लहर : एक परिचय

लहर : एक परिचय

लहर : एक परिचय
लहर में जयशंकर प्रसाद की प्रौदता के दर्शन होते हैं। इसका प्रकाशन 1933 ई0 में हुआ। ‘लहर’ की समस्त कविताओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक तो स्फुट कविताएं हैं, जिनकी मुख्य भूमिका गीतात्मक है। संग्रह के अंत में अशोक की चिंता, शेरसिंह का शस्त्र-समर्पण, प्रलय की छाया आदि अपेक्षाकृत कुछ लंबी कविताएं हैं, जिनमें इतिहास की भूमिका का कार्य करती है। लहर में प्रसाद की कुछ सर्वोत्तम कविताएं संकलित हैं। उसमें कवि की आंतरिक अनुभूति अनगढ़ रूप में प्रकाशित नहीं होती। उसे उसने चिंतन का बल प्रदान किया है। उसमें कवि के व्यक्तित्व को जो विस्तार प्राप्त हुआ है, उसे कतिपय कविताओं में सहज ही देखा जा सकता है। गीतों के लिए जिस घनीभूत भावना एवं मार्मिक नियोजन की अपेक्षा होती है, वह लहर के गीतों में देखने को मिलती है। गीतिकाव्य की दृष्टि से प्रसाद का यह संग्रह अत्यंत समृद्ध है। ले चल मुझे भुलावा देकर, बीती विभावरी जाग री, मेरी आँखों की पुतली में आदि श्रेष्ठ गीत इस में संकलित है। लहर में संकलित ‘मधुप गुनगुनाकर कह जाता कौन कहानी यह अपनी प्रसाद के व्यक्तिगत जीवन पर सांकेतिक प्रकाश डालती है।
लंबी कविता में ‘अशोक की चिंता’ पर बौद्ध दर्शन की छाया है। ‘शेरसिंह का शस्त्र समर्पण’ जालियाँवाला बाग से सम्बद्ध है। दोनों में राष्ट्रीय भावना सन्निहित है। ‘प्रलय की छाया’ लहर की विशिष्ट रचना है और इसे प्रसाद की सर्वोत्तम गोत स्ष्टि कहा जा सकता है। यद्यपि गुर्जर की रानी कमला ऐतिहासिक पात्र है पर उसके माध्यम से कवि ने नारी के आंतरिक द्वंद को अकित किया है। प्रसाद का शिल्प इस कविता में अपने सर्वोत्तम रूप में आया है। ‘झरना’ यदि गीत सृष्टि की दृष्टि से प्रयोगशाला है तो ‘लहर’ उसका उत्कर्ष।
             उठ री लघु-लघु लोल लहर : काव्य सौंदर्य
प्रसाद जी ने अपने जीवन की अनेक अविस्मरणीय मार्मिक अनुभूतियों को लहर काव्य के गीतों में संजोया है। प्रथम गीत में ही उनके हृदय की भावुकता तथा मादकता जैसे साकार हो उठी है। कवि ने कभी अपने जीवन में उन्मादपूर्ण क्षण अनुभव किया था। आज उन क्षणों की केवल स्मृति ही शेष है। अतीत के वे अविस्मरणीय क्षण कवि के मानस पर इतना अधिक प्रभाव छोड़ गए हैं कि उनके स्मरण से ही कवि के मन में यह भाव उठने लगती है, काश! वे क्षण सजीव होकर पुनः उसके जीवन को प्लावित कर सकते, जिससे उसके जीवन सागर का शुष्क तट पुनः सरस हो जाता। अतः वह शुष्क तट को सरस बनाने वाली उन लहरों का अड्वान ही प्रस्तुत गीत में करता हुआ प्रतीत होता है।
कवि कहता है कि जिस प्रकार सागर में छोटी-छोटो अनेक उर्मियाँ उठती हैं उसी प्रकार मेरे मन रूपी सागर में विगत जीवन से संबंधित अनेक भाव रूपी उर्मियाँ रह-रह कर उछलती हैं। अत: कवि को ऐसा प्रतीत होता है मानो इन नहीं लहरों के रूप में अनेक कारूणिक भावनाओं ने नई अंगड़ाई ली हो या ये भावनाएं ऐसी हों मानों मलय-पर्वत से आनेवाली वायु की छाया या परछाई से जो अपने सहज रूप में ही सुखदायिनी होती है। जिस प्रकार लहर किनारे पर आकर छिटक जाती है उसी प्रकार यदि मन के सूखे किनारे पर आकर अविस्मरणीय स्मृतियाँ छिटक जाएं, लहराकर सूखे तटों को सींच दें तो यह दर्रा हराभरा हो जाए।
कवि लहर को संबोधित करते हुए कहता है कि. तू शीतल, कोमल तथा कंपन से भरी है। बिगड़े हुए बालक के समान तू भी हठ करती है। तू तट पर आती है तो उसको शुष्कता तथा नीरसता को समाप्त कर देती है। इस खेल को तू अधिक देर खेलना पसंद नहीं करती क्योंकि तू शीघ्र ही लौट जाती है। यह तट तुझको पुकारता ही रहता है और तेरे खेलों से आनन्दित होने के लिए तुझे देव अपने पास ही रोक रखना चाहता है।
लहरें उठती हैं, तट से आकर टकराती हैं और समाप्त हो जाती हैं। हे लहर, तेरा आना और जाना नाचने के समान है। इस कारण शुष्क बालू पर भी गीलेपन के रूप में तेरे पद चिह्न अंकित हो जाते हैं। समतल रेत पर जो स्थान-स्थान पर उभार सा आ जाता है, उसको देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो तूने उसमें अपनी तरल सिहरन भर दी हो। उसी से सिहर कर जैसे बालू भी ऐंठ गई है।
आगे कवि कहते हैं कि हे भावना रूपी लहर तू जीवन के सूखे किनारे को देखकर इधर-उधर न भटक जा या किसी अन्य आकर्षण की ओर न चली जा। इससे स्मृति भटक जाएगी, अत: तू प्यार और पुलक से भरेमन रूपी सागर के अधरों का चुंबन अनवरत करती रह। इससे इन अधरों से पुन: गीत का सृजन होगा। कहने का भाव यह कि यदि मन मधुर स्मृतियों से हट कर लौकिक आकर्षण के प्रति खिंच गया तो मन में न तो उमंग उठेगी और न विगत जीवन की अनेक स्मृतियाँ जाग्रत होंगी, इससे नीरस जीवन सरसता को प्राप्त कर पुनः नवजीवन को प्राप्त न कर सकेगा। इस संसार में प्रायः प्रेम ऐसे लोगों को प्राप्त होता है जिन्हें इसकी कामना नहीं होती और इसके ठीक विपरीत प्रेम-पिपासुओं को प्रेम की प्राप्ति नहीं होती। वह प्रेम ही शुष्क जीवन में प्राणदायिनी शक्ति का संचार करता है। अतः इसका महत्व अक्षुण्ण है।
इस कविता की भाषा तत्सम बहुल किंतु कोमल है। लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता और वक्रता तो सर्वत्र विन्यस्त है। अलंकारों में उपमा, अनुप्रास का सर्वाधिक प्रयोग कविता में कवि ने किया है। लहर के लिए प्रयुक्त ‘दुर्लललित’ विशेष्ण सर्वथा नवीन है। कविता में अन्योक्ति के माध्यम से लहरों की बात कहकर कवि ने अपनी भावनाओं को भी प्रकट किया है। पंकजवन’ लौकिक आकर्षण का प्रतीक है। कविता में नवीन अर्धसम मात्रिक छंद का प्रयोग किया गया है जो प्रसादजी का अपना छंद है।

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