1857 के विद्रोह के क्या कारण थे? बिहार में उसका प्रभाव क्या था ?
1857 के विद्रोह के क्या कारण थे? बिहार में उसका प्रभाव क्या था ?
( 65वीं BPSC / 2020 )
अथवा
विद्रोह के कारणों का उल्लेख करते हुए विद्रोह के परिणाम अथवा प्रभाव को बताएं।
उत्तर -1857 का विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ प्रथम व्यापक विद्रोह था जो काफी बड़े क्षेत्र में फैला एवं इसका नेतृत्व भी अनेक – लोगों ने अपने-अपने क्षेत्रों में किया। बिहार में 1857 के विद्रोह के अनेक कारण थे जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित थे –
⇒ अंग्रेजों द्वारा भारतीय सैनिकों के साथ भेदभाव किया जाता था। अंग्रेज सैनिकों की अपेक्षा उनका वेतन एवं सुविधाएं कम तथा पदोन्नति के अवसर न के बराबर थे। बिहार के सैनिकों को भी इस तरह के भेदभाव से रू-ब-रू होना पड़ता था जिसके कारण उनके मन में असंतोष व्याप्त था। 12 जून, 1857 को देवघर जिले के गांव रोहिणी में सैनिकों के विद्रोह के साथ ही विद्रोह आरंभ हो गया। दो अंग्रेज अधिकारी मारे गए परंतु विद्रोह विफल रहा।
⇒ अंग्रेजों की धार्मिक नीति भी हिन्दुओं एवं मुसलमानों के लिए कष्टप्रद थी । ईसाई धर्म प्रचार पर सरकार का काफी जोर था। वहाबी आंदोलन का केन्द्र उस समय पटना एवं आस-पास के क्षेत्र थे जो मूलत: एक सुधारवादी आंदोलन था। वहाबियों ने भारत से ब्रिटिश सत्ता का अंत करने का आह्वान किया। अंग्रेजों ने वहाबी आंदोलन पर कड़ा रूख अपनाया जिसका प्रभाव 1857 के आंदोलन प्रारंभ होने पर दिखा। ये आंदोलनकारी 1857 के विद्रोह में शामिल हो गए।
⇒ बिहार में जमींदारों एवं सामंतों के विरुद्ध अंग्रेजों की नीति 1857 के विद्रोह में जमींदारों की भूमिका का प्रमुख कारण रहा। विद्रोहियों के प्रमुख नेता तथा जगदीशपुर के जमींदार बाबू कुंवर सिंह को अंग्रेजों ने दिवालिएपन के कगार पर पहुंचा दिया था। अंग्रेजों ने उनकी सारी संपत्ति छीन ली थी और उसे लौटाना स्वीकार नहीं किया। अतः जैसे ही 3 रेजीमेंटों के सैनिक दानापुर से आरा पहुंचे, उन्होंने उनका नेतृत्व स्वीकार करते हुए विप्लव आरंभ कर दिया। कुंवर सिंह ने लंबे समय तक विद्रोह का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। लेकिन अप्रैल 1858 को कैप्टन ‘ली ग्रांड’ की सेना को पराजित करने के बाद खुद भी घायल हुए एवं कुछ दिनों के बाद मृत्यु को प्राप्त हुए। यद्यपि अमर सिंह ने संघर्ष को आगे बढ़ाया। किन्तु कुंवर सिंह की मृत्यु के बाद विद्रोह में प्रभावी नेतृत्व का अभाव हो गया और विद्रोह शीघ्र ही समाप्त हो गया।
⇒ इन कारणों के अलावा भी कई अन्य कारण थे जो 1857 के विद्रोह में बिहार की सक्रियता का कारण बने जैसे कृषक, शिल्पकार आदि का शोषण जिससे आम जन भी विद्रोहियों के साथ हो गए।
⇒1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण चर्बी वाले कारतूस के प्रयोग की घटना थी जिससे बिहार सहित पूरे देश में आंदोलन प्रारंभ हुआ।
> 1857 के विद्रोह का प्रभाव
विद्रोह का सर्वाधिक उल्लेखनीय प्रभाव बिहार के साथ संपूर्ण भारत पर जो सत्ता के हस्तांतरण के रूप में हुआ। 1858 के अधिनियम द्वारा भारत में कम्पनी के शासन की समाप्ति हुई और क्राउन के शासन की स्थापना हुई। गवर्नर जनरल को अब वायसराय कहा जाने लगा। बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स तथा बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल के स्थान पर भारत के प्रशासन के लिए राजकीय सचिव (सेक्रेट्री ऑफ स्टेट्स) उत्तरदायी हो गया।
1857 के विद्रोह के पश्चात् भारतीय रियासतों तथा ब्रिटिश साम्राज्य के संबंध को पहली बार परिभाषित किया गया। प्रसार तथा हड़प की नीति को परित्याग कर देशी रियासतों को सम्मानजनक स्थान देने का वायदा किया गया। 1858 में ब्रिटिश सम्राट ने मुगल साम्राज्य समाप्त कर उसकी सर्वोच्चता ग्रहण कर ली। जाहिर है कि इससे भारतीय रियासतें तथा भारतीय जनता वैधानिक रूप से ब्रिटिश सर्वोच्चता के अधीन आ गई । इस प्रकार देशी-रियासतों का स्वरूप अब ब्रिटिश सत्ता के अभिप्रायों तथा ब्रिटिश अधिकारियों के अधीनस्थ के रूप में स्थापित हो गई।
1857 के विद्रोह में मुख्य पहल सेना ने की थी। अतः विद्रोह के परिणामस्वरूप सैन्य संगठन में महत्वपूर्ण परिवर्तन किया गया। सबसे पहले सेना में यूरोपीय सैनिकों की संख्या बढ़ाई गई और बंगाल की सेना में दो भारतीय सिपाहियों में एक यूरोपीय तथा मुम्बई (बम्बई) व मद्रास की सेना में पांच भारतीयों पर एक यूरोपीय सैनिक की नियुक्ति की गई। तोपखाने एवं मारक हथियार अंग्रेज अधिकारियों के लिए आरक्षित किए गए। अधिक संवेदनशील इलाके अंग्रेजों के प्रशासन में आ गए। दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन मिश्रित रेजीमेण्ट के रूप में किया गया जिसमें विभिन्न जाति, क्षेत्र तथा समुदाय के आधार पर सैनिकों की रेजीमेन्ट स्थापित की गई। इसका उद्देश्य सैनिकों में राष्ट्रीय भावना का उदय न होने देना था। अब सेना में ऊँची जाति के हिन्दुओं की भर्ती न कर बीच की जातियों के सिख, पठान तथा गोरखा की भर्ती की जाने लगी। इससे लड़ाकू जाति की अवधारणा सामने आयी । लार्ड राबर्टस ने 1880 के दशक के अंतिम वर्षों में लड़ाकू जातियों के विचारधारा को बल दिया। इस अवधारणा के अनुसार कतिपय विशिष्ट जातियाँ ही अच्छे सिपाही पैदा कर सकती हैं। इसी आधार पर सेना में सिखों एवं गोरखों की भर्ती का औचित्य सिद्ध किया गया। वस्तुतः सिख, पठान एवं गोरखों पर राष्ट्रवाद का प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं थी क्योंकि ये अपेक्षाकृत सीमांत, धार्मिक एवं प्रजातीय समूहों के अंतर्गत आते थे।
विद्रोह का सामाजिक प्रभाव ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति के रूप में पड़ा। दरअसल – अंग्रेजों की यह सोच थी कि मुस्लिम वर्ग के षड्यंत्र के कारण 1857 का विद्रोह हुआ था। अतः विद्रोह के पश्चात् मुस्लिम वर्ग का दमन शुरू हुआ। लोक नियुक्तियों तथा कई अन्य क्षेत्रों में उनसे भेदभाव बरता गया। लेकिन उन्नसीवीं शताब्दी के अंत में जब राष्ट्रीय आन्दोलन का विकास होना शुरू हुआ तब उनकी नीतियाँ बदल गई। अब मुस्लिम वर्ग को संरक्षण तथा बेहतर सुविधा देकर अन्य वर्गों के साथ भेदभाव शुरू किया गया। इन सभी कार्यों का उद्देश्य राष्ट्रीय आन्दोलन को कमजोर करना था और ऐसा हुआ भी। यहीं से ‘सांप्रदायिकता की नवीन अवधारणा’ आधुनिक भारतीय इतिहास में सामने आई। इससे भारतीय समाज में सांप्रदायिक वैमनस्य फैला और 1880 के बाद सांप्रदायिक दंगे आम हो गए।
1857 के बाद अंग्रेजी शासन ने अपने सामाजिक आधार को पहचाना तथा उन वर्गों के हितों पर ध्यान देने की कोशिश की गई जिन्होंने विद्रोह के दौरान उनके साथ सहयोग किया। इस तरह अब अंग्रेजी राज के नए सहयोगियों की तलाश की जाने लगी। इसके लिए भारतीयों के सबसे ज्यादा प्रतिक्रियावादी वर्ग जैसे सामंत, राजकुमार, भूपति आदि को विशेष संरक्षण देना शुरू किया गया। बाद में राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान इस वर्ग ने अंग्रेजी राज के सबसे समर्थक वर्ग के रूप में अपने को प्रस्तुत भी किया।
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