प्रिय छोड़कर बंधनमय छंदों की छोटी राह : निराला की काव्यगत विशेषताएं
प्रिय छोड़कर बंधनमय छंदों की छोटी राह : निराला की काव्यगत विशेषताएं
निराला आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में स्वतंत्र काव्य-मार्ग की खोज करनेवाले एक ऐसे महत्वपूर्ण कवि हैं, जिनमें परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व का मार्मिक साक्ष्य मौजूद है। स्वच्छंदतावाद और यथार्थवाद के तनाव में निराला की कविताएं, कहानियाँ और उपन्यास जो रचनात्मक संगठन उपलब्ध करते हैं, उनकी केंद्रीय प्रेरणा निराला की स्वाधीनता या मुक्ति की धारणा में निहित है। बंगाल के सांस्कृतिक नवजागरण से प्रेरणा लेते हुए निराला अपने जनपदीय जीवन अथवा लोकसंस्कृति से जीवन रस ग्रहण करते हैं। निराला के साहित्यिक संघर्ष पर एक द्वंद्व-समृद्ध जीवन-प्रक्रिया की गहरी छाप दिखायी देती है। निराला के कृतित्व में उनका आत्म संघर्ष और उनके समय का सामाजिक यथार्थ – दोनों इस तरह प्रकट हैं कि उन्हें एक-दूसरे से अलग करना संभव नहीं। संस्कृति से निरंतर संवाद निराला के उत्तेजक बहुआयामी
रचनात्मक कृतित्व की अपनी विशेषता है। इस संवाद में कल्पना का साहस ही नहीं जटिल यथार्थ की समझ भी मुखर है। पूरे छायावाद युग में और संभवतः छायावदोत्तर-युग में भी निराला जैसी प्रतिभा का दूसरा रचनात्मक लेखक ढूँढ पाना संभव नहीं निराला हर तरह से हिंदी की जातीय रचनात्मक परंपरा के अद्वितीय लेखक हैं – व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों दृष्टियों से।
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक परमानंद श्रीवास्तव ने लिखा है कि, “स्वाधीनता, प्रवृत्ति, प्रेम, आत्मसंघर्ष, आत्मसाक्षात्कार तथा मृत्यु निराला की कविता के प्रमुख अनुभव संदर्भ है। काव्य-विकास के पहले चरण में निराला बार-बार इस स्वाधीनता के अभिप्राय को स्पष्ट करते हैं। निबंध, स्वच्छंद, उद्याम, बाधा रहित विराट के प्रति निराला का आकर्षण बादल राग, धारा, आवाहन, जागो फिर एक बार जैसी कविताओं में देखा जा सकता है। निराला एक ओर भारत को विदेशी पराधीनता से मुक्त कराना चाहते हैं तो दूसरी ओर भारतीय सामाजिक जीवन में सार्थक परिवर्तन के आकांक्षी हैं। मुक्ति के लिए निरंतर संघर्ष कवि की रचनात्मकता का स्वभाव बन गया है। मनुष्य की मुक्ति और कविता की मुक्ति को अभिन्न मानते हुए निराला ने ‘प्रगल्म प्रेम कविता में बंधनमय छंदों की छोटी राह से ही नहीं, जीवन की अनेक रूढ़ियों से
निकलने की इच्छा प्रकट की थी-
आज नहीं है मुझे और कुछ चाह
अर्धविकच इस हृदय कमल में आ तू
प्रिये छोड़कर बंधनमय छंदों की छोटी राह।
निराला राष्ट्रीय स्वाधीनता के नवजागरण के प्रति सहज उत्सुक हैं और आत्मगर्व का अनुभव करते हैं –
जागा दिशा – ज्ञान
उगा रवि पूर्व का गगन में; नव यान।
निराला रचित ‘जागो फिर एक बार राष्ट्रीय भावना की अत्यंत महत्वपूर्ण कविता है।
प्रकृति के प्रति निराला का गहरा लगाव था। ‘जूही की कली’ और ‘शेफालिका’ जैसी आरंभिक कविताएं प्रकृति के शृंगारी रूप की व्यंजना कृमी है। ‘बंच कंचुकी केसब खोल दिये प्यार से । यौवर उभार ने । पल्लव-पर्यक पर सोती शेफालिके । ‘यमुना के प्रति’ शीर्षक कविता में निरोला इतिहास-स्मृति निराला के काव्य-संसार में आत्मसंघर्ष और आत्मसाक्षात्कार के अनुभव चित्र अनेक हैं और उनके आधार पर देखा जा सकता है कि निराला का ‘मैं’ लगातार शेष संसार की वास्तविकता से टकराता है। निराला प्रायः संघर्ष में, द्वंद्व में दिखाई देते हैं। बड़े कवियों की कविता में द्वंद्व, आत्मसाक्षात्कार और आत्मसंघर्ष घनीभूत रूप में देखने को मिलता है। तुलसदास की ‘कवितावली’ आत्मसंघर्ष की श्रेष्ठ कविता है। यह संयोगमात्र नहीं है कि निराला बार-बार तुलसीदास को याद करते हैं। निराला के अकेलेपन के अनुभव भी उनकी वृहत्तर संघर्ष-चेतना का संकेत देते हैं। बाहर और भीतर का तनाव निराला का एक अर्थपूर्ण विशिष्ट अनुभव है। निराला का संघर्ष
‘राम की शक्तिपूजा’ में राम का संघर्ष ‘तुलसीदास’ शीर्षक लंबी कविता में तुलसीदास का संघर्ष कहाँ एक हो जाते हैं, एक रूप जान पड़ते हैं, एक जैसा अनुभव कराते हैं, कहना कठिन है।
निराला का संघर्ष शब्द के सही अर्थों में एक साथ भीतर और बाहर का कठिन संघर्ष है। इसमें वास्तविक जीवन का संघर्ष बहिष्कृत नहीं है। यह संघर्ष दूसरों से जुड़ कर ही अर्थ पाता है –
बाहर मैं कर दिया गया हूँ
भीतर पर, भर दिया गया हूँ।
‘सरोज-स्मृति’ निराला के जीवन और काव्य संघर्ष का खुला दस्तावेज है। इस कविता में कवि जानलेवा तनाव से गुजरते हैं।
निराला अपनी कविताओं के माध्यम से बार-बार मृत्यु से साक्षात्कार करते हैं। मृत्यु यहाँ सिर्फ मृत्यु नहीं है बल्कि जीवन का संदेश भी है। आसन्न मृत्यु का डर तो यहाँ है ही नहीं बल्कि इसके विपरीत यहाँ मृत्यु से राग दिखता है। निराला की रचनाओं में मृत्यु की इस अनुगूंज को सुनने की ही नहीं समझने की भी आवश्यकता है-
मरण को जिसने बरा है
उसी ने जीवन भरा है
परा भी उसकी, उसी के
अंक सव्य यशोधरा है।
और विषाद-भाव से प्रकृति की आंतरिक लय को पहचानते हैं। ‘संध्या सुंदरी’ कविता में निराला वातावरण की सूक्ष्मता को, नीरवता और शांति को पकड़ने की चेष्टा करते हैं। कल्पना और अभिव्यक्ति की नवीनता के कारण यहाँ संध्या एक सर्वथा नये रूप में उपस्थित होती है। बसंत के चित्रों की भाषा ताजगी की प्रकृति की ताजगी का एहसास दिलाती है –
सखि बसंत आया
भरा हर्ष वन के मन नवोत्कर्ष छाया
किसलय-वसना नव-वय-लतिका
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने कई प्रेम कविताएं लिखीं। लेकिन इन कविताओं में प्रेम कोरी भावुकता की चीज नहीं है। परमानंद श्रीवास्तव के शब्दों में, “निराला का प्रेमानुभव एक अर्थ में गहरे आंतरिक उल्लास का अनुभव है, एक ऐसी जीवनपूर्णता का अनुभव, जिसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती। छायावादियों जैसी विरहदाध मानसिकता से अलग निराला का प्रेम एक नयी मुक्ति का आभास कराता है।
शृंगार को उदात्त की जमीन पर ले लाने की कोशिश निराला को उनके अन्य समकालीनों से अलग करती है। प्रकृति यहाँ प्रेम के उत्सव में सक्रिय भूमिका निभाती है।”
निराला की कविता में शरीरी प्रेम और अशरीरी प्रेम, लौकिक प्रेम और दिव्य प्रेम का कृत्रिम विभाजन नहीं है। यहाँ प्रेम लौकिक, शारीरिक, मांसल या दैहिक अनुभवों में ही अपनी वांछित पूर्णता उपलब्ध कराता है। पंचवटी प्रसंग में राम कहते हैं-
“छोटे से घर की लघु सीमा में
बंधे हैं श्रुद्र भाव
यह सच है प्रिय
प्रेम का पयोधि तो उमड़ता है
सदा ही निःसीम भू पर”।
निराला की कामचेतना के संबंध में डा० रामविलास शर्मा ने लिखा है, “उनमें न तो नैतिकतावादी की निषेध भावना है, न रीतिवादी का कामोद्यीपन लक्ष्य, न स्वच्छंदतावादी का कल्पना विलास” निराला की कविताओं की ये विशेषताएं उनके काव्य-विस्तार को सूचित करती हैं। छायावादी कवि होते हुए निराला छायावाद की बेहद्दी मैदान को भी पार कर जाते हैं। प्रेम और सौंदर्य में नये अर्ध-संकेत कोई निराला से सीखे। प्रकृति के गतिशील रूप और माधुर्य को जिस तरह निराला ने सामाजिक जीवन से जोड़ा है, वह अद्वितीय है। छायावादी हौ में पीड़ितों, दीनों और गरीबों पर जितनी मार्मिक कविता
निराला ने लिखा है, कदाचित अन्य किसी ने नहीं। भिक्षुक, विधवा से लेकर वह तोड़ती पत्थर इसका उदाहरण है। भाषा के जितने प्रयोग निराला ने किया है, वह अपने आप में एक उदाहरण है। ‘सरोज स्मृति’ हिंदी का श्रेष्ठ शोकगीत है। इसलिए निराला कवि नहीं महाकवि हैं।