फ़ॉयड के मनो-लैंगिक सिद्धान्त का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।

फ़ॉयड के मनो-लैंगिक सिद्धान्त का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। 

उत्तर— फ्रॉयड के व्यक्तित्व के मनोलैंगिक विकास का सिद्धान्त(Freud’s Psycho Sexual Development)– फ्रॉयड ने अपने मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्त में इदं की शक्तियों को काम शक्ति के रूप में चित्रित किया है। वे शक्तियाँ बहुत ही प्रभावशाली ढंग से अपने को विकासात्मक अवस्थाओं में अभिव्यक्त करती हैं। ये शक्तियाँ व्यक्ति के विकास के साथ-साथ शरीर के विभिन्न सुख, उत्तेजना के क्षेत्रों से गुजरती है अर्थात् शारीरिक विकास की अवस्थाओं के साथ-साथ कामसुख या तृप्ति के अंग भी स्थानान्तरित होते रहते हैं। इसी के आधार पर फ्रॉयड ने मनोलैंगिक विकास के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है । मनोलैंगिक विकास की अवस्थाएँ—

(1) मुखीय अवस्था (Oral Stage, First Year)– फ्रॉयड के अनुसार जीवन के प्रथम वर्ष में कामेष्णा की तृप्ति का क्षेत्र मुख होता है। इससे तात्पर्य है कि नवजात शिशु अपने मुख और उससे सम्बन्धित अंगों द्वारा अपनी कामोत्तेजना की तृप्ति करता है । नवजात शिशु खाना, चूसना, काटना आदि इन सभी प्रक्रियाओं द्वारा सुख प्राप्त करता है । मुखवर्ती निष्क्रिय व्यक्तित्व वाले व्यक्ति आशावादी सहयोगी, विश्वासी पर निर्भर होते हैं जबकि मुखवर्ती आक्रामक व्यक्तित्व वाले निराशावादी, प्रभुत्ववादी, शोषक एवं परपीड़क हो सकते हैं।
(2) गुदा अवस्था (Anal Stage, 2-3 Year)– जीवन के दूसरे या तीसरे वर्ष में शारीरिक अवशिष्ट को शरीर से बाहर निकालना सुख का साधन बन जाता है। मल का त्याग गुदा द्वार से होता है । अतः उस अवस्था का नाम गुदीय अवस्था रखा अवस्था रखा गया है। सामाजिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुसार मल-मूत्र त्याग का प्रशिक्षण की अवधि में ही अभिभावकों द्वारा मल-मूत्र त्यागने की आदतों का निर्माण किया जाता है। परिणामतः भविष्य में व्यक्ति के व्यक्तित्व में अनेक विशेषताओं का निर्माण हो सकता है। इस अवस्था में अधिक उत्तेजना होने पर वयस्क व्यक्ति में गुदा आक्रामक व्यक्तित्व विकसित होता है। जो क्रूरता, विद्वेष, उथल-पुथल, तोड़-फोड़ जैसे व्यक्तित्व के गुणों को प्रदर्शित करता है।
(3) लैंगिक अवस्था (Phallic Stage, 3-5 Year)— जीवन के तीसरे वर्ष में शिशु विकास की लैंगिक अवस्था में प्रवेश करता है। इस अवस्था में काम तृप्ति का क्षेत्र मुख और गुदा न होकर काम- अंग ही होता है। सामान्यतया शिशु जिज्ञासावश अपने काम अंगों को स्पर्श करता है और छेड़ता है। जिसके परिणामस्वरूप शिशु को सुख का अनुभव होता है लेकिन लिंग के स्पर्श या उससे खेलने पर अभिभावक शिशु को डाँटता है तथा इस क्रिया को करने के लिए प्रतिबन्धित करता है इस अवस्था में शिशु अपने से विपरीत लिंग के अभिभावक के प्रति आकर्षित होता है एवं अपने ही लिंग के अभिभावक के लिए उसके मन में प्रतिद्वन्द्वात्मक भावना का निर्माण हो सकता है। बालक अपनी माँ के लिए स्नेह प्रेम एवं चाह का अनुभव करता है वहीं दूसरी तरफ अपने पिता के लिए प्रतिद्वन्द्विता एवं प्रतिस्पर्धा का भाव व्यक्त करता है।
(4) सुप्तावस्था (Latency 5-6 to 11 Year)– जीवन के इस चरण में आते-आते बालक (शिशु) की लैंगिक अवस्था का समाधान होने लगता है। इस अवस्था में शिशु में ऐसी मनोदशा का विकास होता है जिससे वह अपने ही लिंग के अभिभावक के प्रति आकर्षित होने लगता है एवं उनके साथ तादात्मय स्थापित कर सहयोग की भावना से रहने लगता है। इस अवस्था में सम्भवतः पराअहम् का अंकुरण प्रारम्भ हो जाता है जो लैंगिक अवस्था के अन्त में आता है। इस अवस्था में पराअहम् धीरे-धीरे परिपक्वता की ओर बढ़ता है।
(5) जननेन्द्रिय अवस्था (Genital Stage, Puberty to Adult)– जीवन का यह चरण मनोलैंगिक की अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में आते-आते बालक किशोर हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप कामेच्छा पुनः बलवती होकर प्रकट होती है। इस अवस्था में शमित एवं दमित कामेच्छाएँ पुनः जागृत होती हैं एवं बालक विपरीत लिंग की ओर आकर्षित होने लगता है। अतः यह अवस्था वयस्क कामोत्तेजना एवं कामुकता का प्रतिनिधित्व करती है।
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