व्यक्तिगत शिक्षण विधि के प्रमुख तत्त्व एवं चरण क्या-क्या हैं ? इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए ।
व्यक्तिगत शिक्षण विधि के प्रमुख तत्त्व एवं चरण क्या-क्या हैं ? इसके महत्त्व पर प्रकाश डालिए ।
अथवा
व्यक्तिगत शिक्षण विधि का विस्तार से वर्णन कीजिए ।
उत्तर—व्यक्तिगत शिक्षण विधि–वैयक्तिक शिक्षण विधि बच्चे की व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनाई गई है। जिसमें शिक्षक को बच्चों की विशिष्ट आवश्यकताओं का ज्ञान प्राप्त होता है तथा साथ ही यह भी ज्ञान होता है कि बच्चे विद्यालय में समुचित उन्नति कर पा रहे हैं या नहीं। यह अध्यापक को विशेष क्षेत्रों या उद्देशित क्षेत्रों में योजनाबद्ध, संरचनात्मक एवं शृंखलाबद्ध अधिगम में मदद करती है। वैयक्तिक शिक्षण व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धान्त पर आधारित होता है।
वैयक्तिक शिक्षण योजना एक जटिल प्रक्रिया है। यह किसी एक व्यक्ति विशेष की जिम्मेदारी नहीं है, अपितु यह उन सब लोगों की जिम्मेदारी हैं, जो बच्चों की विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति या कल्याण से जुड़े हैं। इसके लिए पूरी एक टीम का गठन किया जाता है जिसमें मुख्याध्यापक, नियमित अध्यापक, विशिष्ट शिक्षक, बालक के अभिभावक और विशेषज्ञ डॉक्टर या मनोचिकित्सक आदि सम्मिलित होते हैं। परिणाम देना इन सबका सामूहिक दायित्व होता है ।
वैयक्तिक शिक्षक के तत्त्व—वैयक्तिक शिक्षण के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं—
(1) बालक के वर्तमान प्रदर्शन की रिपोर्ट ।
(2) बालक के सीमित अवधि उद्देश्यों के साथ-साथ वार्षिक उद्देश्यों की रिपोर्ट ।
(3) विभिन्न शैक्षणिक सेवाओं की रिपोर्ट ।
(4) उपयुक्त मूल्यांकन प्रक्रियाओं की अनुसूचियाँ ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि निर्देशनात्मक उद्देश्यों की पूर्ति कर ली गई है या नहीं ।
वैयक्तिक शिक्षण के चरण–वैयक्तिक शिक्षण प्रक्रिया के निम्नलिखित चरण होते हैं—
(1) प्रथम चरण–सर्वप्रथम बालक की विशिष्ट आवश्यकताओं पर ध्यान दिया जाता है ताकि उसकी आवश्यकताओं का ज्ञान प्राप्त किया जा सके ।
(2) द्वितीय चरण–यह बच्चे की शिक्षा सम्बन्धित सूचनाओं को सुनियोजित ढंग से एकत्रित करने की प्रक्रिया होती है। इसका उद्देश्य यह जानना होता है कि बालक क्या कर सकता है और क्या नहीं कर सकता है, उसकी ताकत क्या है, उसकी सीमाएँ एवं समस्याएँ क्या हैं? इसमें तीन प्रकार से मूल्यांकन किया जाता है—
(i) चिकित्सकीय खामियाँ या व्याधि
(ii) मनोवैज्ञानिक अनुकूलता का स्तर
(iii) शैक्षिक स्तर ।
(3) तृतीय चरण–द्वितीय चरण में मूल्यांकन के पश्चात् एक योजना निर्मित की जाती है। यह मासिक, त्रैमासिक आधार पर वार्षिक या सीमित अवधि उद्देश्यों का निर्धारण करती है। जिसमें बच्चों को दी जाने वाली सेवाएँ सम्मिलित की जाती हैं। जैसे कि भाषण प्रशिक्षण या निदानात्मक निर्देशन |
(4) चतुर्थ चरण–इस चरण के तृतीय चरण में निर्मित योजना का क्रियान्वयन किया जाता है। इसमें सभी सकारात्मक के साथ ही नकारात्मक पक्षों को ध्यान में रखा जाता है।
(5) पंचम चरण–इसमें पुनर्मूल्यांकन किया जाता है, जो कि उद्देश्यों पर आधारित होता है। यह मासिक, त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक या वार्षिक आधार पर किया जाता हैं। इसमें यह दर्शाया जाता कि क्या बालक संतोषजनक उन्नति कर रहा है या नहीं, अगर नहीं तो सेवा प्रदान करने में कौन-कौनसे बदलाव किए जाने चाहिए।
(6) षष्म चरण–यह वैयक्तिक शिक्षण प्रक्रिया का अन्तिम चरण होता है इसमें यह फैसला किया जाता है कि सेवाएँ कब तक जारी रखनी हैं या अब इसकी कोई आवश्यकता नहीं है ।
वैयक्तिक शिक्षण का महत्त्व—वैयक्तिक शिक्षण का महत्त्व केवल बालक के लिए ही नहीं, अपितु अध्यापकों एवं अभिभावकों के लिए भी इसका बड़ा महत्त्व है। अध्यापन के परम्परागत आयामों में बालक की असफलता के लिए अध्यापक जवाबदेह नहीं होता है, परन्तु वैयक्तिक शिक्षण में अध्यापक को जवाबदेही सुनिश्चित रहती है। परम्परागत शिक्षा प्रणाली में घर एवं विद्यालय, अध्यापक एवं अभिभावक के मध्य कोई जुड़ाव या रिश्ता नहीं होता था ।
आमतौर पर अध्यापक अलग रहकर कार्य करता था । वैयक्तिक शिक्षण इस दोष का निवारण करता है तथा नियमित अध्यापक एवं अभिभावकों तथा मुख्याध्यापक के बीच परस्पर सम्प्रेषण को प्रोत्साहित करता है।
वैयक्तिक शिक्षण के गुण– निम्नलिखित हैं—
(1) शिक्षक और बालक में घनिष्ठ सम्पर्क–वैयक्तिक शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक तथा बालक के बीच व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित होता है। इससे शिक्षक तथा बालक दोनों लाभान्वित होते हैं। शिक्षक बालक की रुचियों, रुझानों तथा योग्यताओं का पता लगाकर उसके शैक्षिक एवं व्यावसायिक पथ-प्रदर्शन हेतु उचित वातावरण का निर्माण करता है ।
(2) बालक-प्रधान-विधि–इस प्रकार के शिक्षण में बालक शिक्षा का केन्द्र होता है। इसमें बालक को अपनी रुचियों, अभिरुचियों, क्षमताओं तथा योग्यताओं एवं सम्भावनाओं के अनुसार अपने निजी प्रयासों द्वारा अपनी ही गति से नवीनतम ज्ञान प्राप्त करने के अधिक-सेअधिक अवसर प्राप्त होते हैं। यही में शिक्षक अपनी शिक्षण कारण है कि इस प्रकार की व्यवस्था को चुनते समय प्रत्येक बालक की रुचियों, रुझानों तथा योग्यताओं का विशेष ध्यान रखते हुए उन्हीं शिक्षण विधियों का प्रयोग करता है जिनके द्वारा उसका अधिकतम विकास हो जाये ।
(3) स्वाभाविक विकास के अवसर–वैयक्तिक शिक्षण व्यवस्था में बालक अपनी समस्या के समाधान हेतु किसी भी समय कोई भी प्रश्न पूछ सकता है, खोज के लिये परामर्श ले सकता है तथा नियमों के सम्बन्ध में विचार-विमर्श कर सकता है। इस प्रकार वैयक्तिक शिक्षण में बालक स्वतंत्र वातावरण में रहते हुए आत्माभिव्यक्ति द्वारा स्वाभाविक रूप से विकसित होता है।
(4) करके सीखने तथा अनुरूप द्वारा सीखने के अधिक अवसर—वैयक्तिक शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक बालक को करके सीखने तथा अनुभव द्वारा सीखने के अधिक-से-अधिक अवसर प्रदान करता है। साथ ही आवश्यकतानुसार पथध-प्रदर्शन भी करता है। इससे बालक क्रियाशील बना रहता है।
(5) समय का बंधन नहीं–वैयक्तिक शिक्षण में बालक समय के बंधन से मुक्त रहता है। उसे अपने कार्य को उस समय तक करने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है जब तक वह उसे पूरा न कर लें।
(6) आत्म-विश्वास तथा उत्तरदायित्व का विकास–इस प्रकार की शिक्षण प्रक्रिया में बालक अपना कार्य करने के लिये पूर्ण स्वतंत्र होता है। वह अपने कार्य को दूसरे बालकों की सहायता से नहीं अपितु स्वयं अपनी इच्छा से चुनता है तथा स्वयं सोच-विचार करने के पश्चात् स्वयं ही सुविधानुसार समाप्त करता है। इससे उसमें आत्म-विश्वास तथा उत्तरदायित्व आदि गुणों का विकास होता है ।
(7) अशुद्धियों को दूर करने की सम्भावना–वैयक्तिक शिक्षण में बालक स्वयं करके तथा स्वयं अनुभव द्वारा सीखता है। इससे वह अनेक प्रकार की अशुद्धियाँ तथा त्रुटियाँ करता है। परन्तु चूँकि इस प्रकार की व्यवस्था में शिक्षक का ध्यान एक ही बालक पर केन्द्रित रहता है। इसलिये यह बालक की सभी अशुद्धियों का पता लगाकर उन्हें शीघ्र ही कुछ करने का प्रयास करता रहता है ।
(8) व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास–वैयक्तिक शिक्षण-पद्धति बालक को उसकी प्रकृति के अनुकूल विकसित करती है। इससे बालक शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक दृष्टि से पूर्णरूपेण विकसित हो जाता है। दूसरे शब्दों में, इस व्यवस्था के अन्तर्गत बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होता है जो शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है।
(9) बालक की प्रगति का पूर्ण ज्ञान–वैयक्तिक शिक्षण व्यवस्था में केवल एक ही बालक की गतिविधियों का पूरा-पूरा ज्ञान रहता है। दूसरे शब्दों में शिक्षक का समय-समय पर पथ प्रदर्शन करता है तथा उसके द्वारा किये हुए कार्य की परीक्षा भी लेता है। इस प्रकार वैयक्तिक शिक्षण को बालक की प्रगति का पूर्ण ज्ञान रहता है ।
वैयक्तिक शिक्षण के दोष–वैयक्तिक शिक्षण में निम्नलिखित दोष पाये जाते हैं—
(1) प्रत्येक विषय को पढ़ाने के लिए अनुपयुक्त–वैयक्तिक शिक्षण पाठ्यक्रम के प्रत्येक विषय को पढ़ाने के लिये उपयुक्त नहीं है। गणित तथा कला एवं भाषा आदि के कुछ ऐसे विषय हैं जिनकी शिक्षा केवल समूह में ही प्रभावशाली ढंग से दी जा सकती है।
(2) स्पर्धा के अभाव से प्रगति में बाधा–वैयक्तिक शिक्षण में बालक अकेला पढ़ता है। उसे दूसरे बालकों से सम्पर्क स्थापित करने के अवसर नहीं मिलते। इससे बालक में न तो स्पर्धा की भावना जाग्रत होती है और न ही उसे दूसरे बालकों से आगे बढ़ने की उचित प्रेरणा मिलती है। परिणामस्वरूप वह अपने थोड़े से किये हुए कार्य से ही संतुष्ट रहता है।
(3) बुरी आदतों का विकास–वैयक्तिक शिक्षण व्यवस्था में बालक अपने साथियों से अलग रहकर व्यक्तिगत रूप से शिक्षा प्राप्त करता है। इससे उसमें स्नेह, सहानुभूति, सहनशीलता तथा सहयोग आदि सामाजिक गुण विकसित नहीं हो पाते। साथ ही अकेले पढ़ने के कारण वह स्वार्थी, अशिष्ट तथा क्रोधी भी बन जाता है, जो बुरी आदतें है।
(4) शिक्षकों की व्यवस्था में कठिनाई–वैयक्तिक शिक्षण में प्रत्येक बालक के लिये अलग-अलग शिक्षक होने चाहिए। इतनी अधिक संख्या में योग्य, कुशल तथा अनुभवी शिक्षकों की व्यवस्था करना असम्भव
(5) स्थान की कठिनाई–वैयक्तिक शिक्षण के लिये प्रत्येक बालक को अलग-अलग स्थान चाहिये। आज के युग में जबकि जनसंख्या का घनत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, प्रत्येक बालक को अलगअलग शिक्षा प्राप्त करने के लिये अलग-अलग स्थान की व्यवस्था करना बहुत कठिन है।
(6) भावी जीवन के लिये अनुपयुक्त–वैयक्तिक शिक्षण में बालक अपने शिक्षक के साथ आदर्श परिस्थितियों में रहता है। चूँकि वास्तविक जीवन में आदर्श के पंख लगाकर सफल जीवन व्यतीत करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है, इसीलिये व्यक्तिगत रूप से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् बालक को जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से अनुकूल करना बहुत कठिन हो जाता है ।
(7) समय तथा शक्ति का अपव्यय–यदि प्रत्येक बालक की वैयक्तिक शिक्षा के लिये शिक्षक, स्थान तथा सामग्री आदि का प्रबन्ध कर भी दिया जाये तो भी इस प्रकार की व्यवस्था में समय तथा शक्ति का अपव्यय होगा। इसका कारण यह है कि जितने समय और शक्ति से एक शिक्षक एक ही बालक को पढ़ायेगा इतने समय में उतनी ही शक्ति से वह 50 से लेकर 70 बालकों को पढ़ा सकता है । अतः जनतांत्रिक युग में वैयक्तिक शिक्षण पर बल देना समय तथा शक्ति को नष्ट करना है ।
(8) नेतृत्व के लिये शिक्षा असम्भव–वैयक्तिक शिक्षण में बालक व्यक्तिगत क्रियाओं में भाग लेता है। इससे वह अपने साथियों के साथ सामूहिक क्रियाओं में भाग लेने से वंचित रह जाता है। स्मरण रहे कि सामूहिक क्रियाओं में भाग लेने के कारण बालक को नेतृत्व के लिये शिक्षा देना असम्भव है।
(9) अधिक वित्त की आवश्यकता–वैयक्तिक शिक्षण में प्रत्येक बालक के लिए व्यय साध्य सामग्री की आवश्यकता है। भारत जैसे राष्ट्र में धनाभाव के कारण इतनी खर्चीली सामग्री का प्रबन्ध आसानी से नहीं किया जा सकता।
(10) मूल्यांकन में कठिनाई–वैयक्तिक शिक्षण व्यवस्था में तुलना का अभाव रहता है। इससे न तो बालक ही दूसरे बालकों की तुलना में अपनी प्रगति का मूल्यांकन कर पाता है और न ही शिक्षक को यह पता चलता है कि उसकी शिक्षण विधि का बालक के ऊपर अपेक्षाकृत क्या तथा कितना प्रभाव पड़ा।
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