टैगोर के शिक्षा दर्शन को स्पष्ट करिये । वर्तमान शिक्षा पर उसका प्रभाव लिखिए।

टैगोर के शिक्षा दर्शन को स्पष्ट करिये । वर्तमान शिक्षा पर उसका प्रभाव लिखिए। 

                                     अथवा
एक शिक्षाविद् के रूप में टैगोर की देन का मूल्यांकन कीजिए ।
उत्तर— टैगोर का शैक्षिक दर्शन– टैगोर के जीवन दर्शन के विकास में जिन तत्त्वों का प्रभाव पड़ा, उन्हीं तत्त्वों का प्रभाव उनके शिक्षा दर्शन के विकास में भी पड़ा है। उनके शिक्षा दर्शन का उनके जीवन दर्शन से घनिष्ठ सम्बन्ध है। परिवार के प्रभाव के अतिरिक्त टैगोर के शिक्षा दर्शन पर पाश्चात्य शिक्षाशास्त्रियों रूसो, फ्रोबेल, ड्यूवी तथा पेस्टालॉजी आदि के विचारों का भी गहरा प्रभाव पड़ा है। इन्होंने अपनी तीव्र बुद्धि के द्वारा प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञानों का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लिया था, जिनका पर्याप्त प्रभाव इनके शिक्षा दर्शन पर पड़ा। अनुभवों द्वारा उन्होंने शिक्षा के रहस्यों का ज्ञान प्राप्त किया और अपने समय की शिक्षा पद्धति के दोषों का अध्ययन किया। इस प्रकार स्वयं के प्रयत्नों के फलस्वरूप ही टैगोर विश्व के महान शिक्षाशास्त्री बने ।
शिक्षा का अर्थ– टैगोर के अनुसार, “सर्वोच्च शिक्षा वही है जो, सम्पूर्ण सृष्टि से हमारे जीवन का सामंजस्य स्थापित करती है।” सम्पूर्ण सृष्टि से टैगोर का अभिप्राय है कि संसार की चर और अचर, जड़ और चेतन, सजीव और निर्जीव सभी वस्तुएँ। इन वस्तुओं से हमारे जीवन का सामंजस्य तभी हो सकता है, जब हमारी सभी शक्तियाँ विकसित होती हैं और पूर्णता के उच्चतम बिन्दु तक पहुँचती हैं। इसी को टैगोर ने ‘मनुष्यत्व’ कहा है। शिक्षा मनुष्य का शारीरिक, बौद्धिक, आर्थिक, नैतिक, आध्यात्मिक और धार्मिक विकास करती है। टैगोर ने शिक्षा के व्यापक अर्थ में शिक्षा के प्राचीन भारतीय आदर्श ‘सा विद्या या विमुक्तये’ को भी स्थान दिया है।
शिक्षा के उद्देश्य-टैगोर ने समय-समय पर अपने लेखों, साहित्यिक रचनाओं और व्याख्यानों में शिक्षा के उद्देश्यों के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किए हैं। इनके आधार पर शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य माने जा सकते हैं—
(1) शारीरिक विकास– टैगोर के अनुसार, शिक्षा का सर्वप्रथम उद्देश्य बालक का शारीरिक विकास करना है। बालकों के शारीरिक विकास के लिए उन्होंने शरीर के स्वस्थ और स्वाभाविक विकास के साथ-साथ शरीर के विभिन्न अंगों और इन्द्रियों को प्रशिक्षित करने पर बल दिया है। उनके अनुसार, पेड़ों पर चढ़ने, तालाबों में डुबकियाँ लगाने, फूलों को तोड़ने और बिखरने तथा प्रकृति माता के साथ नाना प्रकार की शैतानियाँ करने से बालकों के शरीर का विकास, मस्तिष्क का आनन्द और बचपन के स्वाभाविक आवेगों की सन्तुष्टि होगी ।
(2) मानसिक विकास– टैगोर के अनुसार, शिक्षा का कार्य बालक को वास्तविक जीवन की बातों, स्थितियों और वातावरण से परिचित कराकर उसके मस्तिष्क का विकास करना है। मानसिक विकास के लिए टैगोर ने पुस्तकीय शिक्षा का विरोध किया है और प्रकृति तथा जीवन से प्रत्यक्ष रूप से ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक बताया है।
(3) नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास– टैगोर ने शारीरिक और मानसिक विकास के साथ-साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास पर भी बल दिया है और व्यक्ति के आन्तरिक विकास को शिक्षा का एक उद्देश्य माना है। टैगोर के अनुसार, “अध्यापक का यह कार्य होना चाहिए कि वह बालक को धैर्य, शान्ति, आत्म-अनुशासन, आन्तरिक स्वतन्त्रता और आन्तरिक ज्ञान के मूल्यों से परिचित कराकर उसका नैतिक और आध्यात्मिक विकास करे।”
(4) सामाजिक विकास एवं अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास– बालक में सामाजिक गुणों का विकास करना शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। अपने अन्दर सामाजिक गुणों को विकसित करके बालक स्वयं की और समाज की प्रगति में सहयोग कर सकता है । वे संकीर्ण राष्ट्रवाद की भावना के विरुद्ध हैं और अन्तर्राष्ट्रीय समाज के समर्थक है। शिक्षा के द्वारा बालक में अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण को विकसित किया जाए।
(5) सामंजस्य की क्षमता का विकास– टैगोर के अनुसार, बालकों को जीवन की वास्तविक परिस्थितियों, सामाजिक स्थितियों और बातावरण की जानकारी कराना तथा उनसे अनुकूलन कराना शिक्षा का उद्देश्य है।
टैगोर के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त– टैगोर के शिक्षादर्शन के आधारभूत सिद्धान्त इस प्रकार हैं—
(1) प्रकृति की गोद में शिक्षा– बालकों को शिक्षा नगरों दूर प्रकृति के वातावरण में होनी चाहिए। प्रकृति के साथ सम्पर्क स्थापित करने में बालकों को आनन्द का अनुभव होता है।
(2) मनुष्य की पूर्णता की शिक्षा– टैगोर के अनुसार, वास्तव में मानव जातियों में स्वाभाविक अन्तर होते हैं, जिन्हें सुरक्षित रखना है और सम्मानित करना है और शिक्षा का कार्य इन अन्तरों के होते हुए भी एकता की अनुभूति कराना है। विषमताओं के होते हुए भी असत्य के बीच सत्य को खोजना है। डॉ. मुखर्जी ने कहा है कि, “इस एकता के सिद्धान्तों को दूसरे दृष्टिकोण से देखने पर टैगोर ने उसे पूर्णता के सिद्धान्त में बदला है। इन्होंने शरीर की शिक्षा, बुद्धि की शिक्षा, आत्मा की शिक्षा तथा आत्माभिव्यक्ति की शिक्षा में जो एकता स्थापित की है तथा उसके द्वारा मनुष्यत्व की पूर्णता के लिए प्रयत्न किया है । “
(3) राष्ट्रीय शिक्षा– टैगोर ने कहा है कि बालकों की शिक्षा राष्ट्रीय होनी चाहिए, उसमें भारत के अतीत एवं भविष्य का पूर्ण ध्यान रखा जाना चाहिए।
(4) कलात्मक शक्तियों का विकास–शिक्षा के द्वारा बालकों में संगीत, अभिनय तथा चित्रकला की योग्यताओं का विकास किया जाना चाहिए।
(5) भारतीय संस्कृति की शिक्षा– बालकों को शिक्षा के द्वारा भारतीय समाज की पृष्ठभूमि और भारतीय संस्कृति का स्पष्ट ज्ञान प्रदान किया जाना चाहिए।
(6) सामुदायिक जीवन की शिक्षा– टैगोर ने कहा है कि शिक्षा को गतिशील एवं सजीव तभी बनाया जा सकता है जब कि उसका आधार व्यापक और समुदाय के जीवन से घनिष्ठ सम्बन्ध हो । बालकों को सामाजिक सेवा के अवसर मिलने चाहिए जिससे उनमें स्वशासन तथा उत्तरदायित्व के भाव विकसित हो सकें ।
(7) शिक्षा में स्वतन्त्रता– टैगोर ने कहा है कि जहाँ स्वतन्त्रता नहीं और जहाँ विकास नहीं वहाँ जीवन नहीं है। इसलिए शिक्षा प्राप्त करते समय बालक को स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। उन पर कम से कम प्रतिबन्ध लगाने चाहिए । स्वतन्त्रता तथा प्रसन्नता के द्वारा अनुभव की पूर्णता टैगोर की आदर्श शिक्षा का हृदय और आत्मा है।
(8) बालक का चहुँमुखी और सामंजस्यपूर्ण विकास–शिक्षा के द्वारा व्यक्ति की जन्मजात शक्तियों का विकास करके उसके व्यक्तित्व का चहुँमुखी और सामंजस्यपूर्ण विकास किया जाना चाहिए ।
(9) प्रत्यक्ष स्रोतों से ज्ञान– टैगोर का कहना है कि पुस्तक के स्थान पर जहाँ तक सम्भव हो सके बालकों को प्रत्यक्ष स्रोतों से ज्ञान प्राप्त करने के अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।
(10) सामाजिक आदर्शों की शिक्षा– शिक्षा के द्वारा बालकों को सामाजिक आदर्शों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों और समस्याओं से अवगत कराया जाना चाहिए।
(11) स्वतन्त्र प्रयास द्वारा शिक्षा– शिक्षा के द्वारा बालकों को इस प्रकार के अवसर दिए जाने चाहिए कि वह स्वतन्त्र प्रयासों द्वारा शिक्षा प्राप्त कर सके।
(12) रटने की आदत का अन्त– टैगोर ने कहा है कि बालकों को रटने के लिए बाध्य न किया जाए। यथासम्भव शिक्षण विधि का आधार जीवन प्रकृति और समाज की वास्तविक परिस्थितियाँ होनी चाहिए।
पाठ्यक्रम– टैगोर ने तत्कालीन पाठ्यक्रम को दोषयुक्त बताया और एक व्यापक क्रिया प्रधान पाठ्यक्रम की रचना की। इन्होंने पाठ्यक्रम में इतिहास, भूगोल, प्राकृतिक अध्ययन, साहित्य, भाषा एवं सांस्कृतिक विषयों को शामिल करने पर जोर दिया। उनका कहना था कि पाठ्यक्रम में कृषि कार्य, वस्तुओं का संग्रह, नृत्य, बागवानी, अभिनय तथा नाटक आदि को शामिल किया जाना चाहिए।
शिक्षण विधि– प्रचलित पाठ्यक्रम की भाँति ही टैगोर ने नीरस और अरुचिकर शिक्षण विधियों की आलोचना की है। वे शिक्षण विधियों को बालक की रुचि के अनुसार, आवश्यकतानुसार तथा आवेगों के अनुसार निर्धारित करना चाहते हैं जो कि निम्न हैं—
(1) क्रियाविधि– बालक जो भी शारीरिक क्रिया करता है, उसका शरीर तथा मस्तिष्क दोनों पर प्रभाव पड़ता है। इसलिए बालकों को क्रिया द्वारा सीखने का अवसर देना चाहिए । शारीरिक क्रिया को महत्त्व देने के कारण उन्होंने शिक्षण विधि में नृत्य, अभिनय, पेड़ पर चढ़ना, कूदना, हँसना, चिल्लाना आदि क्रियाओं को स्थान दिया है।
(2) प्रत्यक्ष विधि– प्रत्यक्ष अनुभव से निरीक्षण और तर्क शक्ति का विकास होता है। प्राकृतिक विज्ञानों का अध्ययन, प्रकृति का निरीक्षण करके और सामाजिक विज्ञानों का अध्ययन, सामाजिक समस्याओं, घटनाओं एवं संस्थानों के निरीक्षण से किया जाना चाहिए । उनका कथन है कि वास्तविक वस्तुओं के सम्पर्क में आने से जो छात्रों के सम्मुख उपस्थित है, उससे उनकी निरीक्षण तथा तर्क शक्ति विकसित होती है ।
(3) स्वाध्याय एवं प्रयोग विधि– स्वाध्याय में बालक अपने आप सीखता है तथा ज्ञानार्जन करता है । विज्ञान, कला-कौशल एवं अन्य विषयों के लिए इन्होंने प्रयोग विधि को आवश्यक बताया है ।
शिष्य– छात्रों के सम्बन्ध में टैगोर का कहना था कि छात्र अपनी शिक्षा को वास्तविक जीवन से जोड़ने का प्रयास करे और राष्ट्रीय चेतना को जागृत करें। उन्होंने छात्रों में विनम्रता, अनुशासन, आन्तरिक बल, आत्मानुभूति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, विचारों की स्वतन्त्रता आदि गुणों की कल्पना की है। वे छात्रों के स्वाभाविक विकास के पक्षधर थे । वे छात्रों को प्रकृति के सम्पर्क में रखना चाहते थे । ।
शिक्षक– टैगोर ने शिक्षण विधि की तुलना में शिक्षक को बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हुए लिखा है— “ शिक्षा केवल शिक्षक के ही द्वारा और शिक्षण विधि के द्वारा कदापि नहीं दी जा सकती है। मनुष्य केवल मनुष्य से ही सीख सकता है।” अतः शिक्षक को पूर्वाग्रही, संकीर्ण, अधीन और अहंकारी नहीं होना चाहिए।
इस प्रकार टैगोर ने शिक्षक को शिक्षा व्यवस्था का प्रमुख आधार माना है। इस रूप में शिक्षक के कार्य निम्नलिखित
हैं—
(1) ऐसे वातावरण का निर्माण करना, जिसमें बालक स्वानुभव द्वारा सरलतापूर्वक सीख सके।
(2) शिक्षक को बालक के जीवन की गति, मस्तिष्क को बन्धन से मुक्ति देनी चाहिए।
(3) बालक की रचनात्मक शक्तियों को विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए।
(4) आदर्श आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।
(5) बालकों के साथ प्रेम और सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करना ।
(6) शिक्षक और बालक को समान रूप से सांस्कृतिक परम्पराओं का अनुसरण और सत्य की खोज करनी चाहिए।
अनुशासन–टैगोर अनुशासन को बाह्य व्यवस्था के रूप में नहीं, वरन् आन्तरिक भावना के रूप में स्वीकार करते थे। वे दण्ड व्यवस्था के विरोधी थे। उनकी मान्यता थी कि यदि शिक्षक ज्ञानी है, चरित्रवान तथा विद्यार्थियों के साथ उसका व्यवहार प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण है तो बालक स्वयं ही अनुशासन का पालन करेंगे। वे स्वशासन की भावना के विकास हेतु खेलकूद, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन को आवश्यक मानते थे।
टैगोर की शिक्षा को देन– शिक्षा के क्षेत्र में टैगोर की देन महान है। संक्षेप में हम इसका उल्लेख निम्न प्रकार से कर सकते हैं—
(1) टैगोर ने शिक्षा का अर्थ समृद्ध और पूर्ण रूप से लिया है। उनका यह दृष्टिकोण प्लेटो और स्पेन्सर से कहीं अधिक ‘व्यापक है। जीवन की पूर्णता के लिए टैगोर ने जो विधान निर्मित किया है वह भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही जीवन को स्पर्श करता है। उसमें आध्यात्मिक और भौतिक तत्त्वों का समन्वय है ।
(2) टैगोर ने प्रकृति से स्वस्थ एवं निकटवर्ती सम्बन्ध स्थापित किया और बताया कि प्रकृति का प्रभाव, रहन-सहन, विचारव्यवहार, कार्य-कलाप, विषय-व -वस्तु और विधि में पाया जाता है।
(3) दर्शन और वास्तविक जीवन परिस्थिति का समन्वय करके टैगोर ने भारतीय शिक्षा में महान क्रान्ति की है।
(4) टैगोर ने प्रकृति में सौन्दर्य और आनन्द, शक्ति और ओज, स्वतन्त्रता और आत्मप्रेरणा का दर्शन किया तथा उससे मानव जीवन एवं शिक्षा को ओत-प्रोत किया ।
(5) टैगोर ने भारतीय संस्कृति के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा की नींव डाली। टैगोर ने बताया कि शिक्षा में समस्त सत्यों का एकीकरण होना चाहिए तथा हमें जीवन के सत्य के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।
(6) बालक के विकास में कृत्रिमता नहीं लानी चाहिए और न जल्दबाजी करनी चाहिए वरन् स्वाभाविक ढंग से उसका विकास होना चाहिए।
(7) पुस्तकों एवं पाठन विधि की अपेक्षा टैगोर ने बालक पर अधिक ध्यान देने के लिए कहा।
(8) टैगोर का शिक्षा में स्वतन्त्रता का दृष्टिकोण विशेष महत्त्वपूर्ण है। इन्होंने कहा कि बालक की मानसिक शक्तियों के विकास में और व्यवहार में किसी प्रकार का बन्धन नहीं होना चाहिए।
(9) टैगोर ने शिक्षा में नवीनता एवं मौलिकता को महत्त्व दिया, जिसके फलस्वरूप प्रचलित रूढ़िवाद का अन्त होकर शिक्षा के मौलिक रूप का सृजन हुआ।
(10) टैगोर ने शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया और कहा कि शिक्षा केवल शिक्षक द्वारा ही दी जा सकती है।
(11) मानवतावादी भावना पर विश्व-बन्धुत्व एवं विश्व – शिक्षा का प्रयास करने वाले सर्वप्रथम शिक्षाशास्त्री आज के युग में टैगोर को ही माना जा सकता है।
(12) टैगोर ने फ्रोबेल, पेस्टालॉजी, हरबर्ट, ड्यूवी आदि शिक्षाशास्त्रियों की तरह बड़े मौलिक और आश्चर्यजनक ढंग से अपने शिक्षा सम्बन्धी विचारों का सफल प्रयोग किया है। विश्व भारती इसका प्रमाण है।
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