वरूप का, जैसे वह है, वैसा ही अनुभव या बोध होना ज्ञान है। यदि हमें दूर से पानी दिखाई दे रहा है और निकट जाने पर भी हमें पानी ही मिलता है तो कहा जाएगा कि हमें अमुक जगह पानी होने का ‘वास्तविक ज्ञान’ हुआ । इसके विपरीत, निकट जाकर हमें पानी के स्थान पर रेत दिखाई दे जिससे प्यास नहीं बुझाई जा सकती है तो कहा जाएगा कि अमुक जगह पानी पानी होने का जो ज्ञान हुआ, वह गलत था । ज्ञान एक प्रकार की मनोदशा है ज्ञाता के मन में पैदा होने वाली एक प्रकार की हलचल है। हमारे मन में अनेक विचार आते हैं और हमारी खूब सारी मान्यताएँ होती है जो हमारे मन में हलचल उत्पन्न करती हैं। मानवीय ज्ञान की पुख्ता समझ बनाने के लिए हमें कुछ अनिवार्य शर्तें निर्धारित करनी होगी, जैसे- विश्वास की अनिवार्यता, विश्वास का सत्य होना और प्रामाणिकता का पर्याप्त आधार होना ।
प्लेटो की परिभाषा के आधार पर विद्वानों ने ज्ञान को मात्र अनुभव तक ही सीमित नहीं माना, क्योंकि अनुभव में कई संदेह, अस्पष्टता एवं अनिश्चिता घुली-मिली रहती है। अनुभव में से ‘ज्ञान’ को पृथक करने के लिए उन्होंने कुछ कसौटियाँ बनाई जिन पर परखने के बाद अनुभव को ज्ञान रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
ज्ञान की प्रकृति–सामान्यतया ज्ञान की प्रकृति निम्नलिखित प्रकार है—
(1) अनुभवजन्य, इन्द्रियों से प्रत्यक्षीकरण–इन्द्रियों द्वारा जो अनुभव या प्रत्यक्षीकरण होता है वह ज्ञान का एक प्रमुख साधन है। हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं— आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा । इनके द्वारा क्रमश: देखकर, सुनकर, सूंघकर, स्वाद लेकर तथा स्पर्श कर हम सांसारिक वस्तुओं के बारे में तरह-तरह के ज्ञान प्राप्त करते हैं । ऐसे ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान कहा जा सकता । ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जो अनुभव प्राप्त होते हैं उनकी प्रमाणिकता भी आवश्यक होती है क्योंकि अनुभवों में कभी-कभी भ्रम भी हो जाता है ।
इन्द्रियानुभव के द्वारा ज्ञान के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि प्रत्येक ऐसे ज्ञान में कोरे इन्द्रियानुभव के अलावा निर्णय की एक क्रिया निहित होती है और इस ज्ञान में जो भूल होती है वह इस निर्णय भूल के चलते ही होती है। कोरा इन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता, बल्कि उसी आधार पर जब हम कुछ निर्णय करते है, जैसे, यह कुर्सी है, इसमें चार पैर हैं, आदि तो ज्ञान इन निर्णयों के द्वारा ही निर्मित होता है ।
इन्द्रियों द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है उसकी विश्वसनीयता का आकलन किया जा सकता है, परन्तु उस ज्ञान की वैधता ज्ञात करना कठिन होता है । इसका अर्थ होता है कि ज्ञान की सत्यता की पुष्टि करना कठिन होता है।
(2) निर्णय एवं स्वामित्व–महापुरुषों के द्वारा जो कथन दिये जाते हैं वही ज्ञान का स्रोत होते हैं । कथनों द्वारा परिभाषाओं को ज्ञान के स्रोत के रूप में प्रयुक्त करते हैं परन्तु ऐसे ज्ञान की सत्यता की परख करना कठिन होता है इसके अतिरिक्त जो निर्णय लिये जाते हैं वह भी ज्ञान का स्रोत होते हैं। इस तरह के ज्ञान के लिए निम्नलिखित सावधानियाँ रखनी होती हैं—
(i) व्यक्ति को उस ज्ञान अथवा विषय का स्वामित्व होना चाहिए।
(ii) व्यक्ति को वास्तव में स्वामित्व की सक्षमता होनी चाहिए।
(iii) कथनों की जीवन में व्यावहारिकता तथा सत्यता होनी चाहिए।
(iv) ऐसे कथन प्राकृतिक तथ्यों के विपरीत नहीं होने चाहिए।
(v) व्यक्ति की अपेक्षा उसके कथन की सत्यता का आकलन करना महत्त्वपूर्ण होता है ।
(vi) यदि अन्य महापुरुषों ने कथन का खण्डन किया है तो उसको ज्ञान का स्रोत नहीं मानना चाहिए।
(vii) उस व्यक्ति के कथनों में विरोधाभास नहीं होना चाहिए यदि विरोधाभास है तो उस कथन को ज्ञान का स्रोत नहीं माना जाना चाहिए।
(3) तार्किक चिन्तन–तार्किक चिन्तन मनुष्य के अन्दर एक ऐसी योग्यता है जिसके बिना कोई भी ज्ञान संभव नहीं है। अनुभव द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है उसमें वस्तुओं की उपस्थिति आवश्यक होती है । परन्तु जो ज्ञान अमूर्त है अथवा अवधारणाओं तथा प्रतिज्ञप्तियों पर आधारित है ऐसे ज्ञान का आधार तार्किक चिन्तन होता है । इन्द्रिय अनुभव के द्वारा — रंग, स्वाद तथा गन्ध आदि से सम्बन्धित कुछ संवेदनाएँ प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु जब वस्तुओं में भेद करने का प्रश्न आता है यहाँ हमें तर्क चिन्तन की आवश्यकता है। इसमें अमूर्त चिन्तन की प्रक्रिया निहित होती है । इस अर्थ में ज्ञान का आधार तर्क-बुद्धि है।
तर्कानुमान को प्रायः दो तरह का माना गया है– निगमनात्मक आगमनात्मकं। निगमनात्मक तर्कानुमान का लक्षण यह है कि यदि वह वैध होगा तो उसके आधार वाक्यों से निष्कर्ष अनिवार्यतः निकलेगा । दूसरे शब्दों मे, निगमनात्मक तर्कानुमान में यदि आधार वाक्य सत्य हो तो निष्कर्ष भी अनिवार्यतः सत्य होगा । यहाँ आधार – वाक्य तथा निष्कर्ष की सत्यता असता से तात्पर्य उनकी वास्तविक सत्यता-असत्यता से नहीं है । अतः जब हम कहते हैं कि आधार- वाक्यों के सत्य होने से निष्कर्षअनिवार्यतः सत्य होगा तो इसका तात्पर्य सिर्फ इतना है कि यदि आधारवाक्य सत्य हो अर्थात् यदि उन्हें सत्य मान लिया जाये तो निष्कर्ष की भी सत्यता अनिवार्यतः स्वीकार करनी होगी।
निगमनात्मक तर्कानुमान का सम्बन्ध वैधता–अवैधता से होता है सत्यता-असत्यता से नहीं। सत्य-असत्य प्रतिज्ञप्तियाँ होती हैं, निगमनात्मक तर्कानुमान तो केवल वैध या अवैध होता है, सत्यता-असत्यता से नहीं। सत्य-असत्य प्रतिज्ञप्तियाँ होती हैं, निगमनात्मक तर्कानुमान तो केवल वैध या अवैध होता है। यही कारण है कि वैसा निगमनात्मक तर्कानुमान भी वैध हो सकता है जिसके आधार वाक्य तथा निष्कर्ष सभी वास्तविक दृष्टि से असत्य हो और वैसा निगमनात्मक तर्कानुमान अवैध हो सकता है।
(i) निगमन तर्क- बुद्धि–इस प्रकार के तार्किक चिन्तन में अनेक नियमों तथा सामान्यीकरण का उपयोग किया जाता है। आर्दशवाद में इस तार्किक चिन्तन का विशेष उपयोग किया जाता है। इस चिन्तन के अन्तर्गत हम किसी नियम या सामान्यीकरण से विशिष्ट की ओर बढ़ते हैं। इसमें प्रतिज्ञप्तियों की विशेष भूमिका रहती है।
जैसे— सामान्यीकरण—विशिष्टीकरण
सभी मनुष्य मरणशील हैं— (सामान्यीकरण या नियम)
संजय एक व्यक्ति है
संजय मरणशील है—(विशिष्टीकरण)
(ii) आगमन तर्क- बुद्धि–इसके अन्तर्गत सत्य की संभावना रहती है। इसका प्रयोग प्रकृतिवाद के अन्तर्गत किया जाता है । इस प्रकार का चिन्तन विशिष्ट से आरम्भ होकर सामान्यीकरण की ओर बढ़ता है और सत्यता की पुष्टि प्रमाणों के आधार पर की जाती है। इसमें परिकल्पनाओं की विशेषतः भूमिका होती है।
जैसे— विशिष्टीकरण—सामान्यीकरण
संजय एक व्यक्ति है। (विशिष्टीकरण)
संजय मरणशील है ।
सभी मनुष्य मरणशील हैं—(सामान्यीकरण या नियम)
न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के लिए आगमन चिन्तन का प्रयोग किया था उनका प्रश्न था कि सेब पृथ्वी पर क्यों गिरता है ? और इस तरह के अनेक उदाहरण पृथ्वी पर गिरने के जब उन्होंने देखे तब इस आधार पर उसने गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार किया। आगमन चिन्तन के लिए यह आवश्यक नहीं कि हम सदैव विशिष्ट से सामान्य की ओर सोचेंगे, यह केवल एक संभावना ही है ।
(4) अन्तर्दृष्टि अथवा अन्तर्प्रज्ञा–अन्तर्दृष्टि शब्द से ही प्रतीत होता है कि यह एक आन्तरिक बोध है, जिसमें ज्ञान के रूप में कुछ स्पष्ट होता है अथवा विदित होता है । इसके अन्तर्गत ज्ञान इन्द्रियों तथा तर्क चिन्तन की कोई भूमिका नहीं होती इसके अन्तर्गत अचानक एक प्रकाश की ज्योति सी मालूम पड़ती है, जिससे हमें बहुत कुछ बोध होता है । इस प्रकाश को ज्ञान की संज्ञा देते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अन्तर्दृष्टि या अन्तःप्रज्ञा हमारे अन्दर एक निहित सहज क्षमता है जो कभी अचानक रूप में क्रियाशील होकर हमें आलोकित करती है।
अन्तः प्रज्ञा के साथ आत्मनिष्ठता का ऐसा पुट सम्बद्ध है कि यदि इसे यथार्थ ज्ञान का साधन मान भी लिया जाए तो फिर ज्ञान में वस्तुनिष्ठता तथा सार्वजनिकता जैसी कोई चीज नहीं रह जायेगी। प्रत्येक व्यक्ति अन्तः प्रज्ञा के आधार पर किसी भी प्रतिज्ञप्ति ‘S’ की सत्यता का दावा करेगा और यह निर्धारित करना कठिन हो जायेगा कि कौन प्रतिज्ञप्ति सत्य है और कौन असत्य है।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
  • Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Facebook पर फॉलो करे – Click Here
  • Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
  • Google News ज्वाइन करे – Click Here

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *