सौन्दर्यशास्त्र की प्रकृति एवं क्षेत्र पर टिप्पणी लिखिए |
सौन्दर्यशास्त्र की प्रकृति एवं क्षेत्र पर टिप्पणी लिखिए |
उत्तर— सौन्दर्यशास्त्र की प्रकृति एवं क्षेत्र–जर्मन विद्वान बाउम गार्टेन द्वारा ‘एस्थेटिक्स’ अर्थात् सौन्दर्यशास्त्र के रूप में एक स्वतंत्र शास्त्र की स्थापना करने के साथ ही ‘एस्थेटिक’ शब्द की परिधि में अनेक धारणाएँ विवादास्पद रूप से विकसित हुई हैं।
सौन्दर्यशास्त्र में कलाओं, सम्बद्ध व्यवहार प्रकार तथा अनुभूति का सैद्धान्तिक अध्ययन किया जाता है। सौन्दर्यशास्त्र का क्षेत्र व्यापक है, जिसमें समस्त ललित कलाओं को अभिव्यंजित किया जाता है। सौन्दर्यशास्त्र के अध्ययन के मुख्य आधार तत्त्व समस्त माध्यमों में कलाकृतियों का आकलन, विश्लेषण, तुलना तथा कलाकृति में निर्दिष्ट मानव व्यवहार व अनुभूति है। सौन्दर्यशास्त्र में पाँच ललित कलाएँ—काव्य, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला मानी गई हैं। सौन्दर्यशास्त्र में कलाकार, कलाकृति, प्रेक्षक व भावोद्वेलक वस्तुओं व परिस्थितियों का अध्ययन होता है।
सौन्दर्यशास्त्र का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है जिसमें स्वतंत्र कलाओं की समस्याओं, दर्शक, कलाकार, कलाकृति आदि का दार्शनिक अध्ययन ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक उपयोगिता, नैतिकता, सांस्कृतिक प्रभाव एवं मूल्यों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है। इसमें सौन्दर्यशास्त्र का क्षेत्र अधिक विस्तृत हो गया है।
वस्तुत: सौन्दर्यशास्त्र की व्युत्पत्ति का अर्थ है-संवेदना सम्बन्धी बोध अर्थात् यह मात्र सौन्दर्य सम्बन्धी संवेदनाओं तक ही सीमित हो गया। अधिकांश विद्वान इसका सम्बन्ध केवल ललित कलाओं के माध्यम से अभिव्यक्त सौन्दर्य से ही स्वीकार करते हैं। पश्चिम में ललित कलाओं के अन्तर्गत काव्य, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला की गणना की गयी है। प्राचीन भारतीय परम्परा में काव्य को कला के रूप में न स्वीकार कर उसे विद्या माना गया था तथा कला को उपविद्या । यथा–वास्तुकला में मूर्त आधार प्रस्तर, ईंट, चूना, सीमेन्ट आदि, मूर्तिकला में प्रस्तर, धातु, लकड़ी, मिट्टी आदि स्थूल आधार; चित्रकला में तूलिका, रंग, चित्र, फलक आदि साधन तथा संगीत कला में नाद मूर्त आधार के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सौन्दर्यशास्त्र ललित कलाओं का सैद्धान्तिक निरूपण करता है। इस प्रकार सौन्दर्यशास्त्र की परिधि में सौन्दर्य व कला, कला का अर्थ परिभाषा व स्वरूप, सौन्दर्य व कला, कला का विवेचन, सौन्दर्य की अनुभूति, आस्वाद प्रक्रिया व उसका स्वरूप, कलाकृति का वस्तुरूप, विभिन्न कलाओं का विवेचन, सौन्दर्य के उपादान, सौन्दर्य सृजन, प्रेरणा, प्रतिभा, सृजन प्रक्रिया आदि समन्वित हो जाते हैं।
भारत में सौन्दर्यशास्त्र की एक विशिष्ट परम्परा है जिसकी मूल अवधारणा रस अर्थात् सौन्दर्य, रसानुभूति अर्थात् सौन्दर्यानुभूति अथवा आनन्दानुभूति, अभिव्यक्ति, साधारणीकरण अर्थात् समानुभूति, भय तथा करुणा के संवेद अर्थात् विरेचन सिद्धान्त, करुण रस तथा त्रासदी आदि में मिलती है। वस्तुत: विश्व में सौन्दर्यशास्त्र के दो अंग हैं— कला एवं सौन्दर्य । किन्तु कला व सौन्दर्य का कोई सम्बन्ध नहीं है। आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक कलात्मक वस्तु सुन्दर हो और यह भी आवश्यक नहीं है कि सौन्दर्य का जन्म सदैव ही कला के गर्भ से हो । इस प्रकार सौन्दर्य दो प्रकार का होता है— प्राकृतिक एवं कलात्मक । प्राकृतिक सौन्दर्य विश्व में समाहित है, व्यक्ति की मनःस्थिति पर ही सौन्दर्य आधारित है। एक व्यक्ति को जो वस्तु सुन्दर लगती है वह दूसरे को असुन्दर लग सकती है। कला का लक्ष्य सौन्दर्य नहीं है। सौन्दर्य वही दृष्टिगत होने लगता है जहाँ किसी व्यक्ति को अभिरुचि की वस्तु मिल जाती है। फिर भी सौन्दर्य कला के मूल्यांकन का महत्त्वपूर्ण मापदण्ड है।
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