विद्यालय ज्ञान तथा विद्यालय के बाहर प्राप्त ज्ञान में सम्बन्ध स्पष्ट कीजिए ।
विद्यालय ज्ञान तथा विद्यालय के बाहर प्राप्त ज्ञान में सम्बन्ध स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर— विद्यालय ज्ञान और विद्यालय के बाहर–पाठ्यक्रम शब्द का उपयोग अब विस्तृत व्यापक व विशाल अर्थ में होने लगा है। पाठ्यक्रम में अब बालक का विद्यालय में दिये जाने वाले ज्ञान तक ही सीमित नहीं है अपितु विद्यालय के बाहर आयोजित होने वाली ज्ञान की अनेक गतिविधियाँ ही पाठ्यक्रम का निर्माण करती हैं। पाठ्यक्रम विषयवस्तु और पाठ्येत्तर क्रियाएँ का सम्मिलित रूप है। पाठ्यक्रम वे सभी अनुभव, ज्ञान, विचार आ जाते हैं जो विद्यालयों के साथ बाहर आयोजित होने वाली पाठ्येतर क्रियाओं को शामिल किया जाता है।
विद्यालय में यदि सिलेबस का ही ज्ञान दिया जाता है तो वह पाठ्यवस्तु कहलाती है। पाठ्यवस्तु संकुचित है, जबकि पाठ्यक्रम व्यापक है।
माध्यमिक शिक्षा आयोग ने लिखा है कि “विद्यालय का सम्पूर्ण जीवन पाठ्यक्रम है, जो छात्रों के जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है और उनके संतुलित विकास में सहायता देता है।’ “
विद्यालय में दिये जाने वाला ज्ञान बाहर के ज्ञान से सम्बन्ध रखने वाला होना चाहिए। विद्यालयी पाठ्यक्रम की संस्तुति शिक्षा आयोग ने दी—
(1) विद्यालय शिक्षा का पाठ्यक्रम प्रथम 10 वर्षों के लिए सामान्य शिक्षा का समान पाठ्यक्रम का ज्ञान दिया जाना चाहिए।
(2) उच्च माध्यमिक स्तर पर विभिन्नकरण एवं विशिष्टीकरण किया जाना चाहिए।
(3) उच्चतर माध्यमिक स्तर पर पाठ्यक्रम विस्तृत एवं गहन होना चाहिए।
(4) उच्चतर माध्यमिक पर पाठ्यक्रम गतिविधियों से युक्त होना चाहिए।
(5) किशोरों का सर्वांगीण विकास करने हेतु 1/4 समय शारीरिक शिक्षा, कला, शिल्प, नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा तथा 1/2 समय बैंक लिपिक विषयों को दिया जाना चाहिए।
(6) प्रारम्भिक स्तर पर पाठ्यक्रम में भाषा प्रारम्भिक गणित एवं वातावरण सम्बन्धित अध्ययन पर बल देना चाहिए।
विद्यालय—
विद्यालय एक लघु समाज है। यह एक ऐसा स्थान है जहाँ व्यक्ति अपनी शिक्षा के माध्यम से ज्ञान बढ़ाता है। यहाँ बालक जीवन की व्यावहारिक क्रियाएँ, सामाजिक सरोकार सहयोग सहकारिता आदि को सशक्त किया जाता है।
ओटावे का विचार विद्यालय को सामाजिक आविष्कार कहा जा सकता है, जो बच्चों के विशिष्ट शिक्षण द्वारा समाज की सेवा करता है।
रायबर्न का विचार-विद्यालय एक सहकारी समाज था एक ऐसा समाज है जहाँ सहयोग प्राप्त किया जा सकता है ।
विद्यालय को विद्यालय से बाहर सम्बन्ध स्थापित करने के लिए विद्यार्थियों को निम्न प्रोग्राम करवाये जाने चाहिए—
(1) सामुदायिक क्रियाएँ को करवाने चाहिए ।
(2) सामुदायिक सेवा संघ का निर्माण करना चाहिए।
(3) आस-पास के वातावरण का सर्वेक्षण द्वारा रिपोर्ट तैयार करना ।
(4) प्रतिदिन या सप्ताह में दो बार भिन्न-भिन्न कार्यों के माध्यम से समाज में पहुँच बनाना।
(5) समाज के लिए मनोरंजनात्मक क्रियाएँ (नाटक प्रदर्शन, मेले आदि) का आयोजन।
(6) पुस्तकालय व वाचनालय को समाज के लोगों के लिए खुला रखना।
(7) स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला हो ।
विद्यालय के महत्त्वपूर्ण कार्य : ज्ञान के विशेष संदर्भ में—
(1) सामाजिक जीवन का संरक्षण और स्थायीकरण— विद्यालय के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्यों में एक कार्य परम्परा, अनुभव सामाजिक मूल्यों तथा समाज के जीवन को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपते हुए सामाजिक जीवन की निरन्तरता को बनाए रखने का है। इस प्रकार विद्यालय आधुनिक जटिल समाज में सफलतापूर्वक जीवन निर्वाह करने के लिए आवश्यक न्यूनतम सामान्य संस्कृति सभी छात्रों को देता है ।
(2) संस्कृति और सभ्यता का विकास—विद्यालय न केवल युवा पीढ़ी को सांस्कृतिक विरासत देता है, बल्कि बच्चों को इस तरह प्रशिक्षित भी करता है कि वे अपने प्रयास से उस विरासत को समृद्ध उपान्तरित (यथावश्यक परिवर्तन) भी कर सकें। इस तरह बेहतर और अधिक सुखी समाज की स्थापना में विद्यालय सहायक बनता है। डी.जे.ओ. कोनन ने कहा है, “यदि प्रत्येक पीढ़ी का कार्य केवल अपने पूर्वजों के ज्ञान को सीखना होता तो इससे किसी तरह का बौद्धिक या सामाजिक विकास संभव नहीं होता तथा समाज की वर्तमान स्थिति प्राचीन पाषाण युग के समाज से कुछ ही भिन्न हो पाती।” इस प्रकार विद्यालय संस्कृति और सभ्यता के विकास हेतु मानव अनुभवों के पुनर्गठन और पुननिर्माण का एक सतत महत्त्वपूर्ण कार्य करता है।
(3) विद्यालय पश्चात् अनुकूलन की क्षमता—ब्राउन कहता है कि “विद्यालय की सीधी जिम्मेदारी व्यक्ति बच्चे को विद्यालयपश्चात के अनुकूलन हेतु तैयार करने की है।” जॉन डीवी के शब्दों में, “हम आजीविका देने वाले लाभप्रद उद्यमों को व्यवस्थित तरीके से सीखने के लिए बच्चों को विद्यालय भेजते हैं।” बच्चा अपने जीवन की सर्वाधिक प्रभावशाली अवधि के लगभग एक दशक को विद्यालय में बिताता है। विद्यालयी शिक्षा पूरी होने के बाद उसको अपनी श्रेष्ठ क्षमता और योग्यता के अनुसार विद्यालय से बाहर के समाज के साथ अनुकूलन करना होता है। यदि वह समायोजन वांछनीय और उचित होता है तो विद्यालय अपने लक्ष्य और उद्देश्य में सफल रहता। यदि नहीं तो वह अपने दायित्व का निर्वाह करने में असफल रहता है। विद्यालय पद्धति की सफलता या असफलता अंतिम परिणाम से आंकी जाती है। एक अनुशासनहीन और कुंठित वयस्क शिक्षा का बुरा परिणाम है। विद्यालय के मुख्य कार्यों में से एक कार्य लड़के और लड़कियों को उनके सामाजिक समूहों के साथ सही और उपयोगी ढंग से अनुकूलन करने में सक्षम बनाने और व्यवसाय, सार्वजनिक तथा निजी स्तरों पर सफल जीवन बिताने की ओर अग्रसर करने का है ।
(4) व्यक्ति का सर्वांगीण विकास—विद्यालय बच्चे के भौतिक, बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक, सौन्दर्यबोध और अध्यात्म से परिपूर्ण व्यक्तित्व का विकास करता है। पाठ-विषयक और पाठ्येतर (संगामी) क्रियाकलापों, शिल्प कर्म, खेल-कूद, समाज निर्माणी, कलात्मक और अन्य संवेगों के माध्यम से विद्यालय ऐसे सर्वांगीण विकास को साकार करता है। इस प्रकार बच्चा न केवल ज्ञानार्जन करता है बल्कि उपयुक्त आदतों, कौशलों और अभिवृत्तियों को भी विकसित करता है ।
(5) सामाजिक कार्यकुशलता का विकास—लोकतांत्रिक समाज में रहने के लिए बच्चे को लोकतांत्रिक विधियों में प्रशिक्षित करना आवश्यक है और विद्यालय का कार्यक्रम इसी के अनुसार बनाया जाता है। लोकतांत्रिक सरकार में प्रभावशाली प्रतिभागिता का प्रशिक्षण तथा अधिकार और कर्त्तव्यों का संयमित ज्ञान विद्यालय का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है । इस कार्य को विद्यालय लोकतांत्रिक आदर्शों के स्पष्ट सिद्धान्त को हृदयंगम करके तदनुसार शिक्षा कार्यक्रम को तैयार करता है। विद्यालय आर्थिक, राजनैतिक और भौतिक दशाओं में त्वरित परिवर्तनों के फलस्वरूप समाज के विकास का अध्ययन और विश्लेषण करता रहता है। इस अध्ययन और विश्लेषण के आधार पर यह सामाजिक विकास और प्रगति की प्रक्रिया को साकार करने वाले अपने शिक्षा कार्यक्रम को रूपान्तरित तथा पुनः समायोजित करता रहता है।
(6) जीवन के उच्चतर मूल्यों का समावेशन—नैतिक और धार्मिक शिक्षा जिसको आरम्भ में परिवार और मंदिर द्वारा दिया जाता था, अब इस शिक्षा को देने का दायित्व भी विद्यालय का ही है। संयुक्त परिवार प्रणाली तेजी के साथ टूटती जा रही है तथा मंदिर (गिरजाधर) भी जनता पर ऊपने नियंत्रण को खो रहा है। इस अंतराल को अब विद्यालय को ही दूर करना है। सामाजिक, आर्थिक और लोकतांत्रिक आदर्शों के साथ विद्यालय को बच्चों में नैतिक ज्ञान को प्रविष्ट करना है क्योंकि ऐसा करन से ही वे सही और गलत तथा अच्छाई और बुराई के बीच विभेद कर पाएंगे। विद्यालयी शिक्षा को बच्चों में सत्य, भलाई और सुन्दरता के सही आकलन की क्षमता विकसित करनी चाहिए।
विद्यालय से बाहर—बालक को विद्यालय से बाहर के वातावरण का ज्ञान कराना चाहिए। विद्यालय के अन्तर्गत पढ़ाया जाना वाला पाठ्यक्रम तो मात्र मानसिक विकास करने में सक्षम हो सकेगा लेकिन शारीरिक, नैतिक, चारित्रिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास तो विद्यालय के बाहर ही बालक का विकास हो सकेगा। सृजनात्मक तर्क एवं चिन्तन शक्तियों का विकास विद्यालय के बाहर किया जा सकता है। विद्यालय के बाहर अनेक गतिविधियों से बालक के ज्ञान का संवर्धन किया जा सकता है जैसे—
(1) शैक्षिक भ्रमण (2) एन.सी.सी. (3) एन. एस. एस. (4) स्काउट एवं गाइड (5) डाजूनियर रेडक्रॉस समिति (6) विभिन्न उद्योग धंधों (7) विविध साहित्यिक एवं सांस्कृतिक पतिविधियाँ आदि से बालक का सर्वांगीण विकास किया जा सकता है।
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