एरिक्सन के मनोसामाजिक विकास सिद्धान्त की विकास अवस्थाओं का विस्तृत विवरण दीजिए।

एरिक्सन के मनोसामाजिक विकास सिद्धान्त की विकास अवस्थाओं का विस्तृत विवरण दीजिए।

                                                                      अथवा
एरिक्सन के मनोसामाजिक विकास के सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर— एरिक्सन का मनोसामाजिक विकास सिद्धान्त (Erikson’s Psychosocial Development Theory)– सिगमण्ड फ्रायड की भाँति व्यक्तित्व विकास का एक दूसरा मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्त एरिक्सन द्वारा प्रतिपादित किया गया है। किन्तु जहाँ फ्रायड का मनोलैंगिक विकास का सिद्धान्त कहा जाता है, एरिक्सन का सिद्धान्त मनोसामाजिक विकास की प्रक्रिया भी चलती रहती है। उन्होंने ऐसी आठ अवस्थाओं का उल्लेख किया है जिनसे होकर बालक का मनोसामाजिक विकास गुजरता है। इन सभी आठों अवस्थाओं का बालक के व्यक्तित्व पर एक विशेष प्रभाव पड़ता है। एरिक्सन ने बाल-व्यक्तित्व के सामाजिक पक्ष को बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण माना है और विकास की प्रत्येक अवस्था में पाये जाने वाले उन सामाजिक तत्त्वों का विश्लेषण किया है जो बालक के व्यक्तित्व विकास पर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालते हैं।
मनोसामाजिक विकास की अवस्थाएँ– एरिक्सन ने अपने व्यक्तित्व विकास सिद्धान्त में मनोविकास की कुल आठ अवस्थाओं का उल्लेख किया है। दी गई तालिका में इन आठों अवस्थाओं का विवरण प्रस्तुत है। प्रत्येक अवस्था में उत्पन्न और विकसित होने वाली मानसिक विशेषताओं का संकेत किया गया है जो उस अवस्था में होने वाली सामाजिक अनुभूतियों के कारण उत्पन्न होती हैं । उक्त मानसिक दशाओं को उनके प्रभाव के आधार पर भावात्मक या निषेधात्मक माना जाता है। ये भावात्मक या निषेधात्मक तत्त्व बालक के भावी सामाजिक सम्बन्धों को उपयुक्त या अनुपयुक्त बनाते हैं। इन मनोसामाजिक अवस्थाओं का संक्षिप्त रूप से विवरण निम्न हैं—
(1) 2 वर्ष तक       विश्वास         अविश्वास
(2) 3 से 4 वर्ष      स्वतंत्रता        संदेह
(3) 5 से 6           आत्मबल       अपराध-भाव
(4) 7 से 12         परिश्रम          हीनता
(5) 13 से 18       पहचान          भूमिका द्वन्द्व
(6) 19 से 35       घनिष्ठता         अलगाव
(7) 36 से 55       उत्पादकता     निष्क्रियता
(8) 55 से ऊपर    ईमानदारी      निराशा
(1) विश्वास – अविश्वास की अवस्था— जन्म के दो वर्ष तक बच्चा अपनी आवश्यकताओं के लिए पूर्णत: अपने माता-पिता पर निर्भर होता है। माँ-बाप तथा परिवार के अन्य सदस्य जिस ममता, स्नेह और प्यार के साथ उसके साथ पेश आते हैं अर्थात् उन्हें खिलाते, पिलाते, चूमते और उनके साथ हँसते-बोलते हैं। उससे बच्चे के भीतर उन लोगों के प्रति विश्वास का विकास होता है। निरन्तर निर्विघ्न रूप से प्यार दुलार पाते रहने के कारण बच्चा अपने सामाजिक परिवेश से अनेक आशाएँ रखने लगता है और अगली अवस्था में विश्वास के साथ पदार्पण करता है। किन्तु जब बालक अपने परिवार वालों से प्यार-दुलार के स्थान पर घृणा और कठोरता का व्यवहार पाता है तो उसके मन में अविश्वास विकसित होने लगता है। यही भावनाएँ बच्चे के मन में भावात्मक अथवा निषेधात्मक अभिवृत्तियों और शील गुणों को उत्पन्न करती हैं। इन अभिवृत्तियों और शीलगुणों का आगे आने वाली अवस्थाओं में बच्चे के व्यवहार और समायोजन पर प्रभाव पड़ता है। वस्तुतः विकास की किसी भी अवस्था में पूर्वनिर्मित अभिवृत्तियाँ बदली जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, एक बालक जो अविश्वास की भावना लेकर पाठशाला में प्रवेश कस्ता है वह कुछेक गुरुजनों के प्रति विश्वास विकसित कर सकता है और इस प्रकार वह अपने पुराने अविश्वास के भाव को धीरेधीरे त्याग सकता है। यही बात उस बालक के लिए भी कही जा सकती के है जो विश्वास का भण्डार लेकर विकास की नई अवस्था में प्रविष्ट होता है। ऐसा बालक यदि कुछ स्वार्थी लोगों के सम्पर्क में आकर अविश्वास विकसित करता है, तो उसका अनुभव बदल जाता है और वह एक परिवर्तित मनोवृत्ति के साथ अगली अवस्था में प्रवेश करता है।
(2) स्वतन्त्रता – सन्देह की अवस्था– तीन-चार वर्ष की अवस्था में बालक अपने सामाजिक वातावरण को अच्छी तरह समझने लगता है और स्वतन्त्रतापूर्वक व्यवहृत होने लगता है। अब वह आत्मनियंत्रण एवं आत्म प्रदर्शन के योग्य हो जाता है। अपनी दिनचर्या के बहुत से कार्य वह स्वयं करने के लिए स्वतन्त्रता महसूस करता है। यदि परिवार के अन्य सदस्य बालक द्वारा किए गए कार्यों से संतुष्ट होकर उसकी प्रशंसा करते हैं तो बालक के भीतर आत्मविश्वास की वृद्धि होती है। अत: एरिक्सन के अनुसार तीन-चार साल की अवस्था में, जो मनोसामाजिक विकास की दूसरी अवस्था होती है, बालक के भीतर या तो स्वतंत्रता का भाव या संदेह का भाव विकसित हो जाता है और वह उसी भाव को लेकर आगे की अवस्था में प्रविष्ट होता है जिसका प्रभाव उसके व्यवहार एवं समायोजन पर पड़ता है।
(3) आत्मबल-अपराध भाव की अवस्था– पाँच-छ: वर्ष की इस अवस्था में पहुँचकर बालक जिज्ञासु हो उठता है। वह अपने आत्मबल के कारण अनेक जिम्मेदारियों के कार्य की पहल करता है। परिवार के सदस्य भी उससे यही अपेक्षा रखते हैं। किन्तु कभी-कभी बालक ऐसे कार्य भी कर बैठता है जिसका दूसरों की स्वतंत्रता पर प्रभाव पड़ता है या जिससे दूसरों को आघात पहुँचता है। जब बालक द्वारा किये गए कार्यों को दूसरों का समर्थन प्राप्त होता है तो उसके भीतर आत्मबल या पहल की शक्ति दृढ़ होती है। किन्तु जब दूसरे सदस्य उसकी पहल को अच्छा नहीं मानते तो उसके मन में अपराध की भावना विकसित होने लगती है और वह अपने को दोषी समझने लगता है।
(4) परिश्रम – हीनता की अवस्था– इस अवस्था का बालक अपने मित्रों के साथ तादात्मय स्थापित करता है। अन्य मित्रों की ही भाँति बालक परिवार तथा पाठशाला में अधिक से अधिक कार्य करना चाहता है। एरिक्सन के अनुसार प्रत्येक समाज में इस अवस्था में नये-नये कार्यों को सीखने का अवसर दिया जाता है जिससे बालक प्रौढ़ जीवन के लिए आवश्यक कौशलों से सुसज्जित हो जाए। हमारे समाज में इस अवस्था का बालक पाठशाला भेजा जाता है किन्तु अन्य समाजों में वह खेती में काम करता है या मछली आदि का शिकार करना सीखता है। यह बालक इन कौशलों को भली-भाँति सीख लेता है तो वह परिश्रमी बनता है और उसमें परिश्रम के प्रति सम्मान का भाव विकसित होता है।
(5) पहचान- भूमिका द्वन्द्व की अवस्था– यह 13 से 18 वर्ष की किशोरावस्था होती है। इस अवस्था में प्रवेश पाने के बाद बालक अच्छी तरह जानने लगता है कि वह कौन है और उसके लक्ष्य क्या है। अब वह अपनी पसंदगी और नापसंदगी भी निश्चित कर लेता है । वह अपनी क्षमताओं के अनुरूप अपना कार्यक्षेत्र, विचार – शैली, मित्र-मण्डली, व्यवसाय आदि का चयन कर उसी दिशा में बढ़ने लगता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अब उसे अपनी और अपनी क्षमताओं की पहचान हो चुकती है। अब वह समाज में अपनी भूमिका को निश्चित कर लेता है। किन्तु कुछ बालक ऐसे भी होते हैं जिन्हें यह समझ में नहीं आता कि समाज में उन्हें क्या भूमिका निभानी है। अत: ऐसे बालकों के व्यवहार में विसंगतियाँ दिखलाई पड़ती हैं। फलस्वरूप उनके भीतर कई भूमिकाओं के बीच द्वन्द्व चलता रहता है और वे अनिश्चितता की स्थिति में आ जाते है।
(6) घनिष्ठता-अलगाव की अवस्था– इस अवस्था में बालक प्रौढ़ होकर वास्तविक जीवन में प्रवेश करता है। अब वह जीवन-यापन के लिए किसी व्यवसाय या रोजगार को अपनाता है और विवाहित होकर गृहस्थ जीवन प्रारम्भ करता है। अब वह दाम्पत्य जीवन की जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक हो उठता है और पारिवारिक दायित्वों का वहन करता है। इस अवस्था की विशेष अपेक्षा यह होती हैं कि पति-पत्नी एक-दूसरे के साथ घनिष्ठता प्रदर्शित करें और विचार, भावनाओं, मनोवृत्तियों एवं नैतिक और सामाजिक मूल्यों सभी दृष्टियों से वे एक-दूसरे के समान बनें। इसके लिए त्याग की भावना जरूरी है। जो व्यक्ति इस आदर्श की पूर्ति कर पाता है वह स्वयं एवं अन्यों को भी सुरक्षा की भावना प्रदान कर सकने में सफल होता है। किन्तु समाज में सभी व्यक्तियों के भीतर ऐसे व्यावहारिक कौशल नहीं विकसित हो पाते। जो व्यक्ति अपने परिवार जनों के प्रति घनिष्ठता नहीं प्रदर्शित कर पाते उनके मन में पृथकता या अलगाव की भावना विकसित होने लगती है।
(7) सृजनात्मकता- निष्क्रियता की अवस्था–मनोसामाजिक विकास की यह सातवीं अवस्था जीवन की मध्यावस्था होती है । इस अवस्था से गुजरने वाले व्यक्ति से समाज यह अपेक्षा करता है कि वह समाज के लिए अपनी क्षमता के अनुरूप कुछ करें। किसानों को अन्न उपजाकर, कलाकारों को कलाएँ विकसित करके और प्रोफेसरों को विचारों का सृजन कर अपनी रचनात्मक वृत्ति का परिचय देना चाहिए। यदि सामाजिक अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए कोई व्यक्ति अपना योगदान देता है तो उसे अपनी उत्पादक वृत्ति से मानसिक संतुष्टि मिलती है । परन्तु यदि किसी व्यक्ति में सृजनात्मक क्षमता का अभाव हो और वह निष्क्रिय ही बना रहे तो वह हीनता की भावना से पीड़ित रहेगा।
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