मुक्तिबोध : जीवन-यात्रा

मुक्तिबोध : जीवन-यात्रा

मुक्तिबोध : जीवन-यात्रा
गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर 1917 को श्योपुर (ग्वालियर) में हुआ। मुक्तिबोध के परदादा वासुदेव जी जलगाँव (खानदेश, महाराष्ट्र) छोड़कर ग्वालियर आ बसे। मुक्तिबोध के शैशवावस्था की एक मजेदार घटना यह है कि जब वे छ: महीने के रहे होंगे, एक बंदर उन्हें झूले पर से उठा ले गया। किसी तरह उन्हें बंदर के चंगुल से छुड़ाया गया। वे अपने माता-पिता की तीसरी संतान थे। मुक्तिबोध से पूर्व वे अपने दो पुत्र पहले खो चुके थे, इसलिए इस पुत्र पर स्वभावतः उनका अत्यधिक अनुराग था। इनका लालन-पालन बहुत ही स्नेह और संभाव के साथ किया गया।
मुक्तिबोध के पिता माधवराव जी पुलिस विभाग में थे। उनकी कर्त्तव्यनिष्ठता और ईमानदारी की धाक पूरे विभाग में थी। कुलकर्णी ब्राह्मण होने के साथ-साथ वे धार्मिकता से भरपूर थे। अपने नैतिक मूल्यों का दृढ़तापूर्वक निर्वाह उन्होंने जीवंत पर्यंत किया। मुक्तिबोध पर इस नैतिक मूल्य का गहरा प्रभाव था। पिता पर लिखी कविता में उन्होंने इस प्रभाव को स्वीकार किया है
पिता, तुम्हारी वीर-जीवन-इतिहास-कथा
“देती है मेरी प्रेरणओं की दिशएं बता
संग्राम का शिल्प मुझे अचूक लिखा जातीं वे
संघर्ष में मुझे देती सत्य की महान् व्यथा।”
पिता-पुत्र में असीम प्यार था। वे अपने दूसरे पुत्र शरच्चंद मुक्तिबोध के यहाँ बीमार थे। दूसरी तरफ मुक्तिबोध दिल्ली में अंतिम सांस गिन रहे थे। मुक्तिबोध की इस दशा का उन्हें पता चला। उसी रात वे दुनिया छोड़कर चले गए। मुक्तिबोध की मृत्यु उसी रात हुई। क्या यह निरा संयोग है कि पिता अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनने के लिए जीवित न रहे और उससे पहले मृत्यु का वरण कर लिया।
औपचारिक शिक्षा में मुक्तिबोध का जी न लगता। ग्वालियर बोर्ड की माध्यमिक परीक्षा में एक बार असफल हुए। दुबारा सफलता हासिल की। सन् 1937 में बी.ए. की परीक्षा भी वे दूसरी बार में उत्तीर्ण हुए। माता-पिता उन्हें सफल वकील बनाना चाहते किंतु पुत्र को यह मंजूर न था। वह मूलत: दूसरी धातु का बना था। उसने पढ़ाई से अधिक महत्व दिया घुमक्कड़ी को, इम्तहान से अधिक प्रत्येक वस्तु के सूक्ष्म पर्यवेक्षण और विश्लेषण को और ऊँचे ओहदे से अधिक कवि बनने को। यह एक विद्रोह था, जो उनके भीतर कभी अदृश्य और कभी दृश्य रूप में विकसित हो रहा था।
साहित्य का बीज मुक्तिबोध के हृदय में छात्र-जीवन में ही पड़ गया था। कॉलेज के एक प्राध्यापक रमाशंकर शुक्ल ‘हृदय’ ने उनकी साहित्यिक प्रवृत्ति को अत्यधिक प्रोत्साहित किया। प्रभाकर मानव की मित्रता ने उनके साहित्यिक जीवन और पारिवारिक जीवन को संवारते में भारी मदद की। उनके साहित्य विवेक पर अपनी माँ का गहरा असा प्रेमचंद उनकी माँ के अत्यंत प्रिय लेखक थे। उन्हीं की प्रेरणा से मुक्तिबोध ने प्रेमचंद को ठीक से जाना और उन्हें अपनी आत्मा के सर्वाधिक निकट पाया।
इंदौर में मुक्तिबोध अपनी बुआ अत्ताबाई के यहाँ रहते थे। एक बार जब वे बहुत बीमार पड़े तो उनके यहाँ काम करनेवाली मनुवाई की पुत्री शांता ने उनकी भारी सेवा की। वे इस बात से प्रभावित ही नहीं हुए बल्कि उसके प्रति रागात्मक खिंचाव भी अनुभव करने लगे। चूँकि वे विचारों से अति विद्रोही थे, इसलिए उन्होंने घोषणा कर दी कि वे उसी लड़की से शादी करेंगे। सारे विरोध के बावजूद उन्होंने शांता से शादी की। चूँकि कन्यापक्षा आर्थिक रूप से समर्थ नहीं था, इसलिए मुक्तिबोध का विवाह बहुत सादे ढंग से सम्पन हुआ। संपूर्ण विधि एक मंदिर में पूरी की गयी। इसमें दो राय नहीं कि मुक्तिबोध आधुनिक हिंदी साहित्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवियों में एक हैं, साथ ही सर्वाधिक विचार-परक
रचनाकार हैं। विचार, कविता और व्यवहार तीनों मुक्तिबोध का एक जैसा था। सत्ता या प्रशासन के आगे झुकना उन्होंने सीखा ही नहीं। जरूरत पड़ने पर वे उसके आगे खम ठोककर खड़े हो जाते। वे घोर आर्थिक तंगी में रहते हुए भी नैतिक आधार पर नौकरी से त्याग-पत्र दे दिए।
स्कूल में उनके एक सहयोगी मित्र रामलाल पर दुश्चरित्रता और अनुशासनहीनता का झूठा आरोप लगाकर उन्हें नौकरी से हटा दिया। इसी के विरोध में मुक्तिबोध ने त्याग-पत्र दे दिया। अपने इस स्वभाव के कारण वे किसी भी नौकरी में टिक नहीं पाते। उन्होंने कई तरह की नौकरियाँ की। स्कूल में, कॉलेज में, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में। लेकिन अभाव ने उनका पीछा नहीं छोड़ा।
स्थाई अभाव ने उन्हें कर्ज के बोझ तले डुबा दिया। माता-पिता को रूपये भेजने के लिए उन्होंने बहुत कड़े सूद पर पठानों तक से कर्ज लिया। अभाव, उधार और कर्ज ने उन्हें अपमान की जिंदगी जीने पर मजबूर कर दिया। इसी अभाव में उनकी दो संतानों की 1941 और 1943 में उज्जैन में मृत्यु हो गयी। नागपुर में भी क्रमश: 1950 और 1956 में उन्हें दो संतानों की मृत्यु की वेदना झेलनी पड़ी।
मुक्तिबोध पक्के मार्क्सवादी कवि और आलोचक हैं। कार्ल मार्क्स के विचारों में उनकी गहरी आस्था थी। सन् 1942 में मुक्तिबोध ने उज्जैन में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने छायावाद की क्षयशील भावुकता की जगह नए कवियों और लेखकों में नया यथार्थ बोध उत्पन्न किया। 1943 में इन्होंने इंदौर में फासिस्ट विरोधी लेखक सम्मेलन का आयोजन किया। इन वामपंथी गतिविधियों के कारण उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी। उनकी एक इतिहास की पाठ्यपुस्तक ‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ को मध्यप्रदेश सरकार ने हायर सेकेंडरी क्लास के लिए पाठ्यक्रम में लगाया। उनको उम्मीद थी कि रायलिटी से उनकी माली स्थिति सुधर जाएगी। किंतु फासिस्टों के विरोध के कारण सरकार ने उस पुस्तक को पाठ्यक्रम से निकाल ही दिया, उसे प्रतिबंधित (1962) भी कर दिया। 1962 के बाद वे लगातार बीमारी से जूझते रहे। पहले दोनों पाँव सूजे, फिर पक्षाघात और अंत में ट्यूबर्कुलर मेनिंजाइटिस। और अंत में ।।
सितम्बर 1964 की रात्रि उनका देहांत हो गया। इससे बड़ी दुखद स्थिति और क्या हो सकती है कि जीते-जी उनका कोई काव्य संग्रह प्रकाशित नहीं हो पारण। उनका संपूर्ण जीवन एक भयानक कश्मकश में बीता। परिस्थितियाँ उनकी ऐसी थी कि वे कशमकश से कभी पूरी तरह उबर नहीं सके। व्यक्तिगत, पारिवारिक और संयुक्त परिवार, निजी जीवन और सामाजिक जीवन, विचारधारा और कर्म, आजादी और सरकारी-गैर-सरकारी नौकरी की पाबंदियाँ, प्रचंड रचनात्मक उर्जा और प्रकाशन की सीमाएं – वे लगातार उनके खिंचाव में पड़े रहे, इस हद तक कि अंत में स्नायुमंडल जवाब दे गया। विडंबना यह कि वे हिंदी जगत में पहचाने तब गए, जब वे इस दुनिया में न रहे। उनकी बेहोशी में ही भारतीय ज्ञानपीठ जैसी प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था से उनकी पुस्तक छपकर आई – एक साहित्यिक की डायरी। वहीं से उनका पहला कविता-संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ जो कि निराला की ‘अनामिका’ के बाद हिंदी का दूसरा वैसा महत्वपूर्ण कविता-संग्रह है और जिसके प्रकाशन के साथ हिंदी कविता का परिदृश्य बदलने लगता है, प्रकाशित हुआ, के तेरह” दिन। मुक्तिबोध ने एक पत्र में लिखा था – ‘नेमि बाबू, मेरी कहानी बड़ी उदास है, कहने से क्या लाभ!” उनकी कहानी उदास नहीं, त्रासद है
एक संघर्षशील मध्यवर्गीय लेखक की कहानी, जिसने गलत मूल्यों के आगे अपनी पताका कभी झुकने न दी और जिसने जीवन और समाज से रौंदा जाकर भी बार-बार वैसे प्यार किया, जैसे कोई प्रेमिका से करता है। (मुक्तिबोध नन्द किशोर नवल, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली)।
मुक्तिबोध : साहित्यिक यात्रा
गजानन माधव मुक्तिबोध बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध के हिंदी के प्रमुख काव, चिंतक, आलोचक और कथाकार हैं। हिंदी साहित्य में उनका उदय प्रयोगवाद के एक प्रमुख कवि के रूप में हुआ। अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ के एक कवि के रूप में वे सामने आए थे, किंतु शीघ्र ही अपने कठिन जीवन तथा रचना संघर्ष के कारण उन्होंने अपना पथ अलग और स्वतंत्र कर लिया। वे अपने रचनात्मक जीवन में युग को दो प्रधान वैश्विक विचारधाराओं अस्तित्ववाद एवं मार्क्सवाद के संसर्ग में आए और विकट वैचारिक एवं रचनात्मक संघर्षों की प्रक्रिया से गुजरते हुए एक सच्चे मार्क्सवादी बनकर निखरे।
उनकी आरंभिक राजनीतिक कविताएं, जैसे लाल सलाम, एक नीली आग, दमकती दामिनी, क्रांति आदि प्रायः युद्धकाल और युद्धोत्तर काल में रची गई हैं। इनकी पृष्ठभूमि अन्तरराष्ट्रीय भी है और राष्ट्रीय भी – फासिस्ट सेना और लाल सेना के बीच का युद्ध, युद्ध में सोवियत संघ की विजय के साथ पूर्वी यूरोप के देशों में कथित समाजवादी शासन की स्थापना, तेभागा और तेलंगाना के किसान आंदोलन आदि।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद मुक्तिबोध ने अपनी शक्ति फासिज्म, साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरूद्ध केंद्रित की और छोटी- छोटी अनेक प्रभावशाली राजनीतिक कविताएं लिखीं। ‘जमाने का चेहरा’, ‘अंधेरे में’, के बाद उनकी एक उल्लेखनीय कविता है। यद्यपि यह एक वर्णनात्मक कविता है और इसमें ‘अंधेरे में’ जैसी जटिलता नहीं, तथापि यह अपने वर्णन की ओजस्विता और उदात्तता से पाठकों पर महाकाव्यात्मक प्रभाव डालती है।
‘जिंदगी का रास्ता’ मुक्तिबोध को एक आत्मकथात्मक कविता है – लंबी और उनकी अन्य लंबी कविताओं की तरह ही सारपूर्ण तथा मार्मिक। बीसवीं सदी के पचासवें चरण में और पूँजीवादी झूठ के विराट् अत्याचारों के बीच उसे आशा और विश्वास कहाँ से मिलता है, इस कविता ने बहुत सुंदर ढंग से उकेरा है। ‘उलट-पुलट शब्द’ एक छोटी लेकिन बहुत ही सार्थक कविता है, जिसमें मुक्तिबोध ने पूँजीवादी कारखाने में माल का उत्पादन करनेवाले मजदूरों के स्वयं माल बन जाने का वर्णन किया है। ‘भविष्य धारा’ उनकी एक लंबी और उल्लेखनीय कविता है।
मुक्तिबोध की सर्वाधिक उल्लेखनीय राजनीतिक कविता ‘अंधेरे में’ है जो फासिज्म की आशंका से ग्रस्त होकर रची गयी है। फासिस्ट हुकूमत में न केवल जनता के सारे जनतांत्रिक अधिकार छीन लिये जाते हैं, बल्कि और बड़े पैमाने पर उसका क्रूरतापूर्ण शोषण और दमन आरंभ हो जाता है। ‘अंधेरे में’ मुक्तिबोध की सर्वाधिक जटिल कविता भी है, इसलिए इसमें राजनीति सपाट रूप में नहीं आई। मुक्तिबोध की राजनीतिक कविताओं की विशेषता यह है कि उनकी राजनीति इतिहास और अर्थ-व्यवस्था के ज्ञान से असंपृक्त नहीं है। इस ज्ञान ने ही उनको राजनीति को गहनता प्रदान की है और इसी की बदौलत उनमें वे साधारण पत्रकार न रहकर ‘वास्तविकता के मूलगामी निष्कर्षों’ से परिचित
‘सौ-सौ भीतरी आँखोंवाले अखबार-नवीस’ नजर आते हैं।
राजनीति के बाद मुक्तिबोध की कविता का दूसरा मुख्य विषय मध्यवर्ग है, जिसके वे स्वयं सदस्य थे। अन्य प्रगतिशील कवियों ने जहाँ मार्क्सवाद की प्रचलित मान्यता के अनुरूप मजदूरों और किसानों को अधिक महत्व दिया है, वहाँ उन्होंने मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों और दफ्तर के कर्मचारियों को । मध्यवर्ग को विषय बनाकर मुक्तिबोध ने जो कहानियाँ और कविताएं लिखी हैं, उनमें एक बात लक्ष्य करने योग्य है। वह यह कि उनमें अनेक बार मध्यवर्ग के चरित्र कभी प्रच्छन्न और कभी प्रकट रूप में संघर्ष की स्थिति है। वह संघर्ष कभी उनके भीतर चलता है और कभी बाहर।
मुक्तिबोध की कविता में प्रकृति का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने स्वंतत्र रूप से प्रकृति को कविता नहीं लिखी है लेकिन प्रकृति से उनका गहरा सरोकार था। वह उनके व्यक्तित्व का अनिवार्य अंग थी। वे आधुनिक युग के अत्यंत जटिल संवेदनावाले कवि थे, इसलिए उनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों में मनुष्य और प्रकृति का अत्यंत जटिल सम्मिश्रण है
बावड़ी की इन मुँडेरों पर
मनोहर हरी कुदनी टेक
बैठी है टगर
से पुष्प तारे-श्वेत।

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