नयी कविता : उद्भव, विकास और प्रवृत्तियाँ
नयी कविता : उद्भव, विकास और प्रवृत्तियाँ
हिंदी साहित्य कोश के अनुसार, नयी कविता मूलत: 1953 ई0 में ‘नये पत्ते’ के प्रकाशन के साथ विकसित हुई और जगदीश गुप्त तथा रामस्वरूप चतुर्वेदी के संपादन में प्रकाशित होनेवाले संकलन ‘नयी कविता (1954) में सर्वप्रथम अपने समस्त संभावित प्रतिमानों के साथ प्रकाश में आयो। इस काल की कविता का ‘नयो कविता’ नाम कई कारणों से पड़ा। प्रथम तो यह कि नयी कविता के कवि विषय-वस्तु और शिल्प की दृष्टि से अपने पूर्ववर्ती कवियों के साथ तो थे, किंतु वे स्वयं यह अनुभव कर रहे थे कि ‘दूसरा सप्तक’ के कवियों द्वारा जहाँ जिस सीमा तक समस्त काव्य-चेतना पहुँच चुकी थी, नयी कविता उससे आगे की ओर बढ़ चुकी थी।
नयी कविता आज की मानव विशिष्टता से उद्भूत उस लघु मानव के लघु परिवेश की अभिव्यक्ति है, जो एक ओर आज की समस्त तिक्तताओं के बीच वह अपने व्यक्त्वि को भी सुरक्षित रखना चाहता है। वह विशाल मानव-प्रवाह में बहने के साथ-साथ असितत्व के यथार्थ को भी स्थापित करना चाहता है, उसके दायित्व का निर्वाह भी करना चाहता है।
नयी कविता की मूल स्थापनाओं में चार तत्व मुख्य हैं। सर्वप्रथम तो यह कि नयी कविता का विश्वास आधुनिकता में है। दूसरे, नयी कविता जिस आधुनिकता को स्वीकार करती है, उसमें वर्जनाओं और कुण्ठाओं की अपेक्षा मुक्त यथार्थ का समर्थन है। तीसरे, इस मुक्त यथार्थ का साक्षात्कार वह विवेक के आधार पर करना अधिक न्यायोचित मानती है। और चौथा, यह कि इन तीनों के साथ-साथ वह क्षण के दायित्व और नितांत समसामयिकता के दायित्व को स्वीकार करती है। आधुनिकता का अर्थ विकृतियों से न होकर उस वैज्ञानिक दृष्टिकोण के समर्थन में है, जो विवेचना और विवेक के बल पर हमें प्रत्येक वस्तु के प्रति एक मानवीय दृष्टि, यथार्थ की दृष्टि देती है।
सौंदर्य-बोध की दृष्टि से नयी कविता सौंदर्य को यथार्थ से पृथक वस्तु नहीं मानती। यथार्थ का क्रियाशील तत्व सौंदर्य के आयामों को निर्धारित एवं परिमार्जित करता रहता है। नयी कविता का आग्रह सौंदर्य के प्रति नहीं है, जो मात्र अलौकिक या अदृश्य के संयम-नियम से शासित होकर व्यक्त होता है। नयी कविता का सौंदर्यवाद बौद्धिक अनुभूति और बुद्धिवाद को भी स्वीकार करता है। परिवेश के महत्वपूर्ण शायित्व के प्रति नयी कविता का दृष्टिकोण दो विचारों से प्रभावित है। सर्वप्रथम तो नितांत समसामयिकता की दृष्टि से और दूसरे अस्तित्वपूर्ण क्षण के प्रति जागरूक चेतना की अनुभूति और उसको अभिव्यक्ति को दृष्टि से। समसामयिकता के दायित्व का निर्वाह करने के लिए यह आवश्यक है कि कवि के अंदर आधुनिकता के प्रति एक वैज्ञानिक दृष्टि के साथ-साथ लघु मानव के लघु परिवेश की आस्था भी हो।
नयी कविता का आग्रह जिस विशेष तत्व पर है, वह उस मानव-व्यक्तित्व की स्थापना और उसकी उपयोगिता से विकसित होता है, जो समस्त विदुपताओं और कटुताओं के बावजूद मनुष्य को उसको मूल मर्यादा के प्रति, निजत्व और अस्तित्व के प्रति जागरूक रखना चाहता है। छायावाद की भांति इसमें वस्तु स्थिति से पलायन की प्रवृत्ति न होन के नाते यह आज की मानसिक स्थिति को अधिक प्रतिबिंवित करती है। ठीक उसी प्रकार प्रगतिवाद के मत प्रधान काव्य की दीन और संकीर्ण मनोवृत्ति से पृथक् वह यथार्थ की गतिशीलता को अंगीकार करके दिग्भ्रमित नहीं होती। यही वजह है कि वह विकासमान रही है।
नयी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ पाँच प्रकारों में विभाजित की जा सकती है। पहली प्रवृत्ति यथार्थवादी अहंवाद की है, जिसमें यथार्थ को स्वीकृति के साथ-साथ कवि अपने अस्तित्व को उस यथार्थ का अंश मानकर उसके प्रति जागरूक अभिव्यक्तियाँ देता है। इसके अंतर्गत अज्ञेय, मुक्तिबोध, कुंवर नारायण, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना इत्यादि की रचनाएं आती हैं। दूसरी प्रवृत्ति व्यक्ति अभिव्यक्ति की सवच्छंद प्रवृत्ति है, जिसमें आत्मानुभूति को समस्त संवेदना को बिना किसी आग्रह के रखने की चेष्टा की जातो है। इस भाव के अंतर्गत प्रभाकर माचवे और मदन वात्साययन आते हैं। तोसरी प्रवृत्ति आधुनिक यथार्थ से द्रवित व्यंग्यात्मक दृष्टि की है, जिसमें वर्तमान कटुताओं और विषमताओं के प्रति कवि की व्यंग्यपूर्ण भावनाएं व्यक्त हुई हैं। इस प्रवृत्ति के अंतर्गत लक्ष्मीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, भवानी प्रसाद मिश्र और विजयदेव
नारायण साही की रचनाएं आती हैं। चौथी प्रवृत्ति ऐसे कवियों की है जिनमें रस और रोमांच के साथ-साथ आधुनिकता और समसामयिकता का प्रतिनिधित्व संपूर्ण रूप में व्यक्त हुआ है। गिरिजा कुमार माथुर, नेमिचंद्र जैन और धर्मवीर भारती की कविताओं में इस प्रवृत्ति को तलाशा जा सकता है। पाँचवीं प्रवृत्ति उस चित्रमयता और अनुशासित शिल्प की भी है, जो आधुनिकता के संदर्भ में होते हुए भी समस्त यथार्थ को केवल बिंबात्मक रूप में ग्रहण करता है। इसके अंतर्गत जगदीश गुप्त, केदारनाथ सिंह और शमशेर बहादुर सिंह की रचनाएं प्रस्तुत होती हैं।