महादेवी वर्मा

महादेवी वर्मा

1.
विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात ! 
वेदना में जन्म करुणा में मिला आवास,
अश्रु चुनता दिवस इसका अश्रु गिनती रात !
जीवन विरह का जलजात !
छायावादी कवयित्री शीर्षक गीत से गृहीत है। यहाँ महादेवी की कविता करुणा की महागाथा है। व्याख्येय काव्यांश महादेवी वर्मा रचित ‘विरह का जलजात जीवन’ कवयित्री की विरह-वेदना की अभिव्यक्ति हुई है। कवयित्री ने विरहाकुल जीवन का दार्शनिक पक्ष उद्घटित किया है।
उक्त पंक्ति में महादेवी कहती हैं कि उसका पूरा जीवन विरह का कमल है। जिस प्रकार कमल कीचड़ में उत्पन्न होकर जल में रहता है उसी प्रकार उसका अपना जीवन भी दुख और वेदना में उत्पन्न होकर करुणा रूपी जल में निवास करता है। उसका जीवन दुख का जीवन है। अपने जीवन में वह आँसू को चुनते-बीनते अपना दिन बिताती है और आँसू को गिनते-गिनते अपनी रात व्यतीत करती है। कवयित्री की इन पंक्तियों में विरह का अत्यंत जीवंत रूप मिलता है। शब्द-चयन में महादेवी अत्यंत सतर्क रहती है। ‘विरह का जलजात’ में रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है।
2.
क्या पूजा क्या अर्चन रे ? 
उस असीम का सुंदर जीवन मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे ! 
मेरी श्वासें करती रहतीं नित प्रिय का अभिनन्दन रे ! 
पद रज को धोने उमड़े आते लोचन से जल-कण रे !
अक्षत पुलकित रोम-मधुर मेरी पीड़ा का चंदन रे ! 
छायावादी कविता में उस असीम के प्रति जिज्ञासा भाव के साथ-साथ उसके प्रति एक निजी भक्ति-भाव भी दिखता है। आधुनिक मीरा कही जाने वाली छायावादी कवयित्री महादेवी की उक्त व्याख्येय पंक्तियाँ उनकी कविता ‘क्या पूजन क्या अर्चन रे’ से ली गई हैं। इन पंक्तियों में महादेवी कहती हैं कि उस असीम को स्थूल और बाहरी पूजा, वंदना और अर्चना की क्या आवश्यकता? मेरा छोटा-स जीवन स्वयं में उपासना-स्थल है। मेरे इस सीमित जीवन में ही उस असीम सत्त का मोहक-सा मंदिर वास करता है। मेरी एक-एक सांस उस प्रियतम की प्रतीक्षा करती रहती है। यह प्रतीक्षा उनके स्वागत के लिए की जाती है। उस प्रियतम के सुंदर, मोहक और कोमल पाँव को ध ने के लिए मेरी आँखों से आँसू का जल प्रवाहित होता है। मेरा रोम-रोम उस असीम सत्ता की पूजार्थ अक्षत है और मेरी पीड़ा का एक-एक कतरा चंदन।
उक्त पंक्तियों में कवयित्री ने अपने अंग-अंग को उपासना की सामग्री बताया है। इसमें ‘जीवन रूपी मंदिर’ ‘सांसे रूपी अभिनंदन’, ‘आंसू रूपी अर्घ्य’, ‘रोम रूपी अक्षत’ तथा ‘पीड़ा रूपी चंदन’ में सांगरूपक अलंकार है। कविता में टेक की पंक्ति ‘क्या पूजन क्या अर्चन’ बहुत मधुर, कोमल और संगीत प्रधान है।
3.
मधुर मधुर मेरे दीपक जल । 
युग युग का प्रति दिन प्रतिक्षण प्रतिपल । 
प्रियतम का पथ आलोकित कर ।
सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम सा घुल रे मृदु तन; 
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित, 
तेरे जीवन का अणु गल गल।
पुलक पुलक मेरे दीपक जल।
प्रस्तुत व्याख्येय काव्यांश कवयित्री महादेवी वर्मा रचित ‘मेरे दीपक’ शीर्षक गीत से गृहीत है। यहाँ कवि ने अपने जीवन को दीपक के रूप में कल्पित करते हुए अपने अज्ञात प्रियतम के प्रति अपनी तीव्र समर्पण भावना की अभिव्यक्ति की है। महादेवी कहती हैं कि मेरा जीवन रूपी दीप आनंदपूर्वक जलता. रहे। क्योंकि मेरा यह जीवन-दीप मेरा नहीं मेरे उस प्रियतम का जीवन है, जो असीम है, अनंत है। यह दीप जलता इसलिए रहे कि प्रत्येक युग में, प्रति क्षण में, प्रति पल में कभी भी मेरा प्रियतम आये तो उसका पथ प्रकाशित रहे। उसे मेरे पास आने में कोई कठिनाई न हो। अंधकार रूपी बाधाएँ उसे आने में रोड़ा न अटकाए। मेरा जीवन रूपी दीपक जल-जल कर धूप सा सुगंध बिखेरे, मेरा शरीर मोम की तरह घुल-घुल जाय। उसके आंसू प्रकाश का अपरिमित सागर को भर दे ऐसी उसकी कामना है। उसकी कामना है कि  उसका मन दीपक पुलकित होता जलते रहे।
4.
सीमा की लघुता का बंधन 
है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन
मैं दृग के अक्षय कोषों से
तुममे भरती हूँ आंसूजल;
सजल-सजल मेरे दीपक जल । 
असीम और अज्ञात सत्ता के प्रति महादेवी का लगाव सर्वविदित है। उक्त व्याख्येय पंक्तियाँ उनकी कविता ‘मेरे दीपक’ से उद्धृत है जिसमें वे असीम सत्ता के महात्म्य और अपनी लघुता का रेखांकन करते हैं। कवयित्री महादेवी वर्मा कहती है कि उसका अस्तित्व अत्यंत सीमित है, तुच्छ है और विभिन्न तरह की सीमाओं में जकड़ा हुआ है लेकिन मेरी कामना है कि मेरा जीवन-दीप अनादि और अनंत रहे, वह अहर्निश जलता रहे। उसकी आँखों से अनवरत आँसू बहता रहे। अपने अज्ञात प्रियतम के वियोग में उसमें प्राण जलते रहें, उसकी आँखों आँसू बहाते रहें, यही मेरी आकांक्षा है। यहाँ अपने प्रियतम के प्रति विरहात्मक-लगाव को कवयित्री ने बड़े ही सुंदर ढंग से व्यक्त किया है। ‘हमको अक्षय कोषों’, ‘आंसू जल’, में रूपक और ‘सजल-सजल’ में निरूक्ति अलंकार की योजना महादेवी ने की है।
5.
मैं नीर भरी दुख की बदली । 
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा, 
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनों में दीपक से जलते
पलकों में निर्झरिणी मचली !
दुख, विरह, वेदना तथा पीड़ा आदि की सुंदर काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा की ‘बदली’ कविता कई कारणों से महत्वपूर्ण है। सर्वप्रथम तो यह कविता महादेवी की चंद अति लोकप्रिय कविताओं में एक है। प्रस्तुत व्याख्येय पंक्तियाँ इसी कविता से ली गई है।
कवयित्री का कहना है कि उसका संपूर्ण जीवन जल भरे बादलों के समान है जो सदा आसुओं से भरा रहता है। उसके प्राणों के कंपन में एक चिर जड़ता अन्तर्निहित है। जब वह रोती है तो संसार हँसता है। विरह-वेदना के दीपक उसके नेत्रों में सदा ही जलती रहते हैं उसके पलकों के कोर से मानो नदी बहती रहती है। उसके जीवन-दीप में उसके नेत्रों से वर्षा रूपी जल सदैव भरते रहते हैं।
अलंकार का प्रयोग करने महादेवी अत्यंत कुशल है। इन पंक्तियों में भी रूपक और उपमा अलंकार का सौंदर्य देखा जा सकता है। भाषा की मधुरता तो उनकी कविताओं में मिलती ही है।
6.
विस्तृत नभ का कोई कोना 
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली।
मानव जीवन की नितांत अस्थिरता और असंभव्यता की ओर संकेत करने वाली ये पंक्तियाँ महादेवी वर्मा की सुप्रसिद्ध कविता ‘बदली’ से ली गयी है। पंक्तियों में जीवन और जगत की क्षणभंगुरता को महादेवी ने काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है। कवयित्री का कथन है कि आकाश में रहकर भी बदली के लिए आकाश का कोई भी कोना अपना नहीं होता। अपना परिचय और इतिहास वह इतना भर मानती है कि जिस प्रकार बदली आकाश में उमड़ती-घुमड़ती आयी चल दी। उसी प्रकार इस विस्तृत संसार में वह स्वयं को अकली मानती है जिसके लिए संसार का कोई भी कोना अपना नहीं है। अपना परिचय और इतिहास उसके लिए केवल इतना है कि कल उसका जन्म हुआ और आज वह जा रही है। वस्तुतः मानव-जीवन के साथ भी यही स्थिति है जिसका जन्म होता है उसे एक दिन मरना होता है। जीवन-मृत्यु का यह क्रम सदैव चलता रहता है, अर्थात् मानव नश्वर है।
यहाँ कविता में कवयित्री का जीवन के प्रति दुख और अनासक्ति का भाव प्रकट हुआ है। पंक्तियों में रूपक अलंकार का प्रयोग दिखता है।
7.
झंझा है दिग्भ्रांत रात की मूर्छा गहरी, 
आज पुजारी बने ज्योति का यह लघु प्रहरी, 
जब तक लौटे दिन की हलचल
तब तक यह जगेगा प्रति पल
रेखाओं में भर आभा-जल
दूत साँझ का इसे प्रभाती तक चलने दो। 
छायावादी कवयित्री महादेवी वर्मा की कविताओं में दीप, दीपक, आंसू कई अलग-अलग प्रतीकों में व्यवहृत हुए पंक्तियाँ जो उनकी प्रसिद्ध कविता ‘मंदिर दीप’ से ली गई है, में भी इस विशिष्टिताओं को परखा जा सकता है। कवयित्री कहती हैं कि झंझा यानी वायु का अंधड़ अपनी दिशा भूलकर सवेग चल रहा है और रात्रि गहरी मूर्छा में सो रही है। उसका प्राण रूपी दीपक प्रकाश का मानो एक छोटा-सा पहरेदार है, जो आज अपने प्रिय का पुजारी बनेगा। उसका प्राण रूपी दीपक प्रात:काल के आने तक अनवरत प्रतिपल जलता रहेगा, जागता रहेगा। अतः प्रभाती गाये जाने तक संध्या समय आये प्रकाश से उसकी रेखाओं को रूके रहने दो यानी उसका जीवन-दीप मिलन रूपी प्रात:काल आगमन तक जलता रहे, ऐसी कवयित्री की कामना है। यहाँ रूपक और अनुप्रास अलंकार का सुंदर प्रयोग हुआ है।
8.
नयन में जिसके जलद वह तृषित चातक हूँ, 
शलभ जिसके प्राण में वह निठुर दीपक हूँ, 
फूल को उर में छिपाये विकल बुलबुल हूँ, 
एक होकर दूर तन से छाँह वह चल हूँ;
दूर तुमसे हूँ अखंड सुहागिनी भी हूँ। 
छायावाद में आत्मा-परमात्मा के संबंधों की व्याख्या कई रूपों में की गई है। महादेवी की सुप्रसिद्ध कविता ‘बौन भी हूँ’ में हम इस संबंध को देख सकते हैं।
महादेवी वर्मा इन पंक्तियों में परमात्मा के प्रति अपने भाव व्यक्त करते हुए कहती हैं कि मैं वह चातक हूँ जो अपने प्रिय के दर्शन के लिए व्याकुल हूँ, प्यासी हूँ। उसकी आँखों में उस परमात्मा रूपी प्रिय के विरह से आँसू लबालब भरे रहते हैं। आगे कवयित्री कहती हैं कि मैं उस निष्ठुर दीपक के समान हूँ जिसकी लौ में फतिगें जल जाते हैं। आगे कवयित्री अपने को उस बुलबुल के समान समझती है जो फूल की गोद में अपने प्राण रक्षार्थ छिपे रहते हैं। अंत में वह स्वयं को ऐसी चंचल छाया मानती है जो शरीर से मिली होकर भी उससे दूर रहती है। कवयित्री अपने आपको अपने प्रियतम से दूर बहुत दूर किंतु अखंड सुहागिनी मानती है।
9.
“पंथ रहने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला,
 घेर ले छाया अम बन 
आज कज्जल अश्रुओं में रिमझिम ले यह घिरा घन 
और होंगे नयन सूखे,
तिल बुझै औं, पलक रूखे,
आर्द्र चितवन में यहाँ शत विद्युतों में दीप खेला।”
प्रस्तुत व्याख्येय पंक्ति महादेवी वर्मा की प्यारी कविता ‘पंथ अपरिचित’ से उद्धृत है। यहाँ कवयित्री ने अपनी असीम वेदना को काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है। कवयित्री कहती है कि उसका मार्ग अपरिचित है, जिस पर उसके प्राण अकेले चल रहे हैं। फिर भी उसे कोई चिंता नहीं है। इसके प्राणमार्ग में अकेले चलकर ही अपने प्रिय को खोज लेंगे। आशय यह कि परमात्मा रूपी प्रिय के मिल जाने का विश्वास उसमें प्रबल है। मार्ग की बाधाओं और कष्टों के संदर्भ में उसका मानना है कि उसकी छाया ही अमावस्या की अंधेरी रात बनकर उसे क्यों न घेर ले या फिर उसका व्यथित मन घिरे हुए बादल के समान उसके विरहाश्रुओं के रूप में बस जाये फिर भी अनवरत वह अपने प्रिय की खोज में लगी रहेगी। उसके नेत्र फिर भी सूखे बने और पलक रूखे रहेंगे। किंतु अमावस्या की उस अंधेरी रात में भी आर्द्र होता चितवन सैकड़ों विद्युत रेखाओं में दीपक की तरह जगमग करता रहेगा। यहाँ भाषा माधुर्य गुण से युक्त है। इन पंक्तियों में अनुप्रास एवं रूप का तिरायोक्ति अलंकार का सौंदर्य निखर कर सामने आया है। ।

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