ब्रह्माण्ड (Universe)
ब्रह्माण्ड (Universe)
ब्रह्माण्ड (Universe)
विज्ञान की वह शाखा, जिसके अन्तर्गत आकाशीय पिण्डों जैसे तारे, ग्रह, आदि की बनावट, परिणाम तथा गति का अध्ययन किया जाता है, खगोल विज्ञान (astronomy) कहलाती है तथा ये आकाशीय पिण्ड, क्रिस्टलीय पिण्ड कहलाते हैं। खगोल विज्ञान का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक को खगोलशास्त्री (astronomers) कहते हैं।
विश्व या ब्रह्माण्ड (Universe or Cosmos)
पृथ्वी, अंतरिक्ष तथा उसमें उपस्थित सभी खगोलीय पिण्डों जैसे आकाशगंगा या मन्दाकिनी, तारे आदि को समग्र रूप से विश्व या ब्रह्माण्ड कहते हैं। ब्रह्माण्ड से सम्बन्धित अध्ययन को ब्रह्माण्ड विज्ञान (cosmology) कहते हैं। प्रारम्भ में, विश्व बहुत गर्म या विश्व का तापमान बिलियन केल्विन प्रसारित हो जाता था, जबकि अब विश्व का औसत तापमान केवल 272.5K है। विश्व पटल का व्यास 150 बिलियन प्रकाश वर्ष से अधिक तथा चपटा होता है। यह गोलीय आकार का नहीं होता है।
विश्व की संरचना (Structure of Universe)
विश्व की संरचना का वर्णन करने के लिए कुछ निम्नलिखित मत दिए गए हैं
भूकेन्द्री सिद्धान्त (Geocentric Theory) सर्वप्रथम वर्ष 140 ई. में यूनानी खगोलविद् टॉलमी ने यह सिद्धान्त दिया था। इस सिद्धान्त के अनुसार, पृथ्वी, विश्व के केन्द्र में स्थित है तथा सूर्य और अन्य ग्रह इसकी परिक्रमा करते हैं।
सूर्यकेन्द्री सिद्धान्त (Heliocentric Theory) यह सिद्धान्त कोपरनिकस ने 1543 ई. में दिया था। इस सिद्धान्त के अनुसार, सूर्य ब्रह्माण्ड के केन्द्र में स्थित है तथा अन्य ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं।
हर्शेल सिद्धान्त (Hershel Theory) 1805 ई. में ब्रिटेन के खगोलविद् हर्शेल ने दूरदर्शी की सहायता से विश्व का अध्ययन किया तथा बताया कि सौर मण्डल स्वयं आकाशगंगा नामक तारा निकाय का अंश मात्र है।
हब्बल सिद्धान्त (Hubble’s Theory ) 1925 ई. में अमेरिकी खगोलविद् एडविन पी हब्बल ने बताया कि ब्रह्माण्ड का व्यास 2.5 बिलियन प्रकाश वर्ष है तथा यह कुछ आकाशगंगाओं का संगठन है।
विश्व की उत्पत्ति तथा विकास (Origin and Evolution of Universe)
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्त निम्न प्रकार हैं
बिग बैंग सिद्धान्त (The Big Bang Theory)
1930 ई. में बेल्जियम के जार्ज लेमतेर के यह सिद्धान्त दिया गया था तथा बाद में जार्ज गैमो के द्वारा कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राप्त हुए थे। जिनके द्वारा बिग बैंग सिद्धान्त को समझाया जा सकता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, विश्व के आरम्भ में लगभग 15 बिलियन साल पहले एक बहुत बड़े विखण्डन से प्रारम्भिक परमाणु प्राप्त हुआ था तथा कुछ समय बाद इसमें अतंरिक्ष (space) का उदय हुआ। उसके बाद आज तक विश्व का प्रसार चल रहा है, जोकि बाद में भी चलता रहेगा। पदार्थ के प्रसार से गैलेक्सी (आकाशगंगा) बनती है तथा ये आकाशगंगा लगातार त्वरित वेग से एक-दूसरे से दूर गति करती रहती है। इस प्रक्रम के द्वारा सम्पूर्ण विश्व ठण्डा रहता है।
बिग बैंग ब्रह्माण्ड सिद्धान्त या विश्व के प्रसार की खोज ओसयिक सूक्ष्म तरंगें बैक ग्राउण्ड विकिरण (CMBR) तथा विलिकसन सूक्ष्म तरंगें तथा एनिस्ट्रोपी (Anistropy) (WAPE) के द्वारा सिद्ध किया गया है।
रक्त विस्थापन सिद्धान्त (Red Shift Theory)
इसमें आकाशगंगाओं से आने वाले प्रकाश के स्पेक्ट्रम के आधार पर विश्व के विस्तार के बारे में बताया गया है। यदि स्पेक्ट्रम में रक्त विस्थापन (red shift) की घटना हो तो प्रेक्षित आकाशगंगा पृथ्वी से दूर भाग रही है और यदि स्पेक्ट्रम में बैंगनी विस्थापन (violet shift) हो तो प्रेक्षित आकाशगंगा (observed galaxy) पृथ्वी के पास आ रही है। यही डॉप्लर विस्थापन है चूँकि स्पेक्ट्रम में रक्त विस्थापन की घटना के प्रमाण मिले हैं। अत: आकाशगंगा दूर भाग रही है।
स्थिर अवस्था सिद्धान्त (Steady State Theory)
बोण्डी, गोल्ड तथा फ्रेड होयल ने इस सिद्धान्त की उत्पत्ति की। इस सिद्धान्त के अनुसार, इस दृष्टीगोचर ब्रह्माण्ड में गैलेक्सियों की संख्या नियत है और नई गैलेक्सियाँ (या आकाशगंगा) लगातार रिक्त आकाश में बनती रहती हैं, जोकि गैलेक्सियों के बीच रिक्त स्थान को भरने की कारक हैं, जोकि इस दृष्टीगोचर ब्रह्माण्ड की सीमा को पार करती हैं। परिणामस्वरूप इस दृष्टीगोचर ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण द्रव्यमान नियत बना रहता है। इस प्रकार, ब्रह्माण्ड की दृढ़ दशा कभी भी विचलित नहीं होती है।
स्पंदमान या दोलायमान विश्व सिद्धान्त (Pulsating or Oscillating Universe Theory)
विश्व के विकास का यह नवीनतम सिद्धान्त है। इसके अनुसार, यह विश्व करोड़ों वर्षों के अन्तराल में क्रमश: फैलता और सिकुड़ता रहा है। डॉ. एलन सण्डेज का कथन है कि आज से लगभग 120 करोड़ वर्ष पूर्व एक भयंकर विस्फोट हुआ था और तब से विश्व विस्तृत होता जा रहा है। यह प्रसार 290 करोड़ वर्ष तक चलता रहेगा। जिसके बाद गुरुत्वाकर्षण इनके अधिक विस्तार पर रोक लगा देगा। उसके पश्चात् इसका सिकुड़न प्रारम्भ हो जाएगा, अर्थात् यह अपने अन्दर ही सिमट जाएगा। इस प्रक्रिया को अन्त: विस्फोट कहते हैं। यह प्रक्रिया करीब 410 करोड़ वर्ष तक चलती रहेगी। जब यह अत्यधिक सम्पीडित या घनीभूत नहीं हो जाएगा तब एक बार फिर विस्फोट होगा।
ब्रह्माण्ड की आयु (Age of the Universe)
खगोलशास्त्री की गणना के अनुसार महाविस्फोट (big bang) की घटना 12 से 14 बिलियन वर्ष पहले घटित हुई थी तथा Cosmic Microwave Background Radiation (CMBR) की माप-तौल के आधार पर ब्रह्माण्ड़ की आयु अब 13.7 बिलियन वर्ष स्वीकार हुई है। हमारा सौरमण्डल लगभग 4.5 बिलियन वर्ष पुराना है।
आकाशीय पिण्ड (Celestial Bodies)
सभी भारी पिण्ड जैसे तारे, ग्रह, उपग्रह, क्षुद्रग्रह, धूमकेतु, आदि को खगोलीय या आकाशीय पिण्ड कहते हैं। ये सभी पिण्ड ब्रह्माण्ड से जुड़े होते हैं।
आकाशीय पिण्डों की श्रेणियाँ (Categories of Celestial Bodies)
अन्तरिक्ष सम्बन्धी नामकरण के लिए एकमात्र अधिकृत संस्था अन्तर्राष्ट्रीय खगोलशास्त्रीय संघ (International Astronomical Union— IAU, स्थापना वर्ष – 1919 ई.) के प्राग सम्मेलन (2006 ई.) में सौरमण्डल में मौजूद पिण्डों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है।
(1) परम्परागत ग्रह (Conventional Planets)
अन्तर्राष्ट्रीय खगोलशास्त्रीय संघ (IAU) के नवीनतम परिभाषा के अनुसार ग्रह वे खगोलीय पिण्ड हैं, जो निम्नलिखित तीन शर्तों को पूरा करते हैं
(i) सूर्य की परिक्रमा करते हों,
(ii) उनका द्रव्यमान कम-से-कम इतना हो कि अपने गुरुत्वाकर्षण के कारण उसका आकार लगभग गोल हो गया हो तथा
(iii) वह अपने पड़ोसी पिण्डों की कक्षा को नहीं लांघता हो।
◆ ग्रहों का क्रम (Order of Planets)
√ सूर्य से दूरी के आधार पर, बुध > शुक्र > पृथ्वी > मंगल > बृहस्पति > शनि > अरुण > वरुण
√ पृथ्वी से दूरी के आधार पर, शुक्र > मंगल > बुद्ध > बृहस्पति > शनि > अरुण > वरुण
√ आकार के आधार पर, बृहस्पति > शनि > अरुण > वरुण > पृथ्वी > शुक्र > मंगल > बुध
(ii) बौने ग्रह या प्लूटोन्स (Dwarf Planets or Plutones)
अन्तर्राष्ट्रीय खगोलशास्त्रीय संघ (IAU) ने सौरमण्डलीय पिण्डों की दूसरी श्रेणी को बौने ग्रह या प्लूटोन्स का नाम दिया है। प्लूटोन्स का अर्थ है- प्लूटो जैसे अन्य पिण्ड । बौने ग्रह या प्लूटोन्स के अन्तर्गत प्लूटो, चेरॉन, सेरेस एवं जेना (2003 यू बी 313) को शामिल किया गया है।
(iii) लघु सौरमण्डलीय पिण्ड (Small Solar System Bodies)
अन्तर्राष्ट्रीय खगोलशास्त्रीय संघ (IAU) के अनुसार यह सौरमण्डलीय पिण्डों की तीसरी श्रेणी है। इसके अन्तर्गत क्षुद्रग्रह, धूमकेतु या पुच्छलतारा, उल्का, उपग्रह व अन्य छोटे खगोलीय पिण्डों को शामिल किया गया है।
आकाशगंगा (Galaxy)
तारों के विशाल समूह को आकाशगंगा कहते हैं। गुरुत्वाकर्षण के कारण आकाशगंगाओं का एक-दूसरे से बँधे होने को प्रायद्वीपीय ब्रह्माण्ड कहते हैं। प्रत्येक आकाशगंगा के अन्दर असीमित तारे होते हैं। इनमें से कुछ स्वच्छ आकाश में रात में दिखायी देते है। तारों के अलावा, प्रत्येक आकाशगंगा कुछ धूल के कण और गैसें भी रखती है। अधिक संख्या की आकाशगंगाएँ विभिन्न नियमित आकार और अनियमित आकार की होती हैं।
रेडियों आकाशगंगा (Radio Galxies)
आकाशगंगा सामान्य आकाशगंगा की तुलना में करोड़ों मीलियन की संख्या में रेडियों विकिरण उत्सर्जित करती । रेडियों विकिरण आकाशगंगा से अपने आप नहीं आते हैं। बल्कि ये दो बड़े रेडियों स्रोतों से आते हैं।
दुग्ध मेखला (Milky Way)
ये आकाशगंगाएँ विश्व में 100 बिलियन से ज्यादा हैं। सबसे बड़ी आकाशगंगा में लगभग 400 बिलियन तारे होते हैं तथा दुग्ध मेखला आकाशगंगा 100 बिलियन तारों का समूह है। पृथ्वी पर यह दुग्ध मेखला 24 आकाशगंगाओं के एक समूह का सदस्य है जो स्थानीय समूह (local group) कहलाता है। यह 97% तारों, 2% धूल के कणों और 1% गैसों से मिलकर बनी है। यदि स्वच्छ रात में आकाश को देखें तो बड़ें गोले के पार, सफेद प्रकाश का एक धुँधला बैंड दिखाई देता है। जो दुग्ध मेखला या आकाशगंगा कहलाता है। यह सर्पिल आकाशगंगा है। आजकल दुग्ध मेखला की परत में एक विशाल काला छिद्र पाया गया है। जोकि Sagittarius ‘A’ कहलाता है।
एण्ड्रोमेडा हमारी आकाशगंगा दुग्ध मेखला के बाद सबसे निकटतम आकाशगंगा है।
तारे (Stars)
तारे चमकने वाले पिण्ड हैं, जिनका अपना प्रकाश और ऊष्मीय ऊर्जा होती है। सूर्य हमारी पृथ्वी का सबसे निकटतम तारा है। यह पृथ्वी से 150 मिलियन दूर है तथा प्रकाश की चाल 3×108 मी/से होती है। इसलिए सूर्य का प्रकाश पृथ्वी तक पहुँचने में 8.3 मिनट (500 सेकण्ड) का समय लेता है। सौर तन्त्र का सबसे निकटतम तारा प्रॉक्सिमा सैच्यूरी है। जिसकी पृथ्वी से दूरी 4.3 प्रकाश वर्ष है।
सामान्यतया, एक तारा 70% H2, 28% He, 1.5% कार्बन, नाइट्रोजन और नियॉन, 0.5% आयरन तथा अन्य गैसों से मिलकर बना होता है।
तारे केवल 25% बहुत कम एकल अवस्था में होते हैं। ये लगभग 33% युग्मों में होते हैं जोकि बाइनरी तारे कहलाते हैं तथा अन्य बहुसंख्यक तारे कहलाते हैं। एल्फा सेंच्यूरी तीन तारों से तथा कैस्टर (मिथुन) छ: तारों से मिलकर बना है जो कि पृथ्वी से 4.35 प्रकाश वर्ष दूर है।
तारे का जीवन चक्र (Life Cycle of a Star)
जब तारे में हाइड्रोजन कम हो जाती है, तो इसकी बाहरी सतह फूलने लगती है और तारा लाल हो जाता है। यह तारे के अन्तिम समय की पहली निशानी है। ऐसे तारे को लाल दानव (red giant) कहते हैं। हमारा सूर्य आगामी 5 अरब वर्षों में ऐसा लाल दानव बन जाएगा ऐसी सम्भावना है।
लाल दानव चरण के बाद तारे में दो स्थितियों में से कोई एक स्थिति आती है या तो वह श्वेत वामन तारे (white dwarf stars) में बदलता है या फिर न्यूट्रॉन तारे (neutron stars) में। यदि तारे का प्रारम्भिक द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान के बराबर हो तो वह श्वेत वामन तारा बनता है तथा यदि तारे का प्रारम्भिक द्रव्यमान सूर्य के द्रव्यमान से बहुत अधिक हो तो उसका अन्त अत्यन्त विस्फोटक होता है व न्यूट्रान तारा बनता है। स्पष्ट है कि लाल दानव तारे का भविष्य उसके द्रव्यमान पर निर्भर करता है।
यदि (तारे ≤ सूर्य) → लाल दानव → श्वेत वामन तारे → काला वामन
तथा यदि (तारे ≥ सूर्य) → बड़ा लाल दानव → अधिनव तारे → न्यूट्रॉन तारे या कृष्ण छिद्र
श्वेत वामन तारे (White Dwarf Stars)
यह बहुत छोटा, गर्म तारा होता है तथा इसके जीवन चक्र की अन्तिम अवस्था सूर्य की तरह होती है। श्वेत वामन तारे का द्रव्यमान सूर्य के समान होता है। परन्तु यह केवल सूर्य के व्यास का 1% लगभग पृथ्वी के व्यास के जितना होता है।
अधिनव तारा (Supernova)
यह तारे की विस्फोटक मृत्यु का परिणाम है। जिससे बहुत कम समय के लिए 100 मिलियन सूर्य की चमक प्राप्त होती है।
न्यूट्रॉन तारा (Neutron Stars)
जब अधिनव तारा विस्फोटित होता है तब न्यूट्रॉन संघटित होकर न्यूट्रॉन तारे बन जाते हैं। इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन बलपूर्वक जुड़कर न्यूट्रॉन तारे बनाते हैं। इन तारों का द्रव्यमान तीन गुना अधिक परन्तु इनका व्यास केवल 20 किमी होता है।
यदि इसके द्रव्यमान का मान अधिक है तब इसका घनत्व भी शक्तिशाली होगा तथा यह सिकुड़कर दोबारा कृष्ण छिद्र बना लेगा। पल्सर वे न्यूट्रॉन तारे हैं जो बहुत तेज गति करते हैं।
कृष्ण छिद्र (Black Holes)
अत्यधिक द्रव्यमान वाले वे तारे जिनका जीवन समय खत्म हो जाता है कृष्ण छिद्र बनाते हैं कृष्ण छिद्र में द्रव्यों का घनत्व नहीं मापा जा सकता है।
कृष्ण छिद्र का गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र इतना प्रबल होता है। कि इससे किसी भी पदार्थ का यहाँ तक कि प्रकाश का भी पलायन नहीं हो सकता।
चन्द्रशेखर सीमा (The Chandrasekher Limit)
किसी अघूर्णनशील श्वेत वामन तारे का सीमाकारी द्रव्यमान (1.44) ही चन्द्रशेखर सीमा कहलाता है। जब इसका द्रव्यमान सूर्य से बहुत अधिक होता है, तो इसमें विस्फोट हो जाता है तथा न्यूट्रॉन तारा बन जाता है। इसका निर्माण न्यूट्रॉनों से होता है। इसलिए इसका पदार्थ अत्यधिक संघनित होता है। ऐसे अत्यधिक घनत्व वाले पदार्थ से युक्त पिण्ड को ही कृष्ण छिद्र (black hole) कहते हैं। कृष्ण छिद्र का गुरुत्वाकर्षण इतना प्रबल होता है कि इससे किसी भी पदार्थ, यहाँ तक की प्रकाश का भी पलायन नहीं हो सकता। इसलिए ये दिखाई नहीं देते हैं।
तारामण्डल (Constellation)
आकाशगंगा में कुछ सुन्दर एवं व्यवस्थित आकृतियों के रूप में पाए जाने वाले तारों के समूह को तारामण्डल (constellation) कहा जाता है जैसे मन्दाकिनी आकाशगंगा में पाया जाने वाला सप्तऋषि मण्डल (ursa major great bear), ओरिऑन (orion great hunter), हाइड्रा, ध्रुवतारा (polestar) हरकुलीज, इत्यादि तारामण्डल के उदाहरण हैं।
सौरमण्डल (The Solar System)
सूर्य, सौरमण्डल का मुखिया है। सम्पूर्ण सौरमण्डल में सूर्य का द्रव्यमान 99.9% है। यह हमारा ऊष्मा और प्रकाश का स्रोत है। वैज्ञानिकों को विश्वास है कि सूर्य गतिमान गैसों का स्रोत है। जिसे नेबुला (nebula) कहते हैं। सूर्य और ग्रह इन गैसों के कोष्ठ से उत्पन्न हुए हैं। गुरुत्व बल इससे उत्पन्न होता है। मिलियन सालों तक, ये गैस ओर धू की गेंद सूर्य के चारों और गति करती हैं। यह बल गुरुत्व बल कहलाता है।
आठ ग्रहों के साथ सौरमण्डल का केन्द्र सूर्य है। बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, अरुण, वरुण ग्रह, उपग्रह क्षुद्र ग्रह (asteroids), उल्का पिण्ड (meteor) और धूमकेतु (comets) ये सब सूर्य के चारों और गति करते हैं।
सूर्य (Sun)
यह ज्ञात हुआ है कि सूर्य का जन्म 5 बिलियन साल पहले हुआ था। उस समय से यह बहुत अधिक मात्रा में ऊष्मा और प्रकाश लगातार उत्सर्जित कर रहा है और यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले 5 विलियन सालों तक यह ऐसे ही रहेगा। सूर्य हमारा सबसे निकटतम तारा है।
पृथ्वी पर सम्पूर्ण ऊर्जा का स्रोत सूर्य है तथा सूर्य की त्रिज्या पृथ्वी से 100 गुनी और इसका द्रव्यमान पृथ्वी के द्रव्यमान से लगभग एक मिलियन गुना अधिक है। सूर्य हमारी आकाशगंगा में 250 किमी/से की चाल से घूम रहा है।
ग्रह (Planets)
ग्रह सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। इनका अपना दीर्घ वृत्तीय मार्ग होता है जिसे कक्ष कहते हैं। अपनी अक्ष के चारों ओर गति करने को घूर्णन तथा सूर्य के चारों और गति को परिक्रमा कहते हैं। इनकी अपनी चाल होती है। ग्रह जैसे तारे, इनका अपना कोई प्रकाश और ताप नहीं होता है। ये (तारे) सूर्य की चमक से चमकते हैं। जहाँ ग्रह नहीं होते है वहाँ तारे टिमटिमाते रहते हैं। ग्रह के लिए प्रयुक्त होने वाला अंग्रेजी शब्द Planet ग्रीक शब्द Plantes से बना है, जिसका अर्थ है घुमक्कड़ या यायावर है। अत: ग्रह सतत् गतिशीलता या अपनी स्थिति में बदलाव के प्रतीक हैं। इन ग्रहों को दो भागों में विभाजित किया गया है।
1. आन्तरिक ग्रह या पार्थिव ग्रह (Inner Planets or Terrestial Planets)
आन्तरिक ग्रह में बुध, शुक्र, पृथ्वी व मंगल को शामिल किया जाता है। आन्तरिक ग्रह अपेक्षाकृत छोटे और अधिक घने होते हैं। इनमें पृथ्वी सबसे बड़ी और अधिक घनी है। सभी आन्तरिक ग्रह चट्टानों व धातुओं से बने हैं। इन्हें पार्थिव ग्रह (terrestial planets) भी कहा जाता है क्योंकि ये पृथ्वी के सदृश हैं। आन्तरिक ग्रहों के अन्तर्गत, बुध, शुक्र, पृथ्वी तथा मंगल ग्रह आते हैं।
(i) बुध (Mercury) यह सूर्य का सबसे निकटतम ग्रह है। यह सौरमण्डल का सबसे छोटा ग्रह है। यह आकार में पृथ्वी के उपग्रह चन्द्रमा से थोड़ा बड़ा है। बुध, सूर्य के चारों और 88 दिनों में तथा अपनी अक्ष में 59 दिनों में चक्कर लगाता है। इसका कोई उपग्रह नहीं है ।
बुध पर कोई वातावरण नहीं है। बुध की सतह चट्टानीय तथा पर्वतीय है। इसकी एक सतह सूर्य से अधिकतम प्रकाश तथा ताप ग्रहण करती है तथा इसकी दूसरी सतह (side) सूर्य से ताप तथा प्रकाश ग्रहण नहीं करती है। बुध का एक हिस्सा बहुत गर्म तथा दूसरा बहुत ठण्डा होता है। इसका गुरुत्वाकर्पण पृथ्वी का 3/8वाँ भाग है। क्योंकि बुध, सूर्य के सबसे निकटतम है इसलिए इसका निरिक्षण बहुत कठिन है। यह सूर्य की चमक से बहुत समय तक छिपा रहता है। इसलिए यह सितम्बर और अक्टूबर में सूर्य के उगने से पहले जैसे सुबह का तारा (morning star) में दिखाई देता है। यह पश्चिमी क्षेत्र में सूर्य छिपने के बाद जैसे साँझ का तारा ( evening star) में दिखायी देता है।
(ii) शुक्र (Venus) शुक्र का अपना कोई उपग्रह नहीं है यह अपने ध्रुव के चारों ओर पूर्व से पश्चिम की ओर गति करता है। शुक्र देखने में चन्द्रमा की तरह है। यह आकार और भार में पृथ्वी के बराबर है। शुक्र का द्रव्यमान पृथ्वी का 4/5 गुना होता है। इसे सूर्य के चारों ओर कक्ष में चक्कर लगाने में 255 दिन तथा अपने ध्रुव के चारों और चक्कर लगाने में 243 दिन लगते हैं। शुक्र के वातावरण में CO2 उपस्थित होती है। ऑक्सीजन और जलवाष्प की बहुत कम मात्रा शुक्र पर पायी जाती है। सूर्य के प्रकाश का 3/4 भाग शुक्र के धुंधले वातावरण पर पड़ता है। यह इसलिए है क्योंकि शुक्र ग्रह आकाश में सूर्य और चन्द्रमा के बाद चमकीला दिखाई देता है।
कभी-कभी शुक्र ग्रह सूर्य उगने से पहले पूर्वी आकाश में दिखायी देता है और कभी-कभी यह सूर्य छिपने के बाद पश्चिमी आकाश में दिखायी देता है। इसलिए यह प्रात: और रात्रि तारा कहलाता है। यद्यपि शुक्र का कोई वातावरण नहीं है परन्तु फिर भी शुक्र हमारे सौरमण्डल का सबसे गर्म ग्रह है।
(iii) पृथ्वी (Earth) हमारी पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर अपने ध्रुव पर 1610 किमी/घण्टा की चाल से चक्कर लगाती है। इसे एक चक्कर लगाने में 23 घण्टे 56 मिनट तथा 4.09 सेकण्ड लगते हैं। पृथ्वी अपने अक्ष पर 23° 26′59” (लगभग 23 1o/2) अक्षांश झुकी हुई है। पृथ्वी के अपने ध्रुव पर घूर्णन के परिणामस्वरूप दिन-रात होते हैं।
हमारी पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की और घूमती है। हमारी पृथ्वी ज्यादा या हल्की सी गोल है। यह उत्तर से दक्षिण की ओर हल्की सी चपटी है। पृथ्वी के ध्रुवों के हल्के से चपटे होने के कारण पृथ्वी की आकृति को गोलांश कहा जाता है। पृथ्वी का सबसे निकटतम ग्रह शुक्र है। आकार में इसका 5वाँ स्थान है। आकार और संरचना में पृथ्वी लगभग शुक्र के समान है। पानी और स्थलीय घासों के कारण पृथ्वी अन्तरिक्ष से नीली-हरी दिखायी देती है। इसलिए इसे नीला ग्रह भी कहते हैं ।
पृथ्वी का द्रव्यमान और घनत्व क्रमशः 5.97× 1024 किग्रा और 5.52 ग्राम / सेमी3 हैं। पृथ्वी, सूर्य का एक चक्कर लगाने में 365 दिन 5 घण्टे 48 मिनट और 45.51 सेकण्ड का समय लेती है तथा सूर्य के चारों ओर 107160 किमी/घण्टा की चाल से घूमती है। यह अपनी कक्ष में 66 1o/2 अक्षांश से सूर्य के चारों ओर दीर्घ वृत्ताकार कक्षा में गति करती है।
आन्तरिक रूप से, पृथ्वी का संघटन सियाल (सिलिका + ऐलुमिनियम), सिमा (सिलिका + मैग्निशियम), निफे (निकिल + आयरन आई) से हुआ है। इसकी सतह एक चादर की तरह गैसों से ढकी है जिसे हवा कहते हैं। केवल पृथ्वी ऐसा ग्रह है जहाँ कुछ विशेष वातावरणीय शर्ते जीवन को लगातार जीवित रखने के लिए उत्तरदायी हैं। ये सूर्य से सीधी दिशा में हैं। इसलिए यह सीधी तापीय सीमा जो ओजोन की परत से पार होकर पानी, मिट्टी, खनिज, उपर्युक्त वातावरण में आती है।
हमारा केवल प्राकृतिक उपग्रह : चन्द्रमा (Our Only Natural Satellite : The Moon) छोटे पिण्ड का बड़े पिण्ड के चारों ओर घूमना उपग्रह कहलाता है। चन्द्रमा, पृथ्वी का उपग्रह है। ग्रह, सूर्य के उपग्रह है। ये प्राकृतिक उपग्रह है। ग्रहों. उपग्रहों का अपना कोई प्रकाश नहीं होता। जैसे चन्द्रमा, पृथ्वी के चारों और सूर्य के चारों चक्रण करने पर तथा सूर्य से सम्बन्धित होने पर दिन और रात में परिवर्तन होता है। इसके परिणामस्वरूप चन्द्रमा की सम्बन्धित स्थितियों में प्रतिदिन परिवर्तन होता है। जैसे चन्द्रमा प्रत्येक रात अलग दिखाई देता है। चन्द्रमा, पृथ्वी के चारों ओर 27 दिन और 7 घण्टे में और इतने ही समय में अपनी धुरी पर भी चक्कर लगाता है। इसलिए हमारी पृथ्वी से इसकी एक ही सतह दिखाई देती है। चन्द्रमा पर कोई वातावरण नहीं है। इस पर पानी भी नहीं है। चन्द्रमा का व्यास पृथ्वी का 1/4 गुना है। चन्द्रमा, पृथ्वी से लगभग 384400 किमी दूर है। प्रकाश चन्द्रमा से परावर्तित होकर हमारे पास केवल 1 या 1/4 सेकण्ड में पहुँचता है। एडविन एवड्रेन, नील आर्मस्ट्रांग 4 तथा कोलिन पहली बार 21 जुलाई, 1969 को चन्द्रमा पर पहुँचे थे। उन्होंने चन्द्रमा की सतह को धूल भरा तथा बंजर पाया। वहाँ विभिन्न आकार के बहुत से अटर है। चन्द्रमा पर बड़ी संख्या में पठार तथा ऊँचे पर्वत हैं। ये चन्द्रमा की सतह पर छाया डालते हैं।
पूर्ण चन्द्रमा के दिन में, पृथ्वी, चन्द्रमा और सूर्य के बीच होती है। इसलिए हमें चन्द्रमा की पूरी सतह दिखाई देती है।
नए चन्द्रमा के दिन में, चन्द्रमा, पृथ्वी और सूर्य के बीच होता है। इसलिए सूर्य की रोशनी चन्द्रमा के ऊपर पड़ती है। जिससे हमें इसकी दूसरी सतह (side) दिखाई देती है और हम चन्द्रमा नहीं देख पाते।
(iv) मंगल (Mars) यह आकार में पृथ्वी का आधार है परन्तु इसका द्रव्यमान पृथ्वी का केवल 1/10 गुना है। यह सूर्य के चारों ओर अपनी कक्षा में 687 दिन तथा अपनी अक्ष पर 1 दिन में घूमता है। मंगल पर वातावरण पृथ्वी से बहुत पतला (thinner) है। यह शायद नाइट्रोजन रखता है। ऑक्सीजन के कण भी यहाँ पाए गए हैं। यह हल्का-सा लाल दिखाई देता है। इसलिए इसे लाल ग्रह कहते हैं। मंगल के दो छोटे उपग्रह फोबोस तथा डाइमोस हैं। निक्स ओलम्पिया इस पर पाया जाने वाला सबसे बड़ा पर्वत है जोकि माउण्ट ऐवरेस्ट से तीन गुना बड़ा है। सबसे बड़ा ज्वालामुखी इस ग्रह पर ओलम्पस मोन्स है। चैनल भी यहाँ पाए गए हैं। वर्षा का बहुत बड़ा हिस्सा पृथ्वी से मंगल पर दिखाई देता है। इसलिए यह निरीक्षण के लिए उचित है। जब यह पृथ्वी के सापेक्ष आकाश में सूर्य के विपरित दिशा में होता है तो ‘दिनों में यह पृथ्वी के बहुत करीब होता है।
◆ खगोलशास्त्री ने यह अनुमान लगाया कि मंगल की सतह पर परिवर्तन से पाया गया कि इस ग्रह पर पानी उपस्थित होगा तथा यहाँ जीवन भी रहा होगा। यद्यपि पानी और जीवन का कोई प्रभाव यहाँ नहीं पाया गया परन्तु फिर भी यह सम्भावना खोजी जा रही है।
2. बाह्य उपग्रह या जोवियन ग्रह (Outer Planets or Jovean Planets)
यह मंगल की कक्षा के बाहरी तरफ उपस्थित है। बड़े और हल्के सघन ग्रह जैसे बृहस्पति, शनि, अरुण, वरुण इस श्रेणी में आते हैं। ये हीलियम, अमोनिया और मीथेन जैसे गैसों से मिलकर बने हैं। बृहस्पति के समान होने के कारण इन्हें जोवियन ग्रह भी कहते हैं। ये चन्द्रमा जैसे बहुत से उपग्रह रखते हैं।
(i) बृहस्पति (Jupitar) यह सौरमण्डल का सबसे बड़ा ग्रह है। इसे सूर्य के चारों तरफ अपनी कक्षा में चक्कर लगाने में 11 साल और 11 महीने और अपनी अक्ष पर चक्कर लगाने में 9 घण्टे 56 मिनट लगते हैं। इसमें 16 उपग्रह हैं। इसका पहचानने वाला कारक एक बड़ा लाल धब्बा है। यह अनुमान लगाया गया है कि इसका वातावरण बहुत जटिल है।
इसका द्रव्यमान दूसरे ग्रहों के संघटित द्रव्यमान में बहुत अधिक है। अधिक द्रव्यमान होने के कारण बृहस्पति से होकर गुजरने वाली वस्तुओं की गुरुत्वीय क्षमता अधिक है। मंगल के बाद बृहस्पति आकाश में चमकने वाला दूसरा ग्रह है और मंगल पर पतला वातावरण पाया जाता है क्योंकि यह सूर्य की किरणों को परावर्तित कर देता है। यह अनुमान लगाया जाता है कि बृहस्पति में हीलियम और हाइड्रोजन गैसों के रूप में विद्यमान है। इसके बादल की बाहरी सतह मीथेन गैस की जबकि इस पर अमोनिया क्रिस्टल के रूप में उपस्थित है।
(ii) शनि (Saturn) बृहस्पति के अलावा, शनि जोकि पीले रंग का दिखाई देता है। इसकी विशिष्टता यह है कि सौरमण्डल में इसके चारों ओर तीन सुन्दर वलय हैं। सूर्य के चारों ओर एक चक्कर लगाने में इसे 29 साल 5 महीने तथा अपने ध्रुव पर चक्कर लगाने में 10 घण्टे 40 मिनट लगते हैं। इसके 18 उपग्रह हैं। शनि सभी ग्रहों में सबसे कम सघन है। इसका घनत्व पानी से कम है। यह आकार, द्रव्यमान तथा संघटन में बृहस्पति के समान है। यह बृहस्पति से ठण्डा है।
(iii) अरुण (Uranus) यह पहला ग्रह है जोकि टेलीस्कोप की सहायता से खोजा गया है। विलियम हर्शेल ने यह ग्रह 1781 में खोजा था। अरुण के वातावरण में हाइड्रोजन तथा मीथेन गैसें पाई जाती हैं। शुक्र को छोड़कर अरुण तथा सभी दूसरे ग्रहों की तरह समान दिशा में घूमते हैं।
शुक्र की तरह, अरुण पूर्व से पश्चिम की ओर घूमता है। इसका विशिष्ट गुण यह है कि अरुण की घूर्णी अक्ष अत्याधिक झुकी हुई है। परिणामस्वरूप यह पहियों की तरह घूमता है। यह सूर्य के चारों ओर एक चक्कर लगाने में 84 साल तथा अपने अक्ष पर एक चक्कर लगाने में 17 घण्टे 14 मिनट लेता है। इसके 17 उपग्रह हैं।
(iv) वरुण (Neptune) यह सर विलियम हर्शेल द्वारा खोजा गया। यह न्यूटन के गुरुत्व के नियम पर आधारित है, जिसे न्यूटन ने 180 साल पहले दिया था। इसे सूर्य के चारों ओर एक चक्कर लगाने में 164 साल तथा अपने अक्ष पर एक चक्कर लगाने में 16 घण्टे 7 मिनट लगते हैं। अरुण और वरुण पूर्णतया धुँधले हैं तथा इन्हें नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता है ऐसा इसलिए है। क्योंकि पुराने समय में केवल 6 उपग्रह देखे गए थे। ये दूरबीन के बाद खोजे गए दो ग्रह हैं। जिनका उपयोग खगोलशास्त्र में होता है। इसके 8 उपग्रह हैं।
सौरमण्डल की सीमाएँ (Boundaries of the Solar System)
प्लूटो (Pluto) के कक्ष को सौरमण्डल की सीमाओं में चिह्नित नहीं कर सकते। इसका आकार 105 एस्ट्रोनोमिकल यूनिट ज्ञात किया जाता है। जोकि पृथ्वी और सूर्य के बीच औसत दूरी 1.51011 मी के समान है।
ये पिण्ड उसी गैस के गुब्बार में बने थे, जिससे सौरमण्डल प्रतिपादित हुआ था। इन पिण्डों का पथ आकाशीय घटनाओं, जैसे किसी तारे का उनके पास से गुजरना, के फलस्वरूप प्रभावित हो जाता है तथा ये सूर्य की ओर को चलने लगते हैं, ये ही धूमकेतु हैं। वैज्ञानिकों के लिए धूमकेतु अति महत्त्वपूर्ण होते है क्योंकि ये उस पदार्थ का नमूना होते हैं जिससे सौरमण्डल का निर्माण हुआ है।
क्षुद्र ग्रह (छोटा तारा) [Asteroids (Starlike)]
ये मुख्यत: मंगल और बृहस्पति की कक्षाओं के मध्य पाए जाते हैं जोकि सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। ये पिण्ड ग्रहिकाएँ (क्षुद्र ग्रह) कहलाते हैं। प्रत्येक ग्रहिकाओं का अपना कक्ष होता है। ये कक्षों की बड़ी पट्टी में चक्रण करते हैं। कुछ क्षुद्रग्रह बृहस्पति की कक्षाओं के मध्य की पट्टी में विचरण करते हैं।
ग्रहिकाओं का आकार 100 किमी के अन्तर पर छोटे-छोटे पत्थरों के रूप में बदल जाता है। सबसे बड़ी ग्रहिका सेरस (ceres) का व्यास लगभग 1000 किमी है। वैज्ञानिकों को विश्वास है कि ग्रहों के विस्फोट के फलस्वरूप टूटे हुए ग्रह के रूप में इनकी उत्पत्ति हुई है। ये ग्रहिकाएँ बड़े ग्रहों के टुकड़े हैं।
जबकि ग्रहिकाएँ ग्रहों के टूटे हुए छोटे-छोटे टुकड़े हैं। ये छोटे-छोटे टुकड़े, उल्का पिण्ड कभी-कभी पृथ्वी पर गिर जाते हैं तथा बड़ा गड्डा बनाते हैं। मेटीयोर गड्ढा (meteor crater) ऐरीजोना USA में और महाराष्ट्र (भारत) राज्य की लोनार झील इसके अच्छे उदाहरण हैं।
धूमकेतु या पुच्छलतारा (Comets)
धूमकेतु सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्तीय कक्षा में गति करता है। इसलिए सूर्य के चारों और चक्कर लगाने में अधिक समय लगता है। ये सूर्य से अधिक पास होने के कारण पृथ्वी से दिखाई देते हैं। धूमकेतु एक चमकीले सिर तथा एक लम्बी पूँछ का दिखाई देता है। जब यह सूर्य के पास में होता है तो इसकी पूँछ इसकी लम्बाई में वृद्धि करती है। यह पूँछ अदृश्य हो जाती है जब यह सूर्य से हट जाती है। धूमकेतु की पूँछ हमेशा सूर्य से सीधे दूर होती है।
बहुत से धूमकेतु कुछ समय अन्तराल के बाद दिखाई देते हैं। उनमें से एक हैले (Halle) धूमकेतु है। जोकि प्रत्येक 76 सालों बाद दिखाई देता है। पिछला हैले धूमकेतु 1986 में दिखाई दिया था। धूमकेतु के अध्ययन से यह प्रदर्शित होता है कि इसकी पूँछ कार्बन, नाइट्रोजन और हाइड्रोजन के अणुओं से मिलकर बनी है। कुछ गैसें जैसे CO, CH, HCM इन गैसों के अणु जटिल अणु बनाकर जीवन की उत्पत्ति में आवश्यक है। कुछ वैज्ञानिकों ने बताया कि पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति दूसरे अन्तरिक्ष से धूमकेतु के द्वारा हुई है।
उल्का पिण्ड (Meteorites)
उल्का पिण्ड बहुत छोटे पत्थर की तरह होते हैं जो सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। कभी-कभी ये उल्का पिण्ड पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करने से जाने जाते हैं। इस समय इनकी चाल बहुत अधिक होती है। घर्षण के कारण वातावरण में, ये जल जाते हैं। ये चमकीले तथा बहुत जल्दी वाष्पित होते हैं। ये आकाश में अत्यन्त चमकीले पदार्थ की तरह चमकते प्रतीत होते हैं। ये बहुत कम समय के लिए चमकते हैं। ये सामान्यत: shooting stars कहलाते हैं। यद्यपि ये तारे नहीं हैं ।
कुछ उल्का पिण्ड बहुत बड़े होते हैं जोकि वाष्पित होने के कारण पृथ्वी पर नहीं पहुँचते हैं। वह पिण्ड जो पृथ्वी पर पहुँच जाते हैं, उल्का पिण्ड कहलाते हैं। ये प्रयोगशाला में परीक्षण में काम आते हैं। ये सौरमण्डल में धातु के संघटन के बारे में बताते हैं। जब धूमकेतु की पूँछ पृथ्वी पार करती है, तब उल्का पिण्ड का swarms दिखाई देता है। ये उल्का पिण्ड showers कहलाते हैं। कुछ उल्का पिण्ड showers प्रत्येक वर्ष सतत् intervals पर प्राप्त होते हैं।
हमसे जुड़ें, हमें फॉलो करे ..
- Telegram ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Facebook पर फॉलो करे – Click Here
- Facebook ग्रुप ज्वाइन करे – Click Here
- Google News ज्वाइन करे – Click Here