JPSC मॉडल प्रश्न-पत्र विषय : भारतीय अर्थव्यवस्था, भूमंडलीकरण एवं सतत् विकास
JPSC मॉडल प्रश्न-पत्र विषय : भारतीय अर्थव्यवस्था, भूमंडलीकरण एवं सतत् विकास
Model Question-Paper
Subject: Indian Economy, Globalization and Sustainable development
विषय : भारतीय अर्थव्यवस्था, भूमंडलीकरण एवं सतत् विकास
सामान्य निर्देश : प्रश्न-पत्र पांच खंडों में विभक्त है। प्रत्येक खंड 40 अंकों का है। खंड-I अनिवार्य है, जिसमें दो- दो अंकों के 20 वस्तुनिष्ठ प्रश्न हैं (20 × 2 = 40 )। खंड-II से V में प्रत्येक खंड में दो-दो वैकल्पिक दीर्घ उत्तरीय प्रश्न हैं। परीक्षार्थियों को प्रत्येक खंड में से एक का उत्तर देना है।
Instruction : The question paper consists of five Section. Each Section carrying 40 marks. Section – I is compulsory and contains twenty objective questions. Each carrying two marks (20 × 2 = 40). Sections – II to V contain two optional long descriptive questions each. The candidate is required to answer one question from each Section.
खंड – I ( Section
1. निम्नांकित बहुवैकल्पिक प्रश्नों का सही उत्तर विकल्प में से दें :
(i). किसी देश द्वारा मुद्रा के अवमूल्य का तत्पर्य है :
1. आयात व्यापार का विस्तार
2. आयात अतिस्थापना को प्रोत्साहन
3. निर्यात व्यापार का विस्तार
कूट :
(a) केवल 1
(b) 2 व 3
(c) 1 व 3
(d) 1 व 4
(ii). न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कौन करता है?
(a) राज्य सरकार
(b) भारत सरकार
(c) कृषि मंत्रालय
(d) कृषि लागत एवं मूल्य आयोग
(iii). अंतर्राष्ट्रीय नकदी से संबंधित समस्या किसकी अनुपस्थिति का परिचायक है ?
(a) वस्तुएं और सेवाएं
(b) सोना और चांदी
(c) निर्यात योग्य वस्तुएं
(d) डॉलर और अन्य दुर्लभ मुद्राएं (हाई करेंसीज)
(iv). जनगणना 2011 के अनुसार निम्न राज्यों में से किस एक में अधिकतम साक्षरता दर है ?
(a) छत्तीसगढ
(b) मध्य प्रदेश
(c) ओडिशा
(d) राजस्थान
(v). वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) की अवधारणा सर्वप्रथम किस देश से शुरू हुई थी ?
(a) कनाडा
(b) संयुक्त राज्य अमेरिका
(c) ब्रिटेन
(d) जर्मनी
(vi). भारतीय रिजर्व बैंक के ओपन मार्केट ऑपरेशन से आशय है :
(a) सिक्योरिटीज में व्यापार करना
(b) विदेशी मुद्रा की नीलामी करना
(c) सोने का व्यापार
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं
(vii). भारतीय आयोजन की उपलब्धियों में शामिल होने योग्य है :
1. सुदृढ़ आधारभूत संरचना का विकास
2. निर्यात एवं उद्योगों का विविधीकरण
3. राष्ट्रीय आय में बढ़ोतरी
4. कीमतों पर कठोर नियंत्रण
कूट :
(a) 1 व 2
(b) 1, 2 व 3
(C) 1, 2 व 4
(d) 2 व 3
(viii). ‘हरित सूचकांक’ निम्नलिखित में से किसके द्वारा विकसित किया गया था ?
(a) विश्व बैंक का पर्यावरणीय एवं सामाजिक सुस्थिरता
(b) संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम
(c) संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम
(d) क्योटो प्रोटोकॉल
(ix). नीति आयोग के उद्देश्य हैं :
1. ग्राम स्तर पर योजनाएं बनाने के तंत्र को विकसित करता है।
2. राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों तथा आर्थिक नीति में तालमेल स्थापित करता है । उपरोक्त दोनों में से कौन-सा कथन सही है ?
(a) 1 व 2
(b) केवल 1
(c) केवल 2
(d) न तो 1 और न 2
(x). अल्पसंख्यक समूहों के कल्याण हेतु कौन-सी योजना है ?
(a) नया सवेरा
(b) नई उड़ान
(c) नई रोशनी
(d) उपरोक्त सभी
(xi). भारतीय खाद्य निगम की स्थापना कब की गई ?
(a) 1950 ई.
(b) 1965 ई.
(xii). किस केन्द्रीय मंत्रालय ने ‘उन्नत भारत अभियान’ का दूसरा संस्करण लॉन्च किया है ?
(a) गृह मंत्रालय
(b) कृषि और विज्ञान कल्याण मंत्रालय
(c) मानव संसाधन विकास मंत्रालय
(d) ग्रामीण विकास मंत्रालय
(xiii). संरचनात्मक योजना किसे निर्दिष्ट करती है ?
(a) केन्द्रीकृत योजना
(b) विस्तृत लाभ और कार्यनीतियां निर्धारित करना
(c) नवीन संस्थाओं का सृजन करना
(d) लचीले लक्ष्यों को निर्धारित करना
(xiv). भारत में उद्योग क्षेत्र को लम्बी अवधि के ऋण उपलब्ध कराने वाली सर्वोच्च संस्था है :
(a) भारतीय औद्योगिक वित्त निगम
(b) भारतीय औद्योगिक विकास निगम
(c) भारतीय ऋण एवं औद्योगिक निवेश निगम
(d) भारतीय औद्योगिक पुनर्निर्माण बैंक
(xv). निम्नांकित में से किसके तहत् किसानों को बीज, कृषि मशीनरी, मृदा परिवर्तन की उपलब्धता प्रदान करने का प्रयास किया गया है ?
(a) राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन
(b) फसल बीमा योजना
(c) राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना
(d) स्वायल हेल्थ कार्ड
(xvi). विदेशी निवेश के अप्रत्यक्ष रूप को क्या कहा जाता है ?
(a) पोर्टफोलियो निवेश योजना
(b) विदेशी प्रत्यक्ष निवेश
(c) व्यावसायिक ऋण
(d) इनमें से कोई नहीं
(xvii).मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के तहत् देश का कौन-सा राज्य इस कार्ड को जारी करने वाला प्रथम राज्य बना ?
(a) पंजाब
(b) हरियाणा
(c) उत्तर प्रदेश
(d) उत्तराखंड
(xviii).झारखंड में खादी भवन एवं प्रशिक्षण – सह उत्पादन केन्द्र का शुभारंभ कहां किया गया ?
(a) मेदिनीनगर (पलामू)
(b) झरिया (धनबाद)
(c) नामकुम (रांची)
(d) बरही (हजारीबाग)
(xix). तांबा उत्पादन में सर्वोच्च स्थान किस राज्य को प्राप्त है ?
(a) बिहार
(b) झारखण्ड
(c) उत्तर प्रदेश
(d) मध्य प्रदेश खंड
(xx). सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना का प्रारंभ कब हुआ था ?
(a) 10 मार्च, 2000
(b) 20 अप्रैल, 2003
(c) 25 सितम्बर, 2001
(d) 20 जून, 2005
> खंड – II ( Section – II)
2. मुद्रास्फीति के कारण एवं निदान के उपाय बताएं ।
3. कृषि विपणन की व्यवस्था को सुधारने की दृष्टि से भारत सरकार द्वारा उठाये गये विभिन्न कदमों की विवेचना करें।
> खंड III ( Section – III )
4. (a) भारत में बेरोजगारी के कारणों की व्याख्या करें ।
(b) भारत में सतत विकास के लिए क्या रणनीति अपनाई गयी है ?
5. (a) निर्धनता क्या है? निर्धनता उन्मूलन के लिए भारत में शुरू किये गये कार्यक्रमों की व्याख्या करें ।
(b) विकेन्द्रित नियोजन के क्या उद्देश्य हैं?
खंड – IV (Section – IV)
6. (a)वैश्वीकरण क्या है? भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है ?
(b) किसी देश के आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र कैसे योगदान करता है? व्याख्या करें।
7. वित्तीय समावेशन से क्या समझते हैं? वित्तीय समावेशन पर गठित नचिकेत मोर समिति की रिपोर्ट एवं अनुसंशाओं का वर्णन करें।
> खंड – V (Section – V)
8. झारखण्ड की आर्थिक प्रगति पर एक विस्तृत टिप्पणी लिखें।
9. (a) झारखंड पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास नीति 2008 की आवश्यकता तथा उसके उद्देश्यों पर प्रकाश डालें ।
(b) झारखंड राज्य खाद्य सुरक्षा योजना, 2021 की रूपरेखा प्रस्तुत करें।
व्याख्या एवं आदर्श उत्तर ( Model Answer)
उत्तर 1 : वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर
(i). (b) : किसी देश द्वारा मुद्रा के अवमूल्यन का तात्पर्य है, डॉलर के मुकाबले घरेलू मुद्रा के मूल्य को जानबूझ कर कम करना । सामान्यतः घरेलू अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए अवमूल्यन का सहारा लिया जाता है। अवमूल्यन के कारण आयात हतोत्साहित होता है, जबकि निर्यात प्रोत्साहित होता है।
(ii). (d) : न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कृषि लागत एवं मूल्य आयोग द्वारा किया जाता है। किसी भी कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य वह मूल्य है, जिससे कम मूल्य देकर किसान से वह उपज नहीं खरीदी जा सकती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य का उद्देश्य कृषकों को मजबूरन सस्ती कीमत पर अनाज बेचने से बचाना है।
(iii). (d) : अंतर्राष्ट्रीय नकदी से संबंधित समस्या डॉलर और अन्य दुर्लभ मुद्राओं (हाई करेंसीज) की अनुपस्थिति का परिचायक है। डॉलर सहित अन्य हाई मुद्रा को आधिकारिक तौर पर वैश्विक लेन-देन का साधन बनाया गया है।
(iv).(c) :
राज्य – साक्षरता दर
ओड़िशा – 72.9
छत्तीसगढ़ – 70.3
मध्यप्रदेश – 69.3
राजस्थान – 66.0
(v). (a) : वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) घरेलू उपभोग के लिए बेचे जाने वाले अधिकांश सामानों और सेवाओं पर लगाया जाने वाला कनाडाई मूल का ‘मूल्य वर्धित कर’ है। भारत में यह कर कई अप्रत्यक्ष करों को खत्म करके 1 जनवरी, 2015 से लागू किया गया है।
(vi). (a) : भारतीय रिजर्व बैंक, खुले बाजार की क्रिया के तहत् अर्थव्यवस्था में मुद्रा की पूर्ति को नियंत्रित करने के राजकोषीय यंत्र के रूप में सरकारी प्रतिभूतियों एवं ट्रेजरी बिल का क्रय-विक्रय करता है ।
(vii). (a) : सुदृढ़ एवं आधारभूत संरचना का विकास एवं निर्यात तथा उद्योगों का विविधीकरण भारतीय आयोजन की उपलब्धियों में शामिल होने योग्य विषय है। राष्ट्रीय आय में बढ़ोतरी एवं कीमतों पर कठोर नियंत्रण सरकार की वित्तीय नीतियों का परिणाम माना जाता है।
(viii). (b) : हरित सूचकांक संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा विकसित किया गया है। इसके अंतर्गत उत्पादित सम्पत्ति, प्राकृतिक सम्पत्ति एवं मानव संसाधन को
अलग-अलग मूल्य प्रदान किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का गठन 1972 में किया गया था। इसका मुख्यालय नैरोबी में है।
(ix). (a) : नीति आयोग का गठन 1 जनवरी, 2015 को योजना । , आयोग के स्थान पर किया गया था। प्रधानमंत्री आयोग के पदेन अध्यक्ष होते हैं। नीति (NITI) आयोग का पूरा नाम राष्ट्रीय परिवर्तन संस्थान है। यह थिंक टैंक के रूप में सेवाएं प्रदान करता है। नीति आयोग ग्राम स्तर पर योजनाओं तथा आर्थिक नीति में तालमेल स्थापित करता है।
(x). (d) : अल्पसंख्यक समूहों के कल्याण हेतु निम्न योजनाएं हैं नया सवेरा, नई उड़ान, नई रोशनी, सीखो और कमाओ योजना, जियो पारसी, पढ़ो परदेश, नई मंजिल, उस्ताद योजना आदि।
(xi). (b) : भारतीय खाद्य निगम (FCI) की स्थापना 1965 में की गई। इस निगम का उद्देश्य खाद्य पदार्थों एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी, भण्डारण व संग्रहण, वितरण एवं बिक्री की व्यवस्था करना है।
(xii ). (c) : ‘उन्नत भारत अभियान’ मानव संसाधन विकास मंत्रालय की योजना है। इस अभियान का उद्देश्य एक उच्च शिक्षण संस्थान को कम से कम पांच गांवों से जोड़ना है, जिससे गांवों में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन हो सके। ‘उन्नत भारत अभियान’ का दूसरा संस्करण, 25 अप्रैल, 2018 में लॉन्च किया गया। इस योजना में 786 संस्थान भाग ले रहे हैं।
(xiii). (c) : नवीन संस्थाओं का सृजन संरचनात्मक योजना का मुख्य भाग माना जाता है। इसके अंतर्गत नवीन सरकारी संस्थाओं का निर्माण किया जाता है। अनुसंधान से संबंधित संस्थान, वित्तीय संस्थानों, शैक्षणिक संस्थानों का निर्माण संरचनात्मक योजना का प्रमुख हिस्सा होता है। इसे विकास का प्रतीक माना जाता है।
(xiv). (b) : भारत में उद्योग क्षेत्र को लम्बी अवधि के ऋण उपलब्ध कराने वाली सर्वोच्च संस्था भारतीय औद्योगिक विकास निगम है। इसकी स्थापना अक्टूबर, 1954 को केन्द्र सरकार द्वारा की गयी थी। निजी एवं सार्वजनिक उपक्रमों के मध्य संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से इसकी स्थापना की गयी थी। यह संस्थान जरूरत पड़ने पर सरकार से भी ऋण प्राप्त करता है। प्रारंभ में यह संस्थान कपास, जूट एवं गन्ना (चीनी) उद्योग को विशेष रूप से ऋण प्रदान करता था।
(xv). (a) : राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत किसानों को बीज, कृषि मशीनरी, संसाधन अनुरक्षण तकनीकों, मृदा परिवर्तन रिपोर्ट तथा प्रशिक्षण आदि की उपलब्धता प्रदान करने का प्रयास किया गया, ताकि चावल, गेहूं व दाल के उत्पादन में अभीष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति संभव हो सके।
(xvi). (a) : विदेशी निवेश के अप्रत्यक्ष रूप को पोर्टफोलियो निवेश योजना कहा गया है, जिसकी औपचारिक शुरुआत 1994 में हुई। इस योजना के तहत उन विदेशी संस्थागत निवेशकों को भारतीय प्रतिभूति शेयर बाजार में निवेश करने की अनुमति दी गयी है, जिसका अन्य जगहों पर अच्छा प्रदर्शन रहा है ।
(xvii).(a): मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना की शुरुआत फरवरी, 2015 को राजस्थान के श्रीगंगानगर जिले के सूरतगढ़ नामक स्थान में की गयी थी। परन्तु मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना के तहत् पंजाब सरकार ने सर्वप्रथम इसे अपने राज्य में लागू किया। हर किसान को उसकी मृदा का स्वास्थ्य कार्ड प्रति 3 वर्ष में दिया जाता है।
(xviii). (a) :5 दिसम्बर, 2015 को मेदिनीनगर (पलामू) में खादी भवन एवं प्रशिक्षण – सह – उत्पादन केन्द्र का शुभारंभ किया गया। राज्य खादी बोर्ड एवं खादी आयोग तथा ग्रामीण विकास विभाग के संयुक्त तत्वावधान में फरवरी, 2016 में ‘राष्ट्रीय खादी’ एवं ‘सरस महोत्सव’ का आयोजन रांची में किया गया।
(xix). (b) : तांबा उत्पादन में झारखण्ड का भारत में सर्वोच्च स्थान है। 1857 में तांबा उद्योग को आधुनिक रूप प्रदान करते हुए ‘सिंहभूम कॉपर कम्पनी’ की स्थापना हुई । वर्तमान में इंडियन कॉपर कंपनी भारत की प्रमुख तांबा उत्पादक कम्पनी है।
(xx ). (c) : सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना 25 सितम्बर, 2001 को प्रारंभ की गयी थी। इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा, स्थायी सामुदायिक, सामाजिक और आर्थिक परिसंपत्तियों का सृजन और आधारभूत ढांचे का विकास करने के साथ-साथ अतिरिक्त मजदूरी उपलब्ध कराना है।
उत्तर : प्रश्न 2: मुद्रास्फीति के कारण एवं निदान के उपाय बताए । मुद्रा-स्फीति अर्थव्यवस्था में वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में सामान्य स्तर से कुछ समय में लगातार बढ़ोतरी होने की स्थिति है। मुद्रास्फीति या मंहगाई की में दर 0-10% वृद्धि उत्प्रेरक का काम करती है, वहीं 10% से अधिक वृद्धि विकासशील देशों के लिए हानिकारक होती है। जहां मुद्रा-स्फीति की दर विकसित देशों में 0-5% तक देखी जाती है, वहीं अविकसित देशों एवं निर्भर अर्थव्यवस्था वाले देशों में यह दर 10% – 10,000% तक देखी जा सकती है।
भारत जैसे विकासशील देशों में 0-5% तक मंहगाई दर अर्थव्यवस्था के लिए प्रेरक एवं सकारात्मक कार्य करती है। वहीं 5-10% अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों में तेजी एवं मंदी की स्थिति लाती है। लोकतांत्रिक सरकार के लिए इसको नियंत्रण में लाना सबकी आवश्यकता को पूरा करने के लक्ष्य से प्रेरित होता है। मुद्रा – स्फीति के दो कारण हैं
मौद्रिक आय में वृद्धि से संबंधित कारण (मांग पक्ष) और उत्पादन की मात्रा में कमी से संबंधित कारण (पूर्त्ति पक्ष) ।
1. मांग पक्ष : मौद्रिक आय में वृद्धि का मतलब है लोगों की क्रय क्षमता में वृद्धि होना, जिससे उपभोक्ता वस्तुएं एवं सेवा को ऊंची कीमत पर भी खरीदने को तत्पर रहता है, जिससे इन की कीमत में लगातार वृद्धि होती है और इनकी मांग बढ़ती रहती है। इसके लिए निम्न कारण जिम्मेदार हैं
(a) सरकार की मुद्रा तथा साख संबंधित नियम : इसके अंतर्गत आसान शर्तो एवं कम ब्याज दर पर दीर्घ काल के लिए ऋण उपलब्ध कराना है, जो क्रय क्षमता को बढ़ाता है।
(b) मुद्रा की आपूर्ति में वृद्धिः इससे भी क्रय क्षमता बढ़ती है और बाजार में मुद्रा की उपलब्धता अधिक रहती है।
(c) सस्ती मौद्रिक नीति : रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा आसान ऋण देना।
(d) प्राकृतिक कारण : विभिन्न आपदाओं एवं आर्थिक संकट के समय सरकारों द्वारा आसान ऋण उपलब्ध कराना एवं मौद्रिक सहायता प्रदान करना ।
(e) करों में कमी : सरकार द्वारा कर की दर में कमी करने से उपभोक्ता की क्रय क्षमता बढ़ जाती है ।
(f) व्यापारिक बैंकों की साख नीति : बैंक आर्थिक लाभ के लिए कुछ शर्तों पर ऋण लेने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, जिससे क्रय क्षमता में बढ़ोतरी होती है।
(g) निवेश में वृद्धि : सरकारी प्रयास से निवेश में वृद्धि होती है, जिससे पूंजीगत वस्तुओं की कीमत बढ़ने लगती है।
(h) काला धन : कर की चोरी से उपभोक्ताओं के पास धन जमा हो जाता है, जिससे वस्तुओं पर खर्च करने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।
(i) सार्वजनिक व्यय में वृद्धि: सरकार अपने सार्वजनिक व्यय में से लोक कल्याणकारी योजनाओं हेतु विनियोग के माध्यम से अधोसंरचना का निर्माण करती है, जिससे सेवा की कीमतें बढ़ जाती हैं।
(j) घाटे का वित्त (Deficit) : सरकार अपने घाटे की वित्त की व्यवस्था के लिए लोगों की मौद्रिक आय में बढ़ोतरी करती है, परंतु उत्पादन न बढ़ पाने से कीमत स्तर में लगातार वृद्धि होती है।
(k) मुद्रा के संचालन वेग में वृद्धि : लोक कल्याणकारी राज्य में अन्य सुविधा में बढ़ोतरी से लोगों की क्रय क्षमता बढ़ जाती है, जिससे लोगों के पास खर्च करने के लिए अधिक मुद्रा की उपलब्धता होती है।
(I) जनसंख्या में वृद्धि : जनसंख्या में वृद्धि से वस्तु एवं सेवा की मांग हमेशा बढ़ती रहती हैं जिससे कीमतों में वृद्धि होती है।
(m) सार्वजनिक में ऋण कमी : जब सरकार जनता से कम ऋण ले तथा जनता को ऋण वापस कर दे तो इससे भी लोगों की क्रय क्षमता बढ़ती है।
(n) निर्यात में वृद्धि : निर्यात में वृद्धि से देश में आवश्यक वस्तु की कमी उसकी मांग को बढ़ाकर कीमतों में वृद्धि करती है। इन सभी मांग पक्षों एवं मौद्रिक आय में वृद्धि से लोगों के पास क्रय क्षमता बढ़ती है और वस्तु एवं सेवा की कीमत बढ़ जाती है।
2. पूर्ति पक्ष : मुद्रा स्फीति बढ़ने का दूसरा कारण उत्पादन की मात्रा या आपूर्ति पक्ष का कमजोर होना है। इससे वस्तु की कमी से जो मांग है उसकी पूर्ति न कर पाने से इसकी कीमत में हुई वृद्धि मुद्रा स्फीति दर को लगातार बढ़ाती है । इसके लिए निम्न कारण उत्तरदायी हैं
(a) उत्पादन में कमी : प्राकृतिक एवं कृत्रिम चीजों की कमी अथवा सरकार की नीति से कभी-कभी उत्पादन क्षमता में कमी आती है, जबकि बाजार में उसकी मांग सामान्य स्तर से बढ़ी रहती है जिसके कारण लोग उसे अपनी जरूरत के हिसाब से खरीदने के लिए ऊंची कीमत देते हैं।
(b) कृत्रिम अभाव या कालाबाजारी : खाद्यान्न की कालाबाजारी लोगों को अधिक पैसे चुकाकर उसे प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है। इसी तरह व्यापारिक लाभ के लिए उद्योगपति एवं व्यापारिक वर्ग कृत्रिम अभाव उत्पन्न कर मनमानी कीमत पर वस्तुओं को उपलब्ध कराते हैं।
(c) कच्चे माल की कमी : कच्चे माल की कमी उत्पादन लागत में वृद्धि कर कीमत को बढ़ा देती है।
(d) प्राकृतिक आपदा : बाढ़, सूखा, भूकंप आदि प्राकृतिक आपदाओं के कारण उत्पादन में अत्यधिक कमी होने से आपूर्ति पक्ष पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
(e) तकनीकी परिवर्तन : तकनीकी परिवर्तन उत्पादन लागत को बढ़ाता है, जिससे मूल्य बढ़ते हैं।
(f) औद्योगिक झगड़े : हड़ताल तथा तालाबंदी से उत्पादन या आपूर्ति में कमी आती है।
(g) अंतर्राष्ट्रीय कारण: वैश्विक परिदृश्य में विश्व की अर्थव्यवस्था एक-दूसरे से जुड़ी होने कारण आपूर्ति पक्ष को प्रभावित करती है।
(h) सरकार की औद्योगिक नीति : सरकार की औद्योगिक नीति से भी आपूर्ति पक्ष निम्नांकित रूप से प्रभावित होता है
(i) उत्पादन में गतिरोध : बिजली, कोयला, परिवहन में गतिरोध से भी आपूर्ति पक्ष प्रभावित होता है।
(ii) काला धन : काला धन का उपयोग उत्पादन कार्यो में न होने से आपूर्ति पक्ष पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे वस्तु एवं सेवा की कमी बनी रहती है।
आपूर्ति पक्ष की कमी वस्तु एवं सेवा की मांग में लगातार सामान्य स्तर से एवं परिस्थितिजन्य स्थिति में बढ़ती रहती है, जिससे मांग पक्ष इसको ऊंची कीमत पर भी खरीदने को तैयार रहता है।
> मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के उपाय:
मुद्रा-स्फीति को रोकने के लिए कई प्रकार के समेकित प्रयास किए जाने चाहिए, जिससे लोगों के पास क्रय क्षमता में संतुलन तथा आपूर्ति पक्ष का मांग की अपेक्षा लगातार बढ़ोतरी होती रहनी चाहिए । मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के प्रमुख उपाय निम्नांकित हैं
1. मौद्रिक उपाय : इसके अंतर्गत उपायों में सम्मिलत हैंनई मुद्रा का निर्गमन, नोट निर्गमन पर नियंत्रण, साख व मुद्रा पर नियंत्रण |
2. राजकोषीय उपाय : इसके अंतर्गत निम्नांकित उपाय आते हैंकरों में वृद्धि, सार्वजनिक ऋणों में वृद्धि, नए कर लगाना, संतुलित बजट बनाना, बचतों को प्रोत्साहन, विनियोगों पर नियंत्रण, सार्वजनिक व्ययों में कमी, मुद्रा का अधिमूल्यन, मजदूरी प्रबंधन, अन्य नियंत्रण।
3. अन्य उपाय : इसके अंतर्गत उपायों में सम्मिलत हैं
उत्पादन में वृद्धि, वस्तुओं का आयात, संग्रहण पर रोक, मूल्य नियंत्रण एवं राशनिंग, सट्टे पर रोक, लाभ वितरण |
प्रश्न 3 : कृषि विपणन की व्यवस्था को सुधारने की दृष्टि से भारत सरकार द्वारा उठाये गये विभिन्न कदमों की विवेचना करें।
उत्तर : कृषि के वाणिज्यीकरण के बाद से कृषि उत्पादों के विपणन की स्थिति उत्पन्न हुई है। कृषक को फसल की उचित कीमत प्राप्त हो इसके लिये आवश्यक होगा कि किसान अपनी फसल को सही समय पर व सही स्थान पर विक्रय कर सके। विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के पश्चात किसानों के लिये घरेलू बाजार के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में भी अवसर खुले हैं।
वर्तमान व्यवस्था : कृषि विपणन की वर्तमान व्यवस्था में परंपरा एवं आधुनिकता के तत्व मिले-जुले हैं। उत्पाद का एक बड़ा अंश अभी भी किसानों द्वारा गांवों में ही विक्रय कर दिया जाता है। ग्रामीण क्षेत्र में किसानों का एक भाग अभी भी महाजनों के कर्ज में डूबा है, जो उन्हें बाजार कीमत से कम कीमत पर उत्पाद बेचने पर मजबूर करते हैं। इसके अतिरिक्त गांवों में लगने वाली हाट में भी छोटे एवं मध्यम किसान अपने उत्पादों को बेचते हैं, जिसमें थोक व्यापारियों का एजेंट खेतिहर किसान-मजदूर व कृषि से भिन्न व्यवसायों में संलग्न व्यक्ति खरीदारी करते हैं। किसान अपनी फसल को मंडियों में दलालों की सहायता से आढ़तियों को बेचते हैं। ये मंडियां शहरों या कस्बों में स्थित होती हैं। इन मंडियों में बड़े किसान ही अधिकांशतः अपना माल बेचते हैं, क्योंकि छोटे किसान अपर्याप्त परिवहन सुविधाओं व दलाल – आढ़तियों की सांठगांठ से अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं। किसानों को फसल का उचित मूल्य प्रदान कराने के उद्देश्यों को सहकारी विपणन प्रणाली के अंतर्गत प्राप्त किया जा सकता है। सहकारी समितियां सदस्य कृषकों से उत्पाद एकत्र कर मंडियों में बेचती हैं जिससे किसानों को फसल की उचित कीमत प्राप्त हो पाती है। मंडियां उत्पादक एवं अंतिम उपभोक्ता के मध्य कड़ी का कार्य करती है। मंडियों में कृषि उत्पादों का विपणन योग्य अधिशेष जमा रहता है।
विपणन व्यवस्था में सुधार के उपाय : कृषि विपणन की व्यवस्था को सुधारने की दृष्टि से भारत सरकार ने अनेक कदम उठाए हैं
i) विनियमित मंडियां : विनियमित बाजारों को, अनियंत्रित/अनियमित मंडियों में दलाल-आढ़तियों की साठगांठ से किसानों के हितों की रक्षा करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है। इन मंडियों का विधान सुनिश्चित होता है। मंडी की व्यवस्था एक समिति देखती है, जिसमें राज्य सरकार, स्थानीय संस्थाओं, आढ़तियों, दलालों व किसानों के प्रतिनिधि होते हैं। यह समिति निम्नलिखित कार्यों का संपादन करती है
1. तुलाई एवं दलाली के कमीशन को सुनिश्चित करती है।
2. दलाल की निष्पक्षता सुनिश्चित करने का प्रयास करती है।
3. अनधिकृत कटौतियों पर प्रतिबंध लगाती है।
4. माप-तौल के लिये सही बाटों का उपयोग सुनिश्चित करती है।
5. झगड़े की स्थिति में मध्यस्थ की भूमिका निभाती है।
6. खुली नीलामी पद्धति को प्रभावी बनाती है।
विनियमित बाजारों में दलालों एवं तुलाईकर्ताओं को लाइसेंस दिये जाते हैं व साठगांठ या अन्य अनुचित गतिविधियों में संलग्न पाये जाने की स्थिति में उनका लाइसेंस निरस्त कर दिया जाता है। विनियमित मंडियों में किसान उपज की उचित कीमत प्राप्त होने की आशा कर सकते हैं।
ii) श्रेणी व मानक निर्धारण : कृषि विपणन व्यवस्था में सुधार तब तक नहीं हो सकता जब तक कृषि उत्पादों का समुचित श्रेणीकरण एवं मानकीकरण नहीं किया जाता है। विश्व व्यापार संगठन में कृषि उत्पादों के लिये यूरोपीय व अन्य विकसित राष्ट्रों द्वारा सेनेट्री व फाइटासेनेट्री मापदण्ड निर्धारित किये जाने की मांग को देखते हुये भारत के लिये भी यह आवश्यक हो जाता है कि कृषि उत्पादों के विश्व बाजार का लाभ उठाने के लिये इस दिशा में भी कार्य किया जाय। हालांकि अभी भी विकासशील राष्ट्रों के कृषि उत्पादों पर एक या अन्य कारणों से विकसित राष्ट्रों द्वारा प्रतिबंध आरोपित करने की प्रवृत्ति बढ़ी है।
कृषि उत्पादों के श्रेणीकरण व मानकीकरण से किसानों को उत्तम गुणवत्ता के उत्पादों को उत्पादित करने का प्रोत्साहन मिलता है एवं उपभोक्ता भी ऐसे उत्पादों के लिये उचित कीमत देने को उत्सुक होता है। भारत सरकार ने कृषि उपज ( श्रेणीकरण एवं विपणन) अधिनियम के माध्यम से घी, आटा, अण्डे, मसाले, इत्यादि वस्तुओं की श्रेणियां सुनिश्चित की है। वस्तुओं की गुणवत्ता की जांच करने के उद्देश्य से केंद्रीय गुणवत्ता नियंत्रण प्रयोगशाला (नागपुर) व आठ प्रादेशिक प्रयोगशालाएं स्थापित की गयी हैं। महत्वपूर्ण उत्पादों के सैंपल बाजार से प्राप्त किये जाते हैं एवं उनके भौतिक- रासायनिक गुणों की जांच के उपरांत श्रेणी निर्धारित की जाती है व उत्पादों के पैकेट पर AGMARK (Agriculture Marketing) की मुहर लगा दी जाती है। वर्तमान में कुल 162 कृषि व संबद्ध उत्पादों के संदर्भ में श्रेणी मानक तैयार किये जाते हैं।
iii) मानक बाटों का प्रयोग : अनियंत्रित बाजारों की एक कमी यह थी की इन बाजारों में विभिन्न प्रकार की बाटों का प्रयोग होता था एवं थोक विक्रेता किसानों को इनके उपयोग से ठगते थे। सरकार ने देश में प्रचलित विभिन्न माप-तौलों की प्रणालियों को समाप्त कर 1 अप्रैल, 1962 से मीट्रिक प्रणाली लागू की जिससे एक ओर जहां किसानों को शोषण से मुक्ति मिली, वहीं दूसरी ओर देशभर में एक समान व्यवस्था कायम हो गयी।
iv) गोदाम एवं भण्डारण सुविधाएं : गोदाम एवं भण्डारण सुविधाओं से किसानों के लिये सही समय व उचित कीमत पर माल बेचने की क्षमता में वृद्धि होती है। किसान, प्रमाणित गोदामों में संग्रहीत अपने माल रसीद की प्रतिभूति पर वाणिज्यिक बैंक व सहकारी संस्थाओं से ऋण प्राप्त कर नकदी की आवश्यकता पूरी कर सकता है तथा सही समय की प्रतीक्षा कर सकता है।
भारत में गोदाम व भण्डारण सुविधाओं के विस्तार के लिये 1957 में अखिल भारतीय साख सर्वेक्षण समिति ने राष्ट्रीय, राज्य व ग्रामीण स्तर पर गोदाम के निर्माण की सिफारिश की थी। भारत में भंडारण क्षमता बढ़ाने के लिये भारतीय खाद्य निगम, केंद्रीय गोदाम निगम एवं 16 राज्य गोदाम निगम प्रयत्नशील हैं। इसके अतिरिक्त ग्रामीण स्तर पर सहकारी समितियां गोदाम विकसित करने की ओर प्रयासरत हैं।
v) विपणन एवं निरीक्षण निदेशालय : विपणन एवं निरीक्षण निदेशालय समय-समय पर देशभर में प्रमुख कृषि उत्पादों की गुणवत्ता-जांच का कार्य करता है। इसके साथ ही कृषि विपणन के विभिन्न आयामों के संदर्भ में अनुसंधान कार्य भी करता है। निदेशालय के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं –
> कृषि एवं संबद्ध उत्पादों का श्रेणी व मानकीकरण करना ।
> बाजार एवं बाजार व्यवहारों का वैधानिक विनियमन करना ।
> बाजार विस्तार करना।
> बाजार सर्वेक्षण, आयोजन एवं अनुसंधान करना।
> कर्मचारियों को प्रशिक्षण प्रदान करना ।
> शीत भण्डारण आदेश, 1980 एवं मांस खाद्य उत्पाद आदेश, 1973 को प्रशासित करना ।
vi) सरकारी खरीद एवं समर्थन मूल्य निर्धारण भारत सरकार विभिन्न कृषि उत्पादों के लिये प्रत्येक फसल मौसम से पूर्व न्यूनतम समर्थन मूल्यों की घोषणा करती है। इस मूल्य पर सरकार किसानों से उनके उत्पाद खरीदने को तत्पर रहती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कृषि कीमत आयोग (जिसका नाम 1985 में परिवर्तित कर कृषि लागत व कीमत आयोग कर दिया गया) की सिफारिशों के अनुसार किया जाता है। हालांकि इस संदर्भ में सरकार ही अंतिम फैसला लेती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य निश्चित करने का लाभ यह होता है कि किसान फसलों के संदर्भ में निर्णय ले सके। इससे अधिक फसल होने पर कीमतों को नियंत्रित करने में सहायता भी मिलती है और किसानों एवं उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा होती है। भारतीय खाद्य निगम जैसी सरकारी एजेंसियां न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खुले बाजार से खरीदारी करना आरंभ कर देती हैं, जिससे गिरती कीमतें थम जाती हैं। सरकार इन उत्पादों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से अंतिम उपभोक्ता को उचित कीमत पर उपलब्ध कराती है। इस प्रकार किसान व उपभोक्ता दोनों के ही हितों की रक्षा होती है।
सहकारी विपणन : कृषि विपणन में सहकारी संस्थाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। सहकारी संस्थाएं किसानों की दलाल एवं आढ़तियों की शोषणात्मक प्रवृत्तियों से रक्षा करती हैं। सहकारी संस्थाओं ने स्वयं को मात्र विपणन तक ही सीमित नहीं रखा है, बल्कि वे किसानों को कृषि आगतों के लिये ऋण भी उपलब्ध कराती हैं एवं भण्डारण व प्रसंस्करण की सुविधाएं भी उपलब्ध कराती हैं। ये सहकारी संस्थाएं भारत के लगभग सभी गांवों में फैली हैं एवं कुल ग्रामीण परिवारों के 67 प्रतिशत परिवार सहकारी संस्थाओं के सदस्य हैं।
राष्ट्रीय कृषि सहकारी विपणन संघ लिमिटेड (नैफेड) : नैफेड सर्वोच्च सहकारी विपणन संगठन है, जो चयनित कृषि उत्पादों के खरीद, वितरण व आयात-निर्यात में संलग्न है। यह सरकार की अनाशवान वस्तुओं (दाल, गेहूं, तिलहन इत्यादि) के संदर्भ में न्यूनतम समर्थन मूल्य, कार्यवाही एवं नाशवान वस्तुओं (फल व सब्जियों) के संदर्भ में बाजार र हस्तक्षेप कार्यवाही के लिए नोडल एजेंसी का कार्य करता है।
फ्यूचर ट्रेडिंग : आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया जारी रखने के क्रम में फ्यूचर ट्रेडिंग को पुनः आरंभ किया गया है। फ्यूचर ट्रेडिंग अभी केवल गुड़, आलू, कास्टर, सीड, काली मिर्च, हल्दी, कॉफी, कपास, अरंडी तेल, पटसन (जूट), तिलहन व खाद्य तेल इत्यादि वस्तुओं के संदर्भ में ही की जा सकती है।
प्रश्न 4 (a) : भारत में बेरोजगारी के कारणों की व्याख्या करें।
उत्तर : बेरोजगारी से अभिप्राय एक ऐसी अवस्था से है, जिसमें व्यक्ति वर्तमान मजदूरी दर पर काम करने को तो तैयार है, परन्तु उसे काम नहीं मिलता। जब हम बेरोजगार व्यक्तियों की बात करते हैं, तो हमारा तात्पर्य उन व्यक्तियों से होता है जो कि 15 से 60 वर्ष के बीच हों। वस्तुत: भारत में बेरोजगारी की समस्या एक अत्यंत जटिल एवं गंभीर समस्या है। देश में बेरोजगारी व्यापक रूप से प्रचलित है और समय के साथ बेरोजगारी की समस्या बद से बदतर होती जा रही है। भारत में योजनावधियों में बेरोजगारी का अनुमान निम्न तालिका से लगाया जा सकता है
(1) धीमा आर्थिक विकास हमारी अर्थव्यवस्था अर्द्धविकसित है और यहां आर्थिक विकास की गति भी धीमी रही है। इसलिए बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए धीमा आर्थिक विकास रोजगार के अधिक अवसर प्रदान नहीं कर पाता। अतः उपलब्ध रोजगार की तुलना में यहां श्रम की पूर्ति अधिक रही है।
(2) जनसंख्या में तीव्र वृद्धि : भारत की जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि सदा से ही एक गम्भीर समस्या बनी हुई है। जनसंख्या में अधिक वृद्धि बेरोजगारी का एक मुख्य कारण है। इसलिए 12 पंचवर्षीय योजनाओं के समाप्त हो जाने के बाद भी बेरोजगारों की संख्या घटी नहीं, बल्कि बढ़ी है।
(3) कृषि एक मौसमी उद्योग : कृषि हमारे देश में न केवल अविकसित है, अपितु यह एक मौसमी काम-धंधा देने वाला व्यवसाय है। बेशक, कृषि हमारे देश का सबसे मुख्य व्यवसाय है और उस पर देश की अधिकांश जनसंख्या निर्भर है, परन्तु इसकी मौसमी विशेषता होने के कारण किसानों को सारा वर्ष काम नहीं मिल पाता। छिपे या अदृश्य बेरोजगारों की संख्या कुल कृषि में कार्यशील जनसंख्या का 15 प्रतिशत भाग है।
(4) सिंचाई सुविधाओं की कमी: भारत में 12 पंचवर्षीय योजनाओं के पश्चात भी केवल 34 प्रतिशत कृषि क्षेत्रफल पर ही सिंचाई सुविधाओं का प्रबंध हो सका है। सिंचाई के अभाव में अधिकतर भूमि पर केवल एक ही फसल उत्पन्न की जा सकती है। इसलिए किसानों को काफी समय तक बेरोजगार रहना पड़ता है।
(5) संयुक्त परिवार प्रणाली : संयुक्त परिवार प्रणाली भी अदृश्य बेरोजगारी को बढ़ावा देती है। बड़े-बड़े घरों में जिनके अच्छे काम-धन्धे हैं, कई ऐसे व्यक्ति मिल जायेंगे जो वास्तव में कुछ भी काम नहीं करते और परिवार की संयुक्त आय पर अपना निर्वाह कर रहे हैं। संयुक्त परिवार प्रणाली के बारे में एक बात और उल्लेखनीय है कि पिछले कई वर्षों से संयुक्त परिवार प्रणाली टूटती जा रही है। इसके टूटने से कुछ व्यक्ति तो काम प्राप्त कर सके हैं, पर काफी अब भी ऐसे मिलेंगे जो रोजगार की तलाश में इधर-उधर भटक रहे हैं।
(6) कुटीर और लघु उद्योगों का पतन: अंग्रेजों ने औद्योगिक विकास के सम्बन्ध में जो नीति अपनायी थी, उससे लघु एवं
कुटीर उद्योगों में काम करने वाले कारीगरों को बहुत धक्का पहुंचा था। जो पदार्थ इन उद्योगों में पैदा होते थे, वे बड़े पैमाने के उद्योगों में पैदा करने शुरू कर दिये गये, जिससे इन कारीगरों को बेरोजगारी का सामना करना पड़ा। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात बेशक भारत सरकार ने इन उद्योगों को उन्नत करने का प्रयास किया, फिर भी ग्रामीण क्षेत्रों में इनमें काम करने वाले काफी व्यक्ति अभी भी बेकार बैठे हैं।
(7) कम बचत तथा निवेश : हमारे देश में पूंजी की कमी है। जो थोड़ी बहुत पूंजी है भी, उसका निवेश ठीक प्रकार से नहीं किया गया है। निवेश, बचत पर निर्भर करता है। यहां पर बचतें भी कम हैं। बचत और निवेश में कमी के कारण श्रमिकों के लिए रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा नहीं किये जा सके हैं।
(8) श्रमिकों की गतिहीनता : भारतीय श्रमिक अधिकांश रूप से गतिहीन हैं, क्योंकि भारत में आमतौर पर लोगों की घर पर रहने की प्रवृत्ति बन चुकी है। वे घर से बाहर निकल कर काम तलाश करने का बहुत कम कष्ट करते हैं। भाषा, धर्म, जलवायु, रीति-रिवाज, पारिवारिक मोह आदि बातें उनकी गतिशीलता में रुकावट बन जाती है । श्रम की गतिहीनता बेरोजगारी की मात्रा को और भी बढ़ाती है, क्योंकि कई स्थानों पर काम उपलब्ध होता है पर लोग अपना घर छोड़ कर वहां जाना पसंद नहीं करते।
प्रश्न 4 (b) : भारत में सतत विकास के लिए क्या रणनीति अपनाई गयी है ?
उत्तर : भारतीयों के लिए पर्यावरण संरक्षण, जो सतत विकास का अभिन्न अंग है, कोई नई अवधारणा नहीं है। भारत में प्रकृति और वन्यजीवों का सरंक्षण अगाध आस्था की बात है, जो हमारे दैनिक जीवन में प्रतिबंबित होता है और पौराणिक गाथाओं, लोककथाओं, धर्मो, कलाओं और संस्कृति में वर्णित है।
ट्रांस्फॉर्मिंग आवर वर्ल्ड : द 2030 एजेंडा फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट के संकल्प को, जिसे सतत विकास लक्ष्यों के नाम से भी जाना जाता है। भारत सहित 193 देशों ने सितंबर, 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की उच्च स्तरीय पूर्ण बैठक में स्वीकार किया गया था और इसे 1 जनवरी, 2016 को लागू किया गया। सतत विकास लक्ष्यों का उद्देश्य सबके लिए समान, न्यायसंगत, सुरक्षित, शांतिपूर्ण, समृद्ध और रहने योग्य विश्व का निर्माण करना और विकास के तीनों पहलुओं अर्थात सामाजिक समावेश आर्थिक विकास और पर्यावरण संरक्षण को व्यापक रूप से समाविष्ट करना है। सहस्राब्दी विकास लक्ष्य के बाद, जो 2000 से 2015 तक के लिए निर्धारित किए गए थे, विकसित इन नये लक्ष्यों का उद्देश्य विकास के अधूरे कार्य को पूरा करना और ऐसे विश्व की संकल्पना को मूर्त रूप देना है, जिसमें कम चुनौतियां और अधिक आशाएं हों।
भारत के विकास संबंधी अनेक लक्ष्यों को सतत विकास लक्ष्यों में शामिल किया गया है। हमारी सरकार द्वारा कार्यान्वित किए जा रहे अनेक कार्यक्रम सतत विकास लक्ष्यों के अनुरूप है। मेक इन इंडिया, स्वच्छ भारत अभियान, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ, राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, प्रधानमंत्री आवास योजना ग्रामीण और शहरी दोनों, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, डिजिटल इंडिया, दीनदयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, स्किल इंडिया और प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना शामिल हैं। इसके अलावा अधिक बजट आवंटनों से बुनियादी सुविधाओं के विकास और गरीबी समाप्त करने से जुड़े कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया जा रहा है।
सतत विकास लक्ष्यों को विकास नीतियों में शामिल करने के लिए हम अनेक मोर्चों पर कार्य कर रहे हैं, ताकि पर्यावरण और हमारी पृथ्वी के अनुकूल एक बेहतर जीवन जीने की हमारे देशवासियों की वैध इच्छाओं को पूरा किया जा सके। केन्द्र सरकार ने सतत विकास लक्ष्यों के कार्यान्वयन पर निगरानी रखने तथा इसके समन्वय की जिम्मेदारी नीति आयोग को सौंपी है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय को संबंधित राष्ट्रीय संकेतक तैयार करने का कार्य सौंपा गया है। सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद् द्वारा प्रस्तावित संकेतकों की वैश्विक सूची से उन संकेतकों की पहचान करना, जो हमारे राष्ट्रीय संकेतक ढांचे के लिए अपनाए जा सकते हैं, वास्तव में एक मील का पत्थर है।
हमारे संघीय ढांचे में सतत विकास लक्ष्यों की संपूर्ण सफलता में राज्यों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। राज्यों में विभिन्न राज्य स्तरीय विकास योजनाएं कार्यान्वित की जा रही हैं। इन योजनाओं को सतत विकास लक्ष्यों के कार्यान्वयन में आनेवाली विभिन्न चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए मिलकर काम करने की आवश्यकता है।
सतत विकास लक्ष्यों के कार्यान्वयन को सुविधाजनक बनाने के लिए भारतीय संसद विभिन्न हितधारकों के साथ गहन विचार-विमर्श कर रही है। जैसे – अध्यक्षीय शोध कदम (एसआरआई) जो हाल ही में स्थापित किया गया एक मंच है। सतत विकास लक्ष्यों से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर हमारे सांसदों द्वारा क्षेत्र के विशेषज्ञों के साथ विचार-विमर्श को सुविधाजनक बनाता है। इसके अलावा नीति आयोग ने अन्य संगठनों के सहयोग से विशेष शृंखलाएं आयोजित की हैं, ताकि विशेषज्ञों, विद्वानों, संस्थाओं, सिविल सोसाइटियों, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और केन्द्रीय मंत्रालयों सहित राज्यों और अन्य हितधारकों के साथ गहन विचार-विमर्श किया जा सके।
भारत सरकार द्वारा न्यूयॉर्क में जुलाई, 2017 में आयोजित होने वाले उच्च स्तरीय राजनीतिक मंच (एचएलपीएफ) पर अपनी पहली स्वैच्छिक राष्ट्रीय समीक्षा (वीएनआर) प्रस्तुत करने हेतु लिया गया निर्णय इसका उदाहरण है कि भारत सतत विकास लक्ष्यों के सफल कार्यान्वयन को कितना महत्व दे रहा है। पर्यावरण को संरक्षित रखते हुए संपूर्ण विकास हेतु लोगों की आकांक्षाएं पूरी करने के लिए राष्ट्रीय एवं राज्य तथा स्थानीय स्तर पर प्रत्येक व्यक्ति और संस्था द्वारा और अधिक प्रयास करने की आवश्यकता है।
प्रश्न 5 (a ) : निर्धनता क्या है ? निर्धनता उन्मूलन के लिए भारत में शुरू किये गये कार्यक्रमों की व्याख्या करें।
उत्तर : निर्धनता एक मूलभूत आर्थिक समस्या है। सामान्यतः निर्धनता का तात्पर्य अभाव की स्थिति से है। निर्धनता को परिभाषित करने हेतु न्यूनतम आवश्यकता या न्यूनतम उपभोग स्तर की अवधारणा प्रस्तुत की गयी है। वस्तुतः उस व्यक्ति या समाज को निर्धन माना जाता है, जो न्यूनतम उपभोग स्तर को भी प्राप्त करने में सक्षम नहीं है। भारत में गरीबी का मापन मुख्यतः कुल राष्ट्रीय आय, प्रति व्यक्ति आय तथा पारिवारिक उपभोग व्यय के आधार पर किया जाता है। योजना आयोग के अनुसार, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में क्रमश: 2400 कैलोरी और 2100 कैलोरी से कम भोजन जुटा पाने वाले व्यक्ति गरीब कहलाते हैं ।
गरीबी भारत की मूलभूत आर्थिक समस्याओं में सबसे गंभीर है। वर्तमान में हमारे देश में लगभग 26 करोड़ जनसंख्या गरीबी रेखा नीचे निवास करती है, जो विश्व की गरीबी का 30 प्रतिशत है। इस प्रकार, स्पष्ट है कि हमारे देश में गरीबी की भयंकर समस्या व्याप्त है।
निर्धनता उन्मूलन के लिए सरकार द्वारा विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत निम्नलिखित प्रोग्राम लागू किये गये हैं –
1. राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना : राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का पहले चरण में देश के 27 राज्यों के 200 जिलों में क्रियान्वयन किया गया। 1 अप्रैल, 2008 से यह सम्पूर्ण देश में (जम्मू-कश्मीर सहित) लागू हो गया है ।
इस योजना के तहत चयनित जिलों में प्रत्येक ग्रामीण परिवार के एक सदस्य को वर्ष में कम से कम 100 दिन अकुशल श्रम वाले रोजगार की गारंटी दी गयी है। इसके तहत दिन में सात घंटे काम करने पर वर्तमान (2018-19) में हरियाणा राज्य में न्यूनतम ₹281 तथा राजस्थान में ₹192 की मजदूरी दी जाती है तथा इस योजना में 33 प्रतिशत लाभभोगी महिलाएं होंगी। रोजगार के इच्छुक एवं पात्र व्यक्ति काम के लिए आवेदन के 15 दिनों के भीतर रोजगार पाने का हकदार होगा। ऐसा न होने पर उसे बेरोजगारी भत्ता दिया जायेगा। इस नयी योजना में काम के बदले अनाज कार्यक्रम तथा सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना का विलय किया गया है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना अन्य रोजगार कार्यक्रमों से पूर्णतः भिन्न है, क्योंकि यह मात्र एक रोजगार कार्यक्रम नहीं बल्कि एक कानून है, जो रोजगार की वैधानिक गारंटी प्रदान करता है।
2. : स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना केन्द्र सरकार द्वारा प्रायोजित स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना गांवों में रहने वाले गरीबों के लिए एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। यह योजना अप्रैल, 1999 को शुरू की गयी । इस योजना में स्वरोजगार के लिए पहले से लागू की जाने वाली सभी योजनाओं को शामिल कर लिया गया, जैसे
(A) समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम
(B) स्वरोजगार के लिए ग्रामीण युवाओं का प्रशिक्षण कार्यक्रम, आदि। इस योजना की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं
(i) SGSY योजना का मुख्य उद्देश्य गांवों के गरीब लोगों को स्वरोजगार का अवसर प्रदान करने के लिए लघु उद्योगों को बढ़ावा देना है।
(ii) इस योजना के अंतर्गत गांवों में भारी संख्या में छोटे-छोटे उद्यमों की स्थापना की जायेगी।
(iii) यह योजना छोटे उद्यमों का सम्पूर्ण कार्यक्रम है। इसके अंतर्गत स्वरोजगार से सम्बन्धित निम्नलिखित कार्यक्रम शामिल किये गये हैं –
(a) ग्रामीण गरीबों को आत्मनिर्भर समूहों में संगठित कर उनकी क्षमता का निर्माण करना,
(b) गतिविधि समूहों का नियोजन करना
(c) बुनियादी ढांचे का निर्माण करना,
(d) ऋण और विपणन की व्यवस्था करना ।
(iv) इस प्रोग्राम के अंतर्गत आने वाले लोगों को अपना उद्यम स्थापित करने के लिए बैंकों से कर्ज तथा सरकारी सहायता दी जायेगी।
(v) इस योजना पर खर्च किया जाने वाला धन केन्द्रीय तथा राज्य सरकार क्रमश: 75:25 के अनुपात में वहन करेंगी।
(vi) यह योजना जिला ग्रामीण विकास एजेंसियों द्वारा पंचायत समितियों के माध्यम से लागू की जायेगी।
(vii) इस योजना की प्रगति का मूल्यांकन संबंधित बैंकों द्वारा किया जायेगा।
3. सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना : जवाहर ग्राम समृद्ध योजना तथा रोजगार आश्वासन योजना को मिलाकर यह योजना 1 सितम्बर, 2001 से शुरू की गयी। इस योजना के मुख्य उद्देश्य हैं
(i) अतिरिक्त श्रमिकों को रोजगार के अवसर प्रदान करना,
(ii) क्षेत्रीय, आर्थिक तथा सामाजिक दशाओं के विकास पर बल देना, •
(iii) मूलभूत आधारिक संरचना के विकास पर बल देना।
इस योजना का उद्देश्य श्रमिकों के लिए 100 करोड़ मानव-दिवस का निर्माण करना है। केन्द्र तथा राज्य सरकारें इस परियोजना की लागत को 87.5 12.5 के अनुपात में वहन करेंगी।
4. प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना : यह योजना सन् 2001 में आरम्भ की गयी थी। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्र में लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने के लिए पांच महत्वपूर्ण क्षेत्रों (i) स्वास्थ्य, (ii) प्राथमिक शिक्षा, (iii) पेयजल, (iv) आवास तथा (v) सड़कों का विकास करना है। इस योजना के अंतर्गत तीन योजनाएं शामिल की गयी हैं –
(a) प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना,
(b) प्रधानमंत्री ग्रामीण पेयजल योजना,
(c) प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना : इसका उद्देश्य 500 जनसंख्या वाले सभी गांवों में सभी मौसमों में अच्छी रहने वाली सड़कें बनाना है।
5. जयप्रकाश रोजगार गारण्टी योजना : इस योजना का उद्देश्य देश के अति पिछड़े जिलों में रोजगार उपलब्ध कराना है।
6. स्वर्ण जयन्ती शहरी रोजगार योजना : इस योजना का आरम्भ 1 दिसम्बर, 1997 को हुआ । इस योजना में शहरी बेरोजगारों को रोजगार प्रदान करने से सम्बन्धित योजनाओं, जैसे – (i) नेहरू रोजगार योजना और (ii) प्रधानमंत्री समन्वित शहरी-गरीबी उन्मूलन योजना आदि को मिला दिया गया है।
इस योजना का उद्देश्य शहरी बेरोजगार तथा अल्परोजगार लोगों को स्वरोजगार अथवा मजदूरी रोजगार प्रदान करना है। इसके अंतर्गत दो योजनाएं शामिल हैं – (i) शहरी स्वरोजगार कार्यक्रम तथा (ii) शहरी वेतन रोजगार कार्यक्रम | इस योजना का 75 प्रतिशत खर्च केन्द्रीय सरकार तथा 25 प्रतिशत खर्च राज्य सरकार वहन करेगी।
7. प्रधानमंत्री रोजगार योजना : यह योजना शिक्षित बेरोजगार युवाओं को रोजगार देने के लिए बनायी गयी है ।
8. लघु तथा कुटीर उद्योगों का विकास : सरकार ने रोजगार के लिए लघु तथा कुटीर उद्योगों के विकास के लिए विशेष प्रयत्न किये हैं। स्व रोजगार योजना को प्रोत्साहन देने के लिए काफी धन व्यय किया जा रहा है।
9. न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम : पांचवीं योजना में गरीब लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम लागू किया गया। ये हैं- प्रारम्भिक शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, ग्रामीण स्वास्थ्य, ग्रामीण जल आपूर्ति, ग्रामीण सड़कें, ग्रामीण विद्युतीकरण, ग्रामीण आवास, शहरी तंग बस्तियों के पर्यावरण में सुधार तथा पोषाहार। ये कार्यक्रम गरीब तथा कमजोर वर्ग के लोगों के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
10. बीस सूत्री आर्थिक कार्यक्रम : आम जनता को खुशहाल बनाने तथा उसे गरीबी के बंधन से मुक्त कराने के लिए नया बीस सूत्री आर्थिक कार्यक्रम 1982 से शुरू किया गया। इस कार्यक्रम के 20 सूत्र हैं–
(i) सिंचाई क्षमता में वृद्धि,
(ii) दालों तथा तिलहन के उत्पादन में वृद्धि,
(iii) समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम तथा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम का विस्तार,
(iv) भूमि की अधिकतम सीमा का निर्धारण,
(v) कृषि मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी,
(vi) बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास,
(vii) अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के कार्यक्रमों का विकास,
(viii) गांवों में पीने के साफ पानी की व्यवस्था,
(ix) ग्रामीण क्षेत्रों में मकानों की व्यवस्था,
(x) गन्दी बस्तियों का सुधार,
(xi) बिजली की क्षमता का विकास,
(xii) वनों तथा गोबर गैस प्लांट का विकास,
(xiii) परिवार नियोजन,
(xiv) महिलाओं और बच्चों के लिए कल्याण कार्यक्रम,
( xv) वयस्क शिक्षा,
(xvi) 6 से 14 वर्ष के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा,
(xvii) उचित कीमत की दुकानों तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विकास,
(xviii) सरल औद्योगिक नीति,
(xix) काले धन की रोकथाम,
(xx ) सार्वजनिक उद्योगों का कुशल प्रबंधन।
प्रश्न 5 (b) : विकेन्द्रित नियोजन के क्या उद्देश्य हैं ?
उत्तर : नियोजन के मुख्य उद्देश्य लक्ष्यों की पहचान करना तथा ऐसी नीतियों का निर्धारण करना है जिससे उन लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। साध्य एवं साधनों के समन्वय द्वारा आर्थिक समस्याओं के उचित समाधान के लिए प्रयास करना भी इसका उद्देश्य है। समय के दृष्टिकोण से नियोजन लघुकालीन अथवा दीर्घकालीन होता है। यह अर्थव्यवस्था के दिक्स्थानिक एवं खण्डीय (सेक्टोरल) पक्षों के विकास का प्रयत्न करता है। जब हम खण्डीय नियोजन की बात करते हैं तो इसका तात्पर्य यह होता है कि अर्थव्यवस्था के प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक खण्डों को उनकी आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए संसाधनों का आवंटन किस प्रकार किया जाए । दिक्स्थानिक नियोजन अथवा प्रादेशिक नियोजन में मुख्यतः प्रदेशों के सन्तुलित विकास का ध्यान रखा जाता है, जिससे प्रादेशिक विषमताओं को कम किया जा सके। प्रारम्भ में भारतीय नियोजन का स्तर राष्ट्र तथा राज्य रहे हैं। बाद में जिला एवं विकास खण्ड को भी नियोजन की इकाई के रूप में लिया गया है। राष्ट्रीय स्तर के नियोजन में मुख्य भूमिका केन्द्र सरकार की होती है। प्रथम तीन पंचवर्षीय योजनायें केन्द्र द्वारा बनाई गई थी परन्तु चौथी पंचवर्षीय योजना में राज्यों ने भी अपनी योजनाओं को बनाया, परन्तु कार्यान्वयन के स्तर पर राज्य, जिले तथा विकास खण्ड नियोजन की प्रक्रिया में सम्मिलित होते हैं। राज्य के स्तर पर नियोजन प्रणाली को मजबूत करने के लिए 1972 में योजना आयोग ने एक योजना बनाई, जबकि 1969 में ही जिला नियोजन के निर्देश दे दिए गये थे। लक्ष्य क्षेत्रों एवं लक्ष्य-समूहों के नियोजन की आवश्यकता उनकी गरीबी दूर करने एवं रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने के लिए पड़ी। अतः नियोजन प्रक्रिया का विकेन्द्रीकरण आवश्यक हो गया। 1978-83 काल में विकास खण्ड के नियोजन का प्रादुर्भाव किया गया जिसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण विकास कार्यक्रम को स्थानीय संसाधनों के बेहतर उपयोग द्वारा सुदृढ़ बनाना था। इस प्रकार ‘नीचे से नियोजन’ का अनुभव प्राप्त हुआ और लघु इकाइयों के नियोजन द्वारा ही प्रादेशिक नियोजन का आविर्भाव हुआ।
जिला नियोजन बहु-स्तरीय नियोजन का ही एक उप – तंत्र है जो एक नियोजन इकाई द्वारा जिले में चालू किया जाता है। जिला नियोजन को एक ओर राज्य नियोजन एवं दूसरी ओर विकास खण्ड नियोजन से जोड़ना पड़ेगा। विकास खण्ड एवं गांव, वास्तव में, योजनाओं के कार्यान्वयन की इकाइयां हैं न कि योजना बनाने की । विकास खण्ड के स्तर पर पंचायत समितियां विकास कार्यों की देखरेख करती हैं।
प्रादेशिक तथा विकेन्द्रीकृत नियोजन की आवश्यकता तथा नियोजन प्रक्रिया में लोगों की भागीदारी को पिछले दशकों में पर्याप्त महत्व मिला है। छठी पंचवर्षीय योजना ग्रामीण विकास तथा ग्रामीण नियोजन के पक्ष में अभिनत थी। अतः योजना आयोग द्वारा प्रस्तुत प्रपत्र में राज्य के नीचे के स्तरों विशेषत: जिला एवं विकास खण्ड की योजनाओं पर अधिक जोर दिया गया था।
‘विकास खण्ड स्तर पर नियोजन’ पर दातवाला कमेटी एवं ‘पंचायती राज्य संस्था’ पर अशोक मेहता कमेटी के साथ योजना आयोग द्वारा बैठक की गई थी। इनका प्रमुख उद्देश्य छठीं पंचवर्षीय योजना द्वारा निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु निर्देश देना था। विकास के स्तर पर नियोजन के विचार ने फिर जोर पकड़ा क्योंकि योजना आयोग की यह धारणा रही है कि विकास खण्ड नियोजन की प्राथमिक इकाई है तथा इसके द्वारा स्थानीय पर्यावरण एवं क्षमता के अनुरूप नियोजन किया जा सकता है।
प्रश्न 6 (a) : वैश्वीकरण क्या है ? भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है ?
उत्तर : वैश्वीकरण की प्रक्रिया को हमेशा आर्थिक अर्थों में प्रयुक्त किया गया है जबकि इसने हमेशा राजनीतिक और सांस्कृतिक आयात ग्रहण किए हैं। एक बार जब आर्थिक परिवर्तन होते हैं तो इसके अनेक सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव होते हैं। वैश्वीकरण को सामान्यतः राष्ट्रों के मध्य आर्थिक एकीकरण में वृद्धि के रूप में परिभाषित किया जाता है। जब अनेक राष्ट्रों का अभी जन्म भी नहीं हुआ था, तो विश्व के कई देश वैश्वीकरण अपना चुके थे अर्थात् अर्थव्यवस्थाओं
के मध्य निकट संबंध थे। यह वैश्वीकरण 1800 से 1930 तक महान मंदी और दो विश्व युद्धों तक अबाधित रूप से चलता रहा, जिसने छंटनी और 1930 के दशक के प्रारंभ से अनेक व्यापार प्रतिबंध लगाए ।
डब्ल्यू. टी. ओ. के लिए वैश्वीकरण का अर्थ ‘विश्व की अर्थव्यवस्थाओं का माल और सेवाओं, पूंजी और श्रम बल की आवंटित क्रॉस ब्रॉर्डर आवाजाही की ओर झुकाव है।’ इसका साधारण अर्थ है कि जो राष्ट्र डब्ल्यू.टी. ओ. के वैश्वीकरण की प्रक्रिया में हस्ताक्षरकर्ता हैं, उनके लिए विदेशी या देशज सामान और सेवाओं, पूंजी और श्रम जैसा कुछ भी नहीं होगा। विश्व समय के साथ एक समान और सपाट अवसर स्थल बन रहा है ।
भारत सरकार की नयी आर्थिक नीति की एक महत्वपूर्ण विशेषता अर्थव्यवस्था का भूमंडलीकरण है। इसका उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था का विश्व की अन्य अर्थव्यवस्थाओं के साथ जुड़ाव करना है। भूमंडलीकरण में मुख्यतः चार बातों का प्रावधान होता है(1) निर्बाध वस्तुओं का प्रवाह, (2) निर्बाध पूंजी का प्रवाह, (3) निर्बाध तकनीक का प्रवाह, तथा (4) निर्बाध श्रम का प्रवाह इन चार बिन्दुओं पर यदि ईमानदारी से अमल किया जाए, तो इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत जैसे विकासशील देश को विकसित देशों द्वारा पर्याप्त मात्रा में पूंजी तथा तकनीक मिलेगी, जिससे भारत के साधनों का दोहन हो सकेगा और वह विकास के पथ पर चल सकेगा। दूसरी तरफ, भारत में रह रही बेरोजगार जनसंख्या को विदेश जाकर रोजगार प्राप्त करने का अवसर मिलेगा। भारत जैसे विकासशील देश के लिए तो उपरोक्त परिस्थितियां अधिक अनुकूल हैं, क्योंकि एक तरफ तो निर्बाध श्रम के प्रवाह से भारतीय बेरोजगार श्रमिक विदेश जा सकेंगे और दूसरी तरफ उच्च तकनीक ज्ञान तथा पूंजी प्राप्त कर भारत अपने समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों द्वारा अपने विकास को चरमोत्कर्ष पर पहुंच सकेगा।
इस नीति के अनुपालन से भारत में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश में वृद्धि हुई है। वर्ष 1991 में भारत में वास्तविक विदेशी निवेश का अन्तर्वाह 154 मिलियन डॉलर था, जो वर्ष 2006 में बढ़कर 7.5 बिलियन डॉलर तथा वर्ष 2020 तक 64 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है। इसी तरह, भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में भी पर्याप्त वृद्धि हुई है। वर्ष 1991 में भारत के पास विदेशी मुद्रा का भंडार घटकर 2,236 मिलियन अमेरिकी डॉलर रह गया था। आज हमारे पास विदेशी मुद्रा का भंडार आश्चर्यजनक रूप से 633 अरब डॉलर (3 सितम्बर, 2021 ) का आकड़ा है, जो हमारी किसी भी आवश्यकता को पूरा करने के लिए काफी है। साथ ही भारत के विदेशी व्यापार में भी वृद्धि हुई है। आयात-निर्यात नीति में परिवर्तन के परिणामस्वरूप 1991-92 में जहां निर्यात एक अंक तक सीमित था, वहीं 1993-94 में इनमें 20 प्रतिशत और 2005-06 में 26.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई। हाल के वर्षों में भी निर्यात में वृद्धि हुई है और यह वर्ष 2019-20 में वर्ष 2018-19 के मुकाबले 3.5 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 313.36 बिलियन डॉलर तक पहुंच गयी है। इसी तरह नयी आर्थिक नीति से पहले 1991-92 में अर्थव्यवस्था में केवल 0.9 प्रतिशत की वृद्धि हो रही थी, जिसमें (जीडीपी) विगत दस वर्षों (कोविड- 19 अवधि को अपवाद स्वरूप छोड़ कर ) में 7 प्रतिशत से भी अधिक की दर से बढ़ी है।
उदार आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप भारत में गरीबी में कमी आयी है और जनता के जीवन स्तर में सुधार हुआ है। वर्ष 1993-94 में जहां भारत में 34 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे थे, वहीं नेशनल सर्वे सैम्पल के अनुसार यह प्रतिशत 2011-12 में घटकर 21.90 प्रतिशत रह गया। इसी तरह कृषि तथा औद्योगिक उत्पादन में तेजी से वृद्धि हुई है। वर्ष 1991-92 में भारत में खाद्यान्न का उत्पादन 16.84 करोड़ टन था, जो वर्ष 2019-20 में बढ़कर 29.75 करोड़ टन हो गया है । औद्योगिक उत्पादन की सामान्य विकास दर 1991-92 में जहां आधी प्रतिशत थी, वह बढ़कर जून 1994 में 7 प्रतिशत तथा 2005-06 में 8.4 प्रतिशत हो गयी। वर्ष 2016 में हुए नोटबंदी तथा अन्य कारणों से औद्योगिक विकास दर में गिरावट देखी गयी है, जो वर्ष 2017-18 में 4.3 प्रतिशत रही।
ये सभी विदेशी पूंजी के मुक्त प्रवाह की अनुमति, सीमा शुल्क में कमी, सभी वस्तुओं के आयात को ( विभिन्न चरणों में) खुली छूट, सेवा क्षेत्र विशेषकर बैंकिंग, बीमा तथा जहाजरानी क्षेत्रों में विदेशी पूंजी के निवेश की छूट तथा रुपये को परिवर्तनीय बनाने इत्यादि उपायों को अपनाये जाने के परिणामस्वरूप हुआ।
परन्तु आयात शुल्क में भारी कटौती के परिणामस्वरूप आयात ज्यादा होने लगा। भारत ऐसी ही उम्मीद अन्य देशों से कर रहा था, ताकि भारतीय निर्यात को पर्याप्त गति मिल सके, लेकिन विकसित देशों के छद्म स्वार्थों के परिणामस्वरूप भारतीय निर्यात पर प्रतिकूल असर पड़ा। भारतीय टेक्सटाइल उद्योग के लहंगे जब अमेरिका में खूब बिकने लगे, तो उन्होंने यह कहा कि ये ज्वलनशील पदार्थों के बने हुए हैं, उनके निर्यात पर रोक लगा दी। भारतीय कालीनों के बारे में भी यहां के श्रम मानदंडों जैसे अविश्वसनीय एवं बेतुके मुद्दे उठा कर गलत प्रचार किया गया।
आज भूमंडलीकरण की चपेट में भारतीय पेटेंट कानून आ रहा है, जिससे दवाइयों की कीमतें बढ़ गयीं। भारत जैसे गरीब देश में जहां पहले से ही सिर्फ 30 प्रतिशत लोगों को चिकित्सा उपलब्ध थी, वह घट कर अब 20 प्रतिशत हो गयी है। भारत पर अपने बौद्धिक सम्पदा संरक्षण कानून में मनचाहा परिवर्तन करवाने का दबाव बढ़ रहा है, जिसका अर्थ यह होगा कि प्रकृति द्वारा प्रदत्त बहुमूल्य पौधों पर से भी हमारा अधिकार खत्म हो जाएगा। इसी तरह की कुछ स्थिति बीमा क्षेत्र की भी है। बीमा क्षेत्र में विदेशी कम्पनियों के प्रवेश से न केवल हमारी पूंजी विदेशों में जायेगी, बल्कि हम अपनी बचत का स्वयं उपयोग भी नहीं कर सकेंगे।
उपरोक्त जानकारी एवं आंकड़े के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था, पर वैश्वीकरण का मिला-जुला असर रहा है। आने वाले समय में भारत को यह अवश्य ध्यान रखना होगा कि अपनी नीतियों पर सतर्कता व कड़ाई से पेश आते हुए इस पर कोई निर्णय ले।
प्रश्न 6 (b) : किसी देश के आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र कैसे योगदान करता है? व्याख्या करें।
उत्तर : स्वामित्व के आधार पर सार्वजनिक क्षेत्र में वे प्रतिष्ठान आते हैं जिनका स्वामित्व, प्रबंधन एवं नियंत्रण केन्द्र सरकार, राज्य सरकार या स्थानीय प्राधिकरण द्वारा किया जाता है, जैसे- रेलवे, डाक एवं तार, जीवन बीमा निगम आदि । सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की किसी देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। ये किसी देश की आर्थिक विकास की गति को तेज करते हैं और ऐसे क्षेत्रों में पूंजी निवेश करते हैं, जहां अधिक पूंजी की आवश्यकता होती है और जिसे पूर्ण रूप से चालू होने में काफी समय लगता है।
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों द्वारा उत्पादित इस्पात, विद्युत, कोयला, उर्वरक इत्यादि उत्पादों की कीमतें किसी देश के आर्थिक विकास के साथ-साथ सामाजिक उद्देश्यों को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाती हैं ताकि ये उत्पाद आम जन को उचित कीमत पर प्राप्त हो सकें। सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा उत्पादित उत्पादों से निजी क्षेत्र सस्ते कच्चे माल द्वारा लाभान्वित होता है और निजी क्षेत्र को इसका लाभ प्राप्त होता है । यद्यपि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों या उपक्रमों का मुख्य उद्देश्य लोक कल्याण होता है तथापि ये उद्योग निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए काम करते हैं –
> अर्थव्यवस्था की अधिकतम ऊंचाइयों को नियंत्रित करना ।
> अतिरिक्त रोजगार के अवसरों का सृजन करना ।
> औद्योगीकरण के भार में सहभागी बनना।
> उद्योगों में लगी लागत के बदले में देश को लाभ के रूप में अतिरिक्त धन दिलाना
> छोटे-छोटे कारखानों और सरकारी उपक्रमों से जुड़े कारखानों के विकास में सहायता देना।
सार्वजनिक क्षेत्र ने भारत जैसे देश के आर्थिक विकास में काफी मदद की है, जबकि इसका उद्देश्य सामाजिक है न कि आर्थिक। इन उपक्रमों ने भारत में शक्तिशाली दीर्घकालिक अंतः संरचना, आधुनिक प्रौद्योगिकी और रोजगार बढ़ाने में सहयोग दिया है। इसके कारण निर्यातों को बढ़ावा मिला तथा क्षेत्रीय विकास के असंतुलन को दूर करने में भी सहायता मिली है।
आज भी भारत जैसे विकासशील देश में दर्जनों ऐसे सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (SAIL, GAIL, NTPC, ONGC, OIL INDIA, IOC, FCI, HEC) आदि हैं, जिनका देश क आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के परिचालन में कुछ बाधाएं होने की वजह से ये लाभ नहीं दे पाते हैं तथा प्रायः घाटे में ही चलते हैं। इनमें पूंजी निर्माण दर बहुत कम होती है। इसके अतिरिक्त राजनीतिक हस्तक्षेप इनके काम-काज में बाधा पैदा करता है, जिससे काम में देरी, अधिक पूंजी की बर्बादी, जवाबदेही के प्रति मुंह चुराना, रोजगार के अवसरों का अपर्याप्त विकास, अतर्कसंगत मूल्य नीति और बुरे प्रबंधन जैसी समस्याएं पैदा हो जाती हैं।
प्रश्न 7 : वित्तीय समावेशन से क्या समझते हैं? वित्तीय समावेशन पर गठित नचिकेत मोर समिति की रिपोर्ट एवं अनुसंशाओं का वर्णन करें।
उत्तर : वित्तीय समावेशन सरकार की महत्वपूर्ण प्राथमिकता है। इसका उद्देश्य है बहिष्कृत वर्गों, जैसे- कमजोर वर्गों, अल्प आय समूहों आदि के लिए विभिन्न – वित्तीय सेवाएं जैसे कि बचत बैंक खाता, जरूरत आधारित खर्च, भुगतान सुविधा, बीमा तथा पेंशन के लिए पहुँच सुनिश्चत करे । समावेशी विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये वित्तीय समावेशन एक महत्वपूर्ण पहलू है। रिजर्व बैंक के अनुसार वित्तीय समावेशन का अर्थ है अल्प आय तथा कमजोर वर्ग के लोगों, जोकि सामान्य रूप से बैंकिंग प्रणाली से अपरिचित हैं तथा बैंकिंग सेवाओं का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं, को वहनीय लागत पर बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध कराना । ऐसे लोग जो बैंकिंग सेवाओं से अपरिचित हैं, गांवों में साहूकारों, महाजनों से ऊंची ब्याज दर पर ऋण लेते हैं तथा अंततः ऋण जाल (Debt Trap) में फंस जाते हैं, उन तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचाना। भारत में वित्तीय समावेशन की मांग वर्ष 2005 के बाद ज्यादा तेजी से हुई है, परन्तु इसके पूर्व भी बैंकों का राष्ट्रीयकरण, प्राथमिक क्षेत्र ऋणदान कार्यक्रम, स्वयं सहायता समूहों की शुरुआत आदि लोगों तक आसान वित्तीय पहुंच के उद्देश्य से ही शुरू किया गया था।
> वित्तीय समावेशन के लिये तीन प्रमुख बातों का होना आवश्यक है
> देश के सभी भागों विशेषकर पिछड़े इलाकों में बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध होना।
> लोगों को बैंकिंग प्रणाली से परिचित कराना तथा अधिक से अधिक लोगों को बैंकों में खाता खोलने हेतु प्रेरित करना ।
> पिछड़े इलाकों में लोगों को वहनीय तथा न्यूनतम लागत पर ऋण प्रदान करना, जिससे कि लोग महाजनों, साहूकारों के चंगुल में न फंसें।
> सूक्ष्म वित्त संस्था मॉडल
(Micro Finance Institutions Model)
सूक्ष्म वित्त संस्था मॉडल कई नियामकों और प्रमुख हितधारकों के साथ मिलकर काम करता है तथा सूक्ष्म वित्त के माध्यम से वित्तीय समावेशन की दिशा में प्रमुख कदम उठाता है। सूक्ष्म वित्त संस्थाएं अपने ग्राहकों को जिम्मेदारीपूर्वक उधार देकर, ग्राहकों को संरक्षित कर तथा सहायक विनियामक वातावरण विकसित कर वित्तीय समावेशन की दिशा में प्रभावी भूमिका निभाती है। यह ग्रामीण, शहरी तथा अर्द्धशहरी क्षेत्रों के गरीबों को छोटी मात्रा में ऋण तथा अन्य वित्तीय सेवाएं उपलब्ध कराता है जिससे कि उनका आय स्तर ऊपर उठे तथा रहन-सहन में सुधार हो ।
> वित्तीय समावेशन पर गठित नचिकेत मोर समिति :
वित्तीय समावेशन पर भारतीय रिजर्व बैंक की एक समिति ने अपनी रिपोर्ट 7 जनवरी, 2014 को रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को सौंपी। रिजर्व बैंक के सेंट्रल बोर्ड के सदस्य नचिकेत मोर की अध्यक्षता वाली इस समिति की रिपोर्ट में जो सिफारिशें की गयी हैं, उनके कार्यान्वयन से कमजोर वर्गों की बैंकिंग सेवाओं तक पहुंच आसान हो जायेगी। समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि 1 जनवरी, 2016 तक देश के सभी वयस्कों के पास पूर्ण सुविधायुक्त यूनिवर्सल इलेक्ट्रॉनिक बैंक अकाउंट (UEBA) होना चाहिये। समिति ने वैसे वयस्क, जो ‘अपने ग्राहक को पहचानिये’ (Know Your Customer, KYC) की आवश्यकता यदि ‘आधार’ के जरिये पूरी करता हो, का खाता खोलने का निर्देश सभी बैंकों को जारी करने की सिफारिश रिजर्व बैंक से की है। वित्तीय समावेशन के लिये 10 श्रेणियों के बैंकों वाली बैंकिंग व्यवस्था की संस्तुति समिति ने की है। इसके तहत् शाखा के जरिये काम करने वाले राष्ट्रीय बैंक, एजेंट के जरिये काम करने वाले राष्ट्रीय बैंक, क्षेत्रीय बैंक, राष्ट्रीय उपभोक्ता बैंक, नेशनल होलसेल बैंक, नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर बैंक, पेमेंट बैंक, होलसेल कंज्यूमर बैंक, होलसेल इन्वेस्टमेंट बैंक व पेमेंट नेटवर्क ऑपरेटर वर्गों को शामिल किया गया है। अपनी रिपोर्ट में समिति ने हर तरह के ग्राहकों की जरूरत के मुताबिक सुविधाएं देने वाले बैंकों की संस्तुति की है। कम आय वर्ग लिये कर्ज और बीमा देने का ऐसा मॉडल तैयार करने को समिति ने कहा है जिससे सूदखोरों आदि के चंगुल में फंसने से लोगों को बचाया जा सके। इसके लिये कम आय के लोगों को आसानी से ऋण उपलब्ध कराने वाला मॉडल विकसित करने की सिफारिश समिति ने की है। कमजोर वर्गों की बैंकिंग जरूरतों की पूर्ति के लिये प्राथमिक क्षेत्र को दिये जाने वाले ऋण की न्यूनतम सीमा को 40 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत करने का सुझाव भी समिति की रिपोर्ट में दिया गया है।
> समिति द्वारा दी गई कुछ अनुशंसाएं निम्नवत् हैं–
1 जनवरी, 2016 तक 18 वर्ष से अधिक उम्र वाले प्रत्येक भारतीय निवासी के पास बैंक खाता होना चाहिये जिसे यूनिवर्सल इलेक्ट्रॉनिक बैंक अकाउंट (Universal Electronic Bank Account-UEBA) कहा जाएगा। बैंक खाता की अधिकता के हिसाब में ‘आधार’ को खाता खुलवाने में प्राथमिक दस्तावेज के रूप में उपयोग करना चाहिये। इस समिति के द्वारा प्राथमिक क्षेत्र के लिये ऋण देने की सीमा को 40% से बढ़ाकर 50% तक करने की बात की गयी है। सांविधिक तरलता अनुपात (SRL) को समाप्त करने की बात कही गई है। नकद आरक्षित अनुपात (CRR) की बाध्यता को भी सरल करने की बात कही गई है।
प्रश्न 8 : झारखण्ड की आर्थिक प्रगति पर एक विस्तृत टिप्पणी लिखें।
उत्तर : 15 नवम्बर, 2000 को झारखण्ड राज्य के अस्तित्व में आने के बाद से राज्य के विकास के लिए अनेक विकास योजनाएं क्रियान्वित की गयी हैं। शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों के समुचित तथा सम्यक विकास हेतु आधारभूत संरचनाओं के साथ ही साथ मानव संसाधन के विकास की दिशा में राज्य सरकार अग्रसर है। आर्थिक विकास का अर्थ उत्पाद में वृद्धि के साथ-साथ उत्पादन एवं उपभोग के ढांचे में संरचनात्मक एवं संस्थागत परिवर्तन होने से है जो आर्थिक संवृद्धि से अलग अर्थ रखता है।
राज्य गठन के पश्चात राज्य में औद्योगिक विकास, आवागमन, विधि व्यवस्था हेतु पथों का चौड़ीकरण, मजबूतीकरण एवं विकास हेतु योजनाओं का निर्माण किया गया है। वर्ष 2011-12 में लगभग ₹791 करोड़ का व्यय कर लगभग 427 किमी. पथ एवं 13 पुल का निर्माण किया गया एवं कई योजनाओं को लागू किया गया है। जिसमें 185 करोड़ लागत वाले 15.1 किमी. आदित्यपुर- कांड्रा पथ का कार्य आरम्भ हुआ है।
झारखण्ड औद्योगिक नीति 2012 लागू में 20 लाख लोगों को रोजगार के अवसर प्राप्ति का अनुमान था । झारखण्ड ने स्टील, सीमेन्ट, एलुमिना, रेशम, आटोकम्पोनेन्ट के क्षेत्र में काफी वृद्धि की है। देश का 20% स्टील केवल झारखंड में उत्पादित हो रहा है । 2012-13 में कुल 146 लघु उद्योगों की स्थापना हुई है जिससे रोजगार के अवसर सृजित हुए हैं। तसर रेशम के उत्पादन में भी झारखण्ड देश में शिखर पर है। सभी औद्योगिक क्षेत्र विकास प्राधि कार एवं झारक्राफ्ट, राज्य खादी बोर्ड आदि लाभ अर्जित करने वाले उपक्रम हैं। अनेकों की आय एक वर्ष में दोगुना हो चुकी है। ऊर्जा विभाग नये-नये विद्युत उपकेन्द्र स्थापित कर उपकेन्द्रों को उर्जान्वित : रहा है। खनन एवं भूतत्व विभाग ने भी खनन राजस्व की वृद्धि के साथ खनन क्षेत्रों के विकास हेतु कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं।
राज्य में 2011-12 में अनुकूल मानसून तथा विभाग द्वारा किए गए प्रयास एवं किसानों की कड़ी मेहनत से राज्य में कुल खाद्यान्न एवं तिलहन का उत्पादन पिछले वर्षों की तुलना में बढ़कर 69 लाख टन हो गया जो राज्य की अपनी आवश्यकता से अधिक है। राज्य में खाद्यान्न उत्पादन, बीज उत्पादन, फसल बीमा, आधारभूत संरचना निर्माण आदि से संबंधित कई योजनाएं कार्यरत हैं जो राज्य को आर्थिक रूप से सृदृढ़ करती है।
उपर्युक्त विकास संबंधी आकड़ों के अलावा राज्य के आर्थिक विकास हेतु दूसरे कई अन्य कदम उठाए जा रहे हैं, जो निम्नलिखित हैं –
1. भूमि की उत्पादकता में वृद्धि के नये-नये उपाय किए जा रहे हैं।
2. वृक्षारोपण को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
3. पशुओं की नस्ल में सुधार किया जा रहा है तथा राज्य के ग्रामीणों के जीविकोपार्जन तथा पर्याप्त स्वरोजगार का अवसर उपलब्ध कराकर उनकी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने आदि के कार्यक्रमों का कार्यान्वयन किया जा रहा है।
4. राज्य में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग डिग्री स्तरीय अभियंत्रण महाविद्यालय एवं डिप्लोमा स्तरीय तकनीकी शिक्षण संस्थानों में छात्रों के प्रवेश क्षमता में बढ़ोतरी की जा रही है।
5. गरीबों के उत्थान हेतु महत्वपूर्ण योजना जैसे ए. पी. एल. योजना, अंत्योदय अन्न योजना, अन्नपूर्णा योजना, लेवी चीनी, आदि को कार्यान्वित किया गया है।
प्रारम्भ राज्य अपनी स्थापना के बाद आर्थिक विकास हेतु हर संभव प्रयास करता रहा है, परन्तु कुछ ऐसे कारक हैं जिनके कारण राज्य तीव्र गति से आर्थिक विकास नहीं कर पा रहा है। स्थापना से ही राज्य में राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति रही है। अतः राजनैतिक अपरिपक्वता विकास में बाधक बनती रही है। अपार संभावनाओं के बावजूद राजनैतिक हस्तक्षेप, जवाबदेही से मुंह चुराना, आर्थिक कुप्रबंधन आदि अनेकों ऐसे कारक हैं, जिनकी वजह से पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन, वैज्ञानिक एवं तकनीकी जानकारी एवं मानवीय साधनों के बावजूद राज्य में विकास की गति अपूर्ण है।
प्रश्न 9 (a) : झारखंड पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास नीति 2008 की आवश्यकता तथा उसके उद्देश्यों पर प्रकाश डालें।
उत्तर : झारखंड पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास नीति 2008 की आवश्यकता :
झारखंड राज्य की ऐतिहासिक घटनाओं के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि झारखंड के वासियों द्वारा, विशेषकर आदिवासी प्रमुखों द्वारा कई विद्रोह किये गये हैं क्योंकि वे अपनी सभ्यता एवं रीति-रिवाजों में बाहरी हस्तक्षेप के विरुद्ध आक्रोशित थे। स्वतंत्रता के बाद आदिवासियों एवं स्थानीय व्यक्तियों द्वारा अपने हितों की रक्षा के लिए अलग राज्य के गठन के लिए लड़ाई लड़ी गयी तथा अतंतः नवम्बर, 2000 में अलग राज्य की परिकल्पना साकार हुई। प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण इस राज्य के लोगों की सोच थी कि राज्य के औद्यौगिकीकरण से झारखंड के लोगों का भविष्य सुनहरा होगा। पूर्व में भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 एवं सी.बी.ए. (ए.एण्डडी.) अधिनियम, 1957 के अतंर्गत उद्योगों, डैम एवं खानों की स्थापना हेतु काफी भूमि अर्जित की गई। इन भूमि अधिग्रहण से बड़ी संख्या में लोग विस्थापित हुए एवं इसमें स्थानीय लोग अपनी भूमि, वन, जल संसाधन, सामुदायिक पहचान, कला एवं जीविकोपार्जन खो बैठे। स्थानीय लोगों के अशिक्षित होने एवं उनमें तकनीकी योग्यता के अभाव में उद्योगों एवं खानों इत्यादि में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें रोजगार नहीं मिल पाया एवं विकास की
प्रक्रिया में वे भागीदार बनने से वंचित रह गये। चूँकि स्थानीय लोगों का रहन-सहन भी काफी भिन्न रहा है, अतः वे विकास की इस प्रक्रिया का लाभ नहीं ले सके। झारखंड राज्य गठन के सात वर्षों के बाद भी उन्हें विकसित करने हेतु किये गये प्रयासों के बावजदू आशानुरूप परिणाम प्राप्त नहीं हो सके हैं। अतः औद्योगिकीकरण एवं उद्योग आदि के लिए भूमि अधिग्रहण के परिपेक्ष्य में यह आवश्यक है कि वर्तमान स्थिति का आकलन करते हुए एक उपयुक्त पुनर्स्थापन एवं पुनर्वास नीति तैयार की जाए जिससे पूँजी निवेशकों के साथ-साथ प्रभावित लोगों का भी कल्याण सुनिश्चित हो सके।
झारखंड राज्य का 55 प्रतिशत अधिक हिस्सा भारत के संविधान की पांचवीं अनुसूची के अन्तर्गत पड़ने वाला अनुसूचित क्षेत्र है जो प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण है (यह स्थानीय निवासियों विशेषकर अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए लाभप्रद एवं हानिकारक दोनों ही रहा है)। नैसर्गिक न्याय के दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि झारखंड में हो रहे विकास के कार्यों का लाभ परियोजना प्रभावित लोगों को भी मिले जिन्होंने पूँजी निवेशकों के हित में अपनी भूमि, वन, जल संसाधन एवं अन्य प्राकृतिक संसाध नों को खोया है। लोगों के पूर्व के अनुभवों से स्पष्ट है कि झारखंड में विभिन्न परियोजनाओं के कारण हुए विस्थापितों को बहुधा न तो उचित तरीके से पुनर्वासित किया गया एवं न ही पुनर्स्थापित किया गया है। इन विस्थापनों के कारण स्थानीय लोगों को रोजगार की खोज में राज्य से अन्यत्र पलायन करना पड़ा है।
> झारखण्ड पुनर्स्थापन और पुनर्वास नीति के उद्देश्य :
> झारखण्ड पुनर्स्थापन और पुनर्वास नीति के उद्देश्य निम्नानुसार हैं
(क) जहाँ तक संभव हो, न्यनूतम विस्थापन करने, विस्थापन न करने अथवा कम से कम विस्थापन करने के विकल्पों को बढ़ावा देना;
(ख) प्रभावित व्यक्तियों की सक्रिय भागीदारी के साथ पर्याप्त पुनर्वास पैकजे सुनिश्चित करना तथा पुनर्वास प्रक्रिया का तेजी से कार्यान्वयन सुनिश्चित करना;
(ग) समाज के कमजोर वर्गो विशेष रूप से अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के अधिकारों की सुरक्षा करने तथा उनके उपचार के संबंध में ध्यानपूर्वक तथा संवेदनशीलता के साथ कार्रवाई किए जाने पर विशेष ध्यान रखे जाने को सुनिश्चित करना;
(घ) प्रभावित परिवारों को बेहतर जीवन स्तर उपलब्ध कराने तथा सतत् रूप से आय मुहैया कराने हेतु संयुक्त प्रयास करना; योजनाओं तथा कार्यान्वयन प्रक्रिया
(ङ) पुनर्वास कार्यों को विकास के साथ एकीकृत करना; और
(च) जहाँ पर विस्थापन भूमि अर्जन के कारण होता है, वहाँ पर अर्जनकारी निकाय तथा प्रभावित परिवारों के बीच आपसी सहयोग के जरिए सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित करना ।
प्रश्न 9 (b) : झारखंड राज्य खाद्य सुरक्षा योजना, 2021 की रूपरेखा प्रस्तुत करें।
उत्तर : खाद्य एवं कृषि संगठन (Food and Agriculture Organisation, FAO) के अनुसार, ‘सभी व्यक्तियों को सही समय पर उनके लिए आवश्यक बुनियादी भोजन के लिए भौतिक एवं आर्थिक दोनों रूप में उपलब्धि का आश्वासन मिलना खाद्य सुरक्षा (Food Security) है।
केंद्र सरकार ने कोरोनाकाल में देश के गरीब लोगों को मुफ्त में अनाज देने के लिए ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ चलायी है। इससे देश के सभी गरीबों को राहत मिल रही है। किन्तु जब यह योजना समाप्त हो जायेगी तब राज्य सरकारें मिलकर गरीबों की सहायता करेगी। इसकी पहल झारखण्ड सरकार ने शुरू कर दी है। झारखण्ड अपने निवासियों के लिये मुफ्त में अनाज प्रदान करने की योजना शुरू की है जिसका नाम है ‘झारखण्ड राज्य खाद्य सुरक्षा योजना’। इस योजना को कैबिनेट द्वारा मंजूरी भी दे दी गयी है।
> योजना की विशेषताएं :
> झारखण्ड सरकार ने इस योजना को शुरू करके गरीबों को कम से कम खर्च में अनाज मुहैया कराने का फैसला किया है जिसकी कैबिनेट द्वारा मंजूरी मिल गयी है और इसका लाभ नवम्बर, 2021 से मिलना शुरू हो जायेगा।
> इस योजना में लाभार्थियों को कम से कम 5 किलोग्राम अनाज मिलेगा, जिसकी दर 1 रुपये प्रति किलोग्राम है।
> इस योजना हेतु आवेदन करने की प्रक्रिया ऑनलाइन एवं ऑफलाइन दोनों ही रूप में शुरू हो गयी है। हालांकि सरकार द्वारा यह जानकारी दी गई है कि जिनका नाम राज्य खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत रजिस्टर्ड है उन्हें इसमें आवेदन नहीं करना होगा। वे अपने आप ही इस योजना में शामिल हो जायेंगे।
> शहरी, स्थानीय निकायों, जिला प्रखंड और पंचायत स्तर पर वार्ड के आधार पर लाभार्थियों का चयन किया जायेगा। जिन्हें चयनित किया गया है उनके नाम अधिकारिक वेबसाइट में डाल दिये जायेंगे।
> इस योजना की देखरेख खाद्य सावर्जनिक वितरण एवं उपभोक्ता विभाग द्वारा की जायेगी। वे जिला स्तर पर टीम बनायेंगे और फिर आवेदन इकट्ठा करेंगे। इसके साथ ही जिले में जो आंगनबाड़ी के सदस्य, शिक्षक, जनसेवक और रोजगार सेवक होंगे, उन्हें इसमें शामिल किया जायेगा।
> इस योजना के तहत लाभार्थियों को हरे रंग का राशन कार्ड प्रदान किया जायेगा।
> योजना में पात्रता मापदंड :
> मूल निवासी :- इस योजना में पात्र लाभार्थी वहीं होंगे जो मूल रूप से झारखण्ड के निवासी हैं।
> आदिम जनजाति :- ऐसे लोग जो आदिम जनजाति परिवार से संबंध रखते हैं उन्हें इस योजना में पात्र माना जायेगा।
> अन्य पात्रता :- ऐसे व्यक्ति जो विधवा या परित्यक्ता या फिर ट्रांसजेंडर हैं उन्हें भी इसका लाभ दिया जायेगा। इसके अलावा ऐसे व्यक्ति जोकि 40% तक विकलांग हैं, वे भी इसके पात्र हो सकते हैं।
> बीमारी से पीड़ित :- ऐसे व्यक्ति ऐसे व्यक्ति जिन्हें जिन्हें कैंसर, कैंसर, ऐड्स, ऐड्स, कुष्ठ कुष्ठ या अन्य असाध्य रोग है वे भी इसका लाभ प्राप्त करने के लिए पात्र होंगे।
> बुजुर्ग :- ऐसे वृद्धजन जो अकेले रहते हैं या एकल परिवार में रहते हैं वे भी इस योजना का लाभ लेने के लिए पात्र हैं।
> जाति पात्रता :- जो व्यक्ति अनुसूचित जाति या जनजाति केटेगरी में आते हैं वे भी इस योजना के पात्र होंगे।
> बेघर :- ऐसे लोग जो गरीब हैं, भिखारी है या जिनके पास घर नहीं है, वे रोड या फुटपाथ में रहते हैं, रोड में कूड़ा या कचरा चुनते हैं, फुटपाथ में फेरी लगाते हैं आदि, वे सभी इस योजना का लाभ प्राप्त कर सकेंगे।
> श्रमिक :ऐसे श्रमिक जो निर्माण कार्य करते हैं घरेलू श्रमिक हैं, राजमिस्त्री हैं, रिक्शावाले हैं, कुली, धोबी या माली हैं वे भी इसके पात्र होंगे।
नोट :- सभी लाभार्थियों को अपनी श्रेणी के अनुसार प्रमाण देने की आवश्यकता होगी, क्योंकि उसी के आधार पर उनकी प्राथमिकता निर्धारित कर उन्हें लाभ प्रदान किया जायेगा।
> योजना में शामिल नहीं होने वाले व्यक्ति :
> यदि लाभार्थी के परिवार का कोई सदस्य केंद्र या राज्य सरकार द्वारा किसी विभाग में कार्यरत है।
> परिवार का कोई सदस्य यदि टैक्स या फिर जीएसटी भरता है, तो वह भी पात्र नहीं होगा।
> जिस भी परिवार के पास सिंचाई युक्त कम से कम 5 एकड़ जमीन है, या 10 एकड़ असिंचित जमीन है, वे भी इस योजना के लाभार्थी नहीं होंगे।
> यदि किसी लाभार्थी के परिवार में 2 पहिया या 4 पहिया वाहन है, तो वे भी इसके पात्र नहीं होंगे।
> योजना में लाभार्थी की योग्यता :
> योजना में लाभार्थी के परिवार में कोई 18 साल से अधिक उम्र की या विधवा या परित्यक्ता या परिपक्व महिला हैं तो उसी को योजना में मुखिया बनाया जायेगा। और यदि ऐसी कोई भी महिला परिवार में मौजूद नहीं है, तो फिर सबसे बड़े पुरुष को इसका लाभ मिलेगा।
> अधिकारियों द्वारा सभी दस्तावेजों की जांच की जाएगी और उसी के आधार पर लाभार्थी सूची का निर्माण कर अधिकारिक वेबसाइट पर डाला जायेगा या फिर शहरी कार्यालय या पंचायत के कार्यलय में लगाया जायेगा।
> यदि किसी सदस्य को सूची से संबंधित कोई परेशानी है और वह शिकायत करना चाहता है, तो वह एक निश्चित तारीख तक शिकायत दर्ज करा सकता
है ।
> लाभुकों का पंजीकरण :
इस योजना में पंजीयन हेतु व्यक्ति इसके पात्र हैं एवं इसका लाभ उठाना चाहते हैं वे 24 सितम्बर, 2021 से 30 सितम्बर, 2021 के बीच में अपना रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं। इसके लिए सरकार द्वारा जगहों पर कैंप लगाये जा रहे हैं, ताकि लाभार्थियों को अपना पंजीयन करने में परेशानी न हो, और वे राशन कार्ड आसानी से प्राप्त कर सकें। इसके लिए ऑनलाइन आवेदन की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी है।
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