सात शास्त्रीय नृत्य शैलियों का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए ।

सात शास्त्रीय नृत्य शैलियों का सामान्य परिचय प्रस्तुत कीजिए । 

उत्तर— सात शास्त्रीय नृत्य शैलियाँ—
(1) भरतनाट्यम–इस नृत्य का उदय दक्षिण भारत के मन्दिरों तथा राजदरबारों में हुआ। 19वीं शताब्दी में इसे प्रदर्शनकारी कला का दर्जा प्राप्त हुआ। देवदासी प्रथा में यह नृत्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती थी । देवदासियाँ मन्दिरों में धार्मिक अनुष्ठान के समय यह नृत्य करती थीं। पुरुष गुरु देवदासियों को शिक्षा देते थे। ये नृत्य प्रकार केवल मन्दिरों में ही होते थे, मन्दिर के बाहर इसका प्रदर्शन नहीं किया जाता था।
राजशाही और सामाजिक परिवर्तनों के कारण मन्दिरों में नृत्य करने वाली नृत्यांगनाएँ आर्थिक समस्याओं में घिरने लगीं और वेश्यावृत्ति की राह अपना ली । ई. कृष्ण अय्यर तथा रूक्मणी देवी अरूनदले ने भरतनाट्यम को समाज की परिधि में पहुँचाया और मंचप्रदर्शन आरम्भ कर दिया । धार्मिक चरित्रों पर ही नृत्य का प्रदर्शन किया, जैसे—राम, कृष्ण आदि ।
वर्तमान में भरतनाट्यम बहुत लोकप्रिय हो चुका है और व्यापक रूप से इसका प्रदर्शन हो रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पुरुष और महिलाएँ इस नृत्य का प्रदर्शन कर रहे हैं ।
(2) कथक–सामान्य बोलचाल की भाषा में कथक का अर्थ हैकथा कहने वाला । कथकों (कथावाचकों) की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है। ये लोग देवी-देवताओं, वीरों-वीरांगनाओं की कथाओं को आख्यान द्वारा प्रस्तुत किया करते थे। आगे चलकर इन लोगों ने इसमें संगीत, नृत्य और अभिनय का समावेश किया। कालान्तर में ‘कथकों’ ने अपनी कथा को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए नृत्य और गीत की प्रधानता का समावेश अपने कथावाचन में किया। मुस्लिम शासकों ने इस नृत्य रूप को आश्रय तो दिया, परन्तु यह एक ‘नाच’ या ‘बाजार-नृत्य’ के रूप में परिवर्तित हो गया। 19वीं शताब्दी के अन्तिम दशकों और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यह नृत्य ‘कोठों’ पर पहुँच गया। अंग्रेजों ने कथक नृत्य शैली को किसी प्रकार का प्रोत्साहन नहीं दिया। सन् 1947 में देश स्वतन्त्र हुआ, विभिन्न कलाओं का पुनः उद्धार हुआ।
कथक नृत्य में विविध पद-संचालनों द्वारा ताल के जटिलतम रूपों का, विभिन्न लयकारी, जाति, तत्कार इत्यादि का प्रदर्शन किया जाता है। इस नृत्य के मूल में भाव प्रदर्शन करने की सूक्ष्मता और व्यापकता है। केवल कथक नृत्य शैली ही ऐसी होती है जिसमें विभिन्न गायन शैलियाँ प्रयुक्त की जाती हैं और उन पर नृत्याभिनय किया जाता है। कथक नृत्य के 5 घराने हैं– जयपुर घराना, लखनऊ घराना, बनारस घराना, सुखदेव प्रसाद घराना और रायगढ़ घराना। लखनऊ, बनारस और जयपुर घराने को विशेष ख्याति प्राप्त है।
(3) मणिपुरी–मणिपुरी अति सुन्दर नृत्य शैली है। मणिपुर पूर्वी भारत का अत्यन्त सुन्दर प्रदेश है। मणिपुर के निवासी पहाड़ों तथा ढलुवानों में निवास करते हैं। मणिपुर के लोग दैनिक जीवन के एक अभिन्न अंग के रूप में विभिन्न अवसरों पर नृत्य प्रदर्शन करते हैं, जैसे—विवाह, पारिवारिक उत्सव, भगवान की आराधना आदि । मणिपुर मणिपुरी नृत्य में प्रतिवर्ष ‘लईहारोबा उत्सव’ मनाया जाता है । इस उत्सव में लोग अपने परिवार, समाज और गाँव की सुख-शान्ति के लिए वन- -देवताओं की आराधना करते हैं। इसी नृत्य का विकसित और परिवर्तित रूप आज का मणिपुरी नृत्य है, जो समूह में तथा एकल, दोनों तरह से प्रस्तुत किया जाता है।
मणिपुरी नृत्य की वेशभूषा में विचित्रता होती है। नर्तकियाँ कमर से एड़ी तक लम्बी स्कर्ट पहनती हैं, जो खूबसूरत कढ़ाई से सम्पृक्त होता है। कृष्ण बने नर्तक दो सिर खूबसूरत लम्बा नीले रंग का मोर मुकुट होता है । पुंग और मजीरा वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है।
(4) मोहिनीअट्टम–यह नृत्य शैली केरल की है। मोहिनीअट्टम का अर्थ है-‘ अत्यन्त आकर्षक स्त्री का नृत्य’ । इस नृत्य में दर्शकं मंत्रमुग्ध हो जाता है। नर्तकियाँ श्वेत और सुनहरे रंग की वेशभूषा धारण करती हैं। बालों को भी अत्यन्त सुन्दर ढंग से बनाया जाता है। मध्यम गति का यह नृत्य सौन्दर्य से परिपूर्ण होता है।
इस नृत्य शैली में शरीर का ऊपरी हिस्सा झूले की तरह नियंत्रित किया जाता है। पैरों को मोहिनीअट्टम प्लायर (तार काटने या मोड़ने वाला औजार) की स्थिति में रखा जाता है। इस नृत्य में आँखों की विशिष्ट भूमिका होती है।
इस नृत्य शैली का उल्लेख 18वीं शताब्दी में मिलता है। परन्तु 19वीं शताब्दी में महाराजा स्वाती तिरुनल ने इस शैली को विशेष संरक्षण दिया। 20वीं शताब्दी में महान कवि वल्लाथोल ने ‘केरल कलामंडलम्’ की स्थापना की और मोहिनीअट्टम तथा कथकली को खूब प्रोन्नत किया। यह नृत्य भारतीय पौराणिक कथाओं पर किया जाता है, साथ ही इसके विषय ‘प्रकृति’ पर भी आधारित होते हैं। यह महिलाओं द्वारा किया जाने वाला नृत्य है, परन्तु आजकल पुरुष नर्तक भी इस नृत्य का प्रदर्शन करने लगे हैं।
(5) कुचिपुड़ी–यह आंध्र प्रदेश का नृत्य है। ‘कुचेलापुरम्’ नाम के गाँव पर ही इस नृत्य का नाम कुचिपुड़ी रखा गया। इस नृत्य को ब्राह्मणों द्वारा किया जाता था। कुचिपुड़ी का जन्म ‘ भगवतमेला’ नामक नृत्य शैली से हुआ। सन् 1960 में यह एकल नृत्य के स्वरूप में मंचों पर प्रदर्शित किया जाने लगा। यह नृत्य बहुत तेज गति में किया जाता है। पैरों को गोलाई से बहुत तेज गति में घुमाया जाता है। कुचिपुड़ी एक विशिष्ट लोकधर्मी नृत्य है। कुचिपुड़ी नृत्य के कई प्रकार हैंपूजा, जतिसवारम, शब्दम्, तरंगम, कीर्तनम् और तिल्लाना। तरंगम् को नृत्य के नाम से भी जाना जाता है, पीतल की थाली के किनारे, धार पर कुचिपुड़ी पैर रखकर कलाकार नृत्य करते हैं । तरंगम् में जटिल तालों पर, थाली के ऊपर, भगवान कृष्ण की आराधना में नृत्य किया जाता है। ताल की विभिन्न गतियाँ और जातियाँ होती हैं ।
कुचिपुड़ी में मृदंगम्, वॉयलिन, वीणा, बाँसुरी और तलम का वाद्य यंत्र प्रयुक्त होते हैं।
(6) कथकली–कथकली संसार की प्राचीनतम् नाट्य शैली है। इस शैली का उदय भारत के उत्तरपश्चिम क्षेत्र में हुआ था, जो अब केरल प्रदेश है। कथकली एक समूह नृत्य है। यह नृत्य मूल रूप से महाभारत और रामायण की युद्धक कथाओं के प्रसंगों पर आधारित है। प्रत्येक चरित्र का मेक-अप अलग होता है। गहरे रंगों के प्रयोग से हर चरित्र का उसकी विशेषता के अनुसार मेक-अप किया जाता है, जैसे ‘राम’ का मेक-अप हरे रंग का होता है। ‘रावण’ जैसे नकारात्मक चरित्र का मेक-अप भी हरे रंग का होता है, परन्तु गाल पर लाल रंग रहता है। अत्यधिक क्रोधी चरित्र को लाल मेक-अप दिया जाता है, दाढ़ी भी लाल होती है। जंगल के लोगों, जैसे–शिकारी को काला मेक-अप दिया जाता है। स्त्रियों और संन्यासियों का चेहरा पीला रखा जाता है।
इस शैली में अति विकसित हस्त मुद्राएँ समाविष्ट हैं, हाथ की मुद्राओं से कलाकार पूरी कहानी को कह देता है। शरीर की गति और पैरों का काम बहुत श्रमसाध्य होता है। पैरों को उठा-उठाकर नृत्य करना नृत्य की प्रमुख मुद्रा है। कथकली नर्तक बड़े-बड़े मुखौटे पहनते हैं। कलाकारों का परिधान और मेक-अप आश्चर्यचकित कर देने वाला होता है।
परम्परागत कथकली प्रदर्शन संध्याकाल से आरम्भ होकर पूरी रात तक चलता है, अन्त में देवता राक्षस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। चेन्दा, मददलम, सिम्बल्स और एला तालेम वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है।
(7) ओड़ीसी–ओड़ीसी नृत्य का उदय प्राचीन उत्तरी भारत में हुआ के नृत्य का प्रतिनिधित्व था। परन्तु ओड़ीसी अपने नाम से ‘उड़ीसा’ राज्य करता है ।
ओड़ीसी नृत्य के भी दो के भी दो प्रमुख पहलू हैं—नृत्य और अभिनय । राधा और कृष्ण का पवित्र प्यार इस नृत्य का विषय है। जयदेव के गीत- गोविन्द के कम-से-कम एक या दो ‘अष्टपदों पर यह नृत्य प्रदर्शित किया जाता है जो राधा और कृष्ण के मध्य जटिल सम्बन्धों को दिखाता है।
इस नृत्य शैली में त्रिभंगी का प्रयोग होता है, शरीर को तीन स्थानों से मोड़ा जाता है। इस नृत्य में वस्त्राभूषणों एवं अन्य साज-सज्जा की अनोखी परम्परा है। ओड़ीसी को एक कठिन नृत्य माना जाता है। पखावज, तबला, हारमोनियम, बाँसुरी और झाँझ वाद्यों का प्रयोग किया जाता है।
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