मौखिक भाषा के अर्थ, उपयोग, सिद्धान्त व महत्त्व को स्पष्ट करें।

मौखिक भाषा के अर्थ, उपयोग, सिद्धान्त व महत्त्व को स्पष्ट करें।

                             अथवा
मौखिक व लिखित भाषा का विस्तार से वर्णन करें।
उत्तर— मौखिक भाषा का अर्थ– भाषा का मौखिक रूप सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। शिक्षितों, अशिक्षितों सभी में विचारों का आदानप्रदान अधिकतर मौखिक भाषा के माध्यम से ही होता है । इसके पश्चात् लिखित भाषा की बारी आती है। लिखित भाषा विचारों को आगे की पीढ़ियों तक बढ़ाने से मौखिक भाषा की अपेक्षा कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है । सांकेतिक भाषा का भी अपना महत्त्व है । भाषा की विधाओं की दृष्टि से सांकेतिक भाषा की जो आवश्यकता भाव-प्रधान कविता, कहानी और नाटक में है, वह अन्य विधाओं के शिक्षण में नहीं। अतः स्पष्ट है कि क्षेत्र की व्यापकता की दृष्टि से सबसे अधिक महत्त्व मौखिक भाषा का है, उसके पश्चात् लिखित भाषा का और सबसे कम सांकेतिक भाषा का । किन्तु स्थायितव की दृष्टि से जो महत्त्व लिखित भाषा का है, वह मौखिक एवं सांकेतिक भाषा का नहीं ।
भाषा के विभिन्न रूपों के महत्त्व पर चार करने के पश्चात् अब हम भाषा के विभिन्न रूपों के उद्देश्यों को मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त कर सकते हैं—
(1) अर्थग्रहण सम्बन्धी उद्देश्य तथा
(2) अभिव्यक्ति सम्बन्धी उद्देश्य
पुनः अर्थग्रहण भी प्रकार से सम्भव है–
(i) सुनकर तथा (ii) पढ़कर
इनमें पहला मौखिक रूप है और दूसरा लिखित । इसी प्रकार अभिव्यक्ति भी मौखिक एवं लिखित रूपों में दो प्रकार से सम्भव है–
(i) बोलकर तथा (ii) लिखकर
इस प्रकार इन सभी को मिलाकर भाषा शिक्षण के सामान्य उद्देश्य निम्नलिखित होंगे—
(i) वे दूसरों की बातों को सुनकर अर्थग्रहण कर सकें।
(ii) पढ़कर अर्थग्रहण कर सकें ।
(iii) बोलकर अपनी बात को कह सकें।
(iv) लिखकर अपने विचारों को अभिव्यक्त कर सकें ।
मौखिक उद्देश्य—
(1) मौखिक आत्मीकरण एक उद्देश्य है– भावों में आदान-प्रदान द्वारा उत्तेजित भावनाओं को शान्त कर समाज में शान्ति और सन्तुलन बनाए रखना। ऐसे समाज में संगठन और ताकत होती है, जिससे उसके सदस्य अपने भावों का आपस में आदान-प्रदान करते रहते हैं।
(2) मौखिक अभिव्यक्ति का दूसरा उद्देश्य है–आत्मविज्ञापन | आत्म प्रकाशन द्वारा व्यक्ति आत्म विज्ञापन करता है, कभी-कभी झूठ का सहारा लेकर अपने सम्बन्ध में बढ़ा-चढ़ाकर बातें करता है। आत्म सन्तोष ही आत्म विज्ञापन का परिणाम होता है।
(3) तीसरा लक्ष्य है– व्यक्ति बल विकास। जो व्यक्ति निर्भीक होकर अपनी सम्पति या विचार प्रकट कर सकता है, जो अपनी भावनाओं को वाणी द्वारा दूसरों के समक्ष प्रकट कर उन्हें अपने वश में कर लेता है। श्रोता उससे इतना प्रभावित हो जाता है कि तुरन्त उसके पक्ष में आ आता
मौखिक आत्मीकरण व्यक्ति की प्रधान आवश्यकता है और शिक्षा ऐसी सोद्देश्य क्रिया है, जिसके द्वारा शिक्षक की आवश्यकताओं की सन्तुष्टि की जाती है । इसलिए शिक्षक को विद्यालय में छात्रों के समक्ष भाव प्रकाशन के सभी सम्भव साधन प्रस्तुत कर उनके व्यक्तित्व का विकास करना चाहिए। शिक्षक के सामने निम्नलिखित विशिष्ट उद्देश्य होने चाहिए—
(1) बालकों में स्वाभाविक रूप से शुद्ध प्रवाहपूर्ण एवं प्रभावोत्पादन ढंग से वार्तालाप करने की योग्यता विकसित करना, ताकि वे अपने मनोभावों को सरलता से दूसरों के सामने प्रकट कर सकें ।
(2) छात्रों में क्रमिक रूप से निरन्तर बोलते जाने की क्षमता पैदा करना ।
(3) छात्रों में मधुर एवं रोचक भाषण देने की शक्ति विकसित करना ।
(4) छात्रों में संकोच शिक्षक और आत्महीनता की भावना को दूर करना ।
मौखिक भाषा का महत्त्व—
(1) मौखिक भाषा में वक्तृत्वकला को बहुत महत्त्व प्रदान किया गया है। इसके अतिरिक्त रोमन शिक्षा व्यवस्था में वक्तृत्वकला, वाक्चातुर्य एवं शास्त्रार्थकला को विशेष स्थान मिला था । कैथोलिक शिक्षा में भाषणकला को तथा पुनरुत्थान काल में भी भाषण-कला को महत्त्व दिया गया है। चीन और जापान की शिक्षा व्यवस्था में भी वक्तृत्वकला को महत्त्वपूर्ण – स्थान प्राप्त था ।
(2) मौखिक प्रस्तुति अधिक देर तक अपना प्रभाव छोड़ती है– भावपूर्ण ढंग से मौखिक अभिव्यक्ति मानस पटल पर एक अमिट छाप तो छोड़ती ही है साथ ही देखा गया है कि अधिक देर तक मस्तिष्क में दृढ़ रहती है, शीघ्र भूलना कठिन होता है।
(3) मौखिक अभिव्यक्ति व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व का परिचायक है– वाणी किसी भी व्यक्ति की अन्तरात्मा का उद्घाटन करती है। हम उसके बोलचाल के ढंग से उसके व्यक्तित्व की विशेष प्रकृति का आभास कर लेते हैं। वाणी पर नियंत्रण करने वाला और संयत होकर अपने विचारों की अभिव्यक्ति करने वाला व्यक्ति ही सदैव उन्नत, शान्त एवं आत्म-निग्रही बन सकता है। जनमानस पर अपने विचारों की छाप छोड़ सकता है। उसकी असंयमित वाक् प्रस्तुति जहाँ उसे असम्मानित बनाती है, वहीं वाक्चातुर्य उनके व्यक्तित्व में चार चाँद लगाता है।
(4) साधारण रूप से समस्त जन समाज में भी मौखिक भाषा का अपना महत्त्व है– मौखिक भाषा निश्चित रूप से लिखित भाषा से अधिक प्रभावपूर्ण मानी गयी है। मौखिक भाषा में वह शक्ति है जो निरक्षरी एवं सामान्य जन को भी उद्वेलित और स्पन्दित कर दे। ध्वनियों का आरोह-अवरोह भावानुरूप वाणी का कम्पन, ओजस्विता और उचित हाव-भाव से प्रस्तुत की गई भाषा, अभिव्यक्ति अवश्य ही प्रभावित करती है। अस्तु, शिक्षण को अधिक प्रभावी बनाने के लिए भी यह आवश्यक है कि बोलचाल अथवा वार्तालाप में भी निपुणता लायी जाए।
(5) मौखिक अभिव्यक्ति का क्षेत्र लिखित अभिव्यक्ति की अपेक्षा अधिक व्यापक है— आज के युग में भी अभी ऐसी अनेक भाषाएँ देखने-सुनने में आती हैं जिनकी कोई लिपि नहीं है अर्थात् प्रयोक्ता मौखिक रूप से ही विचारों की अभिव्यक्ति करके व्यावहारिक जीवन व्यतीत करते हैं । अस्तु, स्पष्ट है कि भाषा का मूल रूप मौखिक ही है। लिखित भाषा मुखरित भाषा का ही कालान्तर में विकसित प्रतीक रूप में ध्यन्यात्मक संकेत मात्र है ।
(6) मौखिक– शिक्षक कक्षा में सजीवता तथा रुचि उत्पन्न करता है। प्रश्नोत्तर द्वारा पढ़ाये गये पाठ में छात्र अधिक रुचि लेते हैं ।
(7) वार्तालाप के माध्मय से छात्र आत्म-अभिव्यक्ति में निपुणता प्राप्त करते हैं ।
(8) बालक के व्यक्तित्व का विकास मौखिक भाषा से ही होता है। कोई व्यक्ति मधुर, स्पष्ट तथा प्रभावशाली शब्दों द्वारा अपने व्यक्तित्व का प्रभाव अन्य व्यक्तियों पर सरलता से डाल सकता है ।
लिखित भाषा का अर्थ—
वाचन तथा पठन-पाठन में दक्षता प्राप्त करने के पश्चात् भी शिक्षा का उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पाता। इस कारण शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु एक तीसरे प्रकार के शिक्षण की आवश्यकता पड़ती है और वह है लिखाई की शिक्षा देना या लेखन-शिक्षण | लेखन-शिक्षण के विषय में—इसे पढ़ाई सिखाने से पूर्व किया जाय अथवा पढ़ाई की शिक्षा देने के पश्चात् —तीन मत हैं—
(1) प्रथम मत के अनुसार लिखाई की शिक्षा पढ़ने की शिक्षा से पूर्व दी जानी चाहिए, क्योंकि लिखाई पढ़ाई की अपेक्षा सरल है। इस मत को मानने वाली मैडम माण्टेसरी है।
(2) अन्य कुछ लोगों के विचार से लिखाई से पूर्व पढ़ाई की शिक्षा दी जानी चाहिए।
(3) तीसरे मत को मानने वालों का कहना है कि पढ़ाई  लिखाई दोनों साथ-साथ चलती रहनी चाहिए।
पढ़ाई से पूर्व लिखाई की शिक्षा देना मैण्डम माण्टेसरी की व्यक्तिगत मान्यता है, अन्यथा न तो यह मनोवैज्ञानिक ही प्रतीत होता है और न व्यावहारिक ही। मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक इसलिए नहीं कि लिखाई की शिक्षा पढ़ाई से पूर्व देना संभव नहीं है, क्योंकि किसी भी कार्य को करने के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। प्रशिक्षण में बालक की बुद्धि का विशेष स्थान होता है। पढ़ाई की प्रक्रिया बोली तथा मस्तिष्क से सम्बन्धित है, ठीक इसी प्रकार लिखाई का काम हाथ तथा मस्तिष्क से। दूसरे शब्दों में, बालकों का मस्तिष्क तो पढ़ाई और लिखाई दोनों में ही कार्य करता है। इसके अतिरिक्त, पढ़ाई मन तथा वाणी का कार्य है और लिखाई हाथ का। बालक पहले बोलना सीखता है, तत्पश्चात् अन्य बातें। पढ़ाई में अधिकांशतः वे ही शब्द आते हैं, जिनका अभ्यास बालक प्रतिदिन बोलने में करता रहता है। पढ़ाई इन्हीं शब्दों और वाक्यों की पुनरावृत्ति का शुद्ध रूप है बालक पढ़ाई पहले सीखेगा, लिखाई बाद में। तीसरा मत जो पढ़ाई और लिखाई के सम्बन्ध में दोनों के एक साथ सिखाने पर बल देता है, उस सम्बन्ध में यदि बहुत ही गहराई से और विचारपूर्वक सोचा जाए तो मानसिक क्रियाएँ एक साथ चल सही नहीं सकती। एक ही साथ दो व्यक्तियों की बात न तो सुन ही सकते हैं और न ही दो व्यक्तियों से अलग-अलग बातें एक ही साथ कह ही सकते हैं । ठीक इसी प्रकार एक ही समय में पढ़ाई और लिखाई साथ-साथ चलना संभव नहीं। कुछ न कुछ समयान्तर होना आवश्यक है, चाहे वह कुछ मिनटों या सैकण्डों का ही ही क्यों न हो
लिखित भाषा के उद्देश्य – लिखित भाषा के निम्न उद्देश्य हैं—
(1) मातृभाषा शिक्षण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है- ग्रहीत या उत्पन्न विचारों की अभिव्यक्ति ।
(2) भाषा पर पूर्ण अधिकार की दृष्टि से वाचन एवं पठन की ही भाँति लेखन की भी शिक्षा देना ।
(3) बालक व्याकरण के नियमों का पालन कहाँ तक करते हैं – इसका परीक्षण करना ।
(4) अपने विचारों और प्राप्त ज्ञान को लिखित रूप देकर दूसरों तक पहुँचाना ।
इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु लेखन-शिक्षण की आवश्यकता होती है।
लिखित भाषा का महत्त्व– लेखन-शिक्षण का अपना अलग ही महत्त्व है। इस महत्त्व को हम निम्नलिखित बातों के आधार पर समझ सकते हैं—
(1) भाषा-शिक्षण के उद्देश्यों में से एक अभिव्यक्ति की शिक्षा है। अभिव्यक्ति के भी दो रूप हैं- मौखिक और लिखित । लिखित अभिव्यक्ति तभी सम्भव है, जब लेखन क्षमता हो तथा मौखिक अभिव्यक्ति सबल हो ।
(2) किसी भी भाषा या विषय में पूर्ण दक्षता प्राप्त करने के लिए पढ़ना और लिखना दोनों ही सीखना आवश्यक है।
(3) अपने विचारों तथा भावों को मूर्त रूप देने तथा दूसरों तक पहुँचाने के लिए लेखन की आवश्यकता होती है, उदाहरणार्थ – पत्र, लेख या पुस्तक लिखकर विचारों को दूसरों तक पहुँचाना ।
(4) भाषा में संशोधन, परिवर्धन की गुजांइश तथा एकरूपता तथा स्थायित्व, लेखन के माध्यम से ही सम्भव है।
(5) विभिन्न व्यक्तियों या देशों में परस्पर अनुबन्ध और मैत्री लिखित भाषा के द्वारा ही सम्भव है ।
(6) लेखन में मस्तिष्क और उँगलियों का कार्य एक साथ चलता रहता है और नियमित अभ्यास से दोनों ही पुष्ट होते हैं।
(7) विभिन्न कालों की बदलती हुई परिस्थितियों, विचारधाराओं तथा क्रिया-कलापों से परिचित होने के लिए भाषा का लिखित रूप ही काम आता है ।
(8) वक्ता के अभाव में किसी के विचारों से अवगत होने के लिए भाषा का लिखित रूप ही काम आता है ।
(9) लेखन के अभाव में विचारों को मूर्त रूप देना तथा आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाना संभव नहीं है।
(10) लेखन के बिना साहित्य की अभिवृद्धि सम्भव नहीं।
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