JPSC मॉडल प्रश्न-पत्र विषय : भारतीय संविधान एवं राजनीति / लोक प्रशासन एवं सुशासन

JPSC मॉडल प्रश्न-पत्र विषय : भारतीय संविधान एवं राजनीति / लोक प्रशासन एवं सुशासन

Model Question-Paper
Subject:Indian Constitution & Polity, Public Administration & Good Governance
सामान्य निर्देश : प्रश्न-पत्र दो खण्डों में विभक्त है। परीक्षार्थी को प्रत्येक खण्ड से एक अनिवार्य और दो वैकल्पिक प्रश्नों का उत्तर देना है। प्रत्येक खण्ड के अनिवार्य प्रश्न में 10 वस्तुनिष्ठ प्रश्न होंगे जिसमें प्रत्येक वस्तुनिष्ठ प्रश्न के 2 अंक हैं। इसके अतिरिक्त प्रत्येक खण्ड से 4 वैकल्पिक प्रश्नों में प्रत्येक खण्ड से किन्हीं 2 का उत्तर दें जिनमें प्रत्येक प्रश्न 40 अंक का है। वैकल्पिक प्रश्नों का उत्तर वर्णनात्मक रूप में लिखें।
Instruction : The question paper is divided into two sections. The candidates will be required to answer one compulsory and two optional questions from each section. There shall be ten objective type questions, each of 2 marks in each section. in addition, there shall be 4 optional questions in each section, of which candidates will be required to answer only 2 questions from each section, each of 40 marks. The optional questions shall be answered in the descriptive form.
Section-A : भारतीय संविधान एवं राजनीति ( Indian Constitution & Polity )
1. निम्नांकित बहुवैकल्पिक प्रश्नों का सही उत्तर विकल्प में से दें ।
(i). मूल संविधान में किसका उल्लेख नहीं किया गया है ?
(a) मौलिक अधिकार
(b) मौलिक कर्तव्य
(c) सार्वभौम वयस्क मताधिकार
(d) इनमें से कोई नहीं
(ii). प्राकृतिक कानून के जनक कौन हैं ?
(a) अरस्तु
(b) प्लेटो
(c) सुकरात
(d) इनमें से कोई नहीं
(iii). संविधान के किस भाग में नागरिकों के मौलिक अधिकारों तथा राज्य के नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख किया गया ?
(a) भाग 3 एवं भाग 4
(b) भाग 7 एवं भाग 8
(c) भाग 5 एवं भाग 6
(d) भाग 10 एवं
(iv). किचेन कैबिनेट कितने महत्वपूर्ण मंत्रियों को मिलाकर बनती है ?
(a) 15 या 20
(b) 10 या 15
(c) 20 या 25
(d) 11 या 17
(v). राज्य में कार्यपालिका का प्रमुख कौन होता है ?
(a) मंत्रिपरिषद्
(b) राज्यपाल
(c) मुख्यमंत्री
(d) प्रधानमंत्री
(vi). संविधान के किस संशोधन द्वारा अनुसूचित जातियों के लिए ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग’ का गठन किया गया है ?
(a) 62वें संशोधन
(b) 89वें संशोधन
(c) 75वें संशोधन
(d) 82वें संशोधन
(vii). संविधान के किस भाग में अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकालीन संवैधानिक उपबंध का उल्लेख है ?
(a) भाग 18
(b) भाग 16
(c) भाग 15
(d) भाग 12
(viii). भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के स्वतंत्र पद की व्यवस्था की गयी है ?
(a) अनुच्छेद 138
(b) अनुच्छेद 128
(c) अनुच्छेद 148
(d) अनुच्छेद 158
(ix). भारत का कौन-सा आयोग एक स्थायी संवैधानिक संगठन है ?
(a) निर्वाचन आयोग
(b) नीति आयोग
(c) वित्त आयोग
(d) परिसीमन आयोग
(x). ‘दबाव समूह’ शब्द का उद्भव हुआ
(a) बांग्लादेश
(b) ईरान
(c) अफगानिस्तान
(d) संयुक्त राज्य अमेरिका
2. (a ) भारत में संविद सरकार (Coalition Government in India) के गठन का उदाहरण सहित व्याख्या करें ।
(b) राज्य में राज्यपाल की स्थिति (Position of a Governor in a state) की विवेचना करें ।
3. (a) भारत के उपराष्ट्रपति की शक्ति और स्थिति की संक्षेप में विवेचना करें।
(b) झारखण्ड के विशेष संदर्भ में राज्य विधानसभा की भूमिका एवं कार्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
4. (a) दबाव समूह क्या है ? इनके उद्देश्य एवं प्रकार बताएं।
(b) भारतीय संविधान का उद्देश्य वास्तव में एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। विवेचना करें।
5. विधि के शासन से आप क्या समझते हैं? भारतीय संविधान में इसकी व्यवस्था कैसे की गयी है ?
Section-B : लोक प्रशासन एवं सुशासन (Public Administration & Good Governance)
1. निम्नांकित बहुवैकल्पिक प्रश्नों का सही उत्तर विकल्प में से दें :
(i). लोक प्रशासन के क्षेत्र में आदर्शवादी विचारधारा को और किस नाम से जाना जाता है ?
(a) लोक कल्याणकारी
(b) व्यापक विचारधारा
(c) पोस्टकोर्ब विचारधारा
(d) संकुचित विचारधारा
(ii). प्रशासन को कितने भागों में बांटा गया है?
(a) 5
(b) 3
(c) 2
(d) 7
(iii). मंत्रिमण्डल सचिवालय के किस शाखा द्वारा मंत्रिमंडल के लिए सचिवालय कार्य प्रणाली उपलब्ध करायी जाती है ?
(a) सिविल शाखा
(b) सैनिक शाखा
(c) असूचना शाखा
(d) इनमें से कोई नहीं
(iv). राज्य सचिवालय के पदसोपान में शीर्ष पर होता है :
(a) मुख्यमंत्री
(b) वित्तमंत्री
(c) मुख्य सचिव
(d) राज्यपाल
(v). जिलाधीश निम्नांकित में किस अधिकारी के रूप में राज्य में संसद, विधानसभा तथा स्थानीय निकायों के निर्वाचन का सुचारू रूप से संचालन करना है ?
(a) जिला चुनाव अधिकारी के रूप में
(b) विकास कार्य अधिकारी के रूप में
(c) राजस्व वसूली अधिकारी के रूप में
(d) नियामकीय अधिकारी के रूप में
(vi). प्रशिक्षण के किस विधि के अंतर्गत प्रशिक्षणार्थियों को समूह में प्रशिक्षण दिया जाता है ?
(a) सामूहिक प्रशिक्षण
(b) अधिसभा द्वारा प्रशिक्षण
(c) औपचारिक शिक्षा द्वारा प्रशिक्षण
(d) भ्रमण द्वारा प्रशिक्षण
(vii). ‘ब्योरोक्रेसी’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किसने किया था ?
(a) बिन्सेंट डी गार्ने
(b) कार्ल फ्रेडरिक
(c) मैक्स वेबर
(d) रॉबर्ट सी. स्टोन
(viii). पहली राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना का शुभारंभ कब किया गया था ?
(a) 15 मई, 2016
(b) 25 अगस्त, 2016
(c) 1 जून, 2016
(d) 18 जुलाई, 2016
(ix) केन्द्रीय सतर्कता आयोग की स्थापना कब की गयी ?
(a) 1966
(b) 1987
(c) 1964
(d) 1975
(x). मानवाधिकार की कौन-सी संस्था विश्वव्यापी मानवाधिकार संस्था है ?
(a) अखिल भारतीय महिला सभा
(b) एमनेस्टी इंटरनेशनल
(c) ह्यूमन राइट्स वाच
(d) डीफेंस चिल्ड्रेन इंटरनेशनल
2. लोक प्रशासन के क्षेत्र संबंधी विभिन्न विचारधारा या दृष्टिकोण का संक्षिप्त विवरण दें।
3. केन्द्रीय सचिवालय के प्रमुख कार्यों की विवेचना करें ।
4. राज्य प्रशासन में मुख्य सचिव की भूमिका केन्द्रीय स्तर की होती है। इस कथन के संदर्भ में मुख्य सचिव की भूमिका का वर्णन करें।
5. प्रशिक्षण क्या है? प्रशिक्षण के उद्देश्य तथा भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में प्रशिक्षण के महत्व का वर्णन करें।
> व्याख्या एवं आदर्श उत्तर (Model Answer)
Section – A : भारतीय संविधान एवं राजनीति ( Indian Constitution & Polity)
उत्तर 1: वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर
(i). (b) : मूल संविधान में मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख नहीं किया गया है। इसे स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश के आधार पर 1976 के 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से आंतरिक आपातकाल (1975-77) के दौरान शामिल किया गया था।
(ii).(a) : अरस्तु को प्राकृतिक कानून का जनक कहा जाता है। पूर्व के दार्शनिक सुकरात और प्लेटो की भांति ही अरस्तु ने भी प्राकृतिक न्याय या प्राकृतिक अधिकार के अस्तित्व को स्वीकार किया है। अरस्तु के इस ख्याति के साथ एक्विनास का विचार जुड़ा हुआ है।
(iii).(a) : संविधान के भाग 3 एवं 4 में क्रमश: नागरिकों के मौलिक अधिकारों तथा राज्य के नीति-निदेशक तत्वों का उल्लेख किया गया है। मौलिक अधिकारों तथा राज्य के नीति-निदेशक तत्वों का उद्देश्य संयुक्त रूप से समाज में राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक समानता लाना है।
(iv).(a): किचेन कैबिनेट 15 या 20 महत्वपूर्ण मंत्रियों को मिलाकर बनती है, जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होता है। यह औपचारिक रूप से निर्णय लेने वाली उच्चतम संस्था होती है। ‘आंतरिक कैबिनेट’ या किचेन कैबिनेट कहलाने वाला यह छोटा निकाय सत्ता का प्रमुख केन्द्र बन गया है।
(v).(b) : राज्य में कार्यपालिका का प्रमुख राज्यपाल होता है। वह अपनी कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग स्वयं करता है या अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के द्वारा करता है। राज्यपाल को प्रशासन में सहायता एवं मंत्रणा देने के लिए एक मंत्रिपरिषद् होती है।
(vi).(b): संविधान के 89वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 338 के अधीन अनुसूचित जातियों के लिए ‘राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग’ का गठन किया गया है। इस पांच सदस्यीय आयोग में एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और अन्य सदस्यों का प्रावधान किया गया है। आयोग के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और तीनों सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
(vii).(a):संविधान के भाग 18 में अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकालीन संवैधानिक उपबंध का उल्लेख है। ये उपबंध केन्द्र को किसी भी असामान्य स्थिति में प्रभावी रूप से निपटने में सक्षम बनाते हैं।
(viii).(c):भारतीय संविधान के अनुच्छेद 148 में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के स्वतंत्र पद की व्यवस्था की गयी है, जिसे संक्षेप में महालेखा परीक्षक कहा जाता है। स्वतंत्र लेखा परीक्षक की व्यवस्था संसदीय लोकतंत्र का एक आवश्यक उपादान है।
(ix).(a) : भारत का निर्वाचन आयोग एक स्थायी संवैधानिक संगठन है। इसकी स्थापना 25 जनवरी, 1950 को की गयी है। इसका उद्देश्य स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन सुनिश्चित करना है।
(x). (d) : ‘दबाव समूह’ शब्द का उद्भव संयुक्त राज्य अमेरिका से हुआ है। दबाव समूह उन लोगों का समूह होता है, जो सक्रिय रूप से संगठित हैं। ये समूह अपने हितों को बढ़ावा देते हैं और उनकी प्रतिरक्षा करते हैं। यह सरकार पर दबाव बनाकर लोकनीति को बदलने की कोशिश करते हैं। ये सरकार और उसके सदस्यों के बीच एक कड़ी का काम करते हैं।
प्रश्न 2. (a) : भारत में संविद सरकार (Coalition Government in India) के गठन का उदाहरण सहित व्याख्या करें।
उत्तर : स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के कई दशकों तक भारत में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में सरकारें बनती रही । अन्य दल उन दिनों लगभग पृष्ठभूमि में ही हुआ करते थे। 1969 में केरल में जो सरकार बनीं (मार्क्सवादियों के नेतृत्व में), उसे वस्तुतः देश की पहली मिली-जुली सरकार माना जा सकता है। जब दो या दो से अधिक राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय दलों के सहयोग से किसी सरकार का संघ अथवा राज्य स्तर पर अस्तित्व दिखता है, तो इसे ही संविद (मिली-जुली ) सरकार (Coalition Government ) की संज्ञा दी जाती है।
वर्ष 1989 में वी.पी. सिंह की अगुवाई में जो सरकार संघीय स्तर पर बनीं थी, वह संघीय स्तर की प्रथम संविद सरकार मानी जाती है। उसके बाद से तो कुछ ऐसा दौर चला कि पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार (1991) को छोड़कर अन्य सभी सरकारें संविद सरकार के रूप में ही सामने आयीं। इस दौरान कई राज्यों में भी ऐसी सरकारें बनती-बिगड़ती रही हैं। इस प्रक्रिया ने कई बार भारतीय लोकतंत्र का न सिर्फ माखौल उड़ाया है, बल्कि राजनीतिक अस्थिरता के एक नये युग का सूत्रपात भी किया है। उसके इसी स्वरूप को देखते हुए अक्सर इस तरह की सरकार की आलोचना की गयी है। वर्ष 2014 के आम चुनाव में भाजपा के पूर्ण बहुमत प्राप्त होने के बावजूद इसने अपने सहयोगी दलों के साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार बनायी।
वैसे संविद सरकारों के गठित होने में कोई बुराई नहीं है। यह बात मानी जा सकती है कि इस तरह की सरकारों में क्षेत्रीय एवं छोटे-छोटे दलों की आकांक्षाओं को बल मिलता है और वे भी देश की शासन प्रणाली का अहम हिस्सा बन पाते हैं, लेकिन हमारे पिछले अनुभवों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस तरह के प्रयोगों ने राष्ट्रीय हितों के बदले क्षेत्रीय वैयक्तिक हितों का ही संवर्द्धन किया है। इसने क्षेत्रीय आक्रामकता को एक नये रूप में प्रतिस्थापित किया है। साथ ही, तमाम राजनीतिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर भारतीय राजव्यवस्था को कई बार कलंकित भी किया है। इस संदर्भ में सबसे निकृष्ट भूमिका उन दलों की देखी गयी है, जो कि सरकार को बाहर से समर्थन (Outside Support) देते हैं। ऐसे दल जहां शासन की डोर को अपने हाथों में रखते हैं, वही स्वयं को सरकारी जवाबदेही से पूरी तरह से मुक्त बनाये रखते हैं। दरअसल, संविद सरकार की इसी दुर्भावना ने इसके प्रयोगों को सीमित एवं अप्रासंगिक बना दिया है। अतः जब तक ऐसी सरकारों के घटक दल सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना से काम नहीं करेंगे, तब तक इस तरह के प्रयोग असफल ही साबित होंगे।
प्रश्न 2. (b) : राज्य में राज्यपाल की स्थिति (Position of a Governor in a state) की विवेचना करें।
उत्तर : संविधान के अंतर्गत राज्यों के लिए भी संसदीय ढांचा निर्धारित किया गया है, जिसमें कार्यपालिका संबंधी शक्तियां राज्यपाल में निहित होती है।
राज्य की कार्यपालिका का प्रधान होने के कारण राज्य के समस्त कार्यकारी कार्य राज्यपाल के नाम से ही सम्पन्न होते हैं। वह विधानसभा में बहुमत दल के नेता को राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त करता है एवं उसकी सलाह पर अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है। अपनी विधायी शक्तियों के अंतर्गत राज्यपाल राज्य विधानपालिका के सदनों की बैठक आहुत कर सकता है, सत्रावसान कर सकता है तथा विधानसभा को भंग कर सकता है। वह राज्य विधान परिषद के सदस्यों की कुल संख्या के छठें हिस्से के बराबर सदस्यों को मनोनीत कर सकता है । राज्य विधायिका द्वारा पारित किसी विधेयक के कानून बनने से पूर्व उस पर राज्यपाल की सम्मति आवश्यक है। राज्य विधायिका द्वारा पारित किसी विधेयक को वह राष्ट्रपति के पास उसकी सम्मति के लिए भी भेज सकता है। वह राज्य विधायिका के सत्र में न रहने की अवस्था में अध्यादेश जारी कर सकता है, जिसकी पुष्टि सत्र के प्रारंभ होने के छह सप्ताह के भीतर राज्य की विधायिका द्वारा होनी आवश्यक है।
राज्यपाल प्रतिवर्ष राज्य का वार्षिक बजट विधायिका के समक्ष प्रस्तुत करता है। धन विधेयक राज्यपाल की पूर्ण अनुमति से ही विधानसभा में प्रारंभ किया जा सकता है। राज्यपाल की न्यायिक शक्तियों के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा राज्य के उच्च न्यायाधीशों की नियुक्ति के पूर्व उससे परामर्श लिया जाना आवश्यक है। राज्यपाल जिला एवं सत्र न्यायालयों के न्यायाधीशों को नियुक्त करता है । वह राज्य के कानूनों के अंतर्गत दंडित अभियुक्तों को क्षमादान दे सकता है, उनकी सजा को बदल सकता है या कम कर सकता है। राज्यपाल राज्य के महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट को प्राप्त कर उसे राज्य विधायिका के समक्ष प्रस्तुत करता है । वह राज्य के लोक सेवा आयोग की रिपोर्ट
को भी विधायिका के समक्ष रखता है। राज्य के विश्वविद्यालयों का कुलाधिपति होने के नाते वह कुलपतियों की नियुक्ति करता है ।
राज्यपाल की इन शक्तियों के अतिरिक्त उसकी कुछ स्वविवेक संबधी शक्तियां भी हैं, जिनके प्रयोग में वह मुख्यमंत्री एवं मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य नहीं है।
प्रश्न 3. (a) : भारत के उपराष्ट्रपति की शक्ति और स्थिति की संक्षेप में विवेचना करें।
उत्तर : भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 63 के अनुसार भारत की संघीय कार्यपालिका में उपराष्ट्रपति पद की व्यवस्था की गयी है, जिसका कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित है। अनुच्छेद- 64 के अनुसार उपराष्ट्रपति को राज्यसभा का पदेन सभापति के रूप में मान्यता प्रदान की गयी है तथा इनका मुख्य कार्य अमरीका के उपराष्ट्रपति की तरह उच्च सदन (राज्य सभा) की अध्यक्षता करना है ।
अनुच्छेद-65 के अनुसार उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति की मृत्यु, पदत्याग, महाभियोग अथवा अन्य किसी प्रकार से पदच्युत होने तथा अन्य किसी कारण से कार्यभार संचालन में असमर्थ होने पर राष्ट्रपति के रूप में कार्यों का निर्वहन करेगा। इस दौरान राष्ट्रपति की सम्पूर्ण शक्तियां और उन्मुक्तियां उन्हें उपलब्ध होंगी। राष्ट्रपति के रूप में कार्य करते समय उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति पद के वेतन, भत्ते तथा विशेषाधिकार आदि उन्हें प्राप्त होते हैं, परन्तु उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने की अधिकतम अवधि छः महीने होती है। निर्वाचन प्रक्रिया : उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों से मिलकर बनने वाले निर्वाचकगण के सदस्यों द्वारा अनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा किया जाता है। (अनुच्छेद-66)
योग्यता : कोई व्यक्ति उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने के योग्य तभी होगा जब वह –
(i) भारत का नगरिक हो ।
(ii) 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो ।
(iii) राज्यसभा का सदस्य निर्वाचित होने के योग्य हो
(iv) निर्वाचन के समय किसी प्रकार के लाभ के पद पर न हो। शपथ : उपराष्ट्रपति को अपना पद ग्रहण से पूर्व राष्ट्रपति अथवा उसके द्वारा नियुक्त किसी व्यक्ति के समक्ष शपथ लेनी पड़ती है। उपराष्ट्रपति की पदावधि तथा पदच्युति : उपराष्ट्रपति की पदावधि 5 वर्ष की होता है। उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति को संबोधित त्यागपत्र द्वारा पद त्याग सकता है। वह राज्यसभा के तत्कालीन समस्त सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा हटाया जा सकता है, जिसे लोकसभा की भी सहमति हो । उपराष्ट्रपति को हटाने के लिए महाभियोग की आवश्यकता नहीं है, परन्तु 14 दिन पूर्व उसे नोटिस देना आवश्यक है। वेतन और भत्ते : उपराष्ट्रपति को निःशुल्क शासकीय निवास तथा अन्य भत्ते उपलब्ध होते हैं। उपराष्ट्रपति को वर्तमान में ₹4,00,000 प्रति माह वेतन दिया जाता है। उसके समस्त वेतन एवं भत्ते भारत के संचित निधि पर भारित होते हैं।
> कार्य एवं शक्तियां –
सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति राज्यसभा के सभापति के रूप में कार्य करता है तथा वह सदन के विधेयकों पर बहस कराता है तथा मतदान कराता है। इसके पश्चात् मतदान के परिणाम की घोषणा करता है कि विधेयक पारित हुआ या नहीं। समान मतों की स्थिति में वह अपना ‘निर्णायक’ मत देता है।
कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में : संविधान के अनुच्छेद-65(1) के अनुसार, किसी कारण से राष्ट्रपति अपना पद संभालने में सक्षम नहीं है तो उस परिस्थिति में राष्ट्रपति के स्थान पर कार्यवाहक राष्ट्रपति’ के रूप में उपराष्ट्रपति कार्य कर सकता है।
3 मई, 1969 को जब राष्ट्रपति जाकिर हुसैन का देहावसान हो गया तब उपराष्ट्रपति वी. वी. गिरि ने तथा राष्ट्रपति फकरुद्दीन अली अहमद का निधन हुआ तो वी. डी. जत्ती ने कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में पद संभाला था।
अन्य कार्य : अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक समारोहों तथा राजकीय यात्राओं में उपराष्ट्रपति राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है तथा राष्ट्रपति के त्यागपत्र देने की स्थिति में उसकी सूचना लोकसभा अध्यक्ष तक पहुंचाता है। भारत का उपराष्ट्रपति दिल्ली विश्वविद्यालय का पदेन कुलपति होता है।
प्रश्न 3. (b) : झारखण्ड के विशेष संदर्भ में राज्य विधानसभा की भूमिका एवं कार्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर : भारतीय संघ में झारखण्ड भारत का 28 वां राज्य है। झारखण्ड में संविधान के अनुसार एक सदनीय विधानसभा है, जिसकी स्थापना रांची में की गयी है। झारखण्ड विधानसभा के लिए सार्वभौम वयस्क मताधिकार और संयुक्त निर्वाचकगणों के आधार पर प्रत्यक्ष निर्वाचन होते हैं। झारखण्ड राज्य में विधानसभा के लिए 81 निर्वाचन क्षेत्रों से प्रतिनिधि चुने जाते हैं।
झारखण्ड राज्य की विधानसभा में किसी स्थान के लिए चुने जाने के लिए संविधान ने कुछ शर्ते आवश्यक ठहरायी है। प्रत्याशी के लिए आवश्यक है कि- (क) वह भारत का नागरिक हो, (ख) 25 वर्ष की अवस्था पूरी कर चुका हो, और (ग) ऐसी अन्य अर्हताएं रखता हो जो इस बारे में राज्य के विधानमण्डल के द्वारा निर्मित किसी कानून के द्वारा या अधीन निश्चित की जाएं। राज्य की विधानसभा अपने सदस्यों में से एक को अध्यक्ष और दूसरे को उपाध्यक्ष निर्वाचित करती है। राज्य की विधानसभा की अवधि, यदि उसका पहले ही विघटन न कर दिया जाए तो, अपने प्रथम अधिवेशन के लिए नियुक्त तारीख से 5 वर्ष की होती है, परन्तु इस कालावधि को, जब तक आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है, संसद कानून द्वारा किसी कालावधि के लिए बढ़ा सकती है, जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं हो सकती और किसी अवस्था में भी उद्घोषणा के प्रवर्तन का अंत हो जाने के पश्चात छह मास की कालावधि से अधिक समय के लिए नहीं बढ़ायी जा सकती।
राज्य की मंत्रिपरिषद विधानसभा के प्रति ही सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है, अर्थात् वह उसी समय तक रह सकती है जब तक कि विधानसभा के सदस्यों के बहुमत का उसमें विश्वास बना रहता है। कोई भी विधेयक विधानसभा में पास होने के उपरान्त राज्यपाल के पास जाता है तथा राज्यपाल के अनुमोदन के बाद ही कोई बिल कानून का रूप लेता है। राज्य विधानसभा राज्य का आकस्मिक कोष स्थापित कर सकती है।
प्रश्न 4. (a) : दबाव समूह क्या है ? इनके उद्देश्य एवं प्रकार बताएं।
उत्तर : दबाव समूह उन लोगों का समूह होता है, जो कि सक्रिय उत्तर : ‘दबाव समूह’ शब्द का उद्भव संयुक्त राज्य अमेरिका से रूप से संगठित हैं, अपने हितों को बढ़ावा देते हैं और उनकी प्रतिरक्षा करते हैं। यह सरकार पर दबाव बनाकर लोकनीति को बदलने की कोशिश करता है। ये सरकार और उसके सदस्यों के बीच संपर्क का काम करते हैं। इन दबाव समूहों को हितैषी समूह या हितार्थ समूह भी कहा जाता है। ये राजनीतिक दलों से भिन्न होते हैं। ये न तो चुनाव में भाग लेते हैं और न ही राजनीतिक शक्तियों को हथियाने की कोशिश करते हैं। ये कुछ खास कार्यक्रमों और मुद्दों से संबंधि त होते हैं और इनकी इच्छा सरकार में प्रभाव बनाकर अपने सदस्यों की रक्षा और हितों को बढ़ाना होता है।
दबाव समूह विधिक और तर्कसंगत तरीकों द्वारा सरकार की नीति निर्माण और नीति निर्धारण को प्रभावित करते हैं, जैसे – सभाएं करना, पत्राचार, जनप्रचार, प्रचार व्यवस्था करना, अनुरोध करना, जन वाद-विवाद, अपने विधायकों से संबंधों को बनाकर रखना आदि। हालांकि ये कभी-कभी लोकहितों और प्रशासनिक एकता को नष्ट करने वाले तर्कसंगत और गैर-विधिक तरीकों का आश्रय लेते हैं, जैसे कि हड़ताल और हिंसक गतिविधियों और भ्रष्टाचार आदि।
ओडिगाड के अनुसार, दबाव-समूह अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तीन तकनीकों का सहारा लेते हैं- पहला, ये लोक कार्यालयों में उन कर्मचारियों की नियुक्तियों की कोशिश करते हैं जो कि इनके हितों का पक्ष लें। इस तकनीक को नियुक्तिकरण भी कहा जाता है। द्वितीय, वे अपने लिए हितकारी उन नीतियों को स्वीकार करने के लिए लोकसेवकों को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं, चाहे वे प्रारंभ में इनके पक्षधर हो या विरोधी । इस तकनीक को ‘लॉबिंग’ कहते हैं। तृतीय, वे जनता की राय को प्रभावित करने का प्रयास करते हैं और सरकार पर इसके परिणामस्वरूप पड़ने वाले परोक्ष प्रभाव का लाभ उठाते हैं। चूंकि सरकार जनतांत्रिक होती है और जनता की राय से पूर्ण प्रभावित रहती है। इसे प्रचार व्यवस्था भी कहते हैं।
भारत में दबाव समूह के प्रकार व्यवसाय समूह – फिक्की, एसोचैम, व्यापार संघ – AITUC, INTUC, खेतिहर समूह – ऑल – इंडिया किसान सभा, पेशेवर समितियां – IMA, BCI, छात्र संगठन – ABUP, NSUI, धार्मिक संगठन RSS, VHP, SGPC, जातीय समूह – हरिजन सेवक संघ, आदिवासी संगठन – पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी, मणिपुर, भाषागत समूह तमिल संघ, नागरी प्रचारिणी सभा, विचारधारा आधारित समूह नर्मदा बचाओ, चिपको आंदोलन, विलोम समूह JKLF, नक्सली समूह, ULFA
प्रश्न 4. (b) : भारतीय संविधान का उद्देश्य वास्तव में एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है। विवेचना करें। 
उत्तर : भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान निर्माण करते हुए यह कल्पना की थी कि भारत का संविधान भारतीय नागरिकों के लिए कल्याणकारी होगा तथा इनके सर्वागीण विकास की आवश्यक परिस्थितियों का निर्माण करेगा। भारतीय संविधान में नीति निदेशक सिद्धांतों का उद्देश्य ही कल्याणकारी राज्य स्थापित करना है। सामूहिक रूप से यह सिद्धांत भारत में आर्थिक एवं सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना करते हैं । वास्तव में संविधान की प्रस्तावना में जिन आदर्शों की प्राप्ति भारतीय राज्य का लक्ष्य है, ये उन आदर्शों की गणना है।
संविधान देश में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक न्याय की स्थापना का उद्देश्य रखता है, ताकि सर्वसाधारण का कल्याण हो सके। साथ ही संविधान के विभिन्न प्रावधान इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि सभी को समानता की दृष्टि से देखा जाए । संविधान द्वारा व्यक्तिक एवं सामूहिक स्वतंत्रता को लक्षित करते हुए मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है, ताकि व्यक्ति विशेष के चार्तुदिक विकास को संभव बनाया जा सके। राज्य में विभिन्न योजनाओं का क्रियान्वयन का लक्ष्य भी राष्ट्रीय विकास एवं लोक कल्याणकारी ही है। अनुच्छेद- 38 भी कहता है कि राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाये। अनुच्छेद-45 बालकों के लिए नि: शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध, आदि अनेकों अनुच्छेद स्पष्ट रूप लोक-कल्याण की चर्चा करता है ।
यही कारण है कि भारत का संविधान विश्व के सभी संविधानों में ‘ श्रेष्ठ’ माना गया है, क्योंकि संविधान का प्रत्येक प्रावधान प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से लोककल्याण की ही व्यवस्था करता है ।
प्रश्न 5 : विधि के शासन से आप क्या समझते हैं ? भारतीय संविधान में कैसे इसकी व्यवस्था की गयी है ?
उत्तर : विधि का शासन (Rule of Law) का तात्पर्य है- विधि के समक्ष समानता अर्थात् विधि के समक्ष सभी लोग समान हैं और सभी को विधि के अनुसार समान संरक्षण प्राप्त है। ब्रिटेन के प्रख्यात विधिवेत्ता व विधि के शासन के प्रतिपादक प्रो. डायसी ने विधि के शासन की तीन विशेषताओं का उल्लेख किया है- प्रथम, देश के
साधारण कानून की परमसर्वोच्चता जो प्रशासनिक अधिकारियों को कोई स्व-निर्णय अथवा स्वेच्छाकारी शक्ति प्रदान नहीं करता और जिसके अधीन किसी व्यक्ति को तब तक दंडित नहीं किया जा सकता, जब तक उसने किसी कानून का निश्चित उल्लंघन न किया हो और उसको साधारण न्यायालयों में प्रमाणित न कर दिया गया हो। द्वितीय, सभी वर्गो अर्थात् अधिकारियों और साधारण नागरिकों का देश के साधारण कानून के समक्ष समान रूप से उत्तरदायी होना। तृतीय, नागरिकों के व्यक्तिगत अधिकारों की सर्वोच्चता, जैसा कि न्यायालयों द्वारा ये अधिकार परिभाषित और लागू किये जाते हैं। डायसी के उपरोक्त विचार को हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. लावेल ने अपनी पुस्तक ‘इंग्लैण्ड की सरकार’ (Government of England) में अपनाया है और इसे संयुक्त राज्य अमेरिका में लोकप्रिय बनाया।
इंग्लैण्ड में संसदीय सर्वोच्चता को स्वीकृति प्रदान की गयी है, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय की सर्वोपरिता, व्यवहार में भारतीय न्यायपालिका को ऐसी कोई शक्ति प्राप्त नहीं है कि वह किसी कानून की औचित्यता को चुनौती दे सके, जिसे अनुच्छेद 31-32 में उचित बताया गया हो। लेकिन मेनका गांधी के मुकदमे (1978) में इस धारणा को उलट दिया गया। इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया न्यायोचित, निष्पक्ष तथा तर्कसंगत होनी चाहिए।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20-22 में विधि के शासन का वर्णन किया गया है। अनुच्छेद-20 प्रतिस्थापित करता है कि(क) कोई भी व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक दोषी नहीं ठहराया जायेगा, जब तक कि उसने अपराध करने के समय किसी प्रवृत्त विधि का उल्लंघन न किया हो; (ख) किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध हेतु न तो एक बार से अधिक दंडित किया जायेगा और उस पर न एक से अधिक आपराधिक मुकदमा ही चलाया जायेगा; और (ग) किसी अपराध में अभियुक्त को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी बनने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा। अनुच्छेद-22 के अनुसार बंदी बनाये गये व्यक्ति को बंदी बनाये जाने का कारण बताया जायेगा। बंदीकरण के 24 घंटे के भीतर उसे निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जायेगा तथा अपनी पसंद के वकील से परामर्श के अधिकार से वंचित नहीं किया जायेगा।
Section-B : लोक प्रशासन एवं सुशासन (Public Administration & Good Governance)
उत्तर 1 : वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर 
(i). (a) : लोक प्रशासन के क्षेत्र के संबंध में प्रो. एल. डी. व्हाइट द्वारा प्रतिपादित आदर्शवादी विचारधारा को लोक-कल्याणकारी विचारधारा के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इसका संबंध जनता के कल्याण से संबंधित कार्यों से लोक प्रशासन के क्षेत्र को संबद्ध करना है।
(ii). (c) : प्रशासन को दो भागों में बांटा जाता है – लोक प्रशासन और निजी प्रशासन । लोक प्रशासन शासकीय प्रशासन है, जिसमें जन-हित के कार्य किये जाते हैं, इसके अंतर्गत राज्य की सरकार द्वारा किये जाने वाले और समूची जनता से संबंध रखने वाले कार्यों को सम्पन्न किया जाता है, इसके विपरीत, निजी प्रशासन में विभिन्न व्यक्तियों, कम्पनियों, व्यापारियों, संस्थानों, निगमों द्वारा किये जाने वाले कार्य को सम्मिलित किया जाता है।
(iii).(a): मंत्रिमंडल सचिवालय के सिविल शाखा के द्वारा मंत्रिमंडल के लिए सचिवालय कार्य प्रणाली उपलब्ध करायी ज है। इसके द्वारा सचिवीय सहयोग भी प्रदान किया जाता है तथा केन्द्र सरकार के कार्य संबंधी नियमों की तैयारी की जाती है, जबकि सैनिक शाखा के द्वारा रक्षा समिति राष्ट्रीय रक्षा परिषद्, सैनिक कार्य समिति और रक्षा मामलों से जुड़ी अन्य अनेक समितियों से संबंधित सभी सचिवीय कार्य सम्पादित किए जाते हैं।
(iv).(c): राज्य प्रशासन में सचिवालय के सचिवों के पदसोपान के शीर्ष पर मुख्य सचिव होता है, जो राज्य के तमाम सचिवों में प्रधान होता है तथा उसका नियंत्रण सचिवालय के सभी विभागों पर होता है।
(v).(a) : जिलाधीश/उपायुक्त जिला चुनाव अधिकारी के रूप में अपने जिले में संसद, विधानसभा तथा स्थानीय निकायों के निर्वाचन का सुचारू रूप से संचालन करता है।
(vi).(a): प्रशिक्षण के सामूहिक प्रशिक्षण विधि के अंतर्गत प्रशिक्षणार्थियों को समूह में प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके अंतर्गत औपचारिक पाठ्यक्रम, कक्षा में विचार-विमर्श, औपचारिक रूप से भाषण, सामयिक वार्ता, प्रदर्शन, प्रयोगशाला कार्य इत्यादि माध्यम से प्रशिक्षण प्रदान किया जाता ।
(vii).(a):सर्वप्रथम ‘ब्यूरोक्रेसी’ अर्थात् ‘नौकरशाही’ शब्द का प्रयोग फ्रेंच अर्थशास्त्री बिन्सेंट डी गार्ने द्वारा 1745 ई. में किया गया और फ्रेंच अकादमी द्वारा 1798 ई. में प्रकाशित शब्दकोश में इसका अर्थ बताते हुए कहा गया- ‘शासकीय कार्यालयों के अध्यक्षों एवं कर्मचारियों की शक्ति और प्रभाव ।
(viii). (c) : पहली राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना का शुभारंभ 1 जून, 2016 को किया गया। इस योजना में आपदा से निपटने की क्षमता बढ़ाने और जानमाल की नुकसान कम करने पर मुख्य रूप से ध्यान केन्द्रित किया गया। आपदा प्रबंधन योजना समुदायों को आपदाओं से निपटने, उन्हें आपदाओं के प्रति तैयार करने, सूचना देने शिक्षा और संचार गतिविधियों की अधिक आवश्यकता पर जोर देता है।
(ix). (c) : केन्द्रीय सतर्कता आयोग केन्द्र सरकार में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए एक प्रमुख परामर्शदात्री संस्था है। सन् 1964 में केन्द्र सरकार द्वारा पारित एक प्रस्ताव के अंतर्गत संस्थानम समिति की सिफारिश पर इसका गठन हुआ था। सितम्बर, 2003 में संसद द्वारा पारित एक विधि द्वारा इसे सांविधिक दर्जा दिया गया है।
(x). (b) :‘एमनेस्टी इंटरनेशनल’ एक विश्वव्यापी मानवाधिकार संस्था है, जिसकी कई देशों में शाखाएं हैं। इसे संयुक्त राष्ट्र में ‘परामर्शदात्री स्थिति’ प्राप्त है। यह सम्पूर्ण दुनिया में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघनों के बारे में अपनी वार्षिक रिपोर्ट देता है।
प्रश्न 2 : लोक प्रशासन के क्षेत्र संबंधी विभिन्न विचारधारा या दृष्टिकोण का संक्षिप्त विवरण दें।
उत्तर : लोक प्रशासन एक विकास उन्मुख विषय है तथा इसकी प्रकृति मूल्य सम्बद्ध एवं पर्यावरण है। ऐसी स्थिति में लोक प्रशासन के क्षेत्र को लेकर भी मतभेद उत्पन्न होता है। लोक प्रशासन के क्षेत्र के सम्बन्ध में निम्न चार प्रकार की विचारधाराएं प्रतिपादित हैं—
1. संकुचित विचारधारा (Narrow Ideology ) : लूथर गुलिक, वुडरो विल्सन तथा हर्बर्ट ए, साइमन के द्वारा लोक प्रशासन के क्षेत्र संबंधित प्रस्तुत विचारों को संकुचित विचारधारा कहा जाता है। इन विद्वानों का मानना है कि लोक प्रशासन के क्षेत्र के अन्तर्गत सरकार की तीन अंगों में केवल एक अंग ‘कार्यपालिका का अध्ययन’ (Study of Executive) किया जाता है। इनका मानना है कि लोक प्रशासन के अन्तर्गत कार्यपालिका शाखा की संरचना, कार्य तथा उसी से संबद्ध प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। चूंकि इन विद्वानों ने लोक प्रशासन के क्षेत्र को सरकार के सभी अंग एवं उनकी प्रक्रियाओं से सम्बद्ध नहीं किया है इसलिए इनके दृष्टिकोण को संकुचित या सीमित विचारधारा कहा जाता है।
2. पोस्डकोर्ब विचारधारा (POSDCORB Ideology) : लोक प्रशासन के क्षेत्र के सम्बन्ध में लूथर गुलिक द्वारा प्रतिपादित पोस्डकोर्ब विचारधारा का भी महत्व है। लूथर गुलिक के इस विचारधारा का लैण्डल उर्विक (L. Uriwick) तथा हेनरी फेयोल (Henry Fayol) ने भी समर्थन किया है। पोस्डकोर्ब के इन विद्वानों ने प्रशासनिक प्रक्रियाओं को समाहित किया है तथा इस बात पर जोर दिया है कि लोक प्रशासन में इन्हीं ‘प्रशासनिक प्रक्रियाओं का अध्ययन (Study of Administrative Process) होता है। वस्तुतः पोस्डकोर्ब (POSDCORB) अंग्रेजी के सात बड़े अक्षरों को मिलाकर बनाया गया है, जो निम्नांकित हैं
P = Planning (नियोजन करना )
O = Organising ( संगठन बनाना) )
S = Staffing (कार्मिकों की नियुक्ति
D=Directing (निर्देशन)
Co = Co-ordinating (समन्वय करना)
R = Reporting (प्रतिवेदन देना)
B = Budgeting ( बजट बनाना)
लूथर गुलिक तथा पोस्डकोर्ब के अन्य विद्वानों ने इस बात पर जोर दिया है कि लोक प्रशासन के अन्तर्गत नियोजन, संगठन, कर्मचारी नियुक्ति, निर्देशन, समन्वय, प्रतिवेदन तथा प्रक्रियाओं का अध्ययन होता है।
3. व्यापक विचारधारा (Wider Ideology) : लोक प्रशासन के क्षेत्र के सम्बन्ध में विलोबी तथा अन्य विद्वानों द्वारा समर्थित विचारधारा को व्यापक विचारधारा कहा जाता है। इस विचारधारा का मानना है कि लोक प्रशासन के क्षेत्र के अन्तर्गत सरकार के
तीनों अंगों का अध्ययन (Study of three organ of Government) होता है। चूंकि इस विचारधारा ने लोक प्रशासन के क्षेत्र को व्यापक रूप में लिया है, इसलिए इसका नामकरण व्यापक विचारधारा कर दिया गया है। व्यापक विचारधारा की बात माने तो लोक प्रशासन के अन्तर्गत न केवल कार्यपालिका से सम्बन्धित प्रक्रियाओं या व्यवस्थाओं का अध्ययन किया जाता है, बल्कि विधायिका और न्यायपालिका से सम्बन्धित सभी प्रकार की प्रक्रियाओं या व्यवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है। विलोबी का कहना भी है कि सीमित अर्थ में भले ही लोक प्रशासन सरकार के कार्यपालिका शाखा से सम्बन्धित है, परन्तु व्यापक अर्थ में तो इसके अन्तर्गत सरकार के तीनों अंगों को समाहित किया जाता है ।
4. आदर्शवादी विचारधारा (Idealistic Ideology) : लोक प्रशासन के क्षेत्र के सम्बन्ध में प्रो. एल. डी. व्हाइट द्वारा प्रतिपादित एवं समर्थित विचारधारा को आदर्शवादी विचारधारा कहा जाता है । इस विचारधारा को लोक-कल्याणकारी विचारधारा के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि इसका सम्बन्ध जनता के कल्याण (Welfare of People) से सम्बन्धित कार्यों से लोक प्रशासन के क्षेत्र को संबद्ध करना है। इस विचारधारा के अनुसार जनता के कल्याण जितने भी कार्य को सम्पादित किया जाये, सभी को लोक प्रशासन के अन्तर्गत अध्ययन का विषय बनाया जा सकता है। चूंकि जनता के तमाम इच्छाओं की पूर्ति करना एक आदर्श है, इसलिए इस विचारधारा को आदर्शवादी विचारधारा भी कहा जाता है ।
लोक प्रशासन के क्षेत्र के संबंध में उपर्युक्त प्रतिपादित चारों विचारधाराओं में कुछ-न-कुछ कमियां हैं। जहां तक सीमित ( संकुचित) विचारधारा का सवाल है तो लोक प्रशासन के क्षेत्र को सरकार के केवल एक अंग से संबद्ध करके इसे बहुत ही संकुचित कर दिया है, जो ठीक नहीं है। यहां दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि लोक प्रशासन की कार्य एवं प्रक्रिया सरकार के अन्य अंगों से भी प्रभावित होती है। इसलिए संकुचित विचारधारा को सही नहीं माना जा सकता है। पोस्डकोर्ब विचारधारा को लोक प्रशासन तथा निजी प्रशासन दोनों में ही समान रूप से महत्व दिया जाता है। ऐसी स्थिति में पोस्डकोर्ब विचारधारा पर अमल करना सही नहीं है । तुलनात्मक रूप में व्यापक विचारधारा को भले ही सही माना जाए, परन्तु लोक प्रशासन के क्षेत्र को सरकार के तीनों अंगों से समान रूप में संबद्ध करना उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे लोक प्रशासन के क्षेत्र के अन्तर्गत उलझनों का जन्म होगा। लोक प्रशासन के क्षेत्र से संबंधित आदर्शवादी या लोक कल्याणकारी विचारधारा भी आलोचनाओं से परे नहीं है। लोक प्रशसन के क्षेत्र से संबंधित विचारधाराओं के समीक्षाओं के वर्णन के बाद निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि इसमें व्यापक विचारधारा ही तुलनात्मक रूप में सही है लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि हम उसे भी संशोधित रूप में स्वीकार करें।
प्रश्न 3: केन्द्रीय सचिवालय के प्रमुख कार्यों की विवेचना करें ।
उत्तर : केन्द्रीय सचिवायल से आशय उन विभागों अथवा मंत्रालयों के समूह से है, जिनके प्रशासनिक अध्यक्ष सचिव तथा राजनीतिक अध्यक्ष मंत्री होते हैं। सचिवालय के नीचे उन एजेंसियों का संजाल होता है, जो सरकारी नीतियों के कार्यान्वयन हेतु उत्तरदायी होती है।
> केन्द्रीय सचिवालय का अर्थ
भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में केन्द्रीय सचिवालय अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। सचिवालय विभिन्न मंत्रालयों/विभागों का समूह होता है।
सचिवालय तब तक क्रियान्वित नहीं होता जब तक कि इन्हें पूर्ण करने हेतु सरकारी अभिकरणों की कमी के कारण ऐसा करना आवश्यक न हो जाए। साधारणतः मंत्रिपरिषद की ही भांति सचिवालय एक पृथक एकक के रूप में कार्य करता है तथा उसके उत्तरदायित्व सामूहिक होते हैं। वर्तमान सचिवालयी नियमों के अनुसार, सचिवालय के प्रत्येक विभाग को किसी मामले का निपटान करने से पूर्व उस मामले में सम्बद्ध अथवा उसमें रुचि लेने वाले किसी दूसरे भाग से परामर्श लेना पड़ता है। इस प्रकार, सचिव किसी विशिष्ट मंत्री के सचिव न होकर संघ सरकार के सचिव होते हैं।
> केन्द्रीय सचिवालय के कार्य
भारत की केन्द्रीय सचिवालय व्यवस्था प्रमुख रूप से निम्नलिखित दो सिद्धांतों पर आधारित हैं
1. नीति-निर्माण संबंधी कार्य को नीति कार्यान्वयन के कार्य से पृथक रखना आवश्यक है।
2. सचिवालय व्यवस्था के कार्य संचालन की प्रथम शर्त है, अवधि प्रणाली के अधीन कार्य करने वाले अधिकारियों का संवर्ग बनाए रखना।
केन्द्रीय सचिवालय का सर्वप्रमुख कार्य नीतियों का निर्माण करना है। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि, कुछ कार्यों को सचिवालय तब तक क्रियान्वित नहीं करेगा जब तक कि इन्हें पूर्ण करने हेतु सरकारी अभिकरणों की कमी के कारण ऐसा करना आवश्यक न हो जाए। साधारणतः केन्द्रीय सचिवालय द्वारा प्रमुख रूप से निम्नलिखित कार्य सम्पन्न किए जाते हैं.
1. सचिवालय संसदीय कार्यो एवं नीति-निर्माण संबंधी कार्यों में मंत्रियों की सहायता करते हैं। मंत्रिगण पर्याप्त आधार सामग्री, पूर्व उदाहरण एवं दूसरी प्रासंगिक सूचनाओं के आधार पर उन नीतियों को अंतिम रूप प्रदान करते हैं।
2. सचिवालय विधानमंडल में प्रस्तुत करने हेतु विधायी प्रारूप तैयार करके मंत्रियों की उनके विधायी कार्यों में सहायता पहुंचाते हैं।
3. ये संसदीय प्रश्नों के उत्तर देने तथा विभिन्न संसदीय समितियों  के लिए प्रासंगिक सूचनाएं भी एकत्रित करता है।
4. सचिवालय एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाते हुए किसी समस्या की विस्तृत छानबीन करता है। इस कार्य में आवश्यकता पड़ने पर वह दूसरे अन्य पार्श्विक अभिकरणों, जैसे विधि अथवा वित्त मंत्रालय, का अनुमोदन भी प्राप्त करता है। इसके साथ ही वह
किसी विशिष्ट मामले में संबंधित अन्य संगठनों के साथ भी परामर्श करता है। सरकारी निर्णयों से संबंधित प्रारम्भिक कार्यवाही सचिवायल में ही हो सकती है।
5. एक सरकार एवं दूसरे सम्बद्ध अभिकरणों, जैसे- योजना आयोग (नीति आयोग), वित्त आयोग, इत्यादि के मध्य संप्रेषण का माध्यम सचिवालय ही होता है। ,
6. सचिवालय यह सुनिश्चित भी करता है कि क्षेत्र अधिकारी सरकार की नीतियों एवं निर्माण को दक्षता एवं मितव्ययिता के साथ क्रियान्वित करें।
इनके अतिरिक्त सचिवालय द्वारा निम्नलिखित कार्य भी किए जाते हैं
(i) मंत्रालय अथवा विभाग का बजट बनाना तथा व्यय पर नियंत्रण रखना।
(ii) संचालित किए जाने वाले कार्यों एवं कार्यक्रमों का वित्तीय एवं प्रशासनिक अनुमोदन प्राप्त करना।
(iii) कार्यपालक विभागों अथवा अर्द्ध-स्वायत्त क्षेत्र के अभिकरणों की नीतियों के निष्पादन का निरीक्षण एवं नियंत्रण करना।
(iv) मंत्रालय/विभाग एवं उनके अभिकरणों में अधिक से अधिक कार्मिकों एवं संगठनों में क्षमता विकसित करने हेतु कदम उठाना।
(v) केन्द्रीय स्तर पर समन्वय बढ़ाने में सहायता देना।
प्रश्न 4 : राज्य प्रशासन में मुख्य सचिव की भूमिका केन्द्रीय स्तर की होती है। इस कथन के संदर्भ में मुख्य सचिव की भूमिका का वर्णन करें।
उत्तर : राज्य प्रशासन में सचिवालय के सचिवों के पद सोपान के शीर्ष पर मुख्य सचिव होता है, जो राज्य के तमाम सचिवों में प्रधान होता है तथा उसका नियंत्रण सचिवालय के सभी विभागों पर होता है। मुख्य सचिव राज्य के सामान्य प्रशासन विभाग का अध्यक्ष होता है, जिसका राजनीतिक अध्यक्ष स्वयं मुख्यमंत्री होता है। इसलिए मुख्य सचिव ही मुख्यमंत्री का प्रधान सलाहकार तथा मंत्रिमंडल का सचिव होता है, वह राज्य सरकार का मुख्य प्रवक्ता तथा जन-संपर्क अधिकारी भी होता है। वास्तव में, वह राज्य की प्रशासनिक गतिविधियों को निर्देशित करता है। उसके द्वारा विभिन्न विभागों के बीच समन्वय स्थापित करने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए जाते हैं। इस महत्वपूर्ण पद का पद – भार ग्रहण करने वाला व्यक्ति आवश्यक रूप से राज्य का वरिष्ठ लोक सेवक नहीं होता है। भारत के सभी राज्यों के मुख्य सचिवों की स्थित एक समान नहीं है। तमिलनाडु में मुख्य सचिव वरिष्ठतम लोक सेवक होता है। उत्तर प्रदेश में मुख्य सचिव राजस्व मंडल के सदस्यों से कनिष्ठ होता है। पंजाब में भी मुख्य सचिव वित्त आयुक्त से कनिष्ठ होता है। 1973 से मुख्य सचिव के पद का मानकीकरण कर दिया गया है तथा इस पद को पाने वाला व्यक्ति भारत सरकार के सचिव के बराबर की श्रेणी का होता है तथा उसी के बराबर वेतन प्राप्त करता है। अतः मुख्य सचिव के स्तर को सामान्य स्तर वालों में प्रथम के बराबर किया गया है। मुख्य सचिव की नियुक्ति में वरिष्ठता का विचार तो महत्वपूर्ण होता ही है तथापि सेवा अभिलेख, कार्य निष्पादन की योग्यता तथा मुख्यमंत्री की उसमें पूर्ण आस्था एवं निर्भरता की भी उसके चयन में प्रभावी भूमिका होती है। विभिन्न राज्यों में मुख्य सचिवों के चयन से यह स्पष्ट होता है कि सामान्यतया मुख्यमंत्री अपनी पंसद के व्यक्ति को ही मुख्य सचिव के पद पर नियुक्ति करता है। प्रशासनिक सुधार आयोग का मत है कि मुख्य सचिव का चयन बहुत ही सावधानी से किया जाना चाहिए, वह एक वरिष्ठतम प्रभावी व्यक्ति होना चाहिए।
राज्य प्रशासन के अंतर्गत मुख्य सचिव की भूमिका : राज्य सरकार की पदसोपान व्यवस्था के अंतर्गत मुख्य सचिव का पद सर्वाधिक महत्वपूर्ण पद है। इसके विषय में यह माना जाता है कि, ” मुख्य सचिव एक ऐसा स्रोत है जिसके माध्यम से सरकारी आदेश उसके अधिकारियों तक पहुंचते हैं। अधिकांश जिला अधिकारियों हेतु वही सरकार है। ” राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था के अंतर्गत उसकी भूमिका स्वयं उसके नेतृत्व संबंधी गुणों एवं उसकी कार्यकुशलता पर निर्भर करती है। कई बार यह आशंका भी व्यक्त की जाती है कि भविष्य में शायद ही किसी मुख्य सचिव की नियुक्ति प्रशासनिक स्तर पर की जाए तथा वह अपना कार्य स्वतन्त्रतापूर्वक, निष्पक्षतापूर्वक एवं निडरतापूर्वक संपन्न कर सके। प्रशासनिक सुधार आयोग के अध्ययन दल ने राज्य के प्रशासन संबंधी अपने प्रतिवेदन में यह सुझाव प्रेषित किया है कि मुख्य सचिव के पद को अधिक शक्तिशाली बनाया जाना आवश्यक है, क्योंकि मुख्य सचिव को मुख्यमंत्री के अधीन मुख्य समन्वयक के रूप में कार्य करना होता है। मुख्य सचिव के पद को प्रभावशाली बनाने हेतु राज्य के सबसे वरिष्ठ अधिकारियों की सूची में से सर्वाधिक वरिष्ठ व्यक्ति को ही मुख्य सचिव के पद पर असीन किया जाना चाहिए; उसके कार्यकाल की अवधि लंबी होनी चाहिए ताकि वह प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य कर सके। वस्तुतः इन्हीं संपर्कों के माध्यम से वह राज्य की समस्याओं के संबंध में उपयोगी जानकारी प्राप्त करता है।
राज्य की प्रशासनिक प्रणाली के अंतर्गत इसके विशद् कार्यो एवं उत्तरदायित्वों को दृष्टिगत रखते हुए यह उचित ही होगा कि वह कुछ विशेष प्रकार के महत्वपूर्ण मामले ही अपने पास रखे तथा कम महत्वपूर्ण मामलों में अधिक हस्तक्षेप न करे। दूसरे शब्दों में, मुख्य सचिव की सफलता इस तथ्य पर निर्भर करती है कि राज्य की लोक सेवा में उसे अपने अधिकारियों का कितना विश्वास एवं आदर प्राप्त है तथा केन्द्र में उसका कितना प्रभाव है ?
प्रश्न 5 : प्रशिक्षण क्या है ? प्रशिक्षण के उद्देश्य तथा भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में प्रशिक्षण के महत्व का वर्णन करें। 
उत्तर : प्रशिक्षण कर्मचारियों की कुशलता, आदतों, ज्ञान तथा दृष्टिकोण विकसित करने की एक ऐसी व्यवस्थित प्रक्रिया है, जिससे उनकी वर्तमान सरकारी स्थितियों की प्रभावशीलता में वृद्धि होती है तथा वे भावी स्थितियों का सामना करने में सक्षम होते हैं। वर्तमान समय में प्रशिक्षण की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो गयी है, क्योंकि सरकारी अधिकारी अपने दायित्वों के निर्वहन की प्रक्रिया में चुनौतीपूर्ण समस्याओं का सामना कर रहे हैं।
प्रशिक्षण से लोक कर्मचारियों में प्रवीणता आती है तथा वह विधि के संबंध में परिचित होता है। इससे लोक कर्मचारियों का दृष्टिकोण व्यापक बनता है तथा उनमें सामाजिक समस्याओं को मनोवैज्ञानिक ढंग से हल करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। प्रशिक्षण द्वारा कर्मचारी में कुशलता, दक्षता, प्रवीणता, स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता तथा विशिष्टीकरण जैसे गुण उत्पन्न किये जाते हैं। प्रशिक्षण द्वारा कर्मचारियों में आत्म-निर्भरता की भावना उत्पन्न होती है। जब एक अधिकारी की बुद्धि, कुशलता, ज्ञान एवं दृष्टिकोण को एक निश्चित दिशा में सशक्त बनाने का प्रयास किया जाता है, तो वह प्रशिक्षण कहलाता है।
हर्बट ए. साइमन विकासशील देशों की सरकारी सेवाओं में प्रशिक्षण की अनिवार्यता के लिए निम्न कारकों का उल्लेख करते हैं
(i) तेजी से परिवर्तित होती परिस्थितियों एवं चुनौतीपूर्ण कार्यों का सामना करने के निमित प्रशासन
को दक्ष बनाने की आवश्यकता,
(ii) सरकार के कार्यों एवं दायित्वों में तीव्र गुणन (Rapid Multiplication) एवं
(iii) विकासशील देशों में दक्ष मानव संसाधनों की
अत्यधिक कमी। साधारण शब्दों में, प्रशिक्षण जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया है। बाल्यावस्था में व्यक्ति के जीवन में उसे औपचारिक रूप से और अनजाने में ही प्रशिक्षित किया जाता है। किन्तु लोक प्रशासन के संदर्भ में सीमित एवं विशेषीकृत रूप में लोक कर्मचारियों का प्रशिक्षण एक पहले से सोच-विचारकर किया गया प्रयास है, जिसका सर्वप्रमुख उद्देश्य लोक कर्मचारियों की कार्य कुशलता एवं क्षमता में अभिवृद्धि करना है।
प्रशिक्षण के उद्देश्य प्रशिक्षण का मूलभूत उद्देश्य दक्षता है। इसका तात्पर्य है कि प्रशासन के हित में अधिकारी के कार्य को अधिक प्रभावपूर्ण बनाना ही प्रशिक्षण का सर्वप्रमुख उद्देश्य है। प्रशिक्षण के माध्यम से ही कार्मिक में स्वयं को संस्था का एक अनिवार्य अंग समझने की क्षमता आती है। प्रशिक्षण ही यह मुख्य कारक है, जो कि कार्मिकों के भीतर यह भाव जागृत करने में महत्वपूर्ण ढंग से सहायक होता है कि जो कुछ भी वे करते हैं, यह लोक कल्याण हेतु की जाने वाली बड़ी सेवा का एक अभिन्न एवं मुख्य अंग है तो उसे अपना कार्य अधिक मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण लगने लगता है। इसके उपरांत वह और अधिक परिश्रम से कार्य करता है। इस प्रकार प्रशिक्षण लोक कर्मचारियों हेतु अत्यावश्यक है। इसके विभिन्न उद्देश्यों में से प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं : –
1. प्रशिक्षण से कार्मिकों की कार्यकुशलता में प्रभावी सुधार आता है।
2. प्रशिक्षण से कार्मिकों की दक्षता एवं ज्ञान में वृद्धि होती है। इससे वे अपने कार्य को अधिक प्रभावी ढंग से सम्पादित कर सकने में सक्षम होते हैं।
3 प्रशिक्षण कार्मिकों को संगठन के लक्ष्यों एवं तकनीकों में लगातार होने वाले परिवर्तनों के अनुकूल बनाता है।
4. प्रशिक्षण कार्मिकों को उनके क्षेत्र विशेष में होने वाले नवीनतम विकास एवं प्रगति के संदर्भ में आवश्यक जानकारी प्रदान कर उनके ज्ञान को अद्यतन रखता है।
5. प्रशिक्षण कार्मिकों में इस बुनियादी सिद्धांत की, कि वे जनता के स्वामी न होकर सेवक हैं, का संचार करके उन्हें लोकोन्मुखी बनाता है।
6. प्रशिक्षण से कार्मिकों की निष्ठा, दक्षता एवं मनोबल में अभिवृद्धि होती है। प्रशिक्षण की प्रक्रिया के अस्तित्व मात्र से ही कार्मिकों में अपने कार्य एवं कार्यालय में सम्मान एवं गौरव की भावना व्याप्त हो जाती है।
7. कोई भी नया कार्मिक प्रशिक्षण के माध्यम से ही संगठन में प्रवेश करता है। प्रशिक्षण से ही उसे संगठनात्मक लक्ष्यों, उद्देश्यों, संगठन में उनकी स्वयं की भूमिका एवं उनके कार्यों के निर्वहन् की तकनीकों में एवं पद्धतियों की सही जानकारी प्राप्त होती है।
8. प्रशिक्षण से कर्मचारी उच्च पदों एवं विशिष्ट उत्तरदायित्वों को वहन करने के योग्य बनते हैं।
9. सरकारी सेवाओं में नए भर्ती हुए अभ्यर्थियों में जो कमियां अथवा दोष विद्यमान होते हैं, वे प्रशिक्षण से दूर हो जाते हैं, अर्थात् सेवा में भर्ती हुए नए व्यक्तियों को प्रशासनिक कार्यों को सम्पादित कर सकने के योग्य बनाने एवं उन्हें वांछित दिशा में ढालने हेतु आवश्यक प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है।
10. प्रशिक्षण से कार्मियों में सामुदायिक सेवा एवं अपनेपन की भावना का विकास होता है। वे स्वयं को संगठन एवं समुदाय का अनिवार्य अंग मानने लगते हैं। इससे कार्मिकों के अपने स्वयं के कार्य में गौरव एवं आत्म-संतुष्टि की प्राप्ति होती है।
प्रशिक्षण का महत्व : प्रशिक्षण आधुनिक कार्मिक प्रशासन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। आधुनिक समय में विश्व के लगभग सभी देश लोक कल्याणकारी बन गए हैं जिससे सरकार के कार्यों में वृद्धि और विस्तार हुआ है। इसके अतिरिक्त प्रशासन भी अत्यधिक जटिल, विशेषीकृत एवं तकनीकी बन गया है। अतः विश्व की लगभग सभी सरकारों का विचार है कि प्रशासन को और अधिक लोक कल्याणकारी एवं लोकोन्मुख बनाने हेतु तथा उसे और अधिक अद्यतन एवं दक्ष बनाने उनके कार्मिकों को उपयुक्त एवं प्रभावी बना देना आवश्यक है।
अर्हता पद्धति पर आधारित भर्ती की नीतियों एवं कार्यक्रमों के माध्यम से लोक सेवाओं में सर्वोत्तम योग्यता प्राप्त एवं सक्षम व्यक्तियों का चयन करने का प्रयास किया जाता है। चयन किए गए अधिकांश अभ्यर्थी यद्यपि शिक्षित एवं डिग्री अथवा डिप्लोमाधारक होते हैं तथापि विश्वविद्यालय की डिग्री अथवा डिप्लोमा अभ्यर्थी को श्रेष्ठ प्रशासक बनाने हेतु पर्याप्त नहीं होते। उनके लिए प्रशासनिक कार्यों का व्यावहारिक ज्ञान होना आवश्यक है, जो कि प्रशिक्षण के माध्यम से ही प्रदान किया जा सकता है। प्रशिक्षण से ही कार्मिक की कार्य कुशलता एवं दक्षता में सुधार आता है, जिसके परिणामस्वरूप वे नवीन प्रशासनिक कार्यों के उत्तरदायित्व को वहन कर सकने के योग्य बनते हैं।
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