पियाजे के ज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त की आधारभूत धारणाओं की व्याख्या कीजिये । उसके द्वारा प्रतिपादित ज्ञानात्मक विकास की अवधारणाओं की चर्चा कीजिए।
पियाजे के ज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त की आधारभूत धारणाओं की व्याख्या कीजिये । उसके द्वारा प्रतिपादित ज्ञानात्मक विकास की अवधारणाओं की चर्चा कीजिए।
उत्तर— पियाजे का संज्ञान विकास सिद्धान्त (Congnitive Development Theory of Piaget)—
संज्ञान-विकास (Cognitive Development)– सिद्धान्त स्विटजरलैण्ड के प्रसिद्ध जीवविज्ञानी, दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे (Jean Piaget) ने संज्ञानात्मक विकास की अति विस्तृत व्याख्या की है । उन्होंने सर्वप्रथम 1920 से ही बाल विकास के क्षेत्र में कार्य करना प्रारम्भ किया था। सर्वप्रथम उन्होंने अपने एक पुत्र और दो पुत्रियों के संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया। बाद में कई हज़ारों बच्चों का अध्ययन किया। पियाजे के अनुसार संज्ञान शैशवावस्था से ही आगे की ओर विकसित होता है व बच्चे बड़ों की भाँति चिन्तन नहीं करते हैं। बच्चे भिन्न प्रकार से ही चिन्तन करते हैं और इन विभिन्नताओं को तर्क के विकास में देखा जा सकता है।
पियाजे के सिद्धान्त की मान्यताएँ (Assumptions of Piagets Theory)— पियाजे का उपागम आनुवांशिक (Genetic Epistemology) पर आधारित है। उन्होंने संज्ञान या वृद्धि को पाचन क्रिया, श्वास क्रिया, रक्त संचार की भाँति एक जैविक क्रिया माना है। संज्ञान मानव प्राणी को अपने सामाजिक भौतिक वातावरण के साथ समायोजित होने में सहायक होता है। अत: संज्ञान उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितनी कि जैविक क्रियाएँ ।
संज्ञानात्मक विकास चार प्रमुख अवस्थाओं से होकर गुजरता है । प्रत्येक अवस्था में ज्ञान का नया भण्डार निर्मित होता है, जो पिछली अवस्था में पाये जाने वाले ज्ञान भण्डार से गुणात्मक दृष्टि से भिन्न होता है। पियाजे की इस अवधारणा के कारण ही इस सिद्धान्त को अवस्था सिद्धान्त माना जाता है।
पियाजे ने अपने सिद्धान्त में गुणात्मक परिवर्तनों (Qualitative Changes) में अधिक रुचि दिखाई है। पियाजे ने इस सिद्धान्त के संदर्भ में कुछ सम्प्रत्ययों (Concepts) की कल्पना की है, जो सभी अवस्थाओं में समान रूप से पाये जाते हैं। ये सम्प्रत्यय संगठन (Organization), संरचना (Structure), अनुकूलन (Adaptation), आत्मसातन (Assimilation), समंजन (Accomodation) व साम्यधारणा (Equilibration) हैं।
पियाजे के सिद्धान्त के मुख्य संप्रत्यय (Concepts of Piaget Theory)– पियाजे के सिद्धान्त में संज्ञान संक्रिया व संज्ञान संरचना (Cognitive Function and Cognitive Structure) मुख्य संप्रत्यय हैं।
संज्ञान संक्रियाएँ (Cognitive Function) से तात्पर्य पियाजे के अनुसार जन्म से ही बालक में प्रत्यक्षीकरण, स्मृति, तर्क आदि की क्रियाएँ पाई जाती हैं और जीवन- पर्यन्त चलती रहती हैं। ये क्रियाएँ विकास की किसी अवस्था में पहुँचकर न तो बदलती हैं और न ही समाप्त होती हैं।
संज्ञान संरचना (Cognitive Structure) से तात्पर्य बालक की सभी क्षमताएँ, योग्यताएँ, विचार, ज्ञान, आदतें, नये पुराने अनुभव परिपक्वता में वृद्धि के कारण अगली अवस्था में परिमार्जित हो जाते हैं । अर्थात् संज्ञान संरचना प्रत्येक अवस्था में आकर गुण और आकार दोनों ही दृष्टियों से परिवर्तित हो जाती है।
पियाजे के दो अन्य संप्रत्यय संगठन (Organization) व अनुकूलन (Adaptation) हैं।
संगठन (Organization)– संगठन से पियाजे का तात्पर्य बुद्धि में सम्मिलित क्रियाएँ प्रत्यक्षीकरण, स्मृति चिन्तन एवं तर्क आदि परस्पर संगठित होकर कार्य करती हैं। पियाजे के अनुसार ये क्रियाएँ पृथकपृथक कार्य नहीं करतीं। मानसिक स्तर पर यह कार्य अथवा प्रक्रिया सदैव चलती रहती है ।
अनुकूलन (Adaptation)– वातावरण के साथ समायोजन स्थापित करने की आवश्यक प्रक्रिया है। संगठन व अनुकूलन एक दूसरे की पूरक (Complementary) प्रक्रियाएँ हैं। पियाजे के अनुसार ज्ञान का विकास एक प्रकार का अनुकूलन है जिसमें दो प्रकार की उपक्रियाएँ आत्मसातीकरण (Assimilation) और समंजन (Accomodation) सन्निहित हैं।
आत्मसातीकरण (Assimilation)– आत्मसातीकरण से तात्पर्य अपने वातावरण को इस प्रकार समायोजित करने से है कि वह बच्चे के पूर्व विकसित चिन्तन एवं व्यवहार के अनुकूलन हो जाये । पियाजे ने आत्मसातन की व्याख्या एक जीव-वैज्ञानिक प्रक्रिया के रूप में की है । पियाजे के अनुसार जीव-वैज्ञानिक दृष्टि से आत्मसातन प्राणी की विकसित अथवा विकासशील संरचनाओं में बाह्य तत्त्वों के समायोजित होने की प्रक्रिया है। जैसे ही नवजात शिशु सर्वप्रथम अपनी माँ के सम्पर्क में आता हैं, वह माँ को आत्मसात कर लेता है, फिर अन्य महिलाओं पिता फिर अन्य पुरुषों को चाचा, ताऊ आदि के सम्पर्क में आता है और उनकी वेशभूषाओं, उनकी विशेषताओं आदि को देखता है। उनमें भिन्नताओं के होते हुए भी उन लोगों, परिचितों, अपरिचितों के रूप में स्वीकार कर लेता है।
समंजन (Accommodation)– समंजन का तात्पर्य अपने को परिमार्जित करने की विशेषताओं को अनुकूल बनाने से है। वातावरण के सम्पर्क में आकर वह अपने संज्ञानात्मक संरचना को परिमार्जित करता है। यह आत्मसातीकरण का पूरक है। इसमें वातावरणीय उद्दीपक अपरिवर्तित रहते हैं। व्यक्ति को अपने अनुभव में परिवर्तन करना पड़ता है।
समंजन की प्रक्रिया में बालक किसी नई वस्तु को अपने ज्ञान भण्डार में लाने के लिये उस वस्तु के स्वरूप को परिवर्तित नहीं करता, बल्कि पुराने अनुभव के साथ नये अनुभव को इस प्रकार व्यवस्थित करता है जिससे दोनों नये-पुराने अनुभव मस्तिष्क में साथ-साथ रह सकें ।
संज्ञान विकास की अवस्थाएँ– पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास में चार प्रमुख अवस्थाओं का उल्लेख किया है। प्रत्येक अवस्था की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं। प्रत्येक अवस्था में बालक के भीतर पाये जाने वाले समस्त ज्ञान, विचारों और व्यवहारों के संगठन से एक पैटर्न बनता है जिसे पियाजे ने Schema कहा है। इन Schema का विकास बालक द्वारा सीखे गये अनुभव व परिपक्वता पर आधारित होता है | संज्ञान की चारों अवस्थाओं का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित प्रकार से हैं—
(1) संवेदी पेशीय अवस्था (Sensory-motorstage) – यह अवस्था जन्म से दो वर्ष तक की मानी गई। इस अवस्था में बच्चे भौतिक वातावरण के बारे में ज्ञान प्राप्त करने के लिये अपनी संवेदनाओं और शारीरिक क्रियाओं की प्रत्यक्ष सहायता लेते हैं । इस अवस्था में बालक संवेदना और शारीरिक क्रियाओं के संबंध के बारे में ज्ञान प्राप्त कर लेता है । इसलिये इस अवस्था को पियाजे ने संवेदी-पेशीय अवस्था कहा है।
जब बालक पैदा होता है, उसके भीतर केवल सहज क्रियाएँ ही पायी जाती हैं। पियाजे ने इसे सहज स्कीमा (innate schema) कहा है । इन सहज क्रियाओं की सहायता से बच्चे वस्तुओं, ध्वनियाँ, स्पर्श गन्ध का अनुभव प्राप्त करते हैं। जैसे-जैसे बालक बड़ा होता जाता है, बालक उन्हीं उद्दीपकों के सम्पर्क में बार-बार आता है। दो वर्षों की अवधि समाप्त होते-होते बच्चे के भीतर विचार और कल्पना का प्रारम्भ होता जाता है। इस तरह बालक का सहज स्कीमा अब अर्जित स्कीमा बन जाता है।
(2) पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational Stage)– इस अवस्था का विस्तार 2-7 वर्ष माना है। इस अवस्था में स्वार्थी न रहकर दूसरों के सम्पर्क में ज्ञान अर्जित करता है। भौतिक रूप में उपस्थित वस्तुओं के बारे में सोच-समझ सकते हैं। इस अवस्था में बच्चों में मानसिक रूपान्तरण (Mental Transformation) की अयोग्यता पाई जाती है। इसलिये इस अवस्था को पूर्व संक्रियात्मक कहा है।
इस अवस्था की पियाजे के अनुसार निम्नलिखित विशेषताएँ हैं—
(i) इस अवस्था का विस्तार 2-7 वर्ष माना गया है।
(ii) बच्चे सामान्यत: बोलना, खेलना मानसिक प्रतिभाओं आदि के विषय में सीख लेते हैं। ।
(iii) बच्चे खेल, अनुकरण, चित्र निर्माण भाषा के माध्यम से वस्तुओं की जानकारी करता है।
(iv) बालक धीरे-धीरे प्रतीकों को ग्रहण करना सीखता है ।
(3) मूर्त-संक्रिया की अवस्था (Concrete Operational Stage )– इस अवस्था का विस्तार लगभग 9 से 11 वर्ष है। इस अवस्था में बच्चे जिस बौद्धिक उपकरण को विकसित करते हैं, उसे मूर्त संक्रियाओं (Concrete Operation) की संज्ञा दी जाती है।
इस अवस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं—
(i) यह अवस्था विकसित संज्ञान की अवस्था कही जाती है।
(ii) दूसरी अवस्था की तुलना में यह अवस्था अधिक विकसित संज्ञान की अवस्था है।
(iii) इस अवस्था में बालक तार्किक चिंतन करने योग्य हो जाता है।
(iv) बच्चों में संक्रियाओं को निष्पादित करने, मानसिक कार्य करने तथा संसार को पुनर्संगठित करने की योग्यता आ जाती है।
(4) औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Formal Operation Stage )– यह संज्ञान विकास की अंतिम अवस्था है। 12 वर्ष की अवस्था के बाद पियाजे द्वारा वर्णित औपचारिक संक्रिया की अवस्था में पदार्पण करते हैं। इस अवस्था में चिन्तन प्रौढ़ों के योग्य हो जाता है। मुख्य विशेषता अमूर्त संप्रत्ययों के रूप में चिंतन करने की योग्यता विकसित होती है।
इस अवस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं—
(i) इस अवस्था में चिन्तन प्रौढ़ों के योग्य हो जाते हैं।
(ii) इस अवस्था की मुख्य विशेषता अमूर्त सम्प्रत्ययों के रूप में चिन्तन (Abstract thinking) करने की योग्यता है, जो मूर्त वस्तुओं या क्रियाओं को एक साथ जोड़ती है।
(iii) इस अवस्था में लड़के और लड़कियाँ वास्तविक जगत से काल्पनिक जगत की ओर गतिशील होते हैं ।
(iv) यह उपकल्पनात्मक चिन्तन (Hypothetical Thinking) की प्रक्रिया है। इससे तात्पर्य है बालक वस्तुओं के बारे में यह सीखते हैं कि वे क्या हैं व इस बात पर चिन्तन करते हैं कि थोड़ा परिवर्तन होने पर वे कैसी होंगी- लगेंगी।
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