‘संस्मरण’ को परिभाषित कीजिए । संस्मरण की विशेषताएँ क्या हैं तथा संस्मरण के तत्त्व क्या हैं ?

‘संस्मरण’ को परिभाषित कीजिए । संस्मरण की विशेषताएँ क्या हैं तथा संस्मरण के तत्त्व क्या हैं ?

उत्तर— संस्मरण हिन्दी साहित्य की नूतन विधा है। डॉ. शान्ति स्वरूप गुप्त के शब्दों में—“ भावुक कलाकार जब अतीत की अनन्त स्मृतियों में कुछ स्मरणीय अनुभूतियों को अपनी कोमल कल्पना से अनुरंजित कर व्यंजनामूलक संकेत शैली में व्यक्त करता है, तब उसे संस्मरण कहते हैं । ” संस्मरण प्रायः महान् व्यक्तियों के ही लिखे जाते हैं । इसका सम्बन्ध देशकाल तथा पात्र दोनों से होता है। इसमें लेखक वर्ण्य-विषय के साथ-साथ अपने विषय में भी कुछ-न-कुछ कहता चलता है। इसमें शैली निश्चित नहीं होती। इसमें लेखक जैसा देखता है, अनुभव करता है, वैसा ही वर्णन करता है।
परिभाषाएँ—
डॉ. आशा गुप्त के अनुसार—” अतीत के धूमिल चित्रों की साकार अभिव्यक्ति ही संस्मरण है।”
डॉ. नरेश लावनिया के अनुसार—” जब व्यक्ति या घटना की स्मृति वर्षों के व्यवधान के पश्चात् भी मस्तिष्क के किसी कोने में अपना स्थान बनाए रखती है तो साहित्यकार उस स्मृति को साहित्योचित रूप से अभिव्यक्ति प्रदान करके संस्मरण विधा की रचना करता है ।”
डॉ. भगीरथ मिश्र के अनुसार–” संस्मरण प्रायः किसी प्रसिद्ध व्यक्ति के होते हैं और प्रायः मृत्यु के उपरांत लिखे जाते हैं।”
डॉ. ओमप्रकाश शास्त्री के अनुसार, “अतीत की अनन्त घटनाओं में जब कलाकार किसी अधिक स्मरणीय, विस्तरणीय घटना को अपने व्यक्तित्व में रंगकर रोचक शैली में यथार्थ रूप से प्रस्तुत करता है, तो उसे संस्मरण कहते हैं।”
डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत के अनुसार—“ भावुक कलाकार जब अतीत की अनन्त स्मृतियों में से कुछ स्मरणीय अनुभूतियों को अपनी कला से अनुरंजित करके रोचक ढंग से यथार्थ रूप में व्यक्त करता है, तब उसे संस्मरण कहते हैं।”
डॉ. रामगोपाल चौहान के अनुसार—”संस्मरण में लेखक किसी ऐसी घटना, भाव या व्यक्ति से सम्बन्धित निजी अनुभूति की स्मृति का साकारता प्रदान करता है, जो अंदर ही अंदर उसके मन को कुरेदती रहती है और अभिव्यक्ति के लिए उसके मन, प्राण को उद्वेलित करती रहती है । यह अभिव्यक्त होकर संस्मरण का रूप धारण करती है । “
डॉ. हरिमोहन के अनुसार–“संस्मरण गद्य की वह जीवनपरक कथेतर गद्य विधा है, जिसमें कोई लेखक किसी विशिष्ट व्यक्ति के जीवन से जुड़ी मार्मिक, आत्मीय स्मृतियों को रोचक तथा / तथ्यपरक ढंग से वर्णित करता है। इस वर्णन में लेखक की अंतरंगता की झलक भी दिखाई देती है। आत्मसंस्मरण अपने जीवन की स्मृतियों से जुड़े चित्र हैं।”
डॉ. शंकर देव अवतरे के अनुसार- ” संस्मरण के आत्म-संस्मरण और पर-संस्मरण दोनों रूप होते हैं, जो क्रमशः आत्मकथा और जीवनी के उसी प्रकार संक्षिप्त रूप है; जैसे—उपन्यास का कहानी, नाटक का एकांकी और महाकाव्य का खण्डकाव्य है।”
संस्मरण की विशेषताएँ—संस्मरण की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं—
(i) संस्मरण महान् व्यक्तियों के चरित्रों को लेकर ही लिखे जाते हैं।
(ii) संस्मरण का सम्बन्ध देश, काल तथा पात्र तीनों से सम्बन्धित रहता है।
(iii) संस्मरण अतीत का ही होता है।
(iv) प्रभावोत्पादकता, रोचकता तथा संकेतात्मकता इसके आवश्यक गुण हैं।
(v) किसी विषय अथवा व्यक्ति के स्मृति चित्रों को शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त करना ही संस्मरण कहलाता है ।
(vi) इसकी शैली कोई भी हो सकती है । तात्पर्य है कि लेखकशैली का कोई बंधन नहीं होता। लेखक किसी भी शैली में लिख सकता है।
(vii) इसमें तटस्थता के लिए कम अवकाश होता है।
(viii) इसमें लेखक की आत्मनिष्ठता अधिक मात्रा में देखने को मिलती है । तात्पर्य है कि लेखक वर्ण्य विषय का वर्णन करने के साथ-साथ अपना वर्णन भी करता चलता है।
संस्मरण के प्रकार—डॉ. मनोरमा शर्मा ने संस्मरण के छ: प्रकार बताए हैं, जो निम्नलिखित हैं—
(i) जीवनी प्रधान संस्मरण
(ii) यात्रा प्रधान संस्मरण
(iii) शिकार सम्बन्धी संस्मरण
(iv) ऐतिहासिक संस्मरण
(v)  सामान्य संस्मरण
(vi) कलात्मक संस्मरण
संस्मरण के तत्त्व—संस्मरण के निम्नलिखित तत्त्व हैं—
(1) वर्ण्य – विषय—संस्मरण का वर्ण्य – विषय कोई विशिष्ट व्यक्ति अथवा कोई पावन अथवा ऐतिहासिक स्थल हो सकता है। लेकिन लेखक को वर्ण्य-विषय का पूरा ज्ञान होना चाहिए। लेखक का कर्त्तव्य बनता है कि वह विशिष्ट व्यक्ति के जीवन से सम्बन्धित मार्मिक घटनाओं का स्मरण करते हुए उन्हें रोचक तथा तथ्यपरक ढंग से वर्णित करें। इसमें लेखक अतीत की घटनाओं का यथार्थ रूप से वर्णन करता है।
(2) स्मृति का अंकन—लेखक की अपनी स्मरण शक्ति पर संस्मरण आधारित होता है । वस्तुत: संस्मरण को जीवन की स्मृतियों से जुड़ा हुआ शब्द चित्र कहा जा सकता है। इस संदर्भ में डॉ. ओम प्रकाश शास्त्री ने विचार प्रकट किया है, “अतीत की अनन्त घटनाओं में जब कलाकार किसी अधिक स्मरणीय विस्तरणीय घटना को अपने व्यक्तित्व में रंगकर रोचक शैली में यथार्थ रूप में प्रस्तुत करता है, तब संस्मरण का निर्माण होता है। संस्मरण शब्द स्मरण में सम् उपसर्ग लगने से बना है। इसका मतलब यह है कि स्मृति का इस विधा में महत्त्वपूर्ण स्थान है।”
(3) पात्रों का चरित्र चित्रण—संस्मरण में वर्णित पात्रों का समुचित चरित्र-चित्रण किया जाना चाहिए । व्यक्ति विशेष के जीवन के गुण-अवगुणों को तथ्यपरक चित्रित किया जाना चाहिए। लेखक का कर्त्तव्य है कि व्यक्ति विशेष के जीवन की चारित्रिक विशेषताओं पर पूरा प्रकाश डाले । साथ ही कथानक से जुड़े हुए व्यक्तियों की चारित्रिक विशेषताओं का भी वर्णन किया जाना चाहिए।
(4) भाषा-शैली—यह संस्मरण का बहुत महत्त्वपूर्ण तत्त्व है । विभिन्न लेखकों की अपनी-अपनी भाषा-शैली होती हैं, जिसके द्वारा वह व्यक्ति विशेष या घटना विशेष को संस्मरणात्मक शैली में प्रस्तुत करता है । लेखक को यथासम्भव सहज, सरल व भावानुकूल भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए । वस्तुतः संस्मरण में एक झांकी मात्र रहती है। इसलिए उसमें सहज, सरल तथा बोधगम्य भाषा के साथ प्रभावपूर्ण शैली का प्रयोग किया जाना चाहिए।
(5) परिवेश तथा वातावरण—लेखक ने संस्मरण में जिस किसी व्यक्ति, घटना, दृश्य, वस्तु आदि पर संस्मरण लिखा है, उससे सम्बन्धित परिवेश अथवा वातावरण का भी वर्णन किया जाना चाहिए। तभी व्यक्ति अथवा घटना पाठक को प्रभावित कर पाएगी। यथासम्भव रोचक तथा तथ्यपरक संबंध से वातावरण का सजीव चित्रण किया जाना चाहिए।
(6) उद्देश्य—प्रत्येक लेखक किसी-न-किसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर संस्मरण की रचना करता है। इसमें लेखक व्यक्ति विशेष के चरित्र की विशेषताओं का उद्घाटन करना चाहता है, जिसके लिए वह किसी घटना को आधार बनाता है । यही कारण है कि रेखाचित्र चरित्र प्रधान होते हैं, जबकि संस्मरण घटना प्रधान होते हैं, फिर भी संस्मरणों में घटनाओं के साथ-साथ चरित्र को भी महत्त्व दिया जाता है। वस्तुतः संस्मरण का उद्देश्य है—किसी घटना या व्यक्ति का संस्मरण करके उसका चित्रण करना । इसमें लेखक सूक्ष्म वर्णन द्वारा व्यक्ति विशेष का संस्मरणात्मक वर्णन करता ।
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