जाति और धर्म पर गाँधीजी के विचार

जाति और धर्म पर गाँधीजी के विचार

उत्तर– गाँधीजी के वर्ण अथवा जाति पर विचार- गाँधीजी का सत्यप्रयास विश्व मानवता के लिए था, जहाँ किसी जाति-वर्ग अथवा नस्ल के प्रति घृणा का स्थान नहीं है, सबों के लिए सत्य, प्रेम और करूणा ही आदर्श है। भारत गुलाम क्यों बना, इसके कारणों की खोज करते हुए उन्होंने पाया कि जाति-भेद, अस्पृश्यता, सामाजिक अन्याय, महिलाओं का गौण दर्जा, श्रम को नीच समझना आदि अनेक कारण थे जिनसे हमारा देश और समाज इतना कमजोर बना।
गांधीजी हिन्दू धर्म में गहराई से प्रचलित वर्ण एवं जाति व्यवस्था को सकारात्मक मानते हुए उसमें सुधार की आवश्यकता पर जोर देते थे। उनके अनुसार वर्ण व्यवस्था कायम रहनी चाहिए लेकिन समाज की व्यवस्था ऐसी हो कि जहां सबका कल्याण हो सके, जिसे उन्होंने ‘राम राज्य’ कहा था। उनकी वर्ण व्यवस्था संबंधी अवधारणा जन्म अथवा जाति के बंधन में बंधी हुई नहीं थी, बल्कि वे व्यक्ति की योग्यता एवं कर्म के अनुसार स्वयं वर्ण का चयन करने की स्वतंत्रता देना चाहते थे।
कई विद्वान एवं उनके समर्थक भी गांधी के वर्ण एवं जाति संबंधी उनके विचारों का विरोध करते थे और उनका तर्क था कि गांधी वर्ण एवं जाति व्यवस्था को सही मानते थे एवं इसे कायम रखना चाहते थे। लेकिन ऐसा नहीं था कि गांधी जी जाति एवं वर्ण व्यवस्था को एक सामाजिक व्यवस्था मानते थे जिससे पूरा समाज एक दूसरे से जुड़ा हुआ है एवं एक दूसरे पर निर्भर है। जाति वर्ण व्यवस्था खत्म होने से सामाजिक व्यवस्था के खत्म होने का डर था। परंतु गांधी जी ने जाति व्यवस्था की खामियों को दूर करने के काफी प्रयास किए। वे व्यक्ति की योग्यता एवं कर्म के आधार पर समानता एवं मानवाधिकारों के प्रबल पक्षधर थे।
गांधीजी अस्पृश्यता को तो हिंदू धर्म एवं समाज पर एक कलंक मानते थे। उन्होंने अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए काफी प्रयास किए। उन्होंने सबसे पहले दलितों को ‘हरिजन’ कहा एवं दलितोद्धार के लिए ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना की। गांधी के अनुसार चूंकि अछूत लोग समाज में सबसे निर्बल हैं इसलिए वो भगवान के सबसे प्रिय हैं। अतः अछूतों को उन्होंने ‘हरिजन’ की संज्ञा दी, उन्होंने ‘हरिजन’ नामक एक पत्र भी निकाला। उन्होंने 1933 में वर्धा से ‘हरिजन यात्रा’ आरंभ की एवं हरिजनों के विकास एवं उन्हें समाज में सम्मान दिलाने के लिए देशभर में प्रयास किया।
गाँधीजी के धार्मिक विचार- गाँधीजी मानव कल्याण वाले आचरण को ही धर्म मानते थे। अक्सर वे कहा करते थे “मेरा धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है, सत्य मेरा भगवान है और अहिंसा उसे साकार करने का साधन है। परमात्मा का कोई धर्म नहीं है। मैं उसे धार्मिक कहता हूँ, जो दूसरों का दर्द समझता है।” गांधीजी का लोकप्रिय भजन था- ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाणे रे…’ । जब कुछ हिन्दू सनातन धर्मियों ने गाँधीजी को श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के लिए प्रेरित किया तो उन्होंने हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, इस्लाम और अन्य धर्मों के बारे में पढ़ने-जानने से पहले किसी धर्म में विशेष रुचि नहीं दिखाई। चूंकि गाँधीजी धर्म को आस्था के बजाए तर्क की कसौटी पर परखना चाहते थे । परन्तु, बाद में श्रीमद्भगवद्गीता से गाँधीजी का हार्दिक लगाव प्राय: आजीवन बना रहा। गीता पर उनका चिंतन-मनन तथा लेखन भी लंबे समय तक चलता रहा, क्योंकि गीता को उन्होंने धर्म ज्ञान से बढ़कर कर्म ज्ञान का अपना साध्य माना था।
गाँधीजी ने धार्मिक मतभेदों व धार्मिक कट्टरपन के विरूद्ध भी संघर्ष किया और स्पष्ट किया कि राज्य को धर्म के विषय में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। गाँधीजी ने विद्यालयों में धर्म की शिक्षा का भी बहिष्कार किया। क्योंकि उन्हें भय था कि इनमें जिन धर्मों की शिक्षा दी जाती है अथवा पालन किया जाता है वे मेल के स्थान पर झगड़े उत्पन्न करते हैं। उन्होंने धर्म निरपेक्षवाद के सिद्धांत को सामाजिक न्याय और समानता के साथ जोड़ा। उनका कथन था कि भारत प्रमुख धर्मों का आश्रय स्थल रहा है और समय के साथ-साथ बहुधर्मीयता के रूप में उभरा है। हमारा व्यापक दृष्टिकोण व गहरी सहिष्णुता ही सामाजिक असामंजस्य, धार्मिक मतभेद और साम्प्रदायिक तनाव को मिटा सकती है। ईश्वर तो सत्य व प्रेम है, ईश्वर एक है, सिर्फ सब अलग अलग व्याखयाएं करते हैं। ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान’ ही उनका आदर्श धर्म था । सत्य, सेवा और सर्वोदय ही उनका जीवन दर्शन था।
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