पर्यावरण एवं इसके प्रभाव (Environment and Its Effect)

पर्यावरण एवं इसके प्रभाव (Environment and Its Effect)

पर्यावरण एवं इसके प्रभाव (Environment and Its Effect)

पर्यावरण (Environment)
एक जीव या उसके समुदाय के चारों ओर पाया जाने वाला सम्पूर्ण वातावरण तथा वह जैविक (biotic) व भौतिक (physical) परिस्थिति जिसमें हम रहते हैं पर्यावरण कहलाता है, जैविक वातावरण के अन्तर्गत वृहदाकार एवं सूक्ष्माकार पौधे तथा जन्तु और भौतिक वातावरण के अन्तर्गत मृदा, जल, वायु, प्रकाश तथा ताप, आदि आते हैं। वातावरण का प्रत्येक भाग, जो जीव पर प्रभाव डालता है, पारिस्थितिक कारक या वातावरणीय कारक (ecological factor or environmental factor) कहलाता है जैसे भोजन, कपड़े, व्यापार, परिवहन हेतु । वातावरण के सभी कारकों का प्रभाव जीवित शरीर पर एक साथ पड़ता है।
पर्यावरण के प्रकार (Types of Environment)
पर्यावरण मुख्यतया तीन प्रकार का होता है
(i) भौतिक पर्यावरण (Physical Environment) यह जैविक व प्राकृतिक वातावरण है। इसमें धरातल, जल, वातावरणीय परिस्थितियाँ आती हैं, जिनसे मृदा बनती है। भौतिक पर्यावरण के कारक ताप, दाब, नमी, संघनन, वायु चाल व वर्षा जल, आदि हैं।
(ii) जैविक पर्यावरण (Biotic Environment) यह कार्बनिक पर्यावरण है, जो जीवन की उपस्थिति व उत्तरजीविता हेतु आवश्यक है।
(iii) सामाजिक या सांस्कृतिक पर्यावरण (Social or Cultural Environment) यह मानव निर्मित पर्यावरण है, जिसमें विभिन्न सामाजिक क्रियाएँ आती हैं। इसमें ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं मानव जीवन के आर्थिक पहलू भी सम्मिलित हैं।
पृथ्वी का वायुमण्डल (Atmosphere of Earth)
किसी भी जीव के चारों ओर वायु का एक आवरण उपस्थित होता है, जिसे वायुमण्डल कहते हैं। वायुमण्डल धरती को पराबैंगनी किरणों व हरितगृह गैसों के प्रभाव से बचाता है। वायु रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन गैस है। वायुमण्डल में विभिन्न गैसें पाई जाती हैं, वायु बनाती है। वायु रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन तथा विभिन्न घटकों ऑक्सीजन (O2) 20.95%, कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) 0.03%, आर्गन (Ar) ( 0.93%), नाइट्रोजन (N2) 78.09% तथा जलवाष्प (H2O) 0.1-0.97% की बनी होती है।
वातावरण की विभिन्न परतों में वायु का संघठन व दाब विभिन्न होते हैं, जो समुद्र तल से विभिन्न स्तर बनाता है।
◆ आयनमण्डल ऊपरी वातावरण का भाग है, जो 85 किमी से 600 किमी ऊँचाई पर है तथा इसमें तापमण्डल, मध्यमण्डल व बाह्यमण्डल आते हैं। इसमें सूर्य की किरणों का आयनीकरण होता है।
◆ तापमण्डल से ऊपर, वातावरण का सबसे ऊपरी भाग, बाह्यमण्डल (500-1600 किमी) होता है जिसमें आयनीकृत गैसें होती हैं।
◆ लाभदायक व हानिकारक ओजोन लाभदायक ओजोन समतापमण्डल में पाई जाती हैं, जो ऑक्सीजन के अणुओं से मिलकर बनी है। यह ओजोन जीवित प्राणियों के लिए लाभदायक है, जबकि हानिकारक ओजोन क्षोभमण्डल में पाई जाती है, जो VOCNOx की क्रिया द्वारा बनती है। यह ओजोन जीवों के लिए हानिकारक है।
प्रदूषण (Pollution)
सभी जीवधारी अपनी वृद्धि, विकास एवं सुव्यवस्थित रूप से अपना जीवन चक्र चलाने के लिए सन्तुलित वातावरण पर निर्भर होते हैं। कभी-कभी वातावरण में एक या अधिक घटकों की मात्रा घट या बढ़ जाती है, जिससे वातावरण प्रदूषित हो जाता है। यह प्रदूषण कहलाता है। ओडम ने कहा कि प्रदूषण हवा, जल व मृदा की भौतिक, रासायनिक व जैविक लक्षणों में अवांछनीय परिवर्तन है, जो मनुष्य एवं अन्य जन्तुओं के लिए हानिकारक है।
प्रदूषण वातावरण में बनाए गए प्रदूषक (pollutants) पदार्थों द्वारा होता है। लगातार बढ़ती मानव जनसंख्या प्रदूषण का मुख्य कारक है, जो अपनी जरूरतों की पूर्ति हेतु प्राकृतिक स्रोतों का अधिक उपयोग करते हैं।
प्रदूषक (Pollutants)
ये वे कारक (रासायनिक या अन्य ) हैं, जिससे प्रदूषण होता है तथा प्राकृतिक वातावरण का सन्तुलन बिगड़ता है। ये प्राकृतिक एवं मानव निर्मित हो सकते हैं।
प्रदूषकों के प्रकार (Kinds of Pollutants)
उत्पादन के आधार पर प्रदूषकों को दो प्रकार में विभाजित किया गया है,
(i) प्राथमिक प्रदूषक ( Primary Pollutants) ये वातावरण में सीधे रूप में उपलब्ध होते हैं जैसे लावा से उत्पन्न राख, वाहनों से निकली कार्बन मोनोक्साइड, फैक्ट्री से निकला सल्फर डाइऑक्साइड, दहन से उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरोकार्बन तथा ईंधन के जलने से उत्पन्न हुए कणिकामय पदार्थ (धुँआ, धूल एवं वाष्प) तथा नाइट्रोजन ऑक्साइड, आदि ।
(ii) द्वितीयक प्रदूषक (Secondary Pollutants) ये प्रदूषण सीधे वायु में नहीं पाए जाते। ये सामान्यतया प्राथमिक प्रदूषक व वायु के सम्पर्क से बनते हैं जैसे परऑक्सी एसाइल नाइट्रेट (PAN), ओजोन, NO तथा VOCs, आदि। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (United Nations Environment Programme or UNEP) ने विभिन्न प्रकार के प्रदूषक को प्राथमिकता के अनुसार सूचीबद्ध किया है, जो निम्नलिखित हैं
प्राथमिकता का क्रमांक माध्यम
सल्फर डाइऑक्साइड एवं कणिकामय पदार्थ वायु
स्ट्रॉन्शियम एवं सीजियम भोजन
ओजोन वायु
DDT तथा अन्य कार्बन क्लोरीन पदार्थ मानव एवं जीव
नाइट्रेट्स एवं नाइट्राइट्स पेय जल
नाइट्रोजन ऑक्साइड्स वायु
मरकरी पदार्थ भोजन एवं जल
लेड एवं कोबाल्ट भोजन एवं वायु
पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन समुद्र
कार्बन मोनोक्साइड वायु
फ्लोराइड साफ जल
अस्बैस्टस वायु
आर्सेनिक पेय जल
माइक्रोटॉक्सिन एवं सूक्ष्मजीवी भोजन
◆ विभिन्न प्रदूषकों का क्रम कार्बन मोनोक्साइड > सल्फर डाइऑक्साइड > हाइड्रोकार्बन > कणिकामय> नाइट्रोजन ऑक्साइड है।
प्रदूषकों को अपघटन के आधार पर निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया गया है
(i) क्षयकारी प्रदूषक (Biodegradable Pollutants) जो प्रदूषक पदार्थ सूक्ष्म जीवधारियों द्वारा पूर्ण रूप से विघटित हो जाते हैं, उन्हें क्षयकारी प्रदूषक कहते हैं, परन्तु यदि इनकी मात्रा बहुत अधिक हो जाए, तो ये प्रदूषण करने लगते हैं। उदाहरण घरेलू अपशिष्ट पदार्थ, कपड़ा, कागज, लकड़ी, आदि ।
(ii) अक्षयकारी प्रदूषक (Non-biodegradable Pollutants) ये ऐसे प्रदूषक हैं, जिनका सूक्ष्मजीवधारियों द्वारा अपघटन नहीं किया जा सकता तथा ये वातावरण में एकत्रित होकर इसे प्रदूषित करते हैं। उदाहरण एल्युमिनियम, लौहा, पारा, सीसा, फिनोल, DDT, प्लास्टिक, आदि ।
◆ प्रदूषकों की परस्पर क्रिया से बढ़ी विषाक्ता (Toxicity) को सिनर्जिस्म कहते हैं।
◆ सर्वाधिक क्षयकारी प्रदूषक अवायवीय पाचन द्वारा मीथेन में परिवर्तित हो जाते हैं।
प्रदूषण के प्रकार (Types of Pollution) 
प्रदूषण को चार भागों में बाँटा जा सकता है
वायु प्रदूषण (Air Pollution)
वायुमण्डल में विभिन्न गैसें एक विशेष अनुपात में पाई जाती हैं परन्तु मनुष्य इस सन्तुलन को नष्ट करता है, जिसका मुख्य कारण वनों का कटान व औद्योगीकरण है।
वायु प्रदूषण के कारक (Factors of Air Pollution)
वायु प्रदूषण का पादप व मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव  (Effects of Air Pollution on Plants and Human Health)
◆ कार्बन मोनॉक्साइड (Carbon Monoxide) यह ऑक्सीजन के स्थान पर हीमोग्लोबिन से जुड़कर कार्बोक्सी हीमोग्लोबिन (COHb) बना लेती है, जो जहरीला है, जिससे सिरदर्द, परेशानी, देखने में कमी तथा हृदय सम्बन्धी रोग हो जाते हैं।
◆ कणिकामय पदार्थ (Particulate Matter) इनमें राख, धूल, पंख, बाल, बीजाणु, भारी धातु तथा परागकण आते हैं, जो सभी श्वसन सम्बन्धित रोग करते हैं ।
◆ कार्बन डाइऑक्साइड (Carbon Dioxide) यह एक हरितग्रह गैस है, जो प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यह सिरदर्द व बैचेनी करती है।
◆ हाइड्रोजन सल्फाइट (Hydrogen Sulphite) यह रिफाइनरी, रसायन यन्त्रों व कच्ची धातु से निकलता है। यह पादपों में क्लोरोसिस करता है, पेन्ट का रंग खत्म करता है, आँखों में जलन, गले में जलन तथा बैचेनी का कारक है।
◆ सल्फर ऑक्साइड (Sulphur Oxide) यह अधिकांशतया सल्फर डाइऑक्साइड के रूप में मिलता है। यह धातु के पिघलने उदाहरण लोहा, ताँबा, जस्ता, लैड, निकिल से पेट्रोल व कोयला के जलने से, उच्च ताप यन्त्रों तथा वाहनों से निकलता है। यह श्वसन सम्बन्धी रोग कभी-कभी फेफड़ों को खत्म भी करता है।
धुन्ध (Smog)
यह धुएँ व कोहरा से मिलकर बना है, जो दो प्रकार का होता है
(i) प्राचीन धुन्ध (Ancient Smog) यह ठण्डे नमी वाले वातावरण में होता है, जो धुएँ, कोहरे व CO2 का मिश्रण होता है। इसे उपचयी धुन्ध ( reducing smog) भी कहते हैं।
(ii) प्रकाश रसायन धुन्ध ( Photochemical Smog) यह गर्म व सूखे वातावरण में होता है, जो NO2 हाइड्रोकार्बन, ओजोन, परऑक्सी एसाइल नाइट्रेट (PAN) का बना होता है। इसे अपचयी धुन्ध (oxidising smog) भी कहते हैं।
हाइड्रोकार्बन एवं नाइट्रिक ऑक्साइड जीवाश्म ईंधन के जलने से बनता है। NO, NO2 में परिवर्तित होता है, जो सूरज से ऊर्जा लेकर NO तथा मुक्त ऑक्सीजन में परिवर्तित हो जाता है। यह मुक्त ऑक्सीजन (O2) से क्रिया कर O3 बनाती है। O3 व NO2 दोनों ही अपचयी कारक है। ये बिना जले हाइड्रोकार्बन से क्रिया करके फार्मेल्डिहाइड, एक्रोलीन तथा परऑक्सी एसीटाइल नाइट्रेट जैसे रसायन बनाते हैं।
प्रकाश रसायन के प्रभाव (Effects of Photochemical Smog )
ओजोन व नाइट्रिक ऑक्साइड नाक व गले को प्रभावित करती है तथा इनकी अधिक मात्रा सिरदर्द, छाती में दर्द, गले में सूखापन, खाँसी व श्वास में परेशानी करती है। ये धुन्ध, धातुओं को भी खराब करती है।
(i) इस धुन्ध को वाहनों में उत्प्रेरक सम्परिवर्तक (catalytic convertor) लगाकर नियन्त्रित किया जा सकता है, जो नाइट्रोजन ऑक्साइड तथा हाइड्रोकार्बन को वायु में मिलने से रोकते हैं।
(ii) पाइनस, पाइरस, जूनीपेरस तथा विटिस के पादप लगाकर ये नाइट्रोजन ऑक्साइड का उपापचय करते हैं।
भोपाल गैस त्रासदी (Bhopal Gas Tragedy)
3 दिसम्बर, 1984 की मध्यरात्रि में भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड लि. के कारखाने के एक संयन्त्र से दुर्घटनावश निकली मिथाइल आइसोसायनेट के कारण अनेकों लोगों की सोते हुए अकारण मृत्यु हो गई तथा बहुत से लोग कई अन्य असाध्य बीमारियों (incurable diseases) के शिकार हो गए। यह घटना भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जानी जाती है। इस कारखाने में मिथाइल आइसोसायनेट (Methyl Isocyanate or MIC) जैसी विषैली गैस (जिसका उपयोग सीवान नामक कीटनाशक उत्पाद बनाने में किया जाता था) के रिसाव से लगभग 3200 व्यक्तियों की जाने गई तथा हजारों लोग आँख और श्वास के गम्भीर रोगों के शिकार हुए।
वायु प्रदूषण का नियन्त्रण (Control of Air Pollution) 
यह निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है
(i) हानिकारक गैसों से प्रदूषणों को पृथक कर
(ii) प्रदूषकों को जहरहीन बनाकर
(iii) कच्चे ईंधनों का उपयोग
(iv) अच्छे इंजनों का उपयोग
(v) औद्योगिक यन्त्रों को उपयुक्त जगह लगाकर
(vi) लोगों में सामाजिक जागरूकता बढ़ाकर।
वायु प्रदूषण के नियन्त्रण के लिए एक्ट (Acts to Control Air Pollution)
वायु एक्ट: बचाव व नियन्त्रण (The Air Act : Prevention and Control of Pollution) वायु एक्ट वर्ष 1981 में संसद द्वारा बनाया गया, जिसका उद्देश्य वायु प्रदूषण को नियन्त्रित करना तथा उससे बचाव करना है। सेक्शन 19 के अन्तर्गत केन्द्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को वायु प्रदूषण नियन्त्रित स्थान घोषित कर दिया गया है। यहाँ पर सिर्फ अनुमानित ईंधन ही प्रयोग किया जा सकता है। इसमें वर्ष 1987 में संशोधन हुआ तथा ध्वनि प्रदूषण को वायु प्रदूषण के अन्तर्गत सम्मिलित किया गया।
वाहन वायु प्रदूषण नियन्त्रण : दिल्ली (Controlling Vehicular Air Pollution : Delhi) 
दिल्ली बहुत प्रदूषित शहर है। वर्ष 1990 में यह संसार का सबसे अधिक प्रदूषित शहर था। अतः भारत के सर्वोच्च न्यायालय में इसके खिलाफ एक Public Interest Litigation (PIL) डाली गई तथा इसके लिए कठोर कदम उठाए गए। परिणामतया सभी सार्वजनिक वाहनों को CNG पर चलाया जाना मान्य हुआ।
CNG के लाभदायक गुण निम्नलिखित हैं
◆ यह पूरी तरह से जलता है।
◆ यह पेट्रोल से सस्ता है तथा पेट्रोल व डीजल जैसा चोरी व मिलावटी नहीं हो सकता है।
◆ यह जलने के बाद कोई पदार्थ नहीं छोड़ता है।
जल प्रदूषण (Water Pollution)
यह जल की गुणवत्ता में कमी होना है। इसके कारण जल में कुछ पदार्थों (अकार्बनिक, कार्बनिक, जैविक व रेडियोधर्मी) का घुलना है, जो इसको स्वास्थ्य हेतु व जलीय जीवों हेतु हानिकारक बनाते हैं।
WHO की परिभाषा के अनुसार, जब जल में बाहरी पदार्थ ( प्राकृतिक या अन्य स्रोतों से) घुल जाते हैं, जो जहरीले होते हैं, तो वे जल में घुली ऑक्सीजन कम कर देते हैं तथा बीमारी फैलाते हैं।
पेय योग्य जल (Potable Water)
जो जल पीने योग्य होता है, उसे पेय योग्य जल कहते हैं।
यह निम्न विधियों द्वारा बनाया जा सकता है
√ छनन द्वारा (By Filtration) जल को घरों में छानकर ।
√ उबालकर (By Boiling) यह जल में पाए जाने वाले रोगाणुओं को मारता है।
√ क्लोरिनीकरण ( By Chlorination) क्लोरीन की गोली या ब्लीचिंग पाउडर जल को शुद्ध करती है।
जल प्रदूषण के स्रोत (Sources of Water Pollution) 
जल प्रदूषण के निम्न स्रोत हैं
जल प्रदूषक (Water Pollutants )
जल प्रदूषणों को निम्न वर्गों में बाँटा गया है
(i) बिन्दु स्रोत (Point Source) किसी एक स्रोत से निकलने वाले प्रदूषकों को बिन्दु स्रोत कहते हैं।
(ii) बिन्दुहीन स्रोत (Non-point Source) ये प्रदूषण जल में बड़े स्रोतों से मिलते हैं।
जल प्रदूषण के प्रभाव (Effects of Water Pollution)
यूट्रोफिकेशन (Eutrophication) यह किसी झील या अन्य जल स्रोत की प्राकृतिक वृद्धता (ageing) है, जिसका कारक जैविक आवर्धन है, जोकि जल में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस जैसे पोषकों से मिलने से होता है। यह जल की गुणवत्ता में कमी का एक मुख्य कारक है। इसका सबसे अधिक प्रभावी लक्षण हाइपोक्सिया (hypoxia or oxygen depletion) तथा हानिकारक शैवाल वृद्धि (harmful algal blooms) है, जिससे जलीय जीवों को हानि होती है।
जल में पोषकों की अत्यधिक वृद्धि से जलीय पादप, शैवाल तथा समुद्री पीड़कों की अत्यधिक वृद्धि होती है, जिससे जलीय उत्पादन, प्रजाति संगठन व कोरल की वृद्धि कम होती है तथा जल में मृत स्थान (dead zones) बन जाता है, जहाँ ऑक्सीजन नहीं होती है तथा पारितन्त्र समाप्त हो जाता है। जब जल स्रोत के पास उर्वरक वाहित होते हैं, तो ये जल में जलीय पादपों की वृद्धि करते हैं, जो जल की सारी ऑक्सीजन लेकर अन्य जलीय जीवन को नष्ट कर देती है जैसे- मछली, आदि । शैवालों की अत्यधिक वृद्धि सूरज की रोशनी को पानी की सतह के नीचे जाने से रोकती हैं, जिससे जलीय पादप प्रकाश-संश्लेषण नहीं कर पाते हैं। कुछ शैवाल हानिकारक जहरीले पदार्थों का भी स्रावण करती है। ये खाद्य श्रृंखला द्वारा दूसरे जन्तुओं में जाकर उन्हें भी हानि पहुँचाते हैं।
जैविक आवर्धन (Biomagnification) जहरीले पदार्थों की मात्रा की क्रमिक पोषक स्तरों में वृद्धि को जैविक आवर्धन कहते हैं जब किसी जीव के भोजन में इन हानिकारक पदार्थों जैसे DDT एवं पारा की मात्रा अन्य पदार्थों की मात्रा से अधिक हो जाती है, तो उसे जैविक संवर्धन (bioamplification) या जैविक आवर्धन कहते हैं। इन हानिकारक तत्वों का उत्सर्जन नहीं होता है, जिस कारण ये खाद्य श्रृंखला द्वारा एक पोषक से अगले पोषक स्तर तक जाती है। DDT की अत्यधिक मात्रा पक्षियों में कैल्शियम के उपापचय को, अण्डे के खोल के निर्माण को तथा उसके प्रस्फुटन (premature breaking) को हानि पहुँचाती है, जिससे पक्षियों की जनसंख्या में कमी हो जाती है।
मानव पर प्रभाव (Effects on Human Beings )
जल प्रदूषण मानव पर निम्नलिखित प्रभाव डालता है
(i) पेय जल में फ्लोराइड की कमी से दाँत सड़ जाते हैं। आयन की सान्द्रता 2 ppm से कम होने पर दाँतों का रंग भूरा तथा 10 ppm से अधिक होने पर हड्डियाँ व दाँत प्रभावित होते हैं।
(ii) सीसे की सान्द्रता 50 ppm से अधिक होने पर वृक्क, यकृत तथा प्रजनन तन्त्र पर प्रभाव पड़ता है।
(iii) 500 से अधिक सल्फेट की मात्रा । ppm
(iv) पेय जल में फ्लोराइड की अधिक मात्रा कंकालीय फ्लोरोसिस (skeletal fluorosis) करती है।
(v) इताई- इताई (Itai-itai) कैश कैडमियम द्वारा जापान में होने वाली बीमारी है, जिससे अस्थियाँ जाती हैं। मुलायम हो
(vi) मिनामाटा रोग (Minamata disease) यह पारे के द्वारा होता है। यह प्रथम बार वर्ष 1953 में जापान में मिनामाटा शहर में पाई गई। मिनामाटा खाड़ी में पाई जाने वाली मछली को खाने से यह रोग हुआ था। इस बीमारी में तन्त्रिका के खत्म हो जाने के कारण वहाँ 100 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई।
(vii) ब्लू-बेबी सिन्ड्रोम (Blue-baby Syndrome) लाल रुधिराणुओं के हीमोग्लोबिन में नाइट्रेट की मात्रा 50 ppm से अधिक होने से होता है। इसमें अक्रिय मेटहीमोग्लोबिन बनती है, जो O2 परिवहन को रोकती है। इसे मेटहीमोग्लोबिनिमिया (methaemoglobinemia) भी कहते हैं।
(viii) प्रदूषित जल में कई रोगाणु होते हैं, जिसमें हैजा, टायफॉइड, हैपेटाइटिस जैसी बीमारियों के कारक होते हैं।
जल प्रदूषण का मापन (Measurements of Water Pollution)
घुलनशील ऑक्सीजन (Dissolved Oxygen)
जल में नियन्त्रित मात्रा में घुलनशील ऑक्सीजन (DO) होती है। इसकी सान्द्रता जल के लिए महत्त्वपूर्ण होती है। इसकी सान्द्रता 5 ppm से कम होने पर मछलियों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। सामान्यतया ठण्डे जल में DO की मात्रा 10 ppm तक होती है। जलीय पादप भी श्वसन हेतु इसी DO का उपयोग करते हैं।
यदि जल में कार्बनिक पदार्थ अधिक होगा, तो सूक्ष्मजीवी अत्यधिक वृद्धि कर ज्यादा O2 की माँग करेंगे, परन्तु O2 न मिलने पर अनॉक्सी जीवाणु इस कार्बनिक पदार्थ को अपघटित करके हानिकारक व गन्ध वाले पदार्थों का निर्माण करेंगे, जो मानव हेतु हानिकारक हैं। ऑक्सी जीवाणु भी इन्हें अपघटित कर सकते हैं। DO की उचित मात्रा 5-6 है। जल प्रदूषण को BOD व COD द्वारा नापते हैं।
जैव रासायनिक ऑक्सीजन माँग (BOD) रासायनिक ऑक्सीजन माँग (COD)
यह जल की प्रति यूनिट मात्रा में सूक्ष्मजीवों द्वारा जैव रासायनिक ऑक्सीकरण हेतु ली गई O2 की मात्रा है। दिए गए जल में प्रदूषकों द्वारा ली ऑक्सीजन की मात्रा (ppm में) को COD कहते हैं। शुद्ध जल की COD मात्रा 4 ppm है। COD का निर्धारण करने हेतु जल को ऑक्सीकृत कारक (oxidising agent) जैसे K2Cr2O7, से अम्लीय माध्यम में क्रिया कराते हैं, जो अधिकांश कार्बनिक पदार्थों को ऑक्सीकृत कर देता है।
BOD की मात्रा से जल में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा का लगभग पता चलता है तथा इसलिए इसे जल प्रदूषण की मापन डिग्री मानते हैं। COD की मात्रा, कार्बनिक पदार्थ की सान्द्रता मापने का खराब स्रोत है क्योंकि O2 अकार्बनिक पदार्थ जैसे नाइट्रेट, सल्फेट, धातु आयन के ऑक्सीकरण में भी उपयोग होती है तथा बेन्जीन, पाइरिडिन व अन्य चक्रिय पदार्थों को इस टेस्ट द्वारा आक्सीकृत नहीं किया जाता।
BOD परिक्षण कई कारकों द्वारा प्रभावित होता है जैसे- सूक्ष्मजीवों के प्रकार, pH, जहरीले पदार्थ, खनिज तत्वों तथा सूक्ष्मजीवों द्वारा नाइट्रीकरण l COD की मात्रा टॉक्सिन व सूक्ष्मजीवों की वृद्धि द्वारा प्रभावित नहीं होती है।
जल प्रदूषण नियन्त्रण के मापन (Measures of Control Water Pollution) 
जल प्रदूषण नियन्त्रण के मुख्य मापन निम्नलिखित हैं
(i) संयुक्त अपशिष्ट जल उपाय (Integrated Waste Water Treatment) अपशिष्ट जल के शुद्धिकरण हेतु भौतिक, जैविक व रासायनिक प्रक्रियाएँ प्रयोग की जाती हैं, जो भौतिक, रसायनिक व जैविक प्रदूषकों को खत्म करती हैं।
(a) सर्वप्रथम जल को छाना जाता है, जिससे इसमें पड़े पदार्थ अलग होते हैं तथा फिर उसे रेत द्वारा (grit and sand removal tank) छाना जाता है।
(b) अब जल को बड़े टैंक में ठहराया जाता है, जिससे मोटी गन्दगी तली में बैठ जाती है तथा सतह पर आए तेल तथा ग्रीस जैसे पदार्थों को हटाया जाता है। तली में बैठी ठोस गन्दगी कीचड़ (sludge) द्वारा बायोगैस (biogas) बनाई जाती है।
(c) उपरोक्त जल में हवा पम्प की जाती है, जिससे वायवीय जीवाणु (aerobic bacteria) वृद्धि करते हैं। ये जल में अपशिष्ट को अपघटित कर उसे तली में बैठाते हैं। इसे क्रियाशील कीचड़ (activated sludge) कहते हैं, जिसमें 97% जल होता है।
(d) अब इस जल को समुद्र या नदियों में छोड़ा जाता है तथा प्रकृति द्वारा इसका शेष शुद्धिकरण होता है।
(ii) जल एक्ट : बचाव व नियन्त्रण (The Water Act : Prevention and Control of Pollution) यह जल प्रदूषण नियन्त्रण एक्ट है, जो वर्ष 1974 में बना था। इसमें वर्ष 1988 में संशोधन हुआ।
(iii) जल सैल एक्ट बचाव व नियन्त्रण (Water Cell Act : Prevention and Control of Pollution) यह एक्ट वर्ष 1977 में बना। यह एक्ट औद्योगिक क्रियाओं में प्रयोग किए जाने वाले जल के सभी स्रोतों व मात्रा के बारे में सूचना संग्रह करता है। केन्द्रीय बोर्ड व प्रवेश बोर्ड द्वारा आवंटन (allotment) किया जाता है। इसमें वर्ष 2003 में संशोधन हुआ।
(iv) औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों का पुनः चक्रण होना चाहिए तथा प्रदूषकों को जल में घोलने पर रोक होनी चाहिए।
(v) रेडियोधर्मिता, जैविक व रासायनिक प्रदूषण जल में से अवशोषण, विद्युत लेपन, आयन एक्सचेंज व पुर्नावृत्त विसरण विधियों द्वारा निकाले जा सकते हैं। जैव प्रौद्योगिकी का भी इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान है।
पारिस्थितिकी सफाई (Ecological Sanitation or ECOSAN) 
यह एक तन्त्र है, जो मानव उत्सर्जी पदार्थों को टॉयलेट बनाकर नियन्त्रित करता है, जोकि मानव अपशिष्ट पदार्थों के नियन्त्रण हेतु एक कारगर उपाय है। केरल व श्रीलंका के कई इलाकों में इसी सन्दर्भ में सर्वाधिक टॉयलेट बनाए गए हैं।
ECOSAN के लाभ निम्नलिखित हैं
◆ साफ सफाई का कारगर, गन्दगीहीन व प्रयोगिक तरीका
◆ कम खर्चीली
◆ मानव उत्सर्जी पदार्थों से उर्वरक बनाए जा सकते हैं, जो रासायनिक उर्वरकों से लाभदायक है।
(vi) गंगा एक्शन प्लान (Ganga Action Plan or GAP) गंगा नदी भारत में धार्मिक भावनाओं से जुड़ी है। पर्यावरण मन्त्रालय ने दिसम्बर 1984 में इसमें प्रदूषण कम करने हेतु GAP बनाया, जो वर्ष 1985 अप्रैल में मानित हुआ। यह 100% केन्द्र द्वारा सौजन्यित स्कीम है, परन्तु यह एक्ट 31 मार्च, 2000 को वापस ले लिया गया।
(vii) यमुना एक्शन प्लान (Yamuna Action Plan or YAP) यह जापान व भारत सरकार का संयुक्त प्रोजेक्ट है, जो भारत का सबसे बड़ा नदी पुनः संचयन प्रोजेक्ट है।
जापानीज बैंक फॉर इन्टरनेशनल कॉर्पोरेशन ( Japanese Bank for International Cooperation or JBIC), जापान ने इस प्रोजेक्ट हेतु 17.7 बिलियन मेन की सहायता की, जिसे भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन विभाग के नेशनल रिवर कन्जर्वेशन डायरेक्टोरेट द्वारा संचालित किया जा रहा है। वर्ष 1993 में इसका प्रथम चरण क्रियान्वित हुआ तथा अप्रैल, 2000 में यह पूरा हुआ, परन्तु बाद में फरवरी 2003 तक बढ़ाया गया।
जीवोपचारण (Bioremediation)
इसका अर्थ किसी जैविक कारक का उपयोग करके पर्यावरण की समस्याओं जैसे प्रदूषित मृदा व धरातलीय जल का निवारण करना है।
अप्रदूषित पर्यावरण में जीवाणु कवक, विषाणु, प्रोटिस्टा तथा अन्य सूक्ष्मजीवी कार्बनिक पदार्थों का लगातार अपघटन करते हैं। इनमें से कुछ मर जाते हैं तथा अन्य कुछ इन पदार्थों को लेकर जीवित रहते हैं। अतः यह अपशिष्ट पदार्थों के नियन्त्रण की एक तकनीक है, जिसमें इन सूक्ष्मजीवियों की वृद्धि हेतु उर्वरक, O2 व अन्य पदार्थ दिए जाते हैं। ये उच्च गति से कार्बनिक पदार्थों को अपघटित करते हैं। वास्तव में, कभी-कभी इसका उपयोग बिखरे तेल को साफ करने में भी करते हैं। इन सभी सूक्ष्मजीवियों को जीवोपचारक कहते हैं।
EPA के अनुसार, जीवोपचयन, प्राकृतिक जीवों के उपयोग द्वारा हानिकारक पदार्थों का कम हानिकारक या जहरहीन पदार्थों में परिवर्तन होता है। यह क्रिया स्व पात्रे (ex situ) व वहिःस्थाने (in situ) होती है। वहिः स्थाने में यह क्रिया प्राकृतिक स्थान पर की जाती है तथा स्व पात्रे में मानव निर्मित विशिष्ट स्थान पर | जीवोपचारण से जुड़ी कुछ अन्य तकनीकें मृदा भरण (land farming ), बायोरिएक्टर (bioreactor) उर्वरक निर्माण (composting), बायोलींचिग (bioleaching), बायोस्टीमुलेशन (biostimulation), आदि हैं।
जीवोपचारण के लाभ (Advantages of Bioremediation ) कुछ जैविक अपघटन की क्रियाएँ प्राकृतिक होती हैं।
(i) जगह के आधार पर तथा प्रदूषकों के आधार पर जैवोपचारण अन्य तकनीकों जैसे दहन, भूमिभरण से अधिक सुरक्षित तथा कम खर्चीला है।
(ii) इस प्रक्रिया में ऐसी जगह पर प्रदूषकों का अपघटन करते हैं, जहाँ मृदा व जल की मात्रा अत्यधिक हो, धरती से निकालना व गाड़ना न पड़े।
मृदा व भूमि प्रदूषण (Soil and Land Pollution) 
यह मृदा प्रदूषकों द्वारा मृदा में किया गया परिवर्तन है अर्थात् उन कारकों की मिलावट से जिनसे मृदा की उत्पादकता, पादपों की संख्या व भूमिगत जल में कमी आती है। ये ठोस व अर्धठोस पदार्थों के मिलने से (जैसे पीड़कनाशी व उर्वरक, आदि) कृषि अपशिष्टों तथा गन्दगी से फैलता है।
मृदा प्रदूषण के नियन्त्रण (Control of Soil Pollution ) 
निम्नलिखित उपायों द्वारा भूमि प्रदूषण को नियन्त्रित किया जा सकता है
(i) कम से कम कीटनाशकों का उपयोग।
(ii) अपशिष्टों के अपघटन हेतु उचित तकनीक का उपयोग।
इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट (E-Waste or Electronic Waste) 
यह अपशिष्ट उपयोगिता इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से बनता है, जिसे उसी अवस्था में पुनः उपयोग नहीं किया जा सकता, परन्तु इन्हें पुनः चक्रण द्वारा पुनः उपयोग किया जा सकता है जैसे विद्युत उपकरण (कम्प्यूटर, मोबाइल, रेडियो) तथा घरेलू उपकरण ( फ्रीज, AC), आदि।
नियन्त्रण (Control)
(i) इन्हें मृदा भराव हेतु उपयोग किया जा सकता है।
(ii) विकसित देशों का लगभग आधा ई-अपशिष्ट विकासशील देशों (चीन, भारत तथा पाकिस्तान) में पुनः उपयोग होता है तथा उनमें से कॉपर, लोहा, सिलिकॉन, निकिल व सोने जैसे धातुओं का पुनः चक्रण होता है।
(iii) विकासशील देशों में ई-अपशिष्ट के पुनः चक्रण में मानव सहयोग लगता है, जिससे उसमें उपस्थित हानिकारक पदार्थों का प्रभाव इन कारीगरों पर पड़ता है
(iv) विकसित देशों में इस कार्य हेतु विशिष्ट मशीनें हैं।
ध्वनि प्रदूषण (Noise or Sound Pollution)
यह आवाज की वह ऊँचाई है, जो किसी जीव हेतु हानिकारक होती है।
ध्वनि प्रदूषण के स्रोत (Sources of Sound Pollution) 
ध्वनि प्रदूषण के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं ·
(i) आन्तरिक ध्वनि (indoor noise) मशीनों, इमारतों तथा संगीत द्वारा होती है।
(ii) बाहरी ध्वनि ( outdoor noise) वाहनों, हवाई जहाज, रेल, आदि द्वारा होती है।
ध्वनि प्रदूषण के कारण (Causes of Sound Pollution )
(i) वाहनों द्वारा उत्पन्न आवाज
(ii) इमारतों के निर्माण में प्रयोग की जाने वाली मशीनें
(iii) औद्योगिक मशीनों द्वारा उत्पन्न आवाज
(iv) संगीत समारोह, आदि ।
ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव (Effects of Sound Pollution ) 
(i) सुनने में कमी, तनाव, हृदय सम्बन्धित रोग तथा अनिद्रा रोग ध्वनि प्रदूषण द्वारा होते हैं।
(ii) इससे प्रतिरक्षी तन्त्र में कमी व शिशु की सेहत प्रभावित होती है।
(iii) इससे गुस्सा, तनाव, उत्तेजना, हृदय धड़कन में वृद्धि, चिड़चिड़ापन व एड्रीनल हॉर्मोन का स्रावण बढ़ता है
ध्वनि प्रदूषण का नियन्त्रण (Control of Sound Pollution)
(i) अधिक पेड़ों को रोपना ताकि, वे ध्वनि अवशोषित कर सकें।
(ii) स्कूलों व अस्पतालों के पास के स्थान को हॉर्नहीन बनाना ।
(iii) निश्चित समय के बाद लाउडस्पीकर बजने पर रोक व सजा |
(iv) मशीनों व वाहनों में साइलेन्सर का प्रयोग अनिवार्य करना ।
(v) मशीनों, वाहनों तथा संगीत सम्मेलनों में ध्वनि की तीव्रता निश्चित करना ।
(vi) इमारतों में ध्वनि अवशोषित पदार्थों का उपयोग।
◆ वायु बचाव एवं नियन्त्रण एक्ट 1981 में, 1987 में ध्वनि प्रदूषण को भी वायु प्रदूषण के रूप में सम्मिलित किया गया।
रेडियोधर्मी प्रदूषण (Radioactive Pollution)
परमाणु शक्ति उत्पादन केन्द्रों और परमाणवीय परीक्षणों से निकले रेडियोधर्मी पदार्थों जैसे रेडियम, थोरियम, यूरेनियम, आदि रेडियोधर्मी कण; जैसे α, β इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, आदि में जल, वायु एवं भूमि का प्रदूषण होता है।
कारक (Cause) मानव निर्मित रेडियेशन द्वारा जैसे परमाणु परीक्षणों द्वारा निकली तरंगों द्वारा ।
स्रोत (Sources)
(i) चिकित्सीय अपशिष्ट
(ii) कोयला राख
(iii) परमाणु हथियार व बम
(iv) परमाणु संयन्त्र व ईंधन
(v) रेडियोधर्मी पदार्थों की खान
(vi) ऊर्जा संयन्त्रों से रेडियोधर्मी पदार्थों का रिसाव
(vii) ऊर्जा संयन्त्रों से रेडियोधर्मी पदार्थों को असुरक्षित फेंकना
हानिकारक प्रभाव (Harmful Effects)
◆ इससे गुणसूत्रों में उपस्थित जीन्स में उत्परिवर्तन हो जाता है, जो आनुवंशिक होता है।
◆ रेडियोएक्टिव कणों के जमने से मनुष्यों में ये कैंसर व अन्य आनुवंशिक रोग उत्पन्न करते हैं। ये किरणें वातावरण में लम्बे समय तक रहती हैं तथा धीरे-धीरे खत्म होती हैं । I
जलवायु (Climate)
यह वातावरण की एक विशिष्ट स्थान पर लाक्षणिक परिस्थिति (characteristics condition) है। यह लम्बे समय तक (लगभग 30 वर्षों तक) एक समान रहती हैं। इसके लिए उस जगह की भौगोलिक परिस्थिति, मौसम जिम्मेदार होते हैं। किसी जगह की जलवायु के अनुसार ही वहाँ जीव-जन्तु व पादप रहते हैं।
जलवायु परिवर्तन (Climate Change) उस स्थान के वातावरण में एक विशिष्ट परिवर्तन है, जो लम्बे समय तक या हमेशा के लिए होता है (दशकों से मिलियन वर्षों तक)। इसे दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है जैसे मानव निर्मित व प्राकृतिक। आज के समय में मानव निर्मित कारक ही इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है।
हरितग्रह प्रभाव (Greenhouse Effects) 
सूर्य की ऊष्मा को ऊष्मारोधी गैसें अवशोषित कर लेती हैं एवं शेष बची ऊष्मा को पुनः धरातल को वापस कर देती हैं। इस प्रक्रिया में वायुमण्डल के निचले भाग में अतिरिक्त ऊष्मा एकत्र हो जाती है। विगत कुछ वर्षों में इन ऊष्मारोधी गैसों की मात्रा वायुमण्डल में बढ़ जाने के कारण वायुमण्डल के औसत ताप में वृद्धि हो गई है।
हरितग्रह गैसें (Greenhouse Gases)
ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming)
धरातलीय वातावरण एवं समुद्र के औसत तापमान में हुई वृद्धि को ग्लोबल वॉर्मिंग कहते हैं। 19वीं शताब्दी के अन्त में वातावरण में CO2 की सान्द्रता बढ़ने के कारण वातावरणीय तापमान में भी वृद्धि हुई है। इसका मुख्य कारण कोयले, तेल तथा प्राकृतिक गैस जैसे ईंधनों का ऊर्जा के लिए जलना है।
ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव (Effects of Global Warming) 
धरती का तापमान पिछले तीन दशकों में 0.6°C बढ़ गया है, जिससे संघनन की क्रियाएँ प्रभावित होती हैं। वैज्ञानिकों ने सुझाया है कि तापमान में इस वृद्धि से वातावरण में परिवर्तन आ रहा है, जिससे मौसम बदल रहा है। उदाहरण ई नीनो प्रभाव |
ई नीनो प्रभाव (EI NINO Effect)
EININO यह पूर्वी प्रशान्त महासागर की सतह के तापमान में अत्यधिक वृद्धि है। इस दौरान गर्म पानी का प्रवाह पूर्व की ओर होता है, जिससे जलीय जन्तुओं के रंग व जीवन को हानि होती है। यह प्रवासी पक्षियों, मछलियों के मार्ग बदल जाने का कारण है। तथा यह अचानक बरसात व सूखे का भी कारण है। अतः यह जैव-विविधता खत्म करने का एक कारक है। इसके कारण बर्फ पिघलती है, जिससे समुद्र तल में वृद्धि होती है।
◆ गंगोत्री हिमखण्ड, ग्लोबल वॉर्मिंग के प्रभाव से ही पिघल रहा है ।
◆ क्योटो प्रोटोकॉल (Kyoto Protocol) ग्लोबल वॉर्मिंग रोकने का एक प्रस्ताव है, जिसके सदस्य कई देश हैं।
अम्ल वर्षा (Acid Rain)
यह एक वर्षा है, जो अम्लीय प्रकृति की होती है। सामान्य वर्षा जल की pH 7 होती है, परन्तु अम्ल वर्षा के जल की pH 5.7 के लगभग होती है क्योंकि इसमें कार्बनिक अम्ल होता है। अतः इसमें हाइड्रोजन आयन अधिक होते हैं तथा इसकी pH कम होती है। इसका पादप, जन्तु, जलीय जीवन व इमारतों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अम्ल वर्षा मुख्यतया SOx व NO द्वारा होती है, जो जल के अणुओं से क्रिया कर अम्ल बनाते हैं। पश्चिमी विर्जिनिया व USA में 1.5 pH की अम्ल वर्षा नोट की गई ।
अम्ल वर्षा में होने वाली क्रियाओं का क्रम निम्नलिखित हैं
2SO2+O2 → 2SO3
SO3 + H2O → H2SO4
2NO + [O] → N2O5
N2O5 + H2O → 2HNO3
समतापमण्डलीय प्रदूषण (Stratospheric Pollution) 
पृथ्वी में 50 किमी ऊपर समतापमण्डल में ओजोन (O3) का कवच स्थित है, जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों (UV rays) को अवशोषित कर मनुष्य को अनेक रोगों से बचाता है
समतापमण्डल में 1980 से प्राण रक्षक ओजोन की परत पतली होती जा रही है। ओजोन की पतली परत को ओजोन छिद्र (ozone hole) भी कहते हैं। फ्रेऑन (Freon) सबसे अधिक घातक क्लोरोफ्लोरोकार्बन है (CFC), जिसका प्रयोग रेफ्रिजरेटर, एअरकण्डिशनर, गद्देदार सीट या सोफों में काम आने वाली फोम तथा ऐरोसॉल स्प्रे में होता है।
ब्रिटिश वैज्ञानिकों के अनुसार, सर्दी के महीनों में वायुमण्डलीय क्लोरीन के एकत्रित होने के कारण, अण्टार्कटिका में ओजोन की परत महीन (thin) होती जा रही है।
ये CFC, UV किरणों से विघटित होकर क्लोरीन आयन बनाते हैं, जो O3 से क्रिया करके उसे खत्म करता है
क्लोरीन के अणु लगातार पुनः जीवित होते रहते हैं तथा ओजोन को तोड़ते हैं। ओजोन परत में छिद्र करने वाले पदार्थों को ओजोन अपक्षयक पदार्थ (Ozone Depleting Substances or ODS) कहते हैं। ओजोन परत 280-315 nm तंरगदैर्ध्य वाली पराबैगनी किरणों को धरती पर आने  से रोकती है अतः ओजोन परत पतली होने पर वह धरती पर अधिक मात्रा में आती है। संयुक्त जनरल असैम्बली (Mited General Assembly) ने 16 सितम्बर को ‘वर्ल्ड ओजोन डे (World Ozone Day)’ घोषित किया है। आज ओजोन परत के छिद्र को रोकना एक चुनौती है।
ओजोन परत के अपक्षयन के प्रभाव (Effects of Ozone Layer Depletion) 
मानव पर प्रभाव ( Effects On Human)
ओजोन परत अपक्षयन का मानव, पादप व जन्तुओं पर प्रभाव निम्नलिखित हैं
(i) त्वचा का वृद्ध होना, त्वचा कैंसर व जलन।
(ii) मोतियाबिन्द (cataracts) संसार में अन्धेपन का एक बड़ा कारण है। ओजोन परत को 10% कमी से संसार में लगभग 2 मिलियन मोतियाबिन्द के रोगी प्रतिवर्ष बढ़ते हैं।
(iii) अन्धापन व आँख सम्बन्धित रोग, UV-किरणों द्वारा आँखों में कमी तथा लेन्स, कॉर्निया, रेटिना की हानि।
(iv) मानव प्रतिरक्षी तन्त्र में कमी। ये त्वचा कैंसर का एक मुख्य कारण है।
पादपों पर प्रभाव (Effects On Flora)
ओजोन परत अपक्षयन का कृषि, वन व प्राकृतिक पारितन्त्रों पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है UV-किरणों के बढ़ने से संसार की अधिकांश फसलें प्रभावित होती है, जिससे उनकी उत्पादकता में, प्रकाश-संश्लेषण में तथा पुष्पीकरण में कमी आ जाती है। गेहूँ, चावल, बाजरा, जई, मक्का, सोयाबीन, मटर, टमाटर, खीरा, फूलगोभी, ब्रोकली तथा गाजर ऐसी फसलें, जो DV-किरणों द्वारा प्रभावित होती हैं। पादपों के बीज UV-किरणों द्वारा ज्यादा प्रभावित होते हैं।
जन्तुओं पर प्रभाव (Effects On Animals)
घरेलू जानवरों को UV-किरणों द्वारा आँख सम्बन्धित रोग तथा त्वचा कैंसर होते हैं। समुद्री जीवों की प्रजातियाँ (मछली, केकड़ें का लार्वा) अण्टार्कटिका ओजोन छिद्र के नीचे पिछले कुछ वर्षों में अत्यधिक प्रभावित हुई है।
समुद्री जीवन पर प्रभाव ( Effects On Aquatic/Marine Life)
समुद्र की सतह पर पाए जाने वाले छोटे जीव बढ़ती UV-किरणों से प्रभावित होते हैं। इनकी संख्या में आई कमी खाद्य श्रृंखला को प्रभावित करती है तथा प्रजातियों को कैनेडियन जल में पहुँचाती हैं। हमारे जल स्रोतों में मछलियों की संख्या में आई कमी मछली व्यवसाय व भोजन हेतु मछली के उपयोग पर हानि कारक प्रभाव डालती है।
पदार्थों पर प्रभाव (Effects On Materials)
लकड़ी, प्लास्टिक, रबड़, कपड़ा तथा अन्य पदार्थ UV-किरणों द्वारा प्रभावित होते हैं, जिससे इनकी आर्थिक कीमत कम हो जाती है।
मॉनट्रियल प्रोटोकॉल (Montreal Protocol)
ओजोन परत व वातावरण पर हुए 40 वर्षों के अनुसन्धान से CFC उत्पादन पर रोक लगा दी गई है। वर्ष 1987 से, 150 से अधिक देशों ने यह प्रस्ताव ‘मोनट्रियल प्रोटोकॉल’ मान्य किया है, जिससे वर्ष 1986 की अपेक्षा में वर्ष 1999 में CFC की वातावरण में मात्रा आधी हो गई है। जनवरी 1996 में इस प्रस्ताव में संशोधन हुआ तथा CFC पर पूरी तरह रोक लगा दी गई। इसके बाद भी एक दशक तक CFC से क्लोरीन वातावरण में मिलती रही परन्तु अगली शताब्दी के मध्य तक ओजोन का स्तर पुनः 1970 के ओजोन स्तर के बराबर हो जाएगा।
वातावरण एवं स्वास्थ्य (Environment and Health)
WHO द्वारा वातावरणीय स्वास्थ्य को परिभाषित किया गया है। इसमें वातावरणीय कारकों द्वारा मानव स्वास्थ्य व रोगों के बारे में अध्ययन किया जाता है तथा जो कारक हानिकारक होते हैं। उन्हें नियन्त्रित करने के लिए कार्य किया जाता है। इस विज्ञान में तीन शाखाओं महामारी विज्ञान (Epidemilogy), विषविज्ञान (Toxicology) तथा जोखिम विज्ञान (Exposure science) का समायोजन है। इसमें से प्रत्येक शाखा वातावरणीय स्वास्थ्य की समस्याओं के बारे में जानकारी देने में सहयोग करती है।
हरी रसायन विज्ञान (Green Chemistry)
यह सोच का एक तरीका है, जो रसायन विज्ञान के उपस्थित सिद्धान्तों व ज्ञान का उपयोग करना बताता है, जिससे वातावरण पर हानिकारक प्रभाव को कम किया जा सकें।
प्रतिदिन जीवन में हरी रसायन विज्ञान (Green Chemistry in Day-to-Day Life)
(i) कपडों की ड्राइक्लीनिंग (Drycleaning of Clothes) ट्रेटाक्लोरो इथेन को कपड़ों की ड्राइक्लीनिंग के लिए प्रयोग करते हैं, परन्तु वह कैंसरजन्य (carcinogen) माना जाता है अतः अब इसके स्थान पर तरल CO2 का उपयोग किया जाता है।
(ii) कागज की ब्लीचिंग (Bleaching of Papers) आज हाइड्रोजन परऑक्साइड के स्थान पर क्लोरीन का प्रयोग किया जाता है।
(iii) रसायन का संश्लेषण (Synthesis of Chemicals) इथेनॉल, इथेन से एक चरण में बनाई जाती है, जहाँ आयनिक उत्प्रेरक होता है तथा इसकी उत्पादकता 90% होती है।
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Ajit kumar

Sub Editor-in-Chief at Jaankari Rakho Web Portal

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