सहायक संधियाँ

सहायक संधियाँ

राजस्थान में मराठों का प्रवेश एवं उनकी गतिविधियाँ

 छत्रपति शिवाजी स्वयं को मेवाड़ के सिसोदिया राजवंश से सम्बन्धित मानते थे। ‘वीर विनोद’ में श्यामलदास ने शिवाजी के दादा मालूजी का सम्बन्ध मेवाड़ से बताया है

 मई, 1711 ई. में मराठों ने मन्दसौर के पास मेवाड़ राज्य के अधीनस्थ क्षेत्र से प्रथम बार धन वसूल किया। इस समय मेवाड़ का शासक महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय था ।
 1728 ई. में मराठों ने डूंगरपुर और बाँसवाड़ा क्षेत्रों से चौथ वसूल की ।
राजस्थान में मराठों के प्रवेश के कारण —
1. मुगल शक्ति का पतन
2. मराठों की राज्य व धन लोलुपता
3. राजपूत शासकों की शक्तिहीनता
4. राजपूत राज्यों का आपसी कलह ।
 सवाई जयसिंह के हस्तक्षेप के कारण उत्पन्न ‘बून्दीउत्तराधिकार’ के विवाद ने मराठों को राजस्थान में प्रवेश का सुअवसर प्रदान किया।
 राजस्थान में मराठों के प्रवेश के लिए जयपुर के सवाई जयसिंह को उत्तरदायी माना जाता है।

मराठों का राजपूताना पर प्रथम आक्रमण

बून्दी-उत्तराधिकार विवाद —

 बून्दी के राव बुद्धसिंह के कोई पुत्र नहीं होने के कारण सवाई जयसिंह करवर के जागीरदार सालिमसिंह हाड़ा के पुत्र दलेलसिंह को बुद्धसिंह का उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। 1729 ई. में बुद्धसिंह को उम्मेदसिंह पुत्र प्राप्त हुआ, परिणामतः सवाई जयसिंह और बुद्धसिंह के बीच संघर्ष प्रारम्भ हो गया ।
 बुद्धसिंह द्वारा अपनी राजधानी से दूर चले जाने पर सवाई जयसिंह ने बून्दी पर अधिकार कर दलेलसिंह को बून्दी का शासक घोषित कर दिया (मई, 1730 ई.) ।
 सवाई जयसिंह की मदद से दलेलसिंह ने पंचोला के में बुद्धसिंह को पराजित किया। 1730 ई. में बुद्धसिंह की मृत्यु हो गई ।
 1732 ई. में सवाई जयसिंह ने अपनी पुत्री कृष्णा कुमारी का विवाह दलेलसिंह से किया।
 सवाई जयसिंह से नाराज बुद्धसिंह की कछवाही रानी ने अपने उम्मीदवार उम्मेदसिंह को शासक बनाने के लिए मराठों से सहायता प्राप्त की। उसने मल्हारराव होल्कर को राखी भेजकर भाई बना लिया।
 अप्रैल, 1734 ई. में मल्हारराव होल्कर और राणोजी सिंधिया की मराठा सेना ने बून्दी पर अधिकार कर उम्मेदसिंह को शासक बना दिया। परन्तु मराठों के दक्षिण लौटते ही जयसिंह ने पुनः दलेलसिंह को बून्दी का शासक बना दिया।
हुरड़ा सम्मेलन ( 17 जुलाई, 1734 ई.) –
 मालवा से मराठों को हटाने और राजस्थान में प्रवेश से मराठों को रोकने के लिए सवाई जयसिंह ने राजपूताने के शासकों का एक सम्मेलन हुरड़ा में आयोजित किया ।
 हुरड़ा सम्मेलन मेवाड़ राज्य की सीमा पर आधुनिक भीलवाड़ा जिले में हुरड़ा नामक स्थान पर 17 जुलाई, 1734 ई. को मेवाड़ के महाराणा जगतसिंह द्वितीय की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ था।
 खानवा के युद्ध के बाद यह प्रथम प्रयास था, जब राजस्थान के शासकों ने अपने शत्रु के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने का प्रयत्न किया।
 ‘राजपूत शासकों के व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण हुरड़ा सम्मेलन के निर्णय क्रियान्वित नहीं हो सके।
 मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने सेनापति खाने दौरान के नेतृत्व में एक सेना मगठों के खिलाफ राजपूत शासकों की मदद करने हेतु भेजी। सवाई जयसिंह व कोटा के दुर्जनसाल ने भी केन्द्रीय सेना को सैनिक सहायता प्रदान की।
 फरवरी, 1735 ई. में सिन्थिया व होल्कर की मराठा सेना ने रामपुरा/मुकन्दरा (कोटा) में इस संयुक्त सेना को पराजित कर मराठों के विरुद्ध गठबन्धन को नष्ट कर दिया।

पेशवा बाजीराव प्रथम (1720-40 ई. ) का राजस्थान आगमन —

 1735 ई. में पेशवा बाजीराव की माता राधाबाई नाथद्वारा में श्रीनाथजी और जयपुर में गलताजी की तीर्थ यात्रा पर आई।
 सवाई जयसिंह के निमंत्रण पर पेशवा बाजीराव प्रथम राजस्थान आया और जनवरी, 1736 ई. में उदयपुर पहुँचा।
 महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने पेशवा से समझौता कर डेढ़ लाख ₹ वार्षिक चौथ मराठों को देना स्वीकार किया।
 अजमेर के पास भमोला नामक स्थान पर फरवरी, 1736 ई. में सवाई जयसिंह ने पेशवा से मुलाकात कर प्रतिवर्ष चौथ देना स्वीकार किया।

राजपूत राज्यों के उत्तराधिकार मामलों में मराठा हस्तक्षेप

1. जयपुर का उत्तराधिकार संघर्ष –

 सवाई जयसिंह ने 1708 ई. में मेवाड़ महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय की पुत्री चन्द्रकुँवरी से इस शर्त पर विवाह किया कि मेवाड़ी राजकुमारी से उत्पन्न पुत्र जयपुर का शासक बनेगा।
 1722 ई. में जयसिंह की खींची रानी ने ईश्वरीसिंह को जन्म दिया तथा 1728 ई. में मेवाड़ी रानी ने माधोसिंह को जन्म दिया।
 भावी उत्तराधिकार संघर्ष को टालने हेतु जयसिंह ने 1729 ई. में महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय से रामपुरा का पट्टा माधोसिंह के नाम करवा दिया।
 1743 ई. में जयसिंह की मृत्यु पर उसका ज्येष्ठ पुत्र ईश्वरीसिंह गद्दी पर बैठा।
 माधोसिंह ने सिंहासन प्राप्त करने के लिए मराठों से सहायता प्राप्त करने का प्रयास किया। बून्दी का उम्मेदसिंह और कोटा महाराव दुर्जनसाल माधोसिंह का समर्थन कर रहे थे।

राजमहल (टोंक) का युद्ध (मार्च, 1747 ई.)

 माधोसिंह ने मराठों (मल्हारराव होल्कर) से सैनिक सहायता प्राप्त की परन्तु राजमहल के युद्ध में माधोसिंह, उम्मेदसिंह (बून्दी), जगतसिंह (मेवाड़) और खाण्डेराव (मल्हारराव होल्कर का पुत्र ) की संयुक्त सेना ईश्वरीसिंह से पराजित हुई।
 राजमहल के में विजय के उपलक्ष्य में ईश्वरीसिंह ने जयपुर के त्रिपोलिया बाजार में ईसरलाट (सरगासूली) का निर्माण करवाया ।

बगरू (जयपुर) का युद्ध (जुलाई, 1748 ई. ) –

 माधोसिंह ने मराठों की मदद से जुलाई, 1748 ई. में बगरू में ईश्वरीसिंह को पराजित किया । के
 ईश्वरीसिंह ने समझौता कर माधोसिंह को पाँच परगने, उम्मेदसिंह को बून्दी और मराठों को धन देना स्वीकार किया।
 बगरू के युद्ध से बून्दी के उत्तराधिकार संघर्ष का अंतिम समाधान हुआ तथा अक्टूबर, 1748 ई. में उम्मेदसिंह बून्दी का शासक बन गया।
 ईश्वरीसिंह समझौते के अनुसार मराठों को धन नहीं दे सका, भयभीत ईश्वरीसिंह ने 13 दिसम्बर, 1750 ई. को आत्महत्या कर ली ।
 मल्हारराव होल्कर की सहायता से 7 जनवरी, 1751 ई. को माधोसिंह जयपुर की राजगद्दी पर विराजमान हुआ।

तूंगा (दौसा) का युद्ध (जुलाई, 1787 ई.)

 इस युद्ध में जयपुर के शासक सवाई प्रतापसिंह ने जोधपुर के विजयसिंह और करौली व शिवपुर के राजाओं की मदद से महादजी सिंधिया की मराठा सेना को पराजित किया ।

पाटन का युद्ध ( 20 जून, 1790 ई. ) –

 इस युद्ध में महादजी सिंधिया की मराठा सेना का नेतृत्व फ्रांसीसी सेनापति डी. बोई ने किया था जिसने सवाई प्रतापसिंह की सेना को पराजित किया ।

मालपुरा का युद्ध ( 16 अप्रैल, 1800 ई. ) –

 मालपुरा के युद्ध में प्रतापसिंह ने जोधपुर के भीमसिंह की सहायता से मराठा सेना का सामना किया, परन्तु इस युद्ध में राजपूत सेना पराजित हुई।
 इस युद्ध में पराजय के बाद जयपुर राज्य ने 9 लाख ₹ युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में मराठों को दिये।

2. जोधपुर राज्य का उत्तराधिकार संघर्ष –

 जोधपुर महाराजा अभयसिंह और उनके भाई बख्तसिंह (नागौर) के मध्य गद्दी के लिए संघर्ष था।
 जून, 1749 ई. में अभयसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र रामसिंह गद्दी पर बैठा परन्तु बख्तसिंह ने रामसिंह को पराजित कर जोधपुर पर अधिकार कर लिया।
 सितम्बर, 1752 ई. में बख्तसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र विजयसिंह शासक बना ।
 जयप्पा सिंधिया ने रामसिंह को राज्य दिलाने के लिए जून, 1754 ई. में जोधपुर पर आक्रमण किया ।
 15 सितम्बर, 1754 ई. को मेड़ता के समीप विजयसिंह मराठों से परास्त हुआ और नागौर के दुर्ग में शरण ली ।
 मराठों द्वारा नागौर को घेर लेने पर विजयसिंह ने धोखे से जयप्पा सिंधिया की हत्या करवा दी।
 आक्रोशित मराठा सेना के भयंकर आक्रमण से पराजित विजयसिंह ने मराठों की सभी शर्तें स्वीकार कर लीं (1756 ई.)।
 विजयसिंह को अजमेर मराठों को तथा जालौर सहित आधा मारवाड़ राज्य रामसिंह को देना पड़ा ।

3. मेवाड़ का उत्तराधिकार संघर्ष –

 मेवाड़ का उत्तराधिकार संघर्ष महाराणा अरिसिंह (1761–1773 ई.) और महाराणा राजसिंह द्वितीय के मरणोपरान्त उत्पन्न पुत्र रतनसिंह के समर्थक सरदारों के मध्य हुआ था ।
 मेवाड़ी सरदारों के प्रलोभन पर महादजी सिंधिया ने रतनसिंह का समर्थन किया ।
 महादजी सिंधिया के नेतृत्व में मराठा सेना ने उज्जैन के निकट ‘क्षिप्रा के युद्ध’ (16 जनवरी, 1769 ई.) में अरिसिंह की सेना को पराजित कर उदयपुर पर घेरा डाल दिया।
 महाराणा अरिसिंह ने 21 जुलाई, 1769 ई. को महादजी सिंधिया से संधि कर मराठों को 60 लाख र, रतनसिंह को मन्दसौर परगना एवं 75 हजार वार्षिक आय की जागीर देना स्वीकार किया ।
राजस्थान की रियासतें जो मराठा आक्रमण से बची रहीं
1. बीकानेर 2. जैसलमेर।
राजस्थान की तीन रियासतें जिन्होंने मराठों को कर नहीं दिया
1. बीकानेर 2. जैसलमेर 3. किशनगढ़ ।
सहायक संधियों का प्रमुख कारण मराठों की चौथ वसूली थी, चौथ नहीं मिलने पर उस क्षेत्र में लुट-पाट करते थे। इस लूटपाट में पिण्डारियों ने भी मराठों का साथ दिया, इस परिस्थिति में राजपुताने के राजाओं के सामने अंग्रेज अधीनता के अलावा कोई अन्य उपाय नहीं था। सहायक संधि का जनक लॉड वैलेजली था। भारत में सर्वप्रथम सहायक संधि हैदराबाद के निजाम ने की सहायक संधि के समय भारत का गर्वनल जनरल लॉर्ड हेस्टिंगज था । अंग्रेजों की ओर से सहायक संधि करने वाला चार्ल्स मेटकॉफ था। डुंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़ राज्यों के साथ मालवा रेजिडेन्ट के जॉन वॉल्कम ने संधि की थी। 1803 में अंग्रेजों ने भरतपुर के राजा रणजीत सिंह से मैत्री संधि की थी ।

सहायक संधियों के कारण–

1. केन्द्रीयकृत सत्ता का अभाव,
2. राजपूत राज्यों की आपसी प्रतिद्वन्द्विता,
3. मराठा आक्रमणों का प्रभाव,
4. मराठों की शक्ति का कमजोर होना,
5. भारत में अंग्रेजी शक्ति की स्थापना व विस्तार,
6. पिण्डारियों के आक्रमण ।
7. सामन्तों का प्रभुत्त्व
8. लार्ड हेस्टिंग्ज की विस्तारवादी नीति
9. कम्पनी की आर्थिक परिस्थिति में सुधार करना
10. कम्पनी की सैन्य शक्ति मजबूत करना

संधियों की सामान्य शर्तें–

1. कम्पनी तथा राज्यों के मध्य आपसी मित्रता ।
2. दोनों के मित्र एवं शत्रु समान होंगे ।
3. कम्पनी बाह्य आक्रमणों से राज्यों की रक्षा करेगी एवं दूसरे राज्यों के साथ विवाद में मध्यस्थता करेगी।
4.  कम्पनी की अनुमति के बिना किसी दूसरे राज्य से युद्ध अथवा संधि नहीं की जाएगी।
5. राज्य कम्पनी को आवश्यकतानुसार सैनिक सहायता देंगे।
6. कम्पनी राज्यों के आन्तरिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करेगी।
7. राजपूत राज्य जो खिराज पहले मराठों को देते थे अब वो कम्पनी को देंगे ।
नोट – करौली (मराठों को कर देता था), बीकानेर, किशनगढ़ और जैसलमेर व अलवर को खिराज से मुक्त रखा गया था, क्योंकि ये राज्य (करौली को छोड़कर) मराठों को खिराज नहीं देते थे ।

कम्पनी द्वारा राजपूत राज्यों के साथ ‘1818’ की संधियाँ –

 इन संधियों के समय भारत का गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्ज (1813-1823) था।
 हेस्टिंग्ज ने 1817 में चार्ल्स मेटकॉफ को राजपूत राजाओं से संधि- वार्ता करने के आदेश दिए। मेटकॉफ ने राजपूत शासकों को संधि करने हेतु दिल्ली आमंत्रित किया।
 अंग्रेजों से संधि करने वाला पहला राजपूत राज्य करौली था जबकि सिरोही अंतिम राज्य था जिसने संधि की ।
 सर्वप्रथम सहायक संधि करौली ने की, पूर्ण शर्तों सहित कोटा ने की, सबसे अन्त में सहायक संधि सिरोही ने की ।
1. उदयपुर – कृष्णा कुमारी विवाद के समय अमीरखाँ पिण्डारी ने महाराणा भीमसिंह को भयभीत किया इसके अतिरिक्त 1812-13 में मेवाड़ में अकाल पड़ा, मेवाड़ की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई। सैनिकों को वेतन देने में जैवर बेचने पड़े। भीमसिंह ने ठाकुर अजीतसिंह को मेटकॉफ के पास भेजा, मेटकॉफ ने प्रस्ताव स्वीकार किया। 13 जनवरी 1818 भीमसिंह व ईस्ट इंडिया कम्पनी के मध्य संधि हुई। महाराणा की ओर से संधि पर हस्ताक्षर ठाकुर अजीतसिंह ने किया, संधि दिल्ली में हुई।

निम्न शर्तों से संधि हुई-

1. दोनों के मध्य मित्रता रहेगी, एक का मित्र दूसरे का मित्र व शत्रु दूसरे का शत्रु होगा।
2. अंग्रेज उदयपुर राज्य के रक्षा का वचन देते है ।
3. उदयपुर के महाराणा अंग्रेजों के अधीन रहकर कार्य करेगें । दूसरे राजाओं व रियासतों से कोई सम्बन्ध नहीं रखेंगे।
4. अंग्रेजों को बिना बताये महाराणा किसी राज्य से संधि या मित्रता नहीं करेंगे। परन्तु सम्बन्धियों के साथ मित्रतापूर्ण पत्र व्यवहार कर सकते है।
5. किसी भी झगड़े में मध्यस्थता व निर्णय के लिए अंग्रेजों के सामने पेश किया जायेगा।
6. 5 वर्ष तक उदयपुर की आय का चौथा भाग खिराज के रूप में दिया जायेगा।
7. अंग्रेजों को आवश्यकता होने पर उदयपुर रियासतों को अपनी समता के अनुसार अपनी सेना देनी होगी।
इस संधि के विषय में डॉ. मोहनसिंह मेहता ने कहा था कि इस संधि के पूर्व मेवाड़ ने इस प्रकार से किसी के आगे समर्पण नहीं किया था।
2. जोधपुर- जोधपुर में जब बख्तसिंह व रामसिंह के मध्य राजगद्दी के लिए संघर्ष हुआ तब मराठों को हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया। इनसे परेशान होकर मानसिंह ने अंग्रेजों से संधि का प्रयास किया। 10 अक्टूबर को मानसिंह के 2 व्यक्तियों गुरु आयस देवनाथ व इन्द्रराज की अमीरखां पिण्डारी ने हत्या करवा दी। इससे भयभीत होकर मानसिंह ने आसोपा बिसनराम को अंग्रेजों के पास भेजा। 6 जनवरी, 1818 को इनके मध्य संधि हुई। मानसिंह की ओर से हस्ताक्षर युवराज छतरसिंह ने किए। हेस्टिंग्स की ओर से मेटकॉफ ने किए।

संधि की शर्तें-

1. दोनों के मध्य मित्रता रहेगी, एक का मित्र दूसरे का मित्र व शत्रु दूसरे का शत्रु होगा।
2. अंग्रेज जोधपुर राज्य के रक्षा का वचन देते है।
3. जोधपुर के राजा अंग्रेजों के अधीन रहकर कार्य करेंगे। दूसरे राजाओं व रियासतों से कोई सम्बन्ध नहीं रखेंगे।
4. अंग्रेजों को बिना बताये राजा किसी राज्य से संधि या मित्रता नहीं करेंगे। परन्तु सम्बन्धियों के साथ मित्रतापूर्ण पत्र व्यवहार कर सकते है ।
5. किसी भी झगड़े के मध्यस्थता व निर्णय के लिए अंग्रेजों के सामने पेश किया जायेगा।
6. सिंधिया को दिया जाने वाला खिराज (1.08.000 लाख) अंग्रेजों को दिए जायेंगें और सिंधियों के साथ जो समझौता हुआ है वह समाप्त हो जायेगा।
7. आवश्यकता होने पर जोधपुर राजा 1500 अश्वारोही अंग्रेजों को देंगे।
3. बीकानेर – बीकानेर में मराठों का इतना प्रभाव नहीं था । फिर भी बीकानेर शासक सूरतसिंह ने संधि की क्योंकि सूरतसिंह गजसिंह के पुत्र राजसिंह व पौत्र प्रतापसिंह को मारकर राजगद्दी पर बैठा था। इस कारण व जनता व सामंतों में अलोकप्रिय था । सामंत विद्रोह करते थे, विद्रोह दबाने में इतनी शक्ति लग गई कि वह कमजोर हो गया। इस कारण सूरतसिंह ने काशीनाथ को मेटकॉफ के पास भेजकर 9 मार्च, 1818 को संधि कर ली ।
4. किशनगढ़ – किशनगढ़ का शासक कल्याणसिंह जब राजगद्दी पर बैठा उस समय वह 3 वर्ष का अल्पवय शासक था। सामंत विद्रोह करने लगे। मुगलों से सहायता की आशा नहीं थी । इस कारण कल्याणसिंह ने 26 मार्च, 1818 में ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली। किशनगढ़ के साथ संधि में विशेष बात यह थी कि कम्पनी ने किशनगढ़ को खिराज से मुक्त रखा क्योंकि यहाँ का शासक मराठों को चौथ नहीं देता था। –
5. जयपुर – 1803 में जयपुर का शासक जगतसिंह बना इसने रसकपूर वैश्या के कारण खजाना खाली कर दिया। गिगोली के युद्ध में सैन्य शक्ति कमजोर कर ली, अमीरखां पिण्डारी से भी परेशान था। इस कारण जगतसिंह ने 2 अप्रैल, 1818 को संधि कर ली।
सभी शर्तें वही थी जो अन्य शासकों के साथ की गयी थी, एक अन्य शर्त, भिन्न यह थी, कि संधि के प्रथम वर्ष में खिराज नहीं लिया जायेगा। दूसरे वर्ष 4 लाख, तीसरे वर्ष 5 लाख, चौथे वर्ष 6 लाख, पाचवें वर्ष 7 लाख, छठे वर्ष 8 लाख है। जब रियासत की आय 40 लाख से अधिक हो जायेगी तब खिराज की रकम । पर 5 आना अतिरिक्त देना होगा ।
6. अलवर – आमेर के कच्छवाहों के वशंज प्रतापसिंह नरोका ने जयपुर से अलग अलवर राज्य की स्थापना की। इसकी मृत्यु के बाद बख्तावरसिंह शासक बना। बख्तावरसिंह के विरुद्ध इसके सेवक दीवानराम ने विद्रोह कर दिया व अपनी सहायता के लिए मराठों को निमंत्रण दिया, मराठों से मुक्ति पाने के लिए बख्तावरसिंह ने 10 जुलाई, 1811 में संधि कर ली ।
7. बूंदी – बूंदी प्रारम्भ में मीणों के अधिकार में था। मीणाओं से 1340 में रावदेवा ने छीनकर हाड़ा राज्य की स्थापना की। बूंदी के राव विष्णुसिंह ने 10 फरवरी, 1818 ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली व अंग्रेजों को 80 हजार वार्षिक खिराज देना तय हुआ।
8. कोटा – कोटा, बूंदी का ही भाग था, जिसे 1631 में शाहजाहां ने अलग कर दिया। कोटा के शासक उम्मेदसिंह ने 26 दिसम्बर, 1817 ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली ।
 20 फरवरी, 1818 को कोटा राज्य की संधि को संशोधित कर एक पूरक संधि की गई, जिसके अनुसार
 कोटा राज्य पर परम्परागत रूप से हाड़ाओं का शासन रहेगा।
 कोटा राज्य पर वास्तविक प्रशासनिक नियन्त्रण झाला जालिम सिंह और उसके वंशजों का रहेगा।
 1838 ई. में कोटा राज्य के विभाजन के परिणामस्वरूप झालावाड़ राज्य का निर्माण हुआ। झालावाड़ राजस्थान की नवीनतम रियासत थी ।
 1838 ई. में ब्रिटिश सरकार ने झालावाड़ राज्य को मान्यता प्रदान कर दी। 10 अप्रैल, 1838 ई. को झालावाड़ के शासक झाला मदनसिंह ने अंग्रेजों से सन्धि कर अधीनता स्वीकार कर ली ।
9. जैसलमेर – जैसलमेर भी मराठों के आक्रमण से बचा रहा लेकिन सिंहासन के लिए आपसी झगड़े व कत्लेआम होता रहा । मूलराज-II के समय सरदारों ने बगावत की, मूलराज-II के दीवान ने अपने मनमाने तरीके से जनता पर अत्याचार किए। तब मूलराज-II ने 22 दिसम्बर, 1818 को ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली । किशनगढ़ की तरह जैलसमेर को भी खिराज से मुक्त रखा गया।
10. करौली – 1040 में मथुरा से आकर विजयपाल ने करौली में शासन किया। बयाना को अपनी राजधानी बनायी। करौली शासक हरवक्षपाल ने 9 नवम्बर, 1817 को ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि की ।
11. टोंक – टोंक एक मुस्लिम रियासत थी । यहाँ का नवाब अमीरखाँ पिण्डारी था। अंग्रेजों ने अमीरखाँ पिण्डारी को टोंक इसलिए सौंपा था ताकि वह लुट-पाट न करें। 17 नवम्बर, 1817 को अमीरखाँ पिण्डारी ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली ।
नोट– राजपूत राज्यों के साथ संधियाँ (ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा) करने का श्रेय दिल्ली के तात्कालीन रेजीडेन्ट चार्ल्स मेटकॉफ को प्राप्त है, परन्तु डूंगरपुर, बाँसवाड़ा और प्रतापगढ़ राज्यों के साथ मालवा के रेजीडेन्ट जॉन वाल्कम ने संधियाँ की थी।
 गवर्नर जनरल विलियम बैंटिक ने राजस्थान में कमीश्नरी व्यवस्था लागू की (1832 ई.) तथा अजमेर में ए. जी. जी. (एजेन्ट टू गवर्नर जनरल ) कार्यालय की स्थापना की।
 मि. लॉकेट को राजस्थान का प्रथम ए. जी. जी. नियुक्त किया गया था। 1845 ई. में ए. जी. जी. का कार्यालय अजमेर से माउण्ट आबू स्थानान्तरित कर दिया गया ।

अंग्रेजी संरक्षण का प्रभाव

 रेजीडेन्ट द्वारा प्रशासन में हस्तक्षेप के कारण राजपूत शासक अपनी आन्तरिक प्रभुसत्ता भी खो बैठे एवं रेजीडेन्ट की कठपुतली मात्र रह गए।
 अब उत्तराधिकार का निर्णय भी कम्पनी करने लगी ।
 अंग्रेजों को दिए जाने वाले खिराज के कारण देशी राज्यों की आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई ।
 पाश्चात्य शिक्षा, आचार-विचार एवं विदेशी वस्तुओं के कारण स्वदेशी उद्योग, हस्तशिल्प नष्ट होने लगे तथा देशी राज्यों की आस्था पर चोट पहुँची।
 अंग्रेजी नीतियों के कारण सामन्तों एवं जनसाधारण ने 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की ।
नोट : गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने ‘व्यपगत की नीति’ के तहत करौली रियासत का विलय करने का निर्णय लिया था जिसे ईस्ट इंडिया कम्पनी के निदेशक मण्डल (कोट ऑफ डायरेक्टर्स) ने अस्वीकार कर दिया।

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