“शिक्षा संस्कृति और ज्ञान दोनों के लिए हो ।” इस कथन की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
“शिक्षा संस्कृति और ज्ञान दोनों के लिए हो ।” इस कथन की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
उत्तर— किसी भी देश की शिक्षा उस देश की संस्कृति पर पूरी तरह से आधारित होती है। शिक्षा की सामग्री का निर्माण संस्कृति की सामग्री से ही होता है। बिना संस्कृति के शिक्षा का कोई भी महत्त्व नहीं है। समाज की संस्कृति के ही कारण शिक्षा में समाज की विशेषता होती है। प्रत्येक समाज अपनी शिक्षा की व्यवस्था अपनी संस्कृति के अनुरूप ही करता है। संस्कृति की सहायता से ही शिक्षा अपने उद्देश्य निर्धारित करती है एवं उनकी पूर्ति के लिए स्वयं संस्कृति की सहायता लेती है।
ब्रामेल्ड के अनुसार, “संस्कृति की सामग्री से ही शिक्षा का
प्रत्यक्ष रूप से निर्माण होता है और यही सामग्री शिक्षा को न केवल उसके स्वयं के उपकरण वरन् उसके अस्तित्व का कारण भी प्रदान करती हैं। “
संस्कृति एवं शिक्षा के सम्बन्ध को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है—
(1) संस्कृति की निरन्तरता में शिक्षा की भूमिका– किसी भी देश के इतिहास का विशुद्ध सार ही उस देश की संस्कृति कहलाता है। संस्कृति के अन्तर्गत उस देश की पुरानी मान्यताओं एवं रीति-रिवाजों का सार आता है जिन्हें संस्कृति स्वयं में समाहित रखती है। यदि संस्कृति का विनाश होता है तो निश्चित रूप से उस देश का विनाश होगा । शिक्षा के माध्यम से ही संस्कृति अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं को निरन्तरता प्रदान करती है। शिक्षा ही संस्कृति को सम्भाल कर निरन्तर जीवित रखती है।
स्पेन्स रिपोर्ट के अनुसार, “विद्यालय वह साधन प्रदान करते हैं जिनके द्वारा राष्ट्र का जीवन अखण्ड रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।’
(2) संस्कृति के हस्तान्तरण में शिक्षा की भूमिका– शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति समाज के सदस्य के रूप में संस्कृति को सीखकर उसे अगली पीढ़ी में हस्तान्तरित करता है। संस्कृति का हस्तान्तरण शिक्षा के अभाव में सम्भव नहीं है। संस्कृति के हस्तान्तरण में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। मनुष्य अज्ञात रूप से संस्कृति में समाहित अनेक परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों को सीखता है एवं संस्कृति से सम्बन्धित अन्य बातें भी मनुष्य शिक्षा के माध्यम से ही सीखता है।
ओटावे के अनुसार, “शिक्षा का एक कार्य समाज के सांस्कृतिक मूल्यों और व्यवहार के प्रतिमानों को उसके तरुण और समर्थ सदस्यों को हस्तान्तरित करना है। “
(3) संस्कृति के परिवर्तन में शिक्षा की भूमिका– बालक अपनी आयु में वृद्धि के साथ-साथ अपनी संस्कृति के नियम, आदतों एवं रीति-रिवाजों को सीखता एवं समझता है। बालक ये सब रीतिरिवाज, परम्पराएँ एवं नियमों को समाज (अध्यापक, पारिवारिक सदस्य, माता-पिता, आस-पड़ोस के लोगों) से सीखता है। इस कारण बालक के चेतन एवं अचेतन मन में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। शिक्षा की उपयोगिता संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में तभी सार्थक होगी जब अध्यापक द्वारा शिक्षण का कार्य एक निश्चित योजना बना कर बालकों को संस्कृति का ज्ञान दिया जाए ।
बट्स (Butts) के अनुसार, “जब कभी एक व्यक्ति या समूह जान-बूझ कर व्यवहार को निर्देशित करने का प्रयत्न करता है, तभी शिक्षा विद्यमान रहती है। इस प्रकार शिक्षा उन प्रक्रियाओं में जिनके द्वारा संस्कृति हस्तान्तरित और परिवर्तित की जाती है, बहुत ही अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करती है । “
(4) शिक्षा में संस्कृति का समावेश– बिना संस्कृति के उचित शिक्षा की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। संस्कृति का समावेश शिक्षा में होना अति आवश्यक है। जिस शिक्षा में संस्कृति का समावेश नहीं होगा वह शिक्षा अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफल नहीं हो सकती । शिक्षा के माध्यम से बालक की अन्तर्निहित शक्तियों एवं योग्यताओं को विकसित किया जाता है।
हुमायूँ कबीर के कथनानुसार, “यही कारण है कि आजकल यह बात सामान्य रूप से स्वीकार की जाती है कि कला, प्रसाधन या सजावट की कोई वस्तु नहीं हैं वरन् बालकों के शैक्षिक विकास के लिए अति आवश्यक तत्त्व है। “
समाज के सम्पूर्ण जीवन की अभिव्यक्ति को संस्कृति कहते हैं । संस्कृति के अन्तर्गत समाज के प्रत्येक पहलू (नियम, रहन-सहन, रीतिरिवाज, आचार-विचार इत्यादि) के प्रतिमान आ जाते हैं। व्यक्ति इन प्रतिमानों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सीखता रहता है ।
(5) व्यक्ति के सांस्कृतिक विकास में शिक्षा की भूमिका–हमें अपनी संस्कृति के विकास की प्रेरणा अपने उन शूरवीरों एवं महान हस्तियों से प्रेरित होकर मिलती है जिनके विषय में हमने इतिहास में पढ़ा है। हमारे कला, साहित्य, संविधान एवं इतिहास पर हमारी संस्कृति का गहरा प्रभाव है। हमारे द्वारा अर्जित ज्ञान जो कि आदिकाल से ही संचित किया गया है वह सब हमारी संस्कृति का ही अंग है।
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग के अनुसार, “मानवता की स्वाभाविक झलक सांस्कृतिक विकास की विधि है। जिनमें स्वयं महानता नहीं है, उन्हें ( इतिहास का अध्ययन करके) महान शक्तियों की संगत में रहना चाहिए।”
(6) व्यक्तित्व के विकास में सहयोग– बालक के व्यक्तित्व का विकास शिक्षा के मूल उद्देश्यों में से एक है किन्तु शिक्षा इस मूल उद्देश्य की पूर्ति संस्कृति की सहायता के बिना नहीं कर सकती है। शिक्षा को संस्कृति से अनेक ऐसे उपकरण प्राप्त होते हैं जो बालक की चारित्रिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा आध्यात्मिक बुद्धि का विकास करने में सहायक होती है।
ओटावे के अनुसार, “जिस संस्कृति में व्यक्तित्व का विकास होता है उसके द्वारा उसका आंशिक निर्माण किया जाता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्ति के विकास से सम्बन्धित होने के कारण शिक्षा, संस्कृति पर आश्रित रहती है ।”
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