पारिस्थितिकी एवं पारितन्त्र (Ecology and Ecosystem )

पारिस्थितिकी एवं पारितन्त्र (Ecology and Ecosystem )

पारिस्थितिकी एवं पारितन्त्र (Ecology and Ecosystem )

पारिस्थितिकी (Ecology)
जीव तथा उसके बाह्य वातावरण के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन ही पारिस्थितिक विज्ञान अथवा पारिस्थितिकी है। अर्नेस्ट हेकल (1869) के अनुसार, “जीवधारियों के कार्बनिक तथा अकार्बनिक वातावरण और पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन को पारिस्थितिकी कहते हैं। “
पारिस्थितिकी को निम्न शाखाओं में विभाजित किया गया है
1. स्वपारिस्थितिकी (Autecology )
किसी एक प्राणी या किसी एक जाति के प्राणियों के विकास क्रम पर वातावरण के प्रभाव का अध्ययन स्वपारिस्थितिकी कहलाता है।
2. संपारिस्थितिकी (Synecology )
समुदाय पारिस्थितिकी अथवा संपारिस्थितिकी के अन्तर्गत किसी स्थान पर पाए जाने वाले समस्त समुदाय (community) एवं वहाँ के वातावरण के पारस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है।
संपारिस्थितिकी को निम्नलिखित तीन उप-विभागों में बाँटा गया है
(i) समष्टि पारिस्थितिकी (Population Ecology) इसके अन्तर्गत किसी स्थान पर एक ही पादप जाति अथवा जन्तु जाति (plant species or animal species) विशेष के सम्पूर्ण सदस्यों द्वारा निर्मित समष्टि तथा इससे वातावरण के सम्बन्धों एवं प्रभावों का अध्ययन किया जाता है।
(ii) समुदाय पारिस्थितिकी (Community Ecology) इसके अन्तर्गत किसी स्थान पर पाए जाने वाले सभी जाति के जीवधारियों (पादपों, जन्तुओं, जीवाणुओं, कवकों, आदि) की समष्टियों द्वारा निर्मित जैवीय समुदाय तथा इससे वातावरण के सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। पारिस्थितिकी में, समुदाय दो या अधिक प्रजातियों की जनसंख्या का एक संगठन है, जो एक स्थान पर निवास करते हैं।
(iii) पारिस्थितिकतन्त्रीय  पारिस्थितिकी (Ecosystemecology or Ecosystemology) इसके अन्तर्गत किसी स्थान के पारिस्थितिक तन्त्र के जीवीय (biotic) एवं अजीवीय (abiotic) घटकों के पारस्परिक सम्बन्धों, आदि का अध्ययन किया जाता है।
महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी शब्दावली (Important Ecology Terminology)
ग्रीष्मनिद्रा (Aestivation) यह ग्रीष्म निद्रा है जिसमें जन्तु ग्रीष्म ऋतु, निद्रा में व्यतीत करते है।
आयु शंकु (Age pyramids) यह लम्बा ग्राफ है जो विभिन्न समयों में जीवों की संख्या को प्रदर्शित करता है।
जन्म दर (Birth rate) जीव की जनसंख्या वृद्धि की दर l
मृत्यु दर (Death rate) जीव की जनसंख्या में मृत्यु की दर ।
बाह्योष्मी (Ectotherms) जन्तु जिनके शरीर का ताप वातावरण के तापानुसार परिवर्तित होता है।
उत्प्रवास (Emigration ) अपने निवास स्थान से जीवों का बाहर जाना।
अन्तः योष्मी (Endotherms) जन्तु, जिनका शारीरिक तापमान नियमित रहता है तथा वातावरणानुसार नही बदलता ।
अर्जित उत्पादकता (Gross productivity) उत्पादकों द्वारा प्रकाश-संश्लेषण की में बनाये गये कार्बनिक पदार्थ के बनने की दर।
शीतनिद्रा (Hibernation) जन्तुओं द्वारा शीत ऋतु निद्रा में व्यतीत करना।
आप्रवासी (Immigration ) किसी निवास स्थान में जीवों का आना।
मृत्यु (Mortality) एक समय में किसी जनसंख्या में जीवों की मृत्यु की संख्या ।
निकेत (Niche) किसी जीव की उसके समुदाय में विशिष्ट कार्य व स्थान का आँकलन।
कुल प्राथमिक उत्पाद (Net primary product) अर्जित प्राथमिक उत्पादकता में से श्वसन हानि के बाद शेष उत्पाद ।
मृत्यु (Natality)
एक समय में किसी जनसंख्या में से हुई जीवों की मृत्यु की संख्या।
जनसंख्या अन्तःसम्बन्ध (Population interaction) एक प्रजाति के जीवों या दो या अधिक प्रजाति के जीवों के मध्य परस्पर अन्तः सम्बन्ध। यह लाभदायक व हानिकारक दोनों ही प्रकार की हो सकती है।
जनसंख्या (Population) एक विशिष्ट स्थान में प्रजाति का समूह ( group of species)।
जनसंख्या प्रकार (Population type) वृद्धिकर, स्थायी या हानिकारक ।
जनसंख्या घनत्व (Population density) एक स्थान में पायी जाने वाली जनसंख्या l
जनसंख्या वृद्धि (Population growth) जनसंख्या के आकार में वृद्धि ।
खड़ी फसल (Standing crop) प्रति क्षेत्र में उपस्थित जीवित भार अथवा जैवभार ।
लिगांनुपात ( Sex ratio) एक जनसंख्या में पुरुष व स्त्री की संख्या का अनुपात l
पारिस्थितिक तन्त्र या पारितन्त्र (Ecosystem)
किसी क्षेत्र में कार्य करने वाले भौतिक एवं जैविक अंशों का पूर्ण योग ही पारितन्त्र कहलाता है। पारिस्थितिक तन्त्र का प्रयोग सर्वप्रथम ए. जी. टैन्सले (AG Tanseley) नामक वैज्ञानिक ने किया। इनके अनुसार, ‘पारिस्थितिक तन्त्र, वह तन्त्र है, जो वातावरण के जीवीय तथा अजीवीय, सभी कारकों के परस्पर सम्बन्धों तथा प्रक्रियाओं द्वारा प्रकट होता है।’
पारितन्त्र के प्रकार (Types of Ecosystem)
पारितन्त्र दो प्रकार के होते हैं तथा इनका विवरण निम्नलिखित है
(i) प्राकृतिक पारितन्त्र (Natural Ecosystem) उदाहरण जंगल, रेगिस्तान, तालाब, टुण्ड्रा, घास के मैदान, आदि।
(ii) कृत्रिम पारितन्त्र मानव निर्मित (Artificial Ecosystem-Man-made) उदाहरण मछली घर, फसल खेत, आदि।
पारिस्थितिक तन्त्र के घटक (Components of Ecosystem) 
पारिस्थितिक तन्त्र के दो घटक होते हैं
1. अजैविक कारक (Abiotic Factors)
वे वातावरणीय कारक, जो निर्जीव होते हैं, अजैविक कारक कहलाते हैं। ये निम्नलिखित होते हैं
(i) ताप ( Temperature) समस्त जैविक क्रियाएँ 0-50°C के मध्य होती हैं। इस तापमान की सीमा के बाहर जैविक क्रियाएँ धीमी पड़ जाती हैं। ताप का प्रभाव पौधों की शारीरिक बनावट, जैविक क्रियाओं, प्रजनन एवं भौगोलिक वितरण पर पड़ता है। पृथ्वी पर ताप का स्रोत सूर्य है। पौधों में वाष्पोत्सर्जन की क्रिया ताप बढ़ने से अधिक होती है।
(ii) प्रकाश (Light) पृथ्वी पर पड़ने वाले सूर्य के प्रकाश का 4% भाग पर्णहरिम द्वारा प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया के लिए उपयोग में लाया जाता है। प्रकाश का प्रभाव प्रजनन व बीज अंकुरण पर भी पड़ता है। प्रकाश की आवश्यक अवधि ‘दीप्तिकाल ( photoperiod)’ विभिन्न पादपों के लिए विभिन्न होती है।
(iii) वायु (Wind) वायु की गति का प्रभाव पौधों के वाष्पोत्सर्जन पर पड़ता है। वायु परागण में भी सहायक होती है। वायु की गति पर्वतों पर वृक्ष की रेखा निर्धारित करती है ।
(iv) वायुमण्डलीय आर्द्रता (Atmospheric Humidity) वायुमण्डल में जल, वाष्प के रूप में रहता है, यह आर्द्रता कहलाती है। यदि आर्द्रता कम होती है, तो वाष्पीकरण ज्यादा होता है इसके विपरीत यदि आर्द्रता ज्यादा होती है, तो वाष्पीकरण कम होता है। आर्द्रता को साइक्रोमीटर नामक उपकरण से नापा जाता है। लाइकेन ज्यादा नमी वाले स्थानों पर उगते हैं।
(v) मृदीय कारक ( Edaphic Factors) पौधे मृदा से जल एवं खाद्य पदार्थ लेते हैं। मिट्टी भौतिक चट्टानों के अपक्षय से बनती हैं। मृदा में विभिन्न खनिज पदार्थ तथा कार्बनिक पदार्थ होते हैं।
(vi) स्थलाकृतिक कारक (Topographic Factors) स्थान की ऊँचाई, भूमि की ढाल एवं पर्वतों की दिशा ये स्थलाकृतिक कारक होते हैं, जो जीवों को प्रभावित करते हैं
(vii) खाद्य पदार्थों की उपलब्धता (Availability of Food Stuffs) यह अवलोकित किया गया है कि जहाँ भोजन आसानी से उपलब्ध हो जाता है, जीव वहाँ रहना पसन्द करते हैं, जबकि भोजन सुगमता से उपलब्ध न हो, जीव वहाँ नहीं रहना चाहते।
2. जैविक घटक (Biotic Components)
पारितन्त्र में उपस्थित सभी सजीव घटक, जीवीय घटक होते हैं
जीवीय घटक निम्नलिखित हैं
(i) उत्पादक (Producers) हरे पौधे, जो अपना भोजन स्वयं बनाते हैं उत्पादक कहलाते हैं। इस क्रिया को प्रकाश-संश्लेषण कहते हैं। हरे पौधे सूर्य के प्रकाश, CO2, जल को लेकर पर्णहरिम द्वारा सूक्रोज बनाते हैं तथा O2 वातावरण में मुक्त करते हैं। पादपों द्वारा बना कार्बनिक पदार्थ जैवभार (biomass) कहलाता है तथा जैवभार बनाने की दर को प्राथमिक उत्पादकता (primary productivity) कहते है। उदाहरण हरे पादप व नीली-हरी शैवाल |
(ii) उपभोक्ता (Consumers ) सभी जन्तु, ऊर्जा उत्पन्न करने वाली वस्तुएँ, प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में पौधों से ही प्राप्त करते हैं। ये मुख्य रूप से दो वर्गों में विभाजित किया गया है शाकाहारी व माँसाहारी। उदाहरण खरगोश, चूहा, गिलहरी, बकरी, मवेशी, आदि शाकाहारी (herbivores) तथा पक्षी, बाज, साँप लोमड़ी, आदि माँसाहारी (carnivores) । ये तीन प्रकार के होते हैं
◆ प्राथमिक उपभोक्ता ( Primary consumers ) ये जन्तु उदाहरण कीड़े-मकोड़े, तृणभोजी पतंगे (टिड्डे), आदि पत्तियों व कोमल तनों को खाते हैं। बकरी, गाय एवं खरगोश, आदि भी पौधों के तने व पत्तियों को खाते हैं। ये सभी शाकाहारी (herbivorous) जन्तु होते हैं।
◆ द्वितीयक उपभोक्ता (Secondary consumers ) ये जन्तु उदाहरण मेंढ़क, शेर एवं चीता, आदि माँसाहारी होते हैं। ये शाकाहारी जन्तुओं को खाते हैं।
◆ तृतीयक उपभोक्ता (Tertiary consumers ) ये जन्तु हैं, जो दूसरे माँसाहारी जन्तुओं को खाते हैं जैसे साँप मेंढ़क को खाता है और गिद्ध साँप को खा लेता है।
(iii) सर्वाहारी (Omnivores) ये उत्पादक व उपभोक्ता दोनों को खाते हैं।
(iv) मृताहारी (Detrivores) ये सड़े-गले मृत जीवों से भोजन प्राप्त करते हैं।
(v) अपघटक (Decomposers) ये मृत शरीर को अपघटित करके उसे समाप्त करते हैं। उदाहरण जीवाणु, कवक, आदि।
पारिस्थितिक तन्त्र के कार्य (Functions of Ecosystem)
पारिस्थितिक तन्त्र के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं
(i) पदार्थ या पोषण चक्र
(ii) जैबीय नियन्त्रण, पर्यावरण द्वारा जीव का व जीव द्वारा पर्यावरण का नियन्त्रण
पारितन्त्र में ऊर्जा प्रवाह (Energy Flow in Ecosystem)
ऊर्जा का प्रवाह सदिशीय है अर्थात् यह सूरज से उत्पादक की ओर, फिर वहाँ से उपभोक्ता की ओर जाती है। अतः यह ऊष्मा गतिकी के प्रथम नियम का पालन करती है। पारितन्त्र में ऊर्जा का प्रवाह भोजन के रूप में किया जाता है, जो उपापचयी क्रियाओं द्वारा ऊर्जा में परिवर्तित होती है। यह जीवभार के रूप में संचित होती है।
खाद्य श्रृंखला (Food Chain)
खाद्य श्रृंखला एक क्रम है, जिसमें एक जीव अपना भोजन दूसरे से लेता है। यह सामान्यतया प्राथमिक ऊर्जा स्रोत (सूर्य) से प्रारम्भ होती है, जो अपनी ऊर्जा को प्राथमिक उत्पादक (primary producers) उपभोक्ता ( consumer) तक भेजता है।
तृतीयक उपभोक्ता, द्वितीयक उपभोक्ता को खाते हैं। अतः प्रत्येक खाद्य शृंखला अन्तिम शिकारी (top predator) पर समाप्त होती है। अतः ऊर्जा का प्रवाह सदैव एकदिशीय होता है अर्थात् यह उत्पादक से उपभोक्ता तक प्रवाहित होती है ना कि उल्टी दिशा में एक बार प्रवाहित होने पर ऊर्जा दोबारा वापस नहीं जाती है।
उदाहरण एक साधारण खाद्य श्रृंखला
घास > कीड़े > मेंढ़क > साँप > बाज |
इस खाद्य श्रृंखला में घास प्राथमिक उत्पादक है, कीड़े प्राथमिक उपभोक्ता, है क्योंकि वो घास को खाते हैं मेंढक द्वितीयक उपभोक्ता है जो प्राथमिक उपभोक्ता को खाते हैं। साँप द्वितीयक माँसाहारी तथा बाज अन्तिम उपभोक्ता है जोकि मरने के बाद जीवाणु व कवक द्वारा अपघटित किया जाता है।
गहरे समुद्री जलीय पारितन्त्र में, सभी खाद्य श्रृंखला प्रकाश-संश्लेषण से प्रारम्भ होती है तथा फिर समाप्त होती है। खाद्य श्रृंखला में लगे तीर ऊर्जा प्रवाह को दर्शाते हैं, सूक्ष्म से उच्च शिकारी तक प्रत्येक चरण में ऊर्जा का कुछ भाग नष्ट हो जाता है।
खाद्य जाल (Food Web)
खाद्य शृंखलाओं का जाल, जिसके द्वारा ऊर्जा व पोषण पदार्थ एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में जाती है, खाद्य जाल कहलाता है। यह एक अनुरेखित प्रदर्शन है, जोकि एक पारिस्थितिक संघ की सभी प्रजातियों के बीच की पोषण के लिए सामुदायिक अन्तःक्रिया है। इसी के द्वारा ऊर्जा एवं पदार्थों जैसे कार्बन का एक प्रजाति के संघ में परिवहन होता है।
खाद्य स्तर या पोषण स्तर (Trophic Level)
यह किसी जीव की खाद्य श्रृंखला में उसके खाने की आदत के अनुसार एक विशिष्ट स्थान है। सामान्यतया उत्पादक पहला पोषण स्तर बनाते हैं, शाकाहारी दूसरा, माँसाहारी व सर्वाहारी तीसरा तथा चौथा पोषण स्तर बनाते हैं। पोषण स्तर का वर्गीकरण कार्यानुसार किया गया है, जनसंख्या अनुसार नहीं ।
पारिस्थितक पिरामिड (Ecological Pyramids)
पारिस्थितिक पिरामिड, पारितन्त्र में प्राथमिक उत्पादकों एवं विभिन्न उपभोक्ताओं (प्रथम, द्वितीय, तृतीय एवं उच्चतम श्रेणी) की जनसंख्या, जीवभार (biomass), संचित ऊर्जा के परस्पर सम्बन्ध को दर्शाता है। प्रत्येक पिरामिड का आधार उत्पादक तथा चोटी तृतीयक उपभोक्ता द्वारा प्रदर्शित की जाती है। सामान्यतया कुछ अवसाद के साथ सभी पिरामिड सीधे होते हैं।
इस क्रम को दर्शाने के लिए तीन प्रकार के पारिस्थितिक पिरामिड्स होते हैं
(i) जीव संख्या का पिरामिड (प्रत्येक पोषण स्तर पर जीवों की संख्या)
(ii) जीवभार का पिरामिड (प्रत्येक पोषण स्तर पर जीवों का भार )
(iii) संचित ऊर्जा का पिरामिड (प्रत्येक पोषण स्तर पर संचित ऊर्जा)
पारिस्थितिक अनुक्रमण (Ecological Succession)
अनुक्रमण सैकड़ों हजारों वर्षों में वानस्पतिक समुदायों की रचना और आकार में आने वाली विभिन्नताओं को व्यक्त करता है। अनुक्रमण नवीन समुदाय (pioneer community ) से शुरू होकर क्रमकी समुदायों (seral communities) द्वारा आगे बढ़ते हुए चरम समुदाय (climax community) पर समाप्त होता है। अनुक्रमण प्रथम बार किंग (1685) व जार्ज बूफोन (1742) द्वारा अध्ययन किया गया था। किसी पारितन्त्र समुदाय के बाद वहाँ विकास प्रक्रिया चलती रहती है।
अनुक्रमण के कारक (Causes of Succession)
◆ शुरुआती कारक (Initiating causes) –
◆ इकेसिक कारक (Ecesic causes)
◆ स्थापना कारक (Stabilising causes)
अनुक्रमण के प्रकार (Types of Succession) 
अनुक्रमण प्रायः दो प्रकार का होता है
(i) प्राथमिक अनुक्रमण (Primary Succession) यह किसी खाली पड़े स्थान या क्षेत्र में उत्पन्न होता है, जहाँ कभी पहले कोई समुदाय न रहे हो जैसे चट्टानों पर या किसी नए बने तालाब में।
(ii) द्वितीयक अनुक्रमण (Secondary Succession) यह अनुक्रमण उन क्षेत्रों में होते हैं, जहाँ कभी विभिन्न समुदाय पाए जाते थे परन्तु किसी प्राकृतिक आपदा के कारण वे नष्ट हो गए जैसे किसी जंगल के जल जाने पर वहाँ फिर से प्रारम्भ होने वाला अनुक्रमण।
पादपों में पारिस्थितिक अनुकूलता (Ecological Adaptations in Plants) 
पादपों में विभिन्न पारितन्त्रों में रहने के लिए अपने में अनुकूल परिवर्तन किए हैं। पादपों को इनके रहने के स्थान के आधार पर निम्न वर्गों में बाँटा गया है
(i) जलोद्भिद् (Hydrophytes) ये पौधे जल में या ऐसी मिट्टी में, जो जल से संतृप्त ( saturated) होती है, पाए जाते हैं।
जलोद्भिद् तीन प्रकार के होते हैं
(a) निमग्न पौधे (Submerged Plants) उदाहरण हाइड्रिला, वैलिसनेरिया, पोटेमोजीटोन।
(b) स्वतन्त्र तैरने वाले पौधे (Free Floating Plants) उदाहरण वुल्फिया, लेम्ना, स्पाइरोडेला तथा समुद्रसोख ( Eichhornia) |
(c) स्थिर तैरने वाले पौधे (Fixed Floating Plants) उदाहरण नेलुम्बियम स्पेसियोसम, निम्फिया, जूसिया तथा ट्रेपा ।
(d) स्थिर बाहर निकले हुऐ ( attached emergent) उदाहरण टाइफा (Typha), साइपैरस, आदि।
(e) दलदली (marshy) उदाहरण जूसिया रिपंस, डेन्टेला रेपेंस, आदि ।
(ii) समोद्भिद् (Mesophytes) ये पौधे पृथ्वी पर उन स्थानों में मिलते हैं, जहाँ औसत मात्रा में जल प्राप्त होता है। उदाहरण उद्यानों में लगाए जाने वाले पौधे व खेती की जाने वाली फसलें ।
(iii) मरुद्भिद् (Xerophytes) ये पौधे शुष्क वनावरण में एवं बहुत कम जल की मात्रा में अपना जीवन-चक्र पूर्ण करने की क्षमता रखते हैं। ऐसे पौधे मरुस्थल में अथवा चट्टानों पर पाए जाते हैं। उदाहरण नागफनी (Opuntia), घीक्वार (Aloe), बाँसकेवड़ा (.igave), कैजुएराइना, मदार (Calotropis)।
(iv) अधिपादप (Epiphytes) ये दूसरे पादपों अथवा सहारे पर बढ़ते हैं, उसको बिना हानि पहुँचाए। ये अपना भोजन स्वयं बनाते हैं। उदाहरण ऑर्किड।
(v) लवणोमृदोद्भिद् (Halophytes) ये पौधे आंधक लवणों (3-5%) वाली मृदा में उगते हैं, जहाँ इन्हें सीमित मात्रा में जल मिलता है। उदाहरण मैंग्रोव |
(vi) अम्लोद्भिद् (Oxalophytes) ये पौधे अम्लीय मृदा में उगते हैं।
(vii) दलदली पौधे (Marshy Plants) ये पौधे जलीय तथा स्थलीय वातावरण में उगते हैं।
(viii) मरूस्थलोद्भिद् (Eremophytes) रेगिस्तान में उगने वाले पादप । उदाहरण केक्टस।
(ix) कच्छोद्भिद् (Helophytes) दलदल (swamp) में उगने वाले पादप।
(x) बालूकोद्भिद् (Psammophytes) रेत में उगने वाले पादप।
पारिस्थितिक सम्बन्ध (Ecological Relationships)
पारितन्त्र में जीवों के परस्पर सम्बन्ध को पारिस्थितिक सम्बन्ध कहते है क्योंकि पारितन्त्र में विभिन्न जीव एक-दूसरे से जुड़े हैं। विभिन्न जीवों के बीच के सम्बन्ध सहजीवी तथा विपरीत भी हो सकते हैं। प्रतियोगिता एवं परभक्षी विपरीत सम्बन्ध तथा सहजीविता सम्बन्ध सहोपकारिता (mutualism), सहभोजिता (commensalism), परजीविता (parasitism), आदि सहजीवी संबंधों के उदाहरण हैं।
कुछ पारिस्थतिक सम्बन्ध (Some Ecological Relationships)
अन्तः सम्बन्ध जीव
परजीविता (parasitism) यह ऋणात्मक अन्तःक्रिया है, जिसमें विषमपोषी जीव, अपने पोषी (host) जीव से अपना आहार प्राप्त करते हैं। उदाहरण कस्कुटा, विस्कम, आदि।
सहभोजिता (commensalism) इस सम्बन्ध में सहभागी को लाभ होता है, परन्तु दूसरे सहभागी को न लाभ होता है न हानि । उदाहरण अधिपादप, कण्ठ लताएँ, घोंघे व इसके खोल पर उगने वाला क्लेडोफोरा शैवाल |
सहोपकारिता (mutualism) इसमें दोनों सहभागी को समान रूप से लाभ होता है व परस्पर एक-दूसरे की सहायता करते हैं। उदाहरण लाइकेन में शैवाल व कवक का सम्बन्ध ।
मृतोपजीविता (saprophytism) इसमें जीव अपना भोजन मृत कार्बनिक पदार्थों से प्राप्त करते हैं। इन्हें अपमार्जक भी कहते हैं।
परभक्षिता (predation) इसमें परभक्षी जीव अपना भोजन जीवित शिकार से प्राप्त करते हैं। उदाहरण शेर व हिरण का सम्बन्ध l
प्रतियोगिता (competition) भोजन, जगह, शरण, आदि के लिए जीवों के बीच प्रतियोगिता |
असहभोजिता (amensalism) एक जीव के उत्पाद से दूसरे जीव को हानि ।
अधिपादप (epiphyte) ये पादप दूसरे पादप पर भोजन व निवास हेतु निर्भर रहते हैं।
पारितन्त्र में पोषण प्रवाह (Nutrient Flow in Ecosystem) 
पारितन्त्र में पोषक तत्वों का जैविक से अजैविक तथा अजैविक से जैविक घटकों के बीच प्रवाह निर्धारित होता हैइसे सामान्यतया जैव-भू रसायन चक्रण (biogeochemical cycle) या पोषण तत्वों का चक्रण कहते हैं, जो जीव शारीरिक विकास व उपापचय हेतु आवश्यक है।
जैव-भू रसायन चक्रण को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा गया है
1. गैसीय चक्र (Gaseous Cycle) 
(i) कार्बन चक्र
(ii) नाइट्रोजन चक्र
(iii) ऑक्सीजन चक्र
2. तलछटी चक्र (Sedimentary Cycle)
(i) सल्फर चक्र
(ii) फॉस्फोरस चक्र
नाइट्रोजन चक्र (Nitrogen Cycle)
नाइट्रोजन चक्र में नाइट्रोजन-स्थिरीकरण (nitrogen-fixation), नाइट्रीकरण (nitrification) तथा विनाइट्रीकरण (denitrification) क्रियाएँ होती हैं, जो जैविक तथा अजैविक दोनों क्रियाओं द्वारा होती हैं। नाइट्रोजन चक्र की प्रमुख क्रियाऐं स्थिरीकरण, खनिजीकरण (mineralisation), नाइट्रीकरण व विनाइट्रीकरण है। नाइट्रोजन चक्र का रेखाचित्र निम्न है।
कार्बन चक्र (Carbon Cycle)
कार्बन चक्र एक जैव-भू रसायन चक्र है, जिसमें कार्बन का जीवमण्डल (biosphere), भूमण्डलआदान-प्रदान होता है। कार्बन चक्र की खोज जोसेफ प्रीस्टले तथा एन्टोनी लेवोइसियस ने की थी।
ऑक्सीजन चक्र ( Oxygen Cycle)
यह जैव-भू रसायन चक्र है, जो ऑक्सीजन को उसके तीन मुख्य स्रोतों में परिवाहित किया जाता है अर्थात् वातावरण, जैविक संघठन व भूमण्डल में।
ऑक्सीजन चक्र का रेखाचित्र निम्न है
सल्फर चक्र (Sulphur Cycle )
सल्फर को कैल्शियम व मैग्नीशियम के साथ द्वितीयक तत्व माना जाता है। सल्फर उपलब्धता की प्रक्रिया नाइट्रोजन उपलब्धता के समान है। मृदा में पाए जाने वाला अधिकांश सल्फर कार्बनिक पदार्थ के रूप में पाया जाता है। सल्फर बहुत-सी प्रोटीन व सह-एन्जाइम का जरुरी तत्व हैं।
सल्फर का पोषक तत्वों व जीवित तन्त्रों के बीच परिवहन ही सल्फर चक्र है। सल्फर चक्र में सल्फर का खनिजीकरण (mineralisation) होता है, जिसमें सल्फर, हाइड्रोजन सल्फाइड में परिवर्तित होता है तथा इसके ऑक्सीकरण से सल्फेट बनता है तथा फिर इसके अनॉक्सीकरण से सल्फाइड बनता है, जो अन्त में कार्बनिक पदार्थों में परिवर्तित हो जाता है।
फॉस्फोरस चक्र (Phosphorus Cycle)
यह जैव-भू रासायनिक चक्र है, जो भूमण्डल, जलमण्डल व जीवमण्डल के बीच फॉस्फोरस के परिवहन को बताता है। फॉस्फोरस के परिवहन में वातावरण मुख्य रोल नहीं निभाता है।
जल चक्र (Water Cycle or Hydrological Cycle)
जल चक्र सभी चक्रों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण चक्र है। इस चक्र द्वारा बताया गया है की जल लगातार प्रवाहित होता रहता है, जिसमें वाष्पीकरण (evaporation), संघनन (condensation) व अवक्षेपण (precipitation) क्रियाएँ होती हैं। जल में घुले लवण भी जल के साथ प्रवाहित होते हैं तथा जल धरती के ऊपर व धरती के अन्दर दोनों जगह प्रवाहित होता है।
जल के चक्रण के कारण ही तापमान में परिवर्तन होता है तथा जल के चक्रण के साथ-साथ ही अन्य पोषक तत्वों का भी चक्रण होता है। मानव क्रियाएँ जैसे कृषि, व्यवसाय, बाँध, शहरीकरण, मृदा जल के उपयोग से जल चक्र प्रभावित होता है।
जीवमण्डल (Biosphere)
यह सभी पारितन्त्रों का संगटन है, जिसे धरती पर ‘one of life’ कहा जाता है। यह एक बन्द तन्त्र है, जो स्वयं नियन्त्रित होता है। दूसरे शब्दों में इसे भू पारिस्थितिकी तन्त्र भी कहा जाता है। इसे सभी जीव व उनके पारस्परिक सम्बन्धों की व्याख्या होती है।
जीवमण्डल जीवन के शुरू होने के साथ ही शुरू हुआ है। अतः जब अजीवित कार्बन पदार्थों के संघटन से जीवन का निर्माण हुआ था या बायोजेनेसिस अर्थात् जीवन की शुरुआत जीवित पदार्थों से हुई है।
जीवोम (Biomes)
धरती पर वे भाग, जो वातावरण एवं भू-संरचना में समान होते हैं तथा जहाँ पर पादप, जन्तु या मृदा जीवों के संघ होते हैं, पारितन्त्र कहलाते हैं। कुछ बड़े पारितन्त्रों को जीवोम कहते हैं, जिनमें हम जन्तु व पादप संघों के पूर्ण संघटन को पढ़ते हैं।
आधारीय रूप से जीवोम को धरातलीय (terrestrial) जीवोम, जलीय (aquatic) जीवोम (समुद्री व स्वच्छ जल जीवोम) में विभाजित किया गया है।
जैव-विविधता (Biodiversity)
देव-विविधता पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जीवोमों में उपस्थित जन्तु, पादपों तथा सूक्ष्मजीवों की विभिन्न प्रजातियों को कहा जाता है। इसमें जीवों को सभी स्रोतों से जैसे धरातल, समुद्री व अन्य जलीय पारितन्त्रों से सम्मिलित किया जाता है। जैव-विविधता को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है
(i) जीनीय जैव-विविधता (Genetic Biodiversity) एक ही जाति के जीवों के बीच पाई जाने वाली विविधत है।
(ii) जातीय जैव-विविधता (Species Biodiversity) एक स्थान पर पाए जाने वाली विभिन्न जातियों में विविधता है।
(iii) पारितन्त्र जैव-विविधता (Ecosystem Biodiversity) पारितन्त्र स्तर पर जैव-विविधता का आकलन परेशानी युक्त है। भू-स्तर पर पारितन्त्र की कोई परिभाषा या वर्गीकरण नही है। अतः यह मुश्किल है की स्थानीय आधार के अलावा पारितन्त्र विविधता को नापा जाये।
जातीय जैव-विविधता (Mapping Species Biodiversity)
जैव-विविधता के मापन का प्रथम प्रयास ब्रिट्स, पॉल विलियम, डेक्केर राइट एवं क्रिस हंमप्रेगर द्वारा किया गया।
जैव-विविधता को मुख्यतया तीन प्रकार की विविधताओं में मापा जाता है
(i) अल्फा विविधता (Alpha Diversity) विभिन्न स्थानों की जैव-विविधता का मापन।
(ii) बीटा विविधता (Beta Diversity) विभिन्न पारितन्त्रों की जैव-विविधता का तुलनात्मक मापन।
(iii) गामा विविधता (Gamma Diversity) विभिन्न धरातलीय भागों में प्रजाति की विभिन्नताओं का मापन।
जैव-विविधता की उपयोगिता (Importance of Biodiversity)
पारितन्त्र की उपयोगिता का आधार जैव-विविधता है। जैव-विविधता की उपयोगिता के निम्नलिखित कारण हैं
(i) जैव-विविधता द्वारा अच्छी उत्पादकता व रोग निरोधी (disease prevention) प्रजाति का संकरण सम्भव है तथा जो प्रजाति वातावरणीय परिस्थितियों के अनुकूल रह सके ऐसी प्रजातियों के विकास में भी जैव-विविधता उपयोगी है।
(ii) पारितन्त्र सभी प्रकार के जीव रूप, पर्यावरण, जल, वायु, मृदा एवं पोषण पदार्थों का सहयोग करता है, कीट, पीड़कों को नियन्त्रित करता है तथा ऊर्जा, भोजन एवं औषधि प्रदान करता है।
(iii) ये जीवित सुविधाएँ जैसे परागण, जल शुद्धिकरण एवं पोषकों की प्राप्ति प्रदान करता है।
(iv) पारितन्त्र सामाजिक सुविधाएँ भी प्रदान करता है, जो जीव के सामुदायिक जीवन हेतु आवश्यक है।
जैव-विविधता को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Biodiversity) 
हमारे देश की जीवित सम्पदा खत्म होती जा रही है, जिसका मुख्य कारण मानव क्रियाएँ हैं। ये हमारी जैव-विविधता को निम्नलिखित प्रकार से प्रभावित करते हैं
◆ ग्लोबलीकरण द्वारा भोजन उत्पादन एवं कृषि में अत्यधिक परिवर्तन हुए हैं।
◆ ग्लोबल बाजार अधिक कीमत वाले पदार्थ सोयाबीन, कॉफी, कपास, तेल, जैव ईंधन की माँग करते हैं, जिससे पारितन्त्र एवं छोटे कृषि कार्यों को नुकसान पहुँचता है तथा एकलकरण में वृद्धि होती है।
◆ कृषि एवं कृषि तकनीकों का ग्लोबलीकरण प्रजाति की विलुप्तता का एक मुख्य कारण हैं।
◆ जनसंख्या वृद्धि से पारितन्त्र की सेवाओं की माँग में वृद्धि होती है, जो जैव-विविधता को प्रभावित करने का एक मुख्य कारण हैं।
जैव-विविधता में कमी के प्रभाव (Effects of Loss of Biodiversity)
(i) पादप उत्पादकता में कमी
(ii) पर्यावरण की प्रतिरोधक क्षमता में कमी
(iii) सूखे जैसी प्राकृतिक आपदा तथा पारितन्त्र में विभिन्नताओं का प्रसार जैसे पादप उत्पादकता, जल उपयोग व रोग, आदि।
जैव-विविधता का संरक्षण (Conservation of Biological Diversity) 
जैव-विविधता संरक्षण, जीवों की सुरक्षा, संरक्षण एवं उनकी विभिन्न प्रजाति को बढ़ावा देना है, जिससे जीवों की विभिन्न प्रजातियाँ पारितन्त्र एवं जनसंख्या का सन्तुलन बनाए रखें।
जैव-विविधता के संरक्षण हेतु प्रयास (Efforts for Conservation) 
जीवों को संरक्षित करने के लिए उन्हें सुरक्षा देना तथा उनकी संख्या में बढ़ोत्तरी करना आवश्यक है। जैव-विविधता के कम होने का कारण शिकार, आवास लुप्त होना तथा जीवों के लिए भोजन की कमी है। अत्यधिक आधुनिकीकरण से भी जैव-विविधता को हानि पहुँचती है। जैव विविधता का संरक्षण दो प्रकार से किया जाता है
(i) प्राकृतिक संरक्षण (In situ Conservation ) इस विधि में जीवों का उनके प्राकृतिक आवास में संरक्षण किया जाता है। इसमें मुख्यतया पालतू जीवों का संरक्षण ना करके जंगली जीवों का संरक्षण किया जाता है जैसे नेशनल पार्क, सेन्चुरी, जैवमण्डल रिजर्व, आदि ।
(ii) अप्राकृतिक संरक्षण (Ex situ Conservation) इस विधि में विलुप्त होने की कगार पर पहुँचे जीवों का संरक्षण होता है, जिसमें उनके जनन द्रव्य, भ्रूण को जीन बैंक, बॉटेनिकल गार्डन, आदि में संरक्षित किया जाता है।
जैव-विविधता हॉटस्पॉट (Biodiversity Hot spots) 
ये विशिष्ट स्थान होते हैं, जहाँ पर देशीय जैविक प्रजातियों की बहुत अधिक नस्चें पाई जाती हैं तथा जहाँ विलुप्तता का खतरा कम हो। किसी स्थान की देशीय प्रजाति विभिन्न कारकों से ज्यादा प्रभावित होती हैं, जिससे ये विलुप्तता की कगार पर ज्यादा पहुँचती हैं। इन स्थानों की व्याख्या को सर्वप्रथम नॉर्मन मेयर ने वर्ष 1988 में परिभाषित किया। आज के समय लगभग 25 जैव-विविधता हॉटपाट हैं।
भारत में दो हॉटस्पाट है जैसे एक पूर्वी हिमालय में तथा एक पश्चिमी घाट में।
पश्चिमी घाट (Western Ghats )
यह कर्नाटक एवं केरल में लगभग 17000 किमी की जंगल की समुद्र की तरफ वाली पट्टी है। भारत की लगभग 40% देशीय प्रजाति यही पाई जाती हैं तथा पूरे भारत महाद्वीप में लगभग 49219 देशीय प्रजातियाँ पाई जाती हैं। जिनमें से लगभग 1600 देशीय प्रजातियाँ यहाँ पायी जाती हैं।
पूर्वी हिमालय (Eastern Himalayas ) 
यह भौगोलिक रूप से पृथक स्थान है, जिसमें अलग पादप प्रजातियाँ पाई जाती हैं। ये भूटान, नेपाल तथा भारत के पड़ोसी देशों में स्थित है।
वन ( Forests)
वन धरातल का वह भाग है, जहाँ अत्यधिक पेड़ होते हैं। ये पूरे संसार में पाए जाते हैं। वन पारितन्त्र में विभिन्न प्रकार के पेड़ पाए जाते हैं, जो एक विशिष्ट वातावरण बनाते हैं, जो वहाँ के जन्तुओं व पादपों के लिए अनुकूल होता है।
वन की महत्ता ( Importance of Forests) 
जंगल के उत्पाद प्रतिदिन जीवन में उपयोगी होते हैं। ये जैव-विविधता के लिए स्थान देती है। इनसे आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण लकड़ी प्राप्त होती है।
अन्य उत्पाद जैसे रबड़, कपास, औषधि तथा भोजन पदार्थ भी वनों से प्राप्त होते हैं। ये मृदा के कटान को रोकते हैं, वातावरण, वर्षा, मौसम, बर्फबारी की मात्रा तथा बाढ़ को नियन्त्रित करते हैं।
वनोन्मूलन (Deforestation)
यह वन का स्थाई रूप से समाप्त होना है, जिससे वहाँ की भूमि को रहने के लिए प्रयोग किया जा सके। वन के पेड़ों को भी लकड़ी हेतु काटा जाता है।
वनोन्मूलन के कारण (Causes of Deforestation)
(i) जंगल के पादपों का जानवरों के भोजन हेतु अत्यधिक प्रयोग
(ii) व्यावसायिकरण
(iii) लकड़ी का ईंधन के रूप में प्रयोग
(iv) कृषि व्यवसाय
(v) कृषि भूमिहीन कृषकों को जमीन देना
(vi) परिवर्तन कृषि
वनोन्मूलन के प्रभाव (Effects of Deforestation)
(i) मृदा अपरदन
(ii) मरुस्थलीकरण
(iii) वर्षा में कमी
(iv) जल स्तर में कमी
(v) जैव-विविधता में कमी
(vi) सामाजिक हलचल
वनों की सुरक्षा (Protection of Forest)
वनों को निम्न प्रकार से सुरक्षित किया जा सकता है
(i) वनों को समतल धरातल पर भी बनाया जाना चाहिए।
(ii) लकड़ी माफिया एवं भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ आन्दोलन । उदाहरण चिपको आन्दोलन ।
(iii) सूचना प्रसारण तकनीक द्वारा निरीक्षण
(iv) वनों की सुरक्षा
(v) वनों की उचित वृद्धि हेतु प्रयास
भारत में जंगलों का संरक्षण (Forest Conservation in India)
(i) अगले 10 वर्षों में हरे भारत प्लान (Green India Plan) के लिए राष्ट्रीय आयोग का जंगलों का दुगना करने का लक्ष्य।
(ii) 15.3 मिलियन हेक्टेयर में फैली 88 राष्ट्रीय उद्यान एवं 490 वन्यजीव सेन्चुरी ।
(iii) राष्ट्रीय एक्शन प्लान का जंगलों के प्रसार व उत्तमता पर वातावरण परिवर्तन के प्रभाव का निरीक्षण |
REDD (Reducing Emission from Deforestation and Forest Degradation) यह प्रक्रिया संयुक्त राष्ट्र वातावरण परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेन्शन (UN FCCC) के अन्तर्गत 2005 से आती है, जो विकासशील देशों में जंगलों के विस्तार द्वारा ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव को कम करती है।
REDD + (बाली एक्शन प्लान) 13 दिसम्बर, 2007 को COP पर UNFCCC ने इसे स्वीकार किया। यह जंगलों के • उन्मूलन व समाप्ती के साथ-साथ उनके संरक्षण, उचित रख-रखाव व वृद्धि पर भी कार्य करती है।
झील (Wetlands)
यह पानी से भरा धरती का भाग है, जो मौसम के अनुसार एक पूर्ण पारितन्त्र बन जाता है। इसकी पृथक मृदा एवं पादप उत्पादन इसे दूसरे जलीय स्रोतों से पृथक करती है। इसमें मुख्यतया जलीय पादप उगते हैं। ये जल के शुद्धीकरण, बाढ़ नियन्त्रण एवं किनारों की सामान्य स्थिति को बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सभी पारितन्त्रों में ये सबसे अधिक जैव-विविधता (biologically diverse) रखते हैं, जहाँ पादप व जन्तुओं की बहुत सारी प्रजातियाँ पाई जाती हैं।
रामसर सम्मेलन (Ramsar Convention)
यह ईरान के रामसर (ईरान का समुद्रतट) में मान्य किया गया एक अन्तर्राष्ट्रीय प्रस्ताव था, जो झीलों के संरक्षण व उचित उपयोग हेतु बना था। यह प्रस्ताव 2 फरवरी, 1971 में मान्य हुआ तथा 21 दिसम्बर, 1975 को कार्यरत हुआ। यह सबसे पुराना विशिष्ट सम्मेलन है, जिसमें न सिर्फ झीलों का संरक्षण बल्कि उनके उचित उपयोग पर भी ध्यान दिया गया। उसमें उस समय लगभग 158 पार्टियाँ (देश) शामिल थी तथा इसमें 1831 अन्तर्राष्ट्रीय उपयोगी झीलों की सारणी बनाई गई।
मैन्यूव (Mangroves)
ये कई वन पारितन्त्रों का संग्रह है, जिसमें अत्यधिक जल भरा होता है। ये धरातल व समुद्र के बीच का भाग है। ये मृदा अपरदन को रोकते हैं तथा समुद्र से फिर धरातल का निर्माण करते हैं। इनके पेड़ घर बनाने हेतु लकड़ी देते हैं तथा टेलीफोन के तारों हेतु डण्डे एवं सजावट हेतु लकड़ी भी देते हैं।
वन्यजीवन पर विभिन्न राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन (Different National and International Conventions on Wildlife) 
भारत, वन्यजीवन संरक्षण से सम्बन्धित विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का हिस्सा है।
लुप्तप्राय प्रजातियों के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार सम्मेलन (Convention on International Trade in Endangered Species or CITES) 
भारत सरकार ने विलुप्तता की कगार पर खड़े पादप व जन्तुओं के अन्तर्राष्ट्रीय आवागमन पर 20 जुलाई, 1976 को इस प्रस्ताव को मान्य किया। इसके अनुसार, ऐसी प्रजातियों के उपयोग पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई, जो विलुप्तता के खतरे में है।
बाघ शिखर सम्मेलन (The Tiger Summit)
बाघ वाले राज्यों की सरकार द्वारा नवम्बर, 2010 में ग्लोबल टाइगर रिकवरी प्रोग्राम (global tiger recovery programme) बनाया गया। इसका लक्ष्य 2022 तक बाघों की संख्या को दुगना करना है।
वन्य जीवों की तस्करी के खिलाफ संघ (The Coalition Against Wildlife Trafficking or CAWT)
यह अन्तर्राष्ट्रीय सरकारों, संघठनों व व्यापार संघों का एक संयुक्त प्रयास है, जिसका मुख्य उद्देश्य वन्यजीवों के गैरकानूनी आवागमन को रोकना है। भारत ने संयुक्त राज्य के साथ इसके सहयोग में हाथ मिलाया। इसके लिए प्रथम मीटिंग 2007 फरवरी में नैरोबी में हुई।
वर्ल्ड वाइड फण्ड (World Wide Fund for Nature or WWF)
यह एक गैर सरकारी अन्तर्राष्ट्रीय संघ है, जो वातावरण के संरक्षण, अनुसन्धान व पुनः संयोजन पर कार्य करता है, जो कनाडा व संयुक्त राज्य में उपस्थित है।
यह संसार का सबसे बड़ा स्वयं चलित (self-powered) संगठन है, जिसके संसार भर में 5 मिलियन से ज्यादा समर्थक (supporters) हैं, जो 100 से ज्यादा देशों में 1300 प्रोजेक्ट पर कार्य करते हैं। WWF के स्थापित होने वाले वर्ष में ही इन्होंने जिआंट पाण्डा ची ची को बीजिंग के चिड़ियाघर से लन्दन के चिड़िया घर में भेजा।
व्यापार रिकॉर्ड विश्लेषण (Trade Records Analysis of Fauna and Flora in Commerce or TRAFFIC) 
TRAFFIC खतरे में पड़ी प्रजाति के व्यापार का निरीक्षण करता है तथा CITES एवं SSC के साथ मिलकर उनके व्यापार को नियन्त्रित एवं उसे उचित बनाता है।
संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन – विश्व स्वास्थ्य संगठन [United Nation Educational, Scientific and Cultural Organisation : (UNESCO) – World Health Organisation : (WHO)]
UNESCO संसारिक विरासत सम्मेलन (world heritege convention) संसार की विरासत जगहों की सूची बनाता है, जिसमें सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक दोनों की जगह शामिल होती है। पर्यावरण एवं वन विभाग का वन्यजीवन विभाग इसके साथ जुड़ा हुआ है।
भारत में चार मुख्य विरासत स्थल हैं, जिन पर इसके अनुसार कार्य होता है जैसे काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, मानस राष्ट्रीय उद्यान, नंदा देवी राष्ट्रीय उद्यान एवं केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान ।
प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण का सम्मेलन (Convention of Conservation of Migratory Species or CMS) 
भारत इस सम्मेलन का एक सदस्य है, जो प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण हेतु बनाया गया है। इसे वर्ष 1983 से बोन सम्मेलन (Bonn Convention) भी कहते हैं। इसने फरवरी 2007 में बैकांक में CMS के साथ एक सहमति ज्ञापन (Memorandum of Understanding ) पर हस्ताक्षर किए। इसका उद्देश्य समुद्री कछुओं एवं उनके निवास स्थान की भारतीय सागर व दक्षिणी पूर्वी एशिया में सुरक्षा करना है।
जैव-विविधता का सम्मेलन (Convention on Biological Diversity or CBD) 
यह जैव-विविधता के संरक्षण के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन है। इसके तीन मुख्य उद्देश्य हैं
(i) जैव-विविधता का संरक्षण
(ii) इसके उत्पादों एवं भागों का उचित उपयोग
(iii) आनुवंशिक स्रोतों के लाभों का सही एवं बराबर उपयोग
यह सम्मेलन 5 जून, 1992 को रियो डी जेनेरो (ब्राजील) में अर्थ सम्मेलन में पारित हुआ तथा 29 दिसम्बर, 1993 को कार्यरत हुआ।
संवैधानिक भारत का वनस्पति विज्ञान (Botanical Garden of India Republic or BGIR) 
संवैधानिक भारत का वनस्पति उद्यान (Botanical Garden) अप्रैल 2002 में बना। यह भारत के वनस्पति सर्वे का एक हिस्सा था। इसे ग्रीन चैनल प्रोजेक्ट कहा गया, जो विज्ञान एवं तकनीक मन्त्रालय के राष्ट्रीय जय विज्ञान एवं तकनीक विभाग के अन्तर्गत आता है तथा इसे प्लानिंग आयोग द्वारा मान्य किया गया।
जैव सुरक्षा पर कार्टाजेना प्रोटोकॉल (Cartagena Protocol on Biosafety) 
29 जनवरी, 2000 में, जैव-विविधता सम्मेलन के सभी सदस्यों ने यह प्रस्ताव भी स्वीकार किया। इसका उद्देश्य भी जैव-विविधता का संरक्षण है।
प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संघ (International Union for Conservation of Nature and Natural Resources or IUCN) 
इस संघ द्वारा वर्ष 1963 से विलुप्तता की कगार पर खड़ी प्रजातियों की सूची बनाता है, जिसे लाल सूची (red list) कहते हैं।
जीवों के मरने की दर, जनसंख्या, भौगोलिक निवास स्थान एवं जनसंख्या विस्तार के आधार पर इसमें जीवों को 9 वर्गों में बाँटा गया है।
IUCN लाल सूची वर्गीकरणं (The IUCN Red List Classification) 
विलुप्त (Extinct) कोई जीवित जीव नहीं ।
जंगल में विलुप्त (Extinct in Wild or EW) सिर्फ कैद में जीवित ज्ञात।
अत्यधिक खतरे में पड़ी प्रजाति (Critically Endangered or CR) विलुप्त होने की कगार पर खड़ी प्रजाति ।
खतरे में पड़ी प्रजाति (Endangered) जंगलों में समाप्ति की ओर जाती प्रजाति ।
भेद (Vulnerable or Vn) जंगलों में समाप्ति के खतरे की ओर जाती प्रजाति।
खतरे के पास (Near Threatened or NT) भविष्य में खतरे की ओर जाती प्रजाति ।
कम चिंतित (Least Concern or LC) कम खतरे में
डेटा की कमी (Data Deficient or DD) विलुप्तता के खतरे के निरीक्षण हेतु डेटा की कमी।
अमूल्यांकित (Not Evaluated or NE) इस मापदण्ड में अमूल्यांकित ।
भारत में विलुप्तता के खतरे में पड़ी प्रजाति (Endangered Species in India) 
√ IUCN की लाल सूची किताब के अनुसार भारत में 47 प्रजाति विलुप्तता के अत्यधिक खतरे में हैं।
√ 18 फरवरी, 2012 को अर्थ सम्मेलन में जारी लाल सूची (2012) में भारत में 132 पादप व जन्तु प्रजाति अत्यधिक खतरें हैं।
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Ajit kumar

Sub Editor-in-Chief at Jaankari Rakho Web Portal

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