भारतीय में राज्य की राजनीति में राज्यपाल की भूमिका का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए, विशेष रूप से बिहार के संदर्भ में। क्या वह केवल एक कठपुतली है ?

भारतीय में राज्य की राजनीति में राज्यपाल की भूमिका का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए, विशेष रूप से बिहार के संदर्भ में। क्या वह केवल एक कठपुतली है ?

अथवा

राज्यपाल के पद से संबंधित प्रदत्त संवैधानिक प्रावधानों एवं दायित्वों का उल्लेख करें। 
अथवा
विगत दशकों में अन्य राज्यों में राज्यपालों द्वारा लिए गए विवादास्पद निर्णयों का समालोचनात्मक परीक्षण करते हुए बिहार के सन्दर्भ में विभिन्न राज्यपालों द्वारा लिए गए संवैधानेत्तर निर्णयों का विश्लेषण करें। 
अथवा
निष्कर्ष में अपने मूल्यांकन के आधार पर अपना मत दीजिए कि क्या राज्यपाल एक कठपुतली मात्र है।
उत्तर – राज्य में शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए तथा सामाजिक एवं आर्थिक विकास कार्यों को क्रियान्वित करने हेतु विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों एवं नीतियों को व्यवहारिक रूप देने के लिए कार्यपालिका (Executive) का गठन किया गया है। भारत के संघीय शासन की भांति भारतीय राज्यों में भी कार्यपालिका के तीन स्वरूप भारतीय संविधान के भाग-VI, के अनुच्छेद-153 से 167 में वर्णित हैं।
भारतीय संविधान के अनुसार, राज्यपाल राज्यस्तर पर संवैधानिक प्रमुख होता है। कार्यपालिका प्रमुख होने के नाते वह राज्य के प्रमुख के रूप में एवं केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में वह राज्य एवं केन्द्र के मध्य कड़ी के रूप में कार्य करते हुए दोहरी भूमिका निभाता है।
> राज्यपाल की भूमिका का आलोचनात्मक परीक्षण
 भारतीय संविधान के लागू होने के कुछेक वर्षों बाद से ही राज्यपाल का पद एवं भूमिका विवादों से घिरा रहा है। यह विवाद चाहे राज्यपालों की नियुक्ति या बर्खास्तगी के संदर्भ में हो, चाहे राज्यपाल द्वारा राज्य सरकारों को बर्खास्त कर अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग का मामला हो अथवा राज्यपाल के विशेषाधिकार एवं राज्यों में की गई सरकार के गठन का मामला हो, राज्यपाल का पद एवं भूमिका किसी न किसी कारण से विवाद के केन्द्र में रही है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 155 के अनुसार राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, किन्तु वास्तविकता यह है कि राज्यापाल की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सिफारिश पर ही राष्ट्रपति द्वारा कर दी जाती है। आरम्भ में राज्यपाल की नियुक्ति हेतु दो परम्पराओं का पालन किया जाता था। जैसे –
प्रथम: वह व्यक्ति सम्बंधित राज्य का निवासी न हो,
द्वितीय : राज्यपाल की नियुक्ति से पहले संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से विचार-विमर्श किया जाता था।
किन्तु इन दोनों परम्पराओं में से दूसरी परम्परा को 1970 के दशक में कुछ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारों के गठन के बाद इस परंपरा की तिलांजलि दे दी गई और मनमाने ढंग से सत्ताधारी केन्द्र सरकार द्वारा राज्यपाल को नियुक्त एवं पदच्युत किया जाता रहा। आजकल यह परंपरा केन्द्र सरकारों के लिए एक नजीर बन गई। ऐसी स्थिति में राज्यपाल का पद भारतीय राजनीति में विवादास्पद होता चला गया। सामान्यतया राज्यपाल की पदावधि 5 वर्ष है, परन्तु उसे राष्ट्रपति द्वारा पहले भी पदच्युत किया जा सकता है क्योंकि वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत अपना पद धारण करता है। आवश्यकतानुसार समय-समय पर राज्यपालों की बर्खास्तगी के कारण अनेक जटिलताएं भारतीय राजनीति में उत्पन्न होती रही हैं। उदाहरणत: जुलाई 2004 में राष्ट्रपति द्वारा एक साथ गोवा, गुजरात, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश के राज्यपालों को बर्खास्त करने एवं भाजपा सांसद वी. पी. सिंघल द्वारा बर्खास्तगी को उच्चतम् न्यायालय में चुनौती देने पर यह मुद्दा संवैधानिक और राजनैतिक विशेषज्ञों के बीच चर्चा का विषय बन गया।
राजनीति से प्रेरित राज्यपालों की भूमिका – सामान्य परिस्थितियों में जब राज्य में बहुमत वाली स्थायी सरकार होती है तब राज्यपाल नाममात्र का प्रमुख होता है। लेकिन असामान्य परिस्थितियों में जब राज्य में राजनीतिक अस्थिरता होती है तब वह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि उसके पास अनुच्छेद 361 के तहत विशेष विवेकाधिकार होते हैं जिनका इस्तेमाल राज्यपाल केन्द्रीय सरकार के निर्देशानुसार मनमाने ढंग से करता है और अनुच्छेद- 356 को अपना राजनीतिक हथियार बनाता है। मिसाल के तौर पर 1959 में केरल में नम्बूदरीपाद के नेतृत्व वाली सरकार को राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर बर्खास्त किया गया एवं 1984 में आंध्र प्रदेश के एन. टी. रामाराव के मंत्रिमण्डल को बर्खास्त किया गया।
 एसआर बोम्मई बनाम भारत सरकार – 1989 में एस. आर. बोम्मई कर्नाटक के मुख्यमंत्री थे, लेकिन बहुमत न होने के आधार पर राज्यपाल पेंडेकांति बेंकट सुब्बैया ने उनकी सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था। बोम्मई ने इसे पहले हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। 11 मार्च, 1994 को सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की कहा था। बेंच ने अपने फैसले में एसआर बोम्मई को दोबारा सरकार बनाने को कहा था।
जगदंबिका पाल बनाम भारत संघ – 1998 में उत्तर प्रदेश में भी इसी तरह की स्थिति बनी थी और सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत परीक्षण कराने का आदेश दिया था। उस समय राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री पद से बर्खास्त कर दिया था और कांग्रेस के जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया था।
> 2016 में उत्तराखंड के राज्यपाल कृष्ण कांत पॉल ने हरीश रावत के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार के कुल 35 विधायकों में से 9 विधायकों ने रावत के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद कर दिया, इसी बीच राज्यपाल ने केंद्र को रिपोर्ट भेज दी कि सूबे में संवैधानिक तंत्र नाकाम हो गया है, लिहाजा राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। इसके बाद नरेंद्र मोदी कैबिनेट ने राष्ट्रपति शासन लगा दिया जिसे हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को अवैध ठहरा दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने हरीश रावत सरकार को विधानसभा में बहुमत साबित करने का आदेश दिया। आखिरकार हरीश रावत सरकार ने बहुमत साबित कर दिया। 2016 में ही अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता को देखते हुए राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश कर दी जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को निरस्त कर दिया। के येदियुरप्पा को सीएम पद की
> 17 मई 2018 को कर्नानाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला ने अल्पमत वाले बीजेपी के येदियुरप्पा को सीएम पद की शपथ दिला दी जो अपना बहुमत सिद्ध नहीं कर पाए। इसके बाद कांग्रेस- जेडीएस की सरकार बन गई।
>  एक नवीनतम रानीतिक घटनाक्रम में 23 नवम्बर, 2019 को अचानक सुबह-सवेरे महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने भाजपा के डेवेन्द्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री की शपथ दिला दी लेकिन 48 घंटे में ही मुख्यमंत्री को इस्तिफा देना पड़ा। इसमें राज्यपाल की असंवैधानिक भूमिका को लेकर उन्हें केन्द्र सरकार के एजेंट अथवा कठपुतली के रूप करने के आरोप में काफी आलोचना झेलनी पड़ी।
बिहार की राजनीति में राज्यपाल से जुड़े विवादित मुद्दे: जिस प्रकार केन्द्र में नाममात्र का कार्यपालिका प्रमुख राष्ट्रपति होता है और वास्तविक अर्थो में कार्यपालिका अधिकार प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद् के पास होती है जो सामूहिक रूप से संसद के प्रति जिम्मेदार होती है, ठीक इसी तरह, बिहार में नाममात्र की कार्यपालिका का प्रमुख राज्यपाल होता है। बिहार के राज्यपाल के काम करने का ढंग केन्द्र-राज्य की राजनीतिक स्थिति पर निर्भर करता है। मिसाल के तौर पर 1999 में केन्द्र की बाजपेयी सरकार के निर्देशानुसार, बिहार के राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी द्वारा बिना ठोस आधार के राबड़ी देवी सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश करना, 2005 में राज्यपाल बूटा सिंह द्वारा किसी पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित न करना और मनमाने निर्णय लेकर राज्य में संवैधानिक संकट खड़ा करना, 2017 में राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी द्वारा केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार के निर्देशानुसार काम करना और लालू प्रसाद की सबसे बड़ी पार्टी आर. जे. डी. को सरकार बनाने का मौका न देना जैसे अनेक मिसाल हैं जो दर्शाता है कि बिहार के राज्यपालों की भूमिका राजनीतिक निहितार्थ से ओत-प्रोत रहे हैं।
कठपुतली के रूप में राज्यपाल – चूंकि संवैधानिक पद पर आसीन राज्यपाल किसी भी राज्य का सर्वोच्च होता है, उसे किसी भी पार्टी लाइन से ऊपर रह कर राज्य एवं संवैधानिक दायित्वों के निर्वहन के कुछ अधिकार दिए गए हैं। किन्तु अक्सर राज्यपाल को केन्द्र सरकार का एजेंट माना जाता है जो केन्द्र सरकार के इशारों पर कठपुतली की तरह कार्य करता है। राज्यपाल द्वारा केन्द्र सरकार के निर्देशों के अनुसार राज्य सरकारों को बर्खास्त करना, राज्य सरकार द्वारा पारित कुछ विशेष अधिनियमों को राष्ट्रपति हेतु आरक्षित करना, त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में मनमाने ढंग से पसंदीदा व्यक्ति को मुख्यमंत्री नियुक्त करना आदि के सन्दर्भ में राज्यपाल को केन्द्र सरकार की कठपुतली माना जाता है। परन्तु राज्यपाल के पद को मात्र कठपुतली नहीं माना जा सकता है। राज्यपाल का पद एक संवैधानिक पद है जिसकी अपनी गरिमा एवं विशेषाधिकार हैं। कुछेक अपवादों को छोड़कर राज्यपालों ने राज्य सरकारों को बेहतर राह दिखायी है तथा भारत की संघात्मक व्यवस्था को मजबूती प्रदान की है।
निष्कर्ष- इस प्रकार हम देखते हैं कि राज्यपाल का पद वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था में आलोचना अथवा विवाद का विषय बना हुआ है। इसके समाधान के लिए राज्यपाल को राजनीति से ऊपर उठकर संवैधानिक मर्यादाओं एवं मान्य परम्पराओं के अनुसार आचरण करना चाहिए, जिससे राज्य की बहुमत आकांक्षाओं के अनुरूप शासन व्यवस्था स्थापित हो सके। साथ ही राज्यपाल पद की गरिमा इसी में है कि वह संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में कार्य करे, न कि केन्द्र के अभिकर्ता के रूप में और न ही सक्रिय राजनीतिज्ञ के रूप में, तो निःसंदेह राज्यपाल का पद अपनी गरिमा एवं पद प्रतिष्ठा को कायम रखने में सफल होगा।
नोट: प्रश्न में राज्यपाल के लिए ‘कठपुतली’ शब्द के इस्तेमाल को लेकर विवाद पैदा होने के उपरांत आयोग द्वारा इस प्रश्न को मूल्यांकन से बाहर कर दिया गया था।
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