कला क्या है? कला शिक्षण के उद्देश्यों को समझाइए।
कला क्या है? कला शिक्षण के उद्देश्यों को समझाइए।
उत्तर— कला–कला का पाश्चात्य पर्याय है ‘आर्ट’ (Art), आर्ट लैटिन भाषा के ‘आर्स’ (Ars) शब्द से बना है, यह ग्रीक के तैक्वेन’ (Taxven) शब्द का रूपान्तर है। इस शब्द का प्राचीन अर्थ ‘शिल्प’ (Craft) अथवा ‘नैपुण्य-विशेष’ है। प्राचीन भारतीय मान्यताओं में भी कला के लिए ‘ शिल्प’ और कलाकार के लिए ‘शिल्पी’ शब्द का ही अधिक प्रयोग मिलता है।
पुरातन युग से आधुनिक वैज्ञानिक व तकनीकी युग तक कला का महत्त्व निर्विवाद रूप से स्वीकृत है। कला मानवीय भावनाओं को सहज रूप में अभिव्यक्त करता है। कला में समाज व राष्ट्र के कल्याण की भावना सन्निहित होती है। कला के अर्थ को समझने के लिए उसकी सम्भावनाओं को समझना आवश्यक है। कला मानव मस्तिष्क की सबसे ऊँची और प्रखर कल्पना है। कला मानव हृदय में सुखद भाव और अर्थपूर्ण अनुभूतियाँ उत्पन्न करती है। मानव इन्द्रियों और मन को आनन्द प्रदान करती है। कला मानव के सृजनात्मक बाह्य, मूर्त रूप का संतुलन, अनुपात और सामंजस्य है।
कला के अर्थ को समझने के लिए कुछ विशिष्ट विद्वानों द्वारा दी गई कला की परिभाषा को समझना आवश्यक है।
कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार–”जो सत् है, जो सुन्दर है, वही कला है। “
कवि मैथिलीशरण गुप्त के अनुसार– “कला अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति है। “
मनोवैज्ञानिक फ्रायड के अनुसार–“दमित वासनाओं का उभरा हुआ रूप ही कला है। “
शिक्षाशास्त्री प्लेटो के अनुसार– “कला सत्य की अनुकृति की अनुकृति है।
शिक्षाशास्त्री अरस्तू के अनुसार–“कला प्रकृति के सौन्दर्यमय अनुभवों का अनुकरण है। “
कला शिक्षण के उद्देश्य – छात्र में जन्मजात अनेक शक्तियाँ होती हैं जो क्रिया करने की विभिन्न प्रवृत्तियों को जन्म देती हैं। इन्हीं पूर्ण शक्तियों को जानते हुए उन्हें विकसित करना तथा उचित मार्ग की ओर ले जाना ही शिक्षा हैं। ऐसा करने से छात्र के व्यवहार में अभूतपूर्व परिवर्तन होता है, यही शिक्षा का उद्देश्य है। श्री राधाकमल मुखर्जी के शब्दों में, “कला समाज के हाथों में ऐसा महत्त्वपूर्ण आकर्षक और शक्तिशाली उपकरण है जिसके द्वारा जीवन के लक्ष्यों एवं मानव के सम्बन्धों को यथोचित रूप प्रदान किया जा सकता है तथा नियमित किया जा सकता है। ” कला शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य निम्नांकित होने चाहिए”—
(1) मानसिक शक्तियों का विकास–कला-शिक्षण द्वारा मानसिक स्वतंत्र शक्तियों के विकास, कल्पना शक्ति, स्मृति, निरीक्षण शक्ति, चिन्तन-शक्ति, तुलनात्मक शक्ति, आत्म-प्रकाशन शक्ति तथा आत्मनिर्णय शक्ति जैसी महत्त्वपूर्ण शक्तियों को विकसित करना चाहिए। ललित कला का आधार ललित कल्पनाएँ होती हैं, उन्हें उपयोगी कला का रूप देकर उपादेय कल्पना के रूप में विकसित कर सकते हैं।
(2) आत्मिक विकास–कला आत्म-परिष्कृति का एक उत्तम माध्यम है। कला का शिक्षण आत्म-शोधन एवं उच्च लक्ष्य की प्राप्ति में अपूर्व सहयोग प्रदान करना है जो व्यक्ति आत्मा का बोध अपने-अन्तःकरण में कर लेता है, वह व्यक्ति आत्मा से शुद्ध होता है। प्रसिद्ध विद्वान नीत्से ने भी इस सम्बन्ध में कुछ इसी प्रकार के अपने विचार प्रकट किये हैं, “कला एक अभूतपूर्व शक्ति और आत्म-प्रेरणा है। उसकी कृतियों के माध्यम से आत्म-ज्ञान हो जाता है। अतः छात्र को अपनी पूर्णता एवं योग्यता का परिचय मिल जाता है। वास्तव में आत्मानुभूति ही चरित्र के बल का आधार है। “
इस प्रकार कला का आत्मानुभूति की दिशा में प्रयोग किया जा सकता है। कला के माध्यम से कलाकार का आत्मिक विकास होता है। नृत्यकला, काव्य कला, मूर्तिकला, संगीत कला आदि के माध्यम से कलाकार को अपने हृदय में झाँकने का अवसर मिलता है।
(3) चरित्र निर्माण और उसका विकास–कला का उद्देश्य हमारी भावनाओं को शुद्ध करना है। कला के माध्यम से स्वतंत्र भाव प्रकाशन का अवसर मिलता है जिससे कलाकार को अपनी कमियों का ज्ञान हो जाता है। अपनी चरित्रगत कमियों का ज्ञान होने पर कलाकार उन कमियों को सुधारने की कोशिश करता है। जब कलाकार निरन्तर इस बात का ध्यान रखता हुआ अपनी कला का प्रयास जारी रखता है तो धीरे-धीरे उसका चरित्र एक दर्पण के समान हो जाता है। यही कला का मुख्य उद्देश्य है । कला चरित्र के निर्माण में अपूर्व सहयोग प्रदान करती है।
(4) शारीरिक विकास·आधुनिक शिक्षा प्रणाली मूलतः बुद्धिवादी है। इसी कारण आज का छात्र शारीरिक श्रम से बचना चाहता है । कला के माध्यम से शिक्षा में श्रम के मूल्य को आँकने की क्षमता छात्रों में विकसित की जा सकती है। इसके लिए श्रमयुक्त क्रियात्मक कार्यों को कला के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाए। इसमें कला के साथ-साथ शारीरिक विकास का उद्देश्य भी पूर्ण हो जाए।
(5) बौद्धिक विकास–बौद्धिक शक्ति का विकास करने के लिए अनुभव प्राप्त करना आवश्यक होता है। कला के माध्यम से यदि अनुभव प्राप्त किये जायें तो बौद्धिक विकास सरलता से हो जाता है, लेकिन अनुभव स्वयं करके सीखने की आदत से प्राप्त होते हैं । अतः कला – शिक्षण द्वारा
स्वयं करके सीखने की आदत उत्पन्न करनी चाहिए, जिससे छात्र के अनुभव बढ़े और छात्र का बौद्धिक विकास हो । कला ‘स्वयं करके सीखने’ के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करती हैं।
(6) नैतिकता का विकास–कलाकृतियों से किसी युग की सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान होता है। आज भी भारतीय संस्कृति की कलाकृतियाँ विभिन्न रूपों में हमें प्राप्त होती हैं। इन कलाकृतियों के अध्ययन से हमें अपने देश के सांस्कृतिक विकास की अनेक झाँकी मिलती हैं। कला सांस्कृतिक विकास एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करती है। कला के माध्यम द्वारा एक स्थान की संस्कृति दूसरे स्थान पर पहुँच जाती है। कला नैतिकता प्रदान करने में सामाजिक मान्यताओं का सहारा लेती है। हमारी संस्कृति एवं कला के उद्देश्य नैतिकता की दिशा में मार्गदर्शन करते हैं। अतः कला-शिक्षण का उद्देश्य नैतिकता का विकास करना है।
(7) व्यक्तित्व का निर्माण–आधुनिक मनोवैज्ञानिक मानव की जन्मजात प्रवृत्तियों को ही कलात्मक सृजन का आधार मानते हैं। पुरानी कहावत भी है कि “पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते हैं।”
ये जन्मजात प्रवृत्तियाँ अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करके व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक बनायी जा सकती हैं। समस्त कलाकृतियाँ जन्मजात प्रवृत्तियों को संतुष्टि प्रदान करती हैं। इस प्रकार की संतुष्टि व्यक्तित्व के निर्माण में सहयोग देती है। अतः कला के शिक्षण के समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि कला का उद्देश्य व्यक्तित्व का निर्माण भी है। इसलिए शिक्षक को चाहिए कि वह कला के शिक्षण के साथ-साथ चरित्र के निर्माण पर विशेष ध्यान दे । कला के पाठ्यक्रम का संयोजन करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि छात्र में स्वतः ही कला के साथ-साथ व्यक्तित्व के निर्माण की रुचि जाग्रत हो।
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