JPSC मॉडल प्रश्न-पत्र विषय : इतिहास एवं भूगोल

JPSC मॉडल प्रश्न-पत्र विषय : इतिहास एवं भूगोल

Model Question-Paper
|Subject : History & Geography
इतिहास (History)
सामान्य निर्देश : प्रश्न संख्या 1 का उत्तर अनिवार्य है जिसमें 2 अंक के प्रत्येक वस्तुनिष्ठ प्रश्न हैं। परीक्षार्थी 4 दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों में से किन्हीं 2 का उत्तर दें। प्रत्येक प्रश्न 40 अंक के हैं।
Instruction : The answer of Question No. 1 is compulsory having 2 marks for each question. The candidate is required to answer two long type questions out of four questions. Each carrying 40 marks.
1. निम्नांकित बहुवैकल्पिक प्रश्नों का सही उत्तर विकल्प में से दें।
(i). गुप्त काल में भारत का सर्वाधिक व्यापार सम्पर्क था :
(a) रोमन साम्राज्य के साथ
(b) मध्य एशिया के साथ
(c) दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ
(d) चीन के साथ
(ii). भारत में निम्नलिखित के आने का सही कालानुक्रम क्या है ?
1. सोने के सिक्के
2. आहत मुद्रा (चांदी के सिक्के)
3. लोहे का हल
4. नागर – संस्कृति
नीचे दिये गये कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिए :
(a) 3, 4, 1, 2
(b) 3, 4, 2, 1
(c) 4, 3, 1, 2
(d) 4, 3, 2, 1
(iii). अशोक के जो प्रमुख शिलालेख संगम राज्य के विषय में हमें बताते हैं, उनमें सम्मिलित हैं :
(a) I और X वां शिलालेख
(b) I और XI वां शिलालेख
(c) II और XIII वां शिलालेख
(d) II और XIV वां शिलालेख
(iv). भक्ति आंदोलन को प्रारंभ किया गया था:
(a) तुलसीदास द्वारा
(b) सूफी संतों द्वारा
(c) सूरदास द्वारा
(d) अलवार संतों द्वारा
(v) निम्नलिखित में से कौन-सा एक ‘पंचशील’ का सिद्धांत नहीं है ?
(a) शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व
(b) गुटनिरपेक्षता
(c) एक-दूसरे की भू-भागीय अखंडता और प्रभुत्व का पारस्परिक सम्मान
(d) एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में पारस्परिक अहस्तक्षेप
(vi). महात्मा गांधी द्वारा चलाया गया प्रथम जन-आंदोलन था :
(a) भारत छोड़ो आंदोलन
(b) नमक आंदोलन
(c) असहयोग आंदोलन
(d) नील आंदोलन
(vii). ब्रह्म समाज किस सिद्धांत पर आधारित है ?
(a) एकेश्वरवाद
(b) बहु – ईश्वरवाद
(c) अनीश्वरवाद
(d) अद्वैतवाद
(viii). बिरसा द्वारा 1899 ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने का निर्णय कहां लिया गया था ?
(a) डुंबारू बुरू में
(b) सुल्तानगंज में
(c) भगनाडीह में
(d) इनमें से कोई नहीं
(ix). नागपुरी भाषा को किस राजवंश की मातृभाषा होने का गौरव प्राप्त है ?
(a) सिंगदेव
(b) नागवंशी
(c) शाहदेव
(d) सिंहलदेव
(x). इनमें से किसे नागपुरी भाषा का प्रथम ज्ञात कवि माना जाता है ?
(a) विनोद कवि
(b) निरंजन महतो
(c) रघुनाथ नृपति
(d) श्रीनिवास पानुरी
2. अशोक के धम्म का स्वरूप एवं उद्देश्य की समीक्षा कीजिए ।
3. मुगलकालीन वास्तुकला तथा चित्रकला की मुख्य विशेषताओं को समझाइए ।
4. (a) असहयोग आन्दोलन पर निबंध लिखिए।
(b) सविनय अवज्ञा आन्दोलन पर प्रकाश डालिए।
5. (a) राष्ट्रीय आन्दोलन में बिरसा मुंडा के योगदान का मूल्यांकन कीजिए ।
(b) जतरा भगत के बारे में आप क्या जानते हैं?
भूगोल (Geography)
Instruction सामान्य निर्देश : प्रश्न संख्या 1 का उत्तर अनिवार्य है जिसमें 2 अंक के प्रत्येक वस्तुनिष्ठ प्रश्न हैं। परीक्षार्थी 4 दीर्घ उत्तरीय प्रश्नों में से किन्हीं 2 का उत्तर दें। प्रत्येक प्रश्न 40 अंक के हैं। :
The answer of Question No. 1 is compulsory having 2 marks for each question. The candidate is required to answer two long type questions out of four questions. Each carrying 40 marks.
1. निम्नांकित बहुवैकल्पिक प्रश्नों का सही उत्तर विकल्प में से दें।
(i). कोपेन के जलवायु विभाजन के अनुसार भारतवर्ष के मध्यवर्ती भाग की जलवायु है:
(a) AW
(b) BW
(c) Cwg
(d) DFc
(ii). वायुमंडल का संगठन :
(a) एक स्थान से दूसरे स्थान पर बदलता रहता है
(b) यह निचले स्तरों में अन्य स्तरों की तुलना में स्थिर है
(c) मौसमों के साथ बदलता है
(d) ऊंचाई के साथ बदलता है
(iii). बरखान का निर्माण निम्नलिखित में से किससे संबंधित है ?
(a) नदी
(b) हिमनदी
(c) भौमजल
(d) पवन
(iv). वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत है:
(a) 20.24%
(b) 21.67%
(c) 25.78%
(d) 31.2%
(v). भारत में पहला जनसंख्या वृद्धि का दशकीय वर्ष कौन-सा है ?
(a) 1941-51
(b) 1951-61
(d) 1971-71
(d) 1971-81
(vi). जलोढ़ मृदा भारत के कुल क्षेत्रफल को कितने प्रतिशत भाग में फैली हुई है ?
(a) 7.68%
(b) 22.16%
(c) 30%
(d) 36.8%
(vii). भारत में प्रथम ऊनी वस्त्र मिल की स्थापना कहां हुई ?
(a) कानपुर
(b) बेंगलुरू
(c) मुंबई
(d) श्रीनगर
(viii). वृहत् ज्वार-भाटा तब पैदा होता है, जब :
(a) सूर्य, चन्द्रमा तथा पृथ्वी एक ही रेखा में हों
(b) तटरेखा दंतुरित हो
(c) सूर्य एवं चन्द्रमा पृथ्वी पर समकोण बनाते हों
(d) इनमें से कोई नहीं
(ix). हरित क्रांति के फलस्वरूप देश में कुल खाद्यान्न में निम्नलिखित में से किसका अंश कम हो गया है ?
(a) गेहूं
(b) चावल
(c) दलहन व मोटा अनाज
(d) इनमें से कोई नहीं
(x) उष्णकटिबंधीय वर्षा से उगे वन को कहते हैं:
(a) लियाना
(b) सेल्वा
(c) सवाना
(d) लानोस
2. कार्स्ट प्रदेश में विकसित होने वाली स्थलाकृतियों का वर्णन करें।
3. भारत में पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की मिट्टी का वर्णन करें।
4. राष्ट्रीय जलमार्ग परिवहन का परिचय देते हुए अभी तक के घोषित सभी जलमार्गों का ब्योरा प्रस्तुत करें।
5. निम्नांकित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें :
(a). झारखंड क्षेत्र के भौतिक स्वरूप का विभाजन ।
(b). झारखंड प्रदेश में नगरीय विकास।
व्याख्या एवं आदर्श उत्तर (Model Answer)
इतिहास (History )
उत्तर 1: वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर
(i). (c) : गुप्त काल में भारत का सर्वाधिक व्यापार ताम्रलिप्ति बन्दरगाह के माध्यम से दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ होता था।
(ii). (d) : I. नागर-संस्कृति (हड़प्पा संस्कृति) : 2250-1750 ई.पू.
II लोहे का हल : 7-8वीं शताब्दी ई.पू.
III. आहत मुद्रा (चांदी के सिक्के) : 6ठी शताब्दी ई.पू.
IV. सोने के सिक्के : द्वितीय शताब्दी ई.पू.
(iii).(c) : अशोक के दूसरे तथा तेरहवें शिलालेख में पश्चिम के यवन राज्यों तथा दक्षिण के तमिल राज्यों, यथा- चेर, चोल, पाण्ड्य तथा सतियपुत्र के विषय में जानकारी मिलती है।
(iv).(d): हिन्दूधर्म के अंतर्गत उत्पन्न भक्ति आंदोलन मध्य युग के धार्मिक जीवन की एक महान विशेषता थी। भक्ति आंदोलन के प्रवर्तकों ने जाति प्रथा का विरोध किया। मूर्ति पूजा को अनावश्यक बताया और एकेश्वरवाद का समर्थन किया। भक्ति आंदोलन का विकास 7वीं और 12वीं शताब्दियों के बीच दक्षिण भारत में हुआ। शैव नयनारों और वैष्णव अलवारों ने मुक्ति के लिए ईश्वर की वैयक्तिक भक्ति पर जोर दिया। इस आंदोलन के प्रमुख प्रचारक शंकराचार्य माने जाते हैं। यह हिन्दुओं का सुधारवादी आंदोलन था।
(v).(b) : गुटनिरपेक्षता पंचशील सिद्धांत से संबंधित नहीं है। पंचशील सिद्धांत की नीति पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की देन है। गुटनिरपेक्ष नीति भारतीय विदेश नीति को 1954 के बाद से एक नयी दिशा प्रदान करती आ रही है। पंचशील सिद्धांत शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में विश्वास करता है।
(vi).(c) :असहयोग आंदोलन (1920-1922 ई.) का संचालन स्वराज की मांग को लेकर किया गया। इसका उद्देश्य सरकार के साथ सहयोग न करके कार्यवाही में बाधा उपस्थित करना था। असहयोग आंदोलन चलाए जाने का निर्णय सितम्बर, 1920 में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में कलकत्ता के विशेष अधिवेशन में लिया गया।
(vii).(a):राजा राममोहन राय ने एकेश्वरवाद में विश्वास व्यक्त करते हुए मूर्तिपूजा एवं अवतारवाद का विरोध किया। इन्होंने कर्म के सिद्धांत तथा पुनर्जन्म पर कोई निश्चित मत व्यक्त नहीं किया। इन्होंने धर्म ग्रंथों को मानवीय अंतरात्मा तथा तर्क के ऊपर नहीं माना। राजा राममोहन राय के उपदेशों का सार ‘सर्वधर्म समभाव’ था।
(viii).(a) :डुंबरू बुरू में बिरसा मुंडा ने अपने विश्वासपात्र लोगों, मंत्रियों और प्रतिनिधियों की एक सभा बुलायी, जिसमें 25 दिसम्बर, 1899 को विद्रोह करने का निर्णय लिया गया। खूंटी, रांची, तमाड़, बसिया, चक्रधरपुर आदि जगहों पर इनके नेतृत्व में आंदोलन हुआ।
(ix).(b) : नागपुरी भाषा को नागवंशी राजाओं की मातृभाषा होने का गौरव प्राप्त है। यह भाषा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में बोली जाती है। इसका लिखित साहित्य बहुत समृद्ध है।
(x). (c) : रघुनाथ नृपति नागपुरी के प्रथम ज्ञात कवि माने जाते हैं। विनोद कवि पंचपरगनिया, श्रीनिवास पानुरी खोरठा, जबकि निरंजन महतो कुरमाली के प्रसिद्ध रचनाकार हैं।
प्रश्न 2: अशोक के धम्म का स्वरूप एवं उद्देश्य की समीक्षा कीजिए।
उत्तर : धम्म शब्द संस्कृत के धर्म शब्द का प्राकृत रूप है, जिसका भारतीय परंपरा एवं संस्कृति में विशेष महत्व रहा है, किन्तु अशोक के राज्यादेश में इसका व्यापक अर्थ में प्रयोग किया गया है। विभिन्न विद्वानों ने धम्म की व्याख्या विभिन्न रूपों में की है। कुछ इतिहासकार इसे बौद्ध धर्म मानते हैं तो ‘फ्लीट’ इसे राज्यधर्म मानते हैं, वहीं अधिकांश इतिहासकार जैसे रामशरण शर्मा, राधा कुमुद मुखर्जी, स्मिथ आदि ने इसे सभी धर्मों का सार माना है। अशोक के अनुसार धम्म का अर्थ था – नैतिक आचरण। यह एक सर्वसाधारण का धर्म या आचारसंहिता था, जिसकी मूलभूत मान्यताएं सभी सम्प्रदायों में मान्य है, जो देशकाल की सीमा में आबद्ध नहीं थी । इसकी परिभाषा बौद्ध ग्रंथ दीघनिकाय के राहुलोवादसुत्त व सिंहनाद सूत्र से ली गयी है।
धम्म के स्वरूप के बारे में अशोक के अभिलेखों (शिलालेखों व स्तंभ लेखों) से जानकारी मिलती है। हालांकि उसके लघु अभिलेखों जैसे- भाब्रू अभिलेख, संघभेद अभिलेख, निगाली सागर अभिलेख, रूम्मनदेई अभिलेख में अशोक ने स्वयं को बौद्ध धर्म के अनुयायी के रूप में प्रस्तुत किया है, लेकिन धम्म का उद्देश्य बौद्ध धर्मानुसार निर्वाण प्राप्ति नहीं वरन् स्वर्ग प्राप्ति बताया गया है। द्वितीय और सातवें स्तम्भ लेख में धम्म की व्याख्या करते हुए कहा गया है – ‘धम्म’ है – साधुता, बहुत से अच्छे कल्याणकारी कार्य करना, पापरहित होना, शुद्धता, दयावान तथा सुचिता, जीव हिंसा न करना, माता-पिता और बुजुर्गों की आज्ञा पालन करना इत्यादि । तीसरे शिलालेख में धम्म की समृद्धि में बाधक तत्वों का उल्लेख है जिन्हें सामूहिक रूप से आसिन्न पाप कहा गया है। ये थे चंडता, निष्ठुरता, क्रोध, अभिमान, ईर्ष्या । जबकि धम्म के मूल तत्व के बारे में 10वें, 11वें और 12वें शिलालेख से जानकारी मिलती है, जो थे – सहिष्णुता और अहिंसा । सहिष्णुता का अर्थ था लोग अपने सम्प्रदाय की प्रशंसा और दूसरे की निंदा न करें, बल्कि उसके सार तत्व के अनुसार आचरण करें तथा ‘समवाय’ (सहमति) बढ़ाए, अर्थात् सार्वजनिक जीवन में सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता की मानसिकता और आचरण करें। पुनः अहिंसा का अर्थ सिर्फ युद्ध और हिंसा से दूरी नहीं, बल्कि जीवमात्र के प्रति अहिंसा और दयालुता का आचरण करना था। धम्म की सरलता का कारण था कि अशोक ने इसका प्रतिपादन अपनी प्रजा के उस समुदाय के लिए किया था जिसे न तो धर्म के तत्वों एवं गूढ़ सिद्धांतों को समझने का समय था न ही सामर्थ्य। सहिष्णुता पर अशोक ने इसलिए बल दिया कि समाज में असहिष्णु प्रवृत्तियां धीरे-धीरे बलवती होती जा रही थीं। सहिष्णुता को व्यापक आकार प्रदान करके ही अशोक धम्म के पैतृक आदर्शो को व्यावहारिक स्वरूप दे सकता था।
अहिंसा पर अत्यधिक बल देकर शांति की स्थापना अशोक इसलिए आवश्यक समझता था, क्योंकि यह मौर्य साम्राज्य के स्थायित्व के लिए आवश्यक था । वस्तुतः कनफ्यूशियस के समान अशोक भारतीय जनता के मन में यह बात बैठा देना चाहता था कि जीवन की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु पूजनीय आचरण है, जिस पर किसी धर्म या समाज का एकाधिकार नहीं है, बल्कि यह सनातन सत्य एवं विश्वव्यापक है। इस प्रकार अशोक का धम्म सभी धर्मों का समन्वय तथा तत्कालीन परिस्थितियों एवं इसके उद्देश्यों का प्रतिफल था।
अशोक द्वारा धम्म अपनाने के उद्देश्य के विषय में इतिहासकारों में विवाद है। कुछ इतिहासकार धम्म के पीछे राजनीतिक उद्देश्य देखते हैं, तो अन्य इसे तत्कालीन समय की सामाजिकधार्मिक समस्याओं का समाधान ढूंढने से प्रेरित बताते हैं, तो वहीं कुछ इसे अशोक के हृदय परिवर्तन से जोड़कर देखते हैं। रोमिला थापर के अनुसार अशोक के समय साम्राज्य अतिविशाल तथा अत्यधिक केन्द्रीकृत हो चुका था, जिस पर स्थायी आधिपत्य बनाये रखना दो तरह से संभव था एक सैनिक शक्ति द्वारा कठोर शासन और राजा में देवत्व का आरोपण कर, जिस पर अत्यधिक व्यय की आवश्यकता थी। दूसरे, सभी वर्गों से संकलित सारग्रही धर्म को अपनाकर। अशोक ने दूसरे विकल्प को अपनाया, क्योंकि ऐसा करने से किसी एक वर्ग का प्रभाव कम किया जा सकता था और केन्द्रीय सत्ता का प्रभाव बढ़ाया जा सकता था। अतः वह अपनी प्रजा में वैचारिक परिवर्तन लाना चाहता था, जिससे वे मौर्य साम्राज्य का समर्थन हृदय से करें तथा इसे टूटने नहीं दें। साथ ही, उनमें इतनी सूझ-बूझ हो कि साम्राज्य को एकत्रित रखना उनके ही हित में हो, ऐसा उन्हें विश्वास हो ।
दूसरी तरफ यदि सामाजिक और धार्मिक परिप्रेक्ष्यों में देखा जाये तो विभिन्न धर्मों के उदय से तत्कालीन समाज में तनाव तथा असहिष्णुता व्याप्त थी। नगरों के उदय के कारण व्यापारी वर्गों की समृद्धि बढ़ी एवं श्रेणी की स्थापना से उनकी एकता एवं समृद्धि में भी वृद्धि हुई। आर्थिक समृद्धी के बावजूद भी उन्हें सामाजिक सम्मान एवं राजनैतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे, जिससे उच्च वर्गों के प्रति उनमें तनाव एवं असंतोष की भावना व्याप्त थी। ऐसे में बौद्ध धर्म को उदार धर्म के रूप में नव उदित वैश्य वर्ग तथा जनसाधारण का समर्थन प्राप्त हुआ। साथ ही ऐसी स्थिति में साम्राज्य में परस्पर सौहार्द एवं विश्वास का वातावरण बना। यवन प्रदेश एवं जनजातीय क्षेत्र में जहां न तो ब्राह्मण धर्म और न ही श्रमण संस्कृति प्रचलन में थी, परन्तु साम्राज्य की मजबूती के लिए इनका सहयोग आवश्यक था, अशोक के धम्म जैसी गैर-साम्प्रदायिक नीति द्वारा ही यह संभव प्रतीत हुआ, जिससे केन्द्रीय नियंत्रण सुदृढ़ हो सके।
लेकिन कई तथ्यों द्वारा इन मतों की आलोचना भी की जाती है, पहला, थापर अशोक के धम्म को बौद्ध धर्म मानकर अपना मत देती हैं, परन्तु धम्म कोई धर्म नहीं था। दूसरा, यदि राजनीतिक उद्देश्य था, तो विदेशों में धम्म प्रचार का क्या औचित्य था। तीसरा, यदि अशोक उसके लाभ से परिचित था, तो सत्ता में आने के तुरंत बाद इसे लागू क्यों नहीं किया।
वस्तुत: कुछ इतिहासकार अशोक द्वारा धम्म अपनाने के पीछे सामान्य मत यह बताते हैं कि अशोक को कलिंग युद्ध से तीव्र आघात पहुंचा था, जिससे उसका हृदय परिवर्तन हुआ और उसने भेरी घोष (युद्ध की नीति) त्याग कर धम्म घोष (शांति की नीति) का आह्वान किया। परंतु यह मत भी पूर्ण नहीं है, क्योंकि कुछ आलोचकों के अनुसार यदि अशोक युद्ध का त्याग कर चुका था तो – पहले, सेना भंग क्यों नहीं किया, दूसरे, शिलालेखों में आट्विक जातियों को चेतावनी क्यों देता है तथा तीसरे, यदि वास्तव में हृदय परिवर्तन हो गया था तो मृत्यु दंड को क्यों समाप्त नहीं किया गया।
परन्तु, इतिहास साक्ष्यों पर टिका है। बौद्ध अनुयायियों और अशोक के अभिलेखों से यह सिद्ध नहीं होता कि उसने किसी राजनीतिक उद्देश्य के लिए धम्म प्रचार किया। 13वें शिलालेख तथा लघु अभिलेखों से पता चलता है कि अशोक के धम्म का कलिंग के युद्ध से निकट संबंध था। निश्चित तौर पर इसने अशोक का हृदय परिवर्तन किया, लेकिन इस परिवर्तन से नीति तो परिवर्तित हुई, लेकिन लक्ष्य नहीं। पहले का भेरी घोष अब धम्म घोष बन गया अर्थात् लक्ष्य अब भी ‘विजय’ था, पर इसे प्राप्त करने का साधन युद्ध न होकर धम्म हो गया। अशोक शांति तो चाहता था, लेकिन अपने साम्राज्य की कीमत पर नहीं अतः उसने माध्यम के रूप में धम्म को चुना।
प्रश्न 3: मुगलकालीन वास्तुकला तथा चित्रकला की मुख्य विशेषताओं को समझाइए।
उत्तर : मुगल शासन काल में विभिन्न क्षेत्रों के साथ-साथ सांस्कृतिक जीवन के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। धर्म, स्थापत्य, चित्रकला, संगीत, साहित्य आदि के क्षेत्रों में नवीन तत्वों का समावेश हुआ एवं अतुलनीय कृतियों का निर्माण भी किया गया।
मुगलकालीन वास्तुकला तथा चित्रकला की मुख्य विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
वास्तुकला : मुगलकालीन वास्तुकला वस्तुत: भारतीय शैली, इस्लामी शैली तथा ईरानी शैली का समन्वित रूप है। मुगल नवीन आकार एवं आकृति के गुम्बद, मेहराब, तहखाना एवं मीनार ईरान से भारत लाये और उसमें भारतीय शैली की मुख्य विशेषताओं, यथास्तंभों का उपयोग, दीवारों का अलंकरण (अलंकृत दीवार), जालियों, छतरियों तथा समतल छतों के निर्माण को मिलाया। इसके अतिरिक्त भारत की विभिन्न क्षेत्रीय शैलियों की मुख्य विशेषताओं को भी मुगल शैली में समाहित किया गया।
भारत में मुगल वास्तुकला का वास्तविक जन्मदाता अकबर को माना जाता है। यद्यपि बाबर एवं हुमायूं द्वारा कुछ भवनों का निर्माण हुआ, परन्तु उनकी शैली में कोई विशिष्टता नहीं थी। अकबर के काल में एक नयी शैली का पूर्ण विकास हुआ। इसकी क्रमिक उन्नति जहांगीर के शासनकाल में हुई और शाहजहां के शासनकाल में तो मुगल स्थापत्य कला अपनी पराकाष्ठा पर पहुंची, जिसे स्वर्ण युग भी कहा जाता है। परन्तु इसके बाद पतन की भी प्रक्रिया प्रारंभ हुई तथा औरंगजेब के बाद मुगल साम्राज्य के साथ मुगल स्थापत्य कला का भी पतन हो गया।
अकबर के काल में सर्वप्रथम हुमायूं के मकबरे का निर्माण किया गया। यह चारबाग शैली का प्रथम मकबरा है, जिसका निर्माण भारत में हुआ। इसका गुम्बद ईरानी पद्धति से बना, परन्तु इसमें छोटी-छोटी छतरियों के रूप में भारतीय तत्वों का समावेश भी देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त सजावट के लिए संगमरमर की पच्चीकारी भी भारतीय प्रभाव का परिणाम है। साथ ही, अकबर के शासनकाल में आगरा, लाहौर एवं फतेहपुर सीकरी में अनेक भवनों का निर्माण हुआ। इसमें कुछ उल्लेखनीय भवन हैं- आगरा का लाल किला, फतेहपुर सीकरी में स्थित बुलन्द दरवाजा, जामा मस्जिद, पंचमहल, दीवाने खास, रानी जोधाबाई का महल, बीरबल महल, शेख सलीम चिश्ती का मकबरा तथा इलाहाबाद, लाहौर और रोहतासगढ़ में निर्मित दुर्ग। इन भवनों का निर्माण मुख्य रूप से लाल बलुआ पत्थर से हुआ है। इन भवनों के निर्माण में भारतीय व ईरानी शैलियों का सुन्दर और संतुलित समन्वय हुआ है। ये भवन शक्ति, शौर्य एवं सौन्दर्य का बोध कराते हैं। यही विशेषता अकबरकालीन शैली को दूसरों से विभक्त करती है।
जहांगीर के समय की स्थापत्य शैली वैसी ही है, जैसे कि अकबर के शासनकाल की। अन्तर केवल इतना है कि इस काल में भवनों की सजावट पर कुछ अधिक ध्यान दिया गया। जहांगीर के शासनकाल में निर्मित भवनों में सिकंदरा में स्थित अकबर का मकबरा, एत्मादुद्दौला का मकबरा (आगरा) तथा दिल्ली स्थित अब्दुल रहीम खानखाना का मकबरा प्रमुख हैं। जहांगीर ने कश्मीर तथा लाहौर में अनेक उद्यानों का भी निर्माण कराया। इस प्रकार, जहांगीरकालीन शैली अकबरकालीन और शाहजहांकालीन शैलियों के बीच सम्पर्क स्थापित करने वाली कड़ी थी।
शाहजहां के शासनकाल में मुगल स्थापत्यकला अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गयी। शाहजहां ने स्थापत्यकला को विशेष प्रश्रय दिया। उसने आगरा एवं दिल्ली में अनेक भवनों का निर्माण कराया। आगरा के किले में निर्मित भवनों में दीवाने-खास, रंगमहल, नगीना मस्जिद, मुसम्मन बुर्ज एवं मोती मस्जिद प्रमुख हैं। दिल्ली में निर्मित भवनों में जामा मस्जिद तथा लाल किला और इसके दूसरे भाग, जैसे- दीवाने आम, दीवाने खास, रंगमहल, रब्बागाह, हमाम और लाहौर में भी अनेक भवन बनाये गये।
शाहजहां का शासनकाल संगमरमर के भवनों का काल है। इस काल में राजपूताना, मकराना तथा बलूचिस्तान से प्राप्त संगमरमर का प्रयोग भवन निर्माण सामग्री के रूप बहुतायत से होने लगा। इसी के साथ भवनों की सजावट की कला में भी परिवर्तन आया। अब संगमरमर में रंगीन पत्थरों को भर कर सजावट का काम किया जाने लगा। इसे ‘पितरादूरा’ (पिट्राडूरा) कहते हैं। इसका पहला उपयोग एत्मादुद्दौला के मकबरे में हुआ है। शाहजहांकालीन मुगल वास्तुकला शैली का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण आगरा का ताजमहल है, जो अपनी सजीवता एवं सुन्दरता के लिए विश्वविख्यात है। इस समय फूल-पत्तियों की डिजाइनों को बनाकर भवनों को सजाया गया। साथ ही, एक मेहराब में सात या नौ छोटी-छोटी मेहराबों का निर्माण इस काल की एक अन्य प्रमुख विशेषता है। इसका उदाहरण लाल किले का दीवाने-खास है। इस काल में गुम्बद की कलाकारी भी अधिक सुन्दर हो गयी, जो ईरानी प्रभाव का ही परिणाम था।
इस प्रकार, शाहजहांकालीन शैली मुगल स्थापत्यकला का सचमुच स्वर्ण काल था, परन्तु शाहजहां के साथ ही यह स्वर्ण युग भी समाप्त हो गया। औरंगजेब के शासनकाल में निर्मित भवनों में लाहौर की बादशाही मस्जिद, दिल्ली के लाल किले की मोती मस्जिद तथा औरंगाबाद में स्थित राबिया दुर्रानी का मकबरा प्रमुख हैं। औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही मुगल साम्राज्य का पतन प्रारंभ हो गया। साथ ही, स्थापत्यकला के क्षेत्र में भी पतन के चिन्ह स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगे।
चित्रकला : वैसे इस्लाम धर्म में चित्र बनाने पर पाबंदी थी, परन्तु मुगल काल में चित्रकला का काफी विकास हुआ, जो ईरानी और हिन्दू प्रभाव कारण संभव हो सका।
मुगल चित्रकला एक समृद्ध शैली का चित्रण करती है। भारतीय चित्रकला के क्षेत्र में मुगलों ने नई विषयवस्तु प्रारंभ की, जिनमें दरबार के जीवन, लड़ाई के दृश्य, घुड़दौड़ एवं प्रकृति संबंधी चित्रण प्रमुख थे। इन्होंने मूल विषयों में नये तरीके, आकार तथा रंगों का समावेश किया। भारत में परंपरागत रूप से विद्यमान शैली से संयोजन एवं चीनी चित्रकला शैली तथा यूरोपीय शैली के गुणों को ग्रहण करने के उपरांत, इस नये संयोजन ने एक कम्पायमान रूप को जन्म दिया, जो मुगल चित्रकला शैली के नाम से जाना जाता है। देश के विभिन्न भागों यथा – मालवा, गुजरात, बीजापुर में अस्तित्वमान क्षेत्रीय शैलियों का पारसी रूप एवं आकारों में सम्मिश्रण हुआ।
बाबर और हुमायूं की चित्रकला में रुचि थी, परंतु मुगल चित्रकला का वास्तविक विकास अकबर के शासनकाल में हुआ। सैय्यद अली एवं अब्दुस्समद के नेतृत्व में चित्रकला को एक राजकीय कारखाने के रूप में संगठित किया गया। महाभारत, पंचतंत्र दास्तान-ए-अमीर हम्जा, बाबरनामा आदि ग्रंथों की घटनाओं का चित्रण किया गया, अबुल फजल द्वारा अकबर के काल में राजदरबार में संरक्षण प्राप्त 17 चित्रकारों का उल्लेख किया गया है। इनमें दसवंत, बसावन, हरिवंश, फार्रुख बेग, खुसरो कुर्ली आदि प्रमुख थे। अकबर के काल में भारतीय विषयों तथा भारतीय दृश्यों पर चित्रकारी करने का रिवाज लोकप्रिय होने लगा। भारत के रंगों जैसे फिरोजी तथा भारतीय लाल रंग का इस्तेमाल प्रमुखता से होने लगा। सबसे प्रमुख बात यह हुई कि, ईरानी शैली के सपाट प्रभाव का स्थान भारतीय शैली के वृत्ताकार प्रभाव ने ले लिया और इससे चित्रों में त्रिविमीय प्रभाव आ गया।
मुगल चित्रकला जहांगीर के संरक्षण में और समृद्ध हुई। जहांगीर स्वयं चित्रकला का कुशल पारखी था। इस समय प्राकृतिक दृश्यों पर चित्र बनाने की कला में विशेष प्रगति हुई। शिकार, युद्ध और राजदरबार के दृश्यों के अलावा पशु-पक्षियों के चित्र सजीवता से बनाये गये। इस समय के प्रमुख चित्रकार थे- मंसूर, अबुल हसन, बिशनदास, मनोहर, गोवर्द्धन, मुराद आदि ।
शाहजहां के शासनकाल में मुगल चित्रकला तकनीकी एवं आकार आदि के दृष्टिकोण से परिपक्व दिखती है। दाराशिकोह चित्रकला का संरक्षक था। उसने अपना अलबम तैयार कराया था। मीर हासिम एवं चित्रमणि इस समय के प्रमुख चित्रकार थे। औरंगजेब के काल में मुगल दरबार में चित्रकला का अवसान होने लगा। राजकीय संरक्षण के अभाव में चित्रकार देश में दूर-दूर तक बिखर गये। इससे राजस्थान तथा पंजाब की पहाड़ियों के अलावा पटना आदि क्षेत्रों में चित्रकला का विकास हुआ।
प्रश्न 4. (a) : असहयोग आन्दोलन पर निबंध लिखिए। 
उत्तर : कांग्रेस ने 1920 में गांधीजी के नेतृत्व में अहिंसक असहयोग का नया कार्यक्रम अपनाया। पंजाब और तुर्की के साथ हुए अन्यायों का प्रतिकार और स्वराज की प्राप्ति- ये असहयोग आंदोलन के उद्देश्य थे। इस आंदोलन को कई चरणों में चलाया जाना था। आरंभिक चरण में सरकार द्वारा दी गयी उपाधियों को वापस लौटाया जाना था; इसके बाद विधानमंडलों, अदालतों और शिक्षा संस्थानों का बहिष्कार करने तथा करों की अदायगी न करने का अभियान चलाया जाना था।
असहयोग आंदोलन को अपार सफलता मिली। विधानमंडलों के चुनावों में लगभग दो-तिहाई मतदाताओं ने मतदान नहीं किया। शिक्षण संस्थाएं खाली हो गयीं। राष्ट्रीय शिक्षा का नया कार्यक्रम आरंभ किया गया। जामिया मिलिया और काशी विद्यापीठ जैसी संस्थाएं इसी दौर में स्थापित हुई। अनेक भारतीयों ने सरकारी नौकरियां छोड़ दीं । विदेशी कपड़ों की होलियां जलायी गयीं। पूरे देश में हड़तालें हुई। हिन्दू और मुसलमान एक होकर इस आंदोलन में शामिल हुए और पूरे देश में भाईचारे के उदाहरण देखे गये। सिखों ने गुरुद्वारों से सरकार समर्थक और भ्रष्ट महंतों का कब्जा खत्म कराने के लिए आंदोलन छेड़ा। हजारों लोगों ने स्वयंसेवकों में नाम लिखाया। आंदोलन के दौरान प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आये। जब वह 17 नवम्बर, 1921 को भारत पहुंचे तो उनका ‘स्वागत’ आम हड़तालों और प्रदर्शनों द्वारा किया गया। अनेक जगहों पर पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलायीं। दमन जारी रहा और साल के खत्म होने तक गांधीजी को छोड़ कर सभी बड़े नेता जेल में बंद कर दिये गये। 1922 के आरंभ में लगभग 30,000 लोग सलाखों के पीछे थे।
फरवरी के आरंभ में गांधीजी ने गुजरात के बारदोली जिले में कर न चुकाने का अभियान चलाने का फैसला किया। इसी दौरान उत्तर प्रदेश के चौरी-चौरा नामक स्थान पर जनता भड़क उठी और उसने एक पुलिस थाने को आग लगा दी, जिसमें 22 पुलिसकर्मी जल कर मर गये। जब यह समाचार गांधीजी तक पहुंचा, तो उन्होंने पूरे असहयोग आंदोलन को रोकने का फैसला किया। 12 फरवरी, 1922 को कांग्रेस की वर्किग कमिटी की मीटिंग हुई और उसमें चरखे को लोकप्रिय बनाने, हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देने तथा छुआछूत का मुकाबला करने पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया गया।
असहयोग आंदोलन के आकस्मिक स्थगन से खिलाफत के मुद्दे का अन्त हो गया और हिन्दू-मुस्लिम एकता भी भंग हो गयी। महात्मा गांधी का इस आंदोलन के एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्ति का वायदा पूरा नहीं हुआ। पंजाब में किये गये अन्यायों का भी निवारण नहीं हुआ। इस प्रकार असहयोग आंदोलन अपने किसी भी घोषित उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सका, लेकिन इसकी चरम उपलब्धि तत्कालीन हानियों से कहीं अधिक थी। कांग्रेस की स्थिति पहले से कहीं अधिक सुदृढ़ हो गयी और उसके बाद तो इसकी शक्ति बढ़ती ही गयी। इसने भारतीयों में स्वतंत्रता की प्रबल इच्छाशक्ति जागृत की तथा औपनिवेशिक शासन को चुनौती देने के लिए जनता को प्रोत्साहित किया।
प्रश्न 4. (b) : सविनय अवज्ञा आन्दोलन पर प्रकाश डालिए।
उत्तर : सविनय अवज्ञा आंदोलन का गांधीजी ने दाण्डी में समुद्र तट पर नमक कानून का उल्लंघन करके शुभारंभ किया। नमक को इस आंदोलन का एक प्रमुख मुद्दा बनाया गया, क्योंकि सरकार ने इस अत्यावश्यक वस्तु की बिक्री को नियंत्रित कर रखा था और उस पर करारोपण किया था। इसका गरीबों पर अत्यधिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था।
महात्मा गांधी ने 12 मार्च, 1930 को नमक सत्याग्रह शुरू किया। उन्होंने अपने साबरमती आश्रम (अहमदाबाद ) से 80 चुने हुए साथियों के साथ सत्याग्रह के लिए कूच किया। 24 दिनों की लम्बी यात्रा के उपरांत उन्होंने 5 अप्रैल, 1930 को दाण्डी में सांकेतिक रूप से नमक कानून को भंग किया। नमक कानून को तोड़ने के कारण औपचारिक रूप से सविनय अवज्ञा आंदोलन का शुभारंभ हुआ। सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए निर्दिष्ट निम्न कार्यक्रम थे –
1. नमक कानून तथा अन्य कानूनों का उल्लंघन;
2. भू-राजस्व, लगान या अन्य करों का भुगतान न करना;
3. कानूनी अदालतों, विधानमंडलों, चुनावों, सरकारी समारोहों, सरकारी विद्यालयों और महाविद्यालयों का बहिष्कार;
4. विदेशी वस्तुओं और कपड़ों का बहिष्कार तथा विदेशी कपड़ों को जलाना;
5. शराब तथा अन्य मादक पदार्थों को बेचने वाली दुकानों पर शांतिपूर्ण धरना देना;
6. व्यापक हड़तालों और प्रदर्शनों का संयोजन करना;
7. सरकारी नौकरियों से त्यागपत्र देना तथा नागरिक, सैनिक तथा पुलिस सेवाओं में शामिल न होना।
जनता ने उपर्युक्त कार्यक्रमों का बड़े उत्साह से अनुपालन किया। संयुक्त प्रान्त और गुजरात में कर न देने का अभियान शुरू किया गया। रूढ़िवादी और कुलीन परिवार की हजारों महिलाएं अपने घरों की चारदीवारी लांघ कर बाहर निकल गयीं। उन्होंने आंदोलन के लिए गिरफ्तार होने तथा जेल जाने के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया। उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त ( एन. डब्ल्यू. एफ. पी.) में सामान्यतया सीमांत गांधी के नाम से प्रसिद्ध खान अब्दुल गफ्फार खां ने अपने खुदाई खिदमतगार (ईश्वर के सेवक) संगठन के ध्वज और स्वयंसेवकों के साथ इस आंदोलन में अत्यन्त सक्रिय रूप से भाग लिया। ये स्वयंसेवक लाल कुर्ती पहने होते थे। अपनी पोशाक के कारण ही वे ‘लाल कुर्ती’ के रूप में ख्यात हुए। उत्तर-पूर्व में मणिपुर की जनजातियां भी इस आंदोलन में सम्मिलित हुई तथा युवा नागा महिला रानी गैडिनल्यू ने अपने नागा साथियों के साथ इस आंदोलन को पूरा समर्थन दिया।
ब्रिटिश सरकार द्वारा इस आंदोलन को उत्पीड़नकारी तरीकों से दमन करने का प्रयास किया गया। एक साल से कम समय में ही 60,000 से अधिक लोगों की गिरफ्तारी हुई। जून 1930 में कांग्रेस और उससे सम्बद्ध संगठनों को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। महात्मा गांधी व अन्य कांग्रेसी नेता गिरफ्तार कर लिये गये। प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इन घटनाओं में बहुत से लोग मारे गये। करों का भुगतान न करने के कारण हजारों लोगों की निजी सम्पत्तियां तथा जमीनें जब्त कर ली गयीं।
इन वीरतापूर्ण कार्यों और सरकारी दमन के बीच जब आंदोलन अपनी पराकाष्ठा पर था, उसी समय वाइसराय ने कांग्रेसी नेताओं को रिहा करने की पहल करके महात्मा गांधी को बातचीत के लिए आमंत्रित किया। इसके परिणामस्वरूप गांधी- इर्विन समझौता (1931) हुआ और सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया गया।
प्रश्न 5. (a) : राष्ट्रीय आन्दोलन में बिरसा मुंडा के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर : आदिवासी विद्रोहों में बिरसा मुण्डा का उलगुलान आन्दोलन (महान हलचल ) एक महत्वपूर्ण आन्दोलन था। यह वर्तमान झारखण्ड राज्य के रांची जिले के दक्षिणी भाग में हुआ था। 19वीं शताब्दी में उत्तरी मैदान से आने वाले व्यापारियों, जमींदारों, ठेकेदारों, साहूकारों (दिकुओं) ने मुंडा जनजाति में प्रचलित सामूहिक खेती वाली व्यवस्था ( खूंटकट्टी) को ध्वस्त कर दिया था। इसके बदले में बैठबेगारी व्यवस्था को प्रचलित कर मुंडा जनजाति का शोषण किया जाने लगा। साथ ही, लूथेरियन, एंग्लिकन और कैथोलिक मिशनरियों ने मुंडाओं को भूमि संबंधी समस्याओं के समाधान का लालच देकर उन्हें अपने धर्म में परिवर्तित करना प्रारंभ कर दिया था, परन्तु इन मिशनरियों ने भूमि संबंधी विवादों को सुलझाने का कोई कार्य नहीं किया। प्रारंभ में इस कबीले के सरदारों ने बाहरी भू-स्वामियों और जबरन बेगार के खिलाफ न्यायालयों की शरण ली, परन्तु यहां भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। इस प्रकार, ब्रिटिश सरकार की नवीन भू-राजस्व नीति का मुंडा जनजाति पर विपरीत प्रभाव पड़ा और उनका सम्पूर्ण अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया। ऐसे में विद्रोह के अतिरिक्त उनके पास कोई मार्ग नहीं बचा।
बिरसा आन्दोलन की शुरुआत एक सुधारवादी प्रयास के रूप में हुई तथा बिरसा मुंडा ने नैतिक आचरण की शुद्धता, आत्मसुधार और एकेश्वरवाद का नारा दिया। उन्होंने अनेक देवताओं (बोंगा) को छोड़ एक ईश्वर ( सिंगबोंगा ) की आराधना का आदेश अपने अनुयायियों को दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने बताया कि सिंग बोंगा की कृपा से समाज में फिर एक आदर्श व्यवस्था स्थापित होगी तथा शोषण एवं उत्पीड़न का काल समाप्त होगा।
बिरसा ने गांव की ऊसर जमीन को वन विभाग द्वारा अधिग्रहण किये जाने के विरुद्ध 1893-94 में पहला आन्दोलन किया, परन्तु इस आन्दोलन में वह मुण्डा जनजाति को संगठित नहीं कर पाये। अतः उन्होंने 1895 ई. में धार्मिक स्तर पर लोगों को संगठित करना प्रारंभ किया। उन्होंने अपने आप को सिंगबोंगा का दूत
घोषित किया। साथ ही यह प्रचारित किया कि सिंगबोंगा ने उन्हें चमत्कारिक शक्ति प्रदान की है। आदिवासी उनके प्रवचनों को सुनने के लिए एकत्रित होने लगे। इस धार्मिक आन्दोलन ने खेतिहर मजदूरों के राजनीतिक आन्दोलन का स्वरूप ग्रहण कर लिया। उन्होंने गांवगांव घूम कर धार्मिक और राजनीतिक स्तर पर मुण्डा जनजाति के लोगों को संगठित करना आरंभ कर दिया। 1895 ई. में बिरसा को ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने के आरोप में 2 सालों के लिए जेल भेज दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद उनके व्यक्तित्व को मुण्डा जनजाति में राजनीतिक व सामाजिक स्वीकृति मिल चुकी थी। उन्होंने पुन: गांवों का दौरा प्रारंभ किया और मुंडाओं को संगठित करना शुरू किया।
1897 ई. में क्रिसमस की पूर्व संध्या पर बिरसा मुण्डा ने मुण्डा जनजाति का शासन स्थापित करने के लिए विद्रोह का ऐलान किया। उन्होंने घोषणा की कि कलयुग को समाप्त कर सतयुग स्थापित करेंगे और दिकुओं को निष्कासित कर स्वशासन स्थापित करेंगे। रांची और सिंहभूम जिले में पुलिस स्टेशन, सम्पत्तियों और चर्चों पर आक्रमण किये गये, परन्तु शैल रकाब पहाड़ी पर विद्रोहियों की पराजय हुई। फरवरी 1900 में बिरसा मुण्डा पकड़े गये और जून 1900 में उनकी जेल में ही मृत्यु हो गयी ।
बिरसा की मृत्यु के बाद बिरसा आन्दोलन पूर्णत: शिथिल पड़ गया। यद्यपि यह आन्दोलन शिथिल हो गया, परन्तु इसका जनजातीय शासन पर विशेष प्रभाव पड़ा । ब्रिटिश सरकार ने 1908 ई. के छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम के माध्यम से लगान की दरें कम कीं, बैठबेगारी को समाप्त किया तथा खूंटकट्टी प्रथा को मान्यता दी।
बिरसा मुण्डा न केवल झारखण्ड, वरन् देश के लोगों के दिलों-दिमाग में महान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में अमर हैं।
प्रश्न 5. (b) : जतरा भगत के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर : टाना भगत आंदोलन के जनक जतरा भगत का जन्म 1888 ई. में गुमला जिले के विशुनपुर प्रखंड के चिंगरी गांव, नावाटोली में हुआ था। उनके पिता का नाम कोहरा भगत तथा माता का नाम लिबरी भगत था। जतरा भगत की पत्नी का नाम बुधनी भगत था। जतरा भगत की जन्म तिथि की ऐतिहासिकता संदिग्ध व अनुपलब्ध है। प्रत्येक वर्ष गांधी जयंती (2 अक्टूबर) को ही चिंगरी ग्राम में जतरा भगत की जयंती भी मनायी जाती है। ऐसी मान्यता है कि गुरु तुरिया भगत से उन्हें तंत्र-मंत्र विद्या सीखने के क्रम में 1914 ई. में आत्मबोध हुआ। ब्रिटिश राज्य के अत्याचार, बेगारी, आदि से पीड़ित तथा अंधविश्वासी आदिवासी समुदाय को राह दिखाने का संकल्प ले कर जतरा उरांव अब जतरा भगत बन गये। इस तरह टाना भगत आंदोलन का प्रारंभ अप्रैल 1914 में हुआ। टाना भगतों का विश्वास था कि धर्मेश (ईश्वर) बराबर देखता है कि लोग उसकी आज्ञा का पालन कर रहे हैं अथवा नहीं। जतरा भगत ने जब इस आंदोलन का श्रीगणेश किया, तब वह ओझा का प्रशिक्षण ले रहे थे। ऐसा माना जाता है कि एक दिन प्रशिक्षण से लौटते समय उन्हें उरांवों के ईश्वर धर्मेश ने दर्शन दिया और कहा कि वह ओझागिरी त्याग दे, मांसमदिरा छोड़ दे, भूत-प्रेत तथा बलि प्रथा में विश्वास करना छोड़ दे। इसके बाद जतरा भगत ने क्रांतिकारी घोषणा की कि ईश्वर ने उसे जनजातियों का नेतृत्व सौंपा है।
जतरा भगत द्वारा शुरू किया गया आंदोलन सम्पूर्ण उरांव प्रदेशों में फैल चुका था। लोगों ने जमींदारों और दिकुओं के यहां नौकरी छोड़ दी। अपने आदमियों को मजदूरी करने से भड़काने के अपराध में जतरा भगत को गुमला की कचहरी में मुकदमा चलाने के लिए हाजिर किया गया। 1916 ई. में जतरा भगत को 1 वर्ष की सजा रखी कि वह अपने सिद्धांतों का प्रचार नहीं करेंगे, लेकिन जेल में मिली घोर प्रताड़ना के कारण दो महीने के भीतर ही उनकी मौत हो गयी । इस प्रकार जतरा भगत आंदोलन ने अपने प्रमुख नेतृत्वकर्ता को खो दिया, लेकिन रांची जिला के विभिन्न भागों में उसके अनुयायियों ने नेतृत्व संभाल लिया। 1916 ई. के अंत तक यह आंदोलन रांची जिला की सीमाओं को लांघता हुआ कई प्रदेशों में फैल गया।
भूगोल (Geography)
उत्तर 1 :
(i). (d) : कोपेन के जलवायु विभाजन के अनुसार भारत के मध्यवर्ती भाग की जलवायु को (DFc) द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।
(ii). (d) : वायुमंडल का संगठन ऊंचाई के साथ बदलता है। पृथ्वी तल से लेकर अपनी उच्चतम सीमा तक वायुमंडल संकेन्द्री परतों के रूप में विस्तृत है, जो अपने घनत्व, तापमान तथा गैसीय संगठन की दृष्टि से सर्वथा भिन्न है।
(iii). (d) : बरखान का निर्माण पवन से सम्बंधित है, यह पवन निर्मित बालू की आकृति है, जिसका अग्रभाग अर्द्धचंद्राकार होता है। उसके दोनों छोरों पर आगे की ओर नुकीली सींग जैसी आकृति होती है। बरखान तुर्की भाषा का शब्द है, जिसका तात्पर्य किरगीज क्षेत्र के बालू की पहाड़ी से है।
(iv). (d) : वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या में नगरीय जनसंख्या 31.2% है, जबकि ग्रामीण जनसंख्या 68.8% है।
(v). (a): भारत में पहला जनसंख्या वृद्धि का दशकीय वर्ष 1941-51 है, जिसका मूल कारण भारत-पाक विभाजन था । विभाजन के पश्चात् अधिकांश लोगों ने पाकिस्तान से आकर भारत के नगरों में अधिवास किया।
(vi). (b): जलोढ़ मृदा भारत के कुल क्षेत्रफल के 22.16% भाग में फैली हुई है। भारत के उत्तरी भाग पंजाब, हरियाणा, गुजरात, पूर्वी व पश्चिमी तटीय मैदानी भागों में लगभग 7.66 लाख वर्ग किमी. क्षेत्र में यह मिट्टी पायी जाती है।
(vii).(a): भारत में प्रथम ऊनी वस्त्र मिल की स्थापना 1870 में प्रथम उत्तर प्रदेश के कानपुर में लाल इमली मिल के नाम से हुई थी। ऊनी वस्त्रों के अन्य केन्द्र मुंबई, बैंगलोर, जामनगर, कानपुर तथा श्रीनगर हैं ।
(viii).(a):वृहत् ज्वार-भाटा तब पैदा होता है जब सूर्य, चंद्रमा तथा पृथ्वी एक ही रेखा में हों। पूर्णिमा तथा अमावस्या के दिन सूर्य, पृथ्वी तथा चंद्रमा एक सीध में आ जाते हैं। ऐसी स्थिति में पृथ्वी पर चंद्रमा तथा सूर्य के सम्मिलित गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव पड़ता है। फलस्वरूप इन दोनों दिनों में उच्चतम ज्वार का निर्माण होता है, जिसे वृहत् ज्वार कहते हैं।
(ix).(c) : हरित क्रांति के फलस्वरूप देश में कुल खाद्यान्न में दलहन व मोटा अनाज का अंश कम हो गया है, जबकि हरित क्रांति के परिणामस्वरूप कुल खाद्यान्न उत्पादन में गेहूं का अंश काफी बढ़ा है।
(x). (a): उष्ण कटिबंधीय वर्षा वन को लियाना (Liana) या कठलता कहते हैं। इस प्रकार के वन में औसतन 200 सेमी. से अधिक वार्षिक वर्षा होती है। यहां अधिक तापमान और आद्रता के कारण चौड़ी पत्ती वाले सदाबहार वृक्ष पाये जाते हैं।
प्रश्न 2: कार्स्ट प्रदेश में विकसित होने वाली स्थलाकृतियों का वर्णन करें।
उत्तर : चॉक तथा चूना पत्थर वाले प्रदेशों में भूमिगत जल की विलयन क्रिया द्वारा सतह के ऊपर तथा नीचे विशिष्ट स्थलाकृतियों का निर्माण होता है, जिसे कार्स्ट स्थलाकृति कहते हैं । ‘कार्स्ट शब्द’ युगोस्लाविया के (क्रोशिया) एड्रियाटिक सागर तट पर लगभग 500 वर्ग किमी. क्षेत्र में फैले कार्स्ट प्रदेश से लिया गया है, जहां इस प्रकार की स्थलाकृतियों का बहुतायत से विकास हुआ है।
कार्स्ट स्थलाकृतियों के विकास के लिए जरूरी है कि सतह या सतह के नीचे विस्तृत पैमाने पर घुलनशील चट्टान हो तथा उनमें संधियों ( Joints) का विकास अच्छी तरह से हुआ हो । साथ ही, कार्स्ट प्रदेश पर्याप्त वर्षा वाले प्रदेशों में स्थित हो ।
कार्स्ट स्थलाकृति की दो प्रमुख विशेषताएं होती हैं- प्रथमतः, यह वृहद क्षेत्रों में नहीं पायी जाती है। यह क्षेत्रीय स्थलाकृति है, क्योंकि यह अपरदन दूत पर नहीं, मूलतः संरचना पर निर्भर करती है। दूसरे, अन्त: भौम अपरदन प्रक्रिया के अंतर्गत अपरदनात्मक और निक्षेपात्मक स्थलाकृतियों का विकास एक साथ या अगल-बगल होता है। भौगोलिक अवस्थिति के अनुसार स्थलाकृतियों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है
(A) सतह पर विकसित स्थलाकृतियां;
(B) घोल रंध्र एवं उससे संबंधित स्थलाकृतियां; तथा
(C) गुफा एवं उससे संबंधित स्थलाकृतियां
> सतह पर विकसित स्थलाकृतियां
> टेरारोसा: जब जल रिस कर सतह के नीचे जाने का प्रयास करता है, तो सतह की चूना पत्थर चट्टान पर घुलन क्रिया द्वारा लाल तथा मृत्तिकायुक्त मृदा का अवशेष छूट जाता है। इसी मृदा को टेरारोसा कहा जाता है। यदि ऐसी मृदा में लौह का अंश अधिक हो, तो उसे टेरारोक्सा कहा जाता है। ये मुख्यत: ब्राजील में पाये जाते हैं।
> लैपिज: इसका निर्माण वैसे चूना पत्थर वाले क्षेत्रों में होता है, जिसकी सतह ढालदार होती है। घुलन क्रिया द्वारा ऊपरी सतह अत्यधिक उबड़ खाबड़ तथा असमान हो जाती है। लाइमस्टोन की खुली सतह पर जल, चट्टान की संधियों को अपनी घुलन क्रिया द्वारा विस्तृत करने लगता है, इस कारण छोटी-छोटी शिखरिकाओं का निर्माण हो जाता है, जो संकरे Cleft द्वारा अलग किये जाते हैं। इस तरह की आकृति को ही लैपिज कहते हैं।
> विलयन घाटी या कार्स्ट घाटी : इसका विकास वैसे प्रदेशों में होता है, जहां चट्टानें क्षैतिज अवस्था में हों तथा सतह पर कठोर चट्टानें हों। ऐसी स्थिति में नदी प्रथमतः संधियों के सहारे V आकार की घाटी की तली पर दृष्टिगत होती है, जिससे विलयन क्रिया प्रारंभ हो जाती है। इससे निम्न भाग में घाटी चौड़ी होने लगती है और असंतुलित बालू-पत्थर की चट्टानें तेजी से टूटने लगती हैं। इस प्रक्रिया से तीव्र ढाल की घाटी विकसित होती है, जिसे विलयन घाटी कहते हैं और दो घाटी के मध्य जो विभाजक भूमि होती है, उसे बालू पत्थर कटक कहते हैं।
> घोल रंध्र और उससे संबंधित स्थलाकृतियां
> घोल रंध्र : चूना-पत्थर क्षेत्र में घुलन क्रिया के कारण संरध्रों के विस्तार होने से सतह पर कीपाकार स्थलाकृति विकसित होती है, जिसे घोल रंध्र कहते हैं। यह एक छोटा गर्त होता है, जिसकी गहराई अधिकतम 10 मीटर तक होती है।
> डोलाइन तथा कार्स्ट झील : घोल रंध्र का क्रमिक फैलाव होता है और गहराई में वृद्धि होती है। जब इसकी गहराई 10 मीटर से अधिक हो जाती है और व्यास कम-से-कम 2 मीटर होता है, तो उसे डोलाइन कहते हैं। सामान्यत: डोलाइन का व्यास 2 से 25 मीटर और गहराई 10 से 130 मीटर तक हो सकती है।
कभी-कभी मृत्तिका द्वारा डोलाइन का निचला छिद्र बंद हो जाता है, जिससे जल रिस कर नीचे नहीं जा पाता। अतः डोलाइन में जल का संचयन होने से छोटी-छोटी झीलों का निर्माण हो जाता है, जिसे कार्स्ट झील कहते हैं।
> घोल पटल (Solution Pan ) : डोलाइन से कुछ भिन्न छिद्र जो डोलाइन की अपेक्षा उथला, परन्तु आकार में अधिक विस्तृत होता है, उसे घोल पटल कहते हैं। USA के इंडियाना प्रांत के लॉस्ट नदी क्षेत्र का घोल पटल 30 एकड़ क्षेत्रफल में विस्तृत है।
> युवाला तथा पोल्जे: निरंतर घुलन क्रिया द्वारा कई डोलाइन एक- दूसरे से मिलकर एक वृहदाकार गर्त का निर्माण करते हैं, जिसे युवाला कहते हैं। इसका व्यास अधिकतम एक किमी. तक हो सकता है। इतना विस्तृत आकार होने से इसमें धरातलीय नदियां लुप्त हो जाती हैं।
युवाला से भी अधिक विस्तृत गर्त को पोल्जे कहते हैं। इसका व्यास 1 किमी. से ज्यादा होता है। इसकी तली या फर्श समतल होता है तथा दीवारें खड़ी होती हैं।
> कार्स्ट मैदान तथा धंसती निवेशिका (Sinking Creek ) : क्षैतिज स्तर वाले या झुके हुए स्तर वाले चूने के क्षेत्र में ऊपरी सतह पर निर्मित विभिन्न प्रकार के रंध्र वाले स्थल खंड को कार्स्ट मैदान कहा जाता है। कार्स्ट मैदान की ऊपरी सतह अत्यधिक घोल-छिद्र होने के कारण एक छलनी के समान दिखती है । इन छिद्रों से ऊपरी सतह की सरिताओं का जल नीचे जाकर भूमिगत जल का कार्य करता है। इन्हीं छिद्रों को धंसती निवेशिका कहते हैं।
> विलय रंध्र ( Swallow Holes ) तथा अंधी घाटी : यदि किसी प्रदेश में चूने का अंश अधिक हो तो संरध्रों के सहारे विलयन का कार्य तेजी से होता है, जिसके परिणामस्वरूप घोल-रंध्र का परिवर्तन विलय रंध्र में हो जाता है। यह लगभग बेलनाकार होता है और यहां काफी तेजी से जल रिसता है।
विलय रंध्र की सतह अंधी घाटी को जन्म देती है। यदि कोई नदी उस सतह से गुजरती हो, जहां विलय रंध्र का विकास हुआ है, तो नदी का सारा जल उसमें समा जाता है और घाटी सदैव शुष्क नजर आती है। चूंकि नदी अग्रसारित नहीं होती, इसलिए उसे अंधी घाटी कहते हैं।
> हम्स ( Hums ) : घोलीकरण की लंबी अवधि के बाद भी कुछ ठोस प्रकार की आकृतियां घाटी की सतह पर बिखरी पड़ी रह जाती हैं, जो कि मोनेडनॉक की भांति प्रतीत होती हैं। इन्हीं विशेष आकृतियों को हम्स कहते हैं ।
> गुफा एवं उससे संबंधित स्थलाकृतियां
> पोनोर: पोनोर वह स्थलाकृति है, जो गुफा के प्रवेश – मार्ग के रूप में कार्य करती है। यह कन्दरा को विलयन छिद्र से या सीधे सतह से मिलाती है। इसी मार्ग से जल का प्रवेश गुफा में होता है और इसी मार्ग से अन्तर्भौम नदी की शुरुआत होती है।
> गुफा : गुफा वह स्थलाकृति है, जिसका विकास सतह के नीचे वृहद क्षेत्र में विलयन के फलस्वरूप होता है। विलयन का कार्य उस सतह पर होता है, जहां अपारगम्य चट्टानें दृष्टिगत होने लगती हैं।
> स्टेलेक्टाइट, स्टेलेग्माइट एवं गुफा स्तंभ : स्टेलेक्टाइट गुफा के अंदर लटकता हुआ स्तंभ है। गुफा के छत से चूना मिश्रित जल के रिसते रहने के कारण इसका विकास होता है। रिसते हुए चूना मिश्रित जल सतह पर गिरते हैं और जल के वाष्पीकृत हो जाने के बाद वहां भी एक उठते हुए स्तंभ का निर्माण होता है, जिसे स्टेलोमाइट कहते हैं। ये दोनों ठीक ऊपर-नीचे होते हैं और इनके मिलने से गुफा स्तंभ बनता है। वस्तुतः गुफा स्तंभ ही गुफा को आधार प्रदान करता है।
> कार्स्ट खिड़की : गुफा के छत के गिरने से गुफा की सतह दृष्टिगत होने लगती है, जिसे कार्स्ट खिड़की कहा जाता है।
> ट्रेवर्टाइन : अन्तर्भौम नदी के समापन की स्थिति में चूना प्रधान निक्षेप होता है, जिसे ट्रेवर्टाइन कहते हैं।
> प्राकृतिक पुल तथा प्राकृतिक सुरंग : कन्दरा की छत ध्वस्त हो जाने पर उसका कुछ अवशिष्ट भाग एक पुल की खाई में बचा रहता है। इसे प्राकृतिक पुल की संज्ञा दी जाती है। प्राकृतिक सुरंग एवं प्राकृतिक पुल देखने में एकसमान ही होते हैं। अन्तर सिर्फ इतना है कि प्राकृतिक सुरंग इतनी छोटी हो जाती है कि वह कन्दरा के दोनों पार्श्वों को मात्र जोड़ती है, तब उसे प्राकृतिक पुल कहते हैं ।
बीदी तथा स्वीजिक जोवान के अनुसार, कार्स्ट अपरदन की युवावस्था में मुख्यतः घोलरंध्र और अन्तर्भौम नदी का विकास होता है। प्रौढ़ावस्था में अंधी घाटी, गुफा और उससे संबंधित स्थलाकृतियों का विकास होता है, जबकि वृद्धावस्था में कार्स्ट खिड़की, कार्स्ट मैदान और हम्स जैसी स्थलाकृतियों का विकास होता है। वृद्धावस्था के साथ ही कार्स्ट अपरदन चक्र का समापन हो जाता है। दूसरा चक्र तब तक विकसित नहीं होता, जब तक कि उस प्रदेश की संरचना में आधारभूत परिवर्तन नहीं होता।
प्रश्न 3: भारत में पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की मिट्टी का वर्णन करें।
उत्तर : स्थलीय भू-पटल का वह ऊपरी सतह जिसका विकास यांत्रिक एवं रासायनिक अपक्षय, अपरदन एवं जलवायु के तत्वों द्वारा होता है, मिट्टी कहलाती है। मिट्टी के अध्ययन के विज्ञान को मृदा विज्ञान (Pedology ) कहा जाता है । वस्तुत: मिट्टी के निर्माण की प्रक्रिया विशिष्ट प्राकृतिक परिस्थिति में सम्पन्न होती है तथा प्राकृतिक वातावरण का प्रत्येक तत्व इसके निर्माण में अहम भूमिका निभाता है। भारत में अनेक प्रकार की जलवायु, वनस्पतियां, जीव-जन्तु आदि की भिन्नताओं के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार की मिट्टियों का निर्माण हुआ है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने
> भारत की मिट्टियों को आठ वर्गों में विभाजित किया है, जो निम्नवत् है – 
i) जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil) : यह मिट्टी भारत के लगभग 22% क्षेत्रफल पर पाई जाती है। इसका विस्तार लगभग 7.7 लाख वर्ग किलोमीटर है। यह नदियों द्वारा लायी गयी मिट्टी है। इस मिट्टी में पोटाश की बहुलता होती है, लेकिन नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा ह्यूमस की कमी होती है। जलोढ़ मिट्टी दो प्रकार की होती है
(a) बांगर (Bangar) और (b) खादर (Khadar)।
पुरानी जलोढ़ मिट्टी को बांगर तथा नयी जलोढ़ मिट्टी को खादर कहते हैं। उर्वरता के दृष्टिकोण से जलोढ़ मिट्टी काफी अच्छी मानी जाती है। इसमें धान, गेहूं, मक्का, तिलहन, दलहन, आलू आदि फसलें उगाई जाती हैं।
ii) काली मिट्टी (Black Soil) : रेगुर मिट्टी के नाम से जानी जाने वाली यह मिट्टी भारत के लगभग 5 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली है। इसका काला रंग टिटेनीफेरस मैग्नेटाइट एवं जीवांश (Humus) की उपस्थिति के कारण होता है। इस मिट्टी में आयरन, चूना, एल्युमिनियम एवं मैग्नेशियम की बहुलता होती है। कपास की खेती के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होने के कारण ही इसे काली कपास मिट्टी (Black Cotton Soil) भी कहा जाता है। अन्य फसलों में गेहूं, ज्वार, बाजरा आदि को इस मिट्टी में उगाया जाता है।
iii) लाल मिट्टी (Red Soil) : इस मिट्टी का निर्माण जलवायविक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप रवेदार एवं कायान्तरित शैलों के विघटन एवं वियोजन से होता है। इसका लाल रंग लौह ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण होता है, परन्तु जलयोजित रूप में यह पीली रंग की दिखाई पड़ती है। अम्लीय प्रकृति की इस मिट्टी में चूना का इस्तेमाल कर इसकी उर्वरता बढ़ाई जा सकती है। इस मिट्टी में कपास, गेहूं, दाल तथा मोटे अनाजों की कृषि की जाती है।
iv) लेटेराइट मिट्टी (Laterite Soil) : उष्णकटिबंधीय भारी वर्षा के कारण होने वाली तीव्र निक्षालन क्रिया के परिणामस्वरूप इस मिट्टी का निर्माण हुआ है। वर्षा में शुष्क और तर मौसम बारी-बारी से होता है, जिसके कारण शैल टूटती – फूटती रहती है, जिसके कारण लेटेराइट मिट्टी का निर्माण होता है। इसमें आयरन एवं सिलिका की बहुलता होती है। गहरी लाल लेटेराइट में लौह ऑक्साइड तथा पोटाश की बहुलता होती है। इसकी उर्वरता कम होती है, परन्तु चाय की खेती के लिए यह मिट्टी सर्वाधिक उपयुक्त होती है।
v) मरुस्थलीय मिट्टी (Desert Soil) : इस प्रकार की मिट्टी सिन्धु नदी और अरावली के बीच (पंजाब और राजस्थान) में उड़ती हुई रेत की भांति मिलती है। मरुस्थलीय मिट्टी में घुलनशील नमक की मात्रा उच्च होती है, परन्तु इसमें जैव पदार्थों की कमी होती है। सिंचाई के साधन द्वारा इस प्रकार की मिट्टी को उपजाऊ बनाया जा सकता है।
vi) क्षारीय मिट्टी (Alkaline Soil) : ये अनुर्वर एवं अनुत्पादक मिट्टियां रेत, ऊसर मिट्टी के रूप में भी जानी जाती है। ये मिट्टियां अपने में मैग्नीशियम, सोडियम और कैल्सियम लवण समाहित करती हैं। इसमें नमक की अधिक मात्रा शुष्क जलवायु तथा कम वर्षा के कारण होती है। इसका विस्तार पश्चिमी गुजरात, पूर्वी तट के डेल्टा तथा पश्चिमी बंगाल के सुन्दरवन क्षेत्र में है।
vii) पीटमय और जैव मिट्टी (Peats Soil) : पीटमय मिट्टी (जैविक मृदा) आर्द वातावरण में पाई जाती है। इसके अंतर्गत वे क्षेत्र आते हैं, जो उच्च ज्वार के समय जलमग्न हो जाते हैं। अतः इसमें लवण व नमी की अधिकता होती है। यह मृदा सुन्दर वन के तथा नारियल वृक्षों आदि के लिए अनुकूल यह प्राय: बिहार के उत्तरी भाग, उत्तरांचल के दक्षिणी भाग, पश्चिम बंगाल के तटीय क्षेत्र तथा ओडिशा एवं तमिलनाडु में पायी जाती है।
viii) वनीय मिट्टी (Forest Soil) : इस प्रकार की मिट्टी अधिकांशतः वनों एवं पर्वतीय क्षेत्रों में मिलती है। ये मिट्टियां उन क्षेत्रों को घेरती है जहां या तो पर्वतीय ढाल हो या वन्य क्षेत्रों में घाटियां हों। अच्छे उत्पादन के लिए इस मिट्टी का उर्वरण अत्यावश्यक है। इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, गढ़वाल व कुंमायूं क्षेत्र, सिक्किम, पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग (दार्जिलिंग क्षेत्र), अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों में है।
इस प्रकार, हम पाते हैं कि भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग प्रकार की मिट्टियां उपलब्ध हैं। इनके अलावा भी मिट्टियों के कई अनेक प्रकार है, पर मुख्य रूप से उपर्युक्त मिट्टियों को ही प्रमुखता दी गई है।
प्रश्न 4 : राष्ट्रीय जलमार्ग परिवहन का परिचय देते हुए अभी तक के घोषित सभी जलमार्गों का ब्योरा प्रस्तुत करें।
उत्तर : 305 ईसा पूर्व भारत में आए यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि गंगा व उसकी 17 सहायक नदियों और सिंधु एवं इसकी 13 सहायक नदियों से जलयात्रा की जा सकती है। 9वीं शताब्दी के शिलालेखों से पता चलता है कि तब राजाओं के पास नौकाओं का बेड़ा होता था, जिनका उपयोग भ्रमण, व्यापार तथा युद्ध काल में किया जाता था। 15-16वीं शताब्दी में भारत में जल परिवहन चरम पर था, जिसका मुगल शासनकाल में सर्वाधिक इस्तेमाल किया गया।
जल परिवहन किसी भी देश को सबसे सस्ता यातायात प्रदान करता है। इसके निर्माण में परिवहन मार्गों का निर्माण नहीं करना पड़ता और केवल परिवहन के साधनों से ही यातायात किया जाता है। इतना अवश्य है कि इसके लिए प्राकृतिक अथवा कृत्रिम मार्ग आवश्यक होते हैं। हमारे देश में आन्तरिक एवं सामुद्रिक दोनों प्रकार का जल परिवहन किया जाता है। देश में 65% सड़क मार्ग से, 27% रेल मार्ग से तथा केवल 0.5% जलमार्ग से परिवहन होता है। जलमार्ग से सस्ते परिवहन की दृष्टि से 50 पैसे प्रति किलोमीटर के करीब खर्च आता है, ₹1 रेलवे से और ₹1.50 प्रति किलोमीटर सड़क मार्ग से । इस प्रकार देश में जलमार्ग परिवहन की विकास की अपार संभावना है। वर्तमान में लगभग 14,500 किमी. लम्बा नौगम्य जलमार्ग देश में है, जिसमें नदियां, नहरें, अप्रवाही जल, यथा झील आदि संकरी खाड़ियां शामिल हैं। देश की प्रमुख नदियों में 3,700 किमी. लम्बे मार्ग का ही उपयोग किया जा रहा है। जहां तक नहरों का प्रश्न है, 4,300 किमी. लम्बी नौगम्य नहरों से मात्र 900 किमी. तक की दूरी नौकाओं द्वारा परिवहन के लिए उपयुक्त है। वर्तमान में आन्तरिक जल परिवहन के माध्यम से लगभग 160 लाख टन माल की ढुलाई प्रतिवर्ष की जा रही है।
> राष्ट्रीय जलमार्ग विधेयक-2015 में संशोधन :
9 दिसंबर, 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय जलमार्ग विधेयक- 2015 में आधि कारिक संशोधन करने को मंजूरी प्रदान की।
राष्ट्रीय जलमार्ग विधेयक 22 दिसम्बर, 2015 को लोकसभा में पारित हो गया। इस विधेयक में देश के भीतर जलमार्गों की सम्भावनाओं को उद्देश्यपरक बनाया गया है। भारत राष्ट्रीय जलमार्ग विधेयक में किया जाने वाला संशोधन परिवहन, पर्यटन और संस्कृति पर संसदीय स्थायी समिति की सिफारिशों और राज्य सरकारों की समीक्षा पर आधारित है। इस संशोधन के कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं
> यह संशोधन वर्तमान में पांच राष्ट्रीय जलमार्गों के साथ 106 अतिरिक्त अंतर्देशीय जलमार्गों को सम्मिलित करने की अनुमति देता है।
> इस प्रकार देश में 111 कार्यशील जल मार्ग हो जायेंगे।
> इन राष्ट्रीय जलमार्गों की घोषणा से भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आईडब्ल्यूएआई) को इन खंडों के लिए शिपिंग और नौवहन के लिए प्रयोग करने में सहायता मिलेगी।
> भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण (आईडब्ल्यूएआई) वित्तीय संसाधनों को एकत्र कर राष्ट्रीय जलमार्गों के विभिन्न खंडों को शिपिंग और नौवहन के लिए विकसित करेगा।
> प्रत्येक जलमार्ग के लिए आईडब्ल्यूएआई (IWAI) द्वारा किए गए तकनीकी आर्थिक अध्ययन के आधार पर ही आर्थिक निर्णय लिए जा सकेंगे।
> इस योजना के माध्यम से देश में माल ढुलाई, यात्रा आदि उद्देश्यों की पूर्ति के साथ-साथ पर्यटन के विकास में भी विशेष सहायता मिलेगी।
> देश में विकसित किये जा रहे छः राष्ट्रीय जलमार्ग
राष्ट्रीय जलमार्ग-1 घोषित किया गया है। इस जलमार्ग को राष्ट्रीय जलमार्ग अधिनियम, 1982 के उपबन्ध- 49 के तहत घोषित किया गया था। यह जलमार्ग भारत का पहला और सबसे लम्बा जलमार्ग है। इसकी लंबाई 1620 किमी. है। इस जलमार्ग की शुरुआत 27 अक्टूबर, 1985 को भारतीय अन्तर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण के गठन के साथ राष्ट्रीय जलमार्ग-1 (National Waterway-1) : इलाहाबाद से हुई। यह जलमार्ग उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड तथा पश्चिम बंगाल राज्यों से गुजरता है।
राष्ट्रीय जलमार्ग – 2 (National Waterway-2) : ब्रह्मपुत्र नदी में धुबरी से सदिया तक के मार्ग को राष्ट्रीय जलमार्ग – 2 कहा गया है। इस जलमार्ग को वर्ष 1988 में राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित किया गया था। इस जलमार्ग की कुल लंबाई 891 किमी. है। इस राजमार्ग के महत्वपूर्ण वाणिज्यिक केन्द्र धुबरी, गोगीघोपा, गुवाहाटी, तेजपुर, निमाती, डिब्रूगढ, सदिया तथा सायखोवा है
राष्ट्रीय जलमार्ग – 3 (National Waterway-3) : पश्चिमी भारत में स्थित तटीय नहरों की श्रृंखला को कोट्टापुरम से कोल्लम तक राष्ट्रीय जलमार्ग-3 घोषित किया गया है। इस जलमार्ग की शुरुआत वर्ष 1992 में हुई थी। इस राजमार्ग की कुल लंबाई 205 किमी. है।
राष्ट्रीय जलमार्ग – 4 (National Waterway-4) : काकीनाडा-पुदुचेरी नहर विस्तार के साथ गोदावरी नदी विस्तार तथा कृष्णा नदी विस्तार को सम्मिलित रूप से राष्ट्रीय जलमार्ग-4 कहा गया है। इस जलमार्ग की लंबाई 1095 किमी. है। यह जलमार्ग चेन्नई बन्दरगाह को काकीनाडा तथा मच्छलीपट्टम के बन्दरगाहों से जोड़ता है।
राष्ट्रीय जलमार्ग-5 (National Waterway-5) : पूर्वी तटीय नहर प्रणाली में ब्राह्मणी तथा महानदी डेल्टा क्षेत्र को राष्ट्रीय जलमार्ग-5 कहा गया है। यह जलमार्ग मंगलगड़ी से पारादीप बन्दरगाह के बीच 101 किमी. जलमार्ग को भी जोड़ता है। इस जलमार्ग की कुल लंबाई 623 किमी. है। इसकी शुरुआत 1985 में हुई थी। इसे वर्ष 2008 में राष्ट्रीय जलमार्ग घोषित कर दिया गया था।
राष्ट्रीय जलमार्ग – 6 (National Waterway-6) : भंगा से लखीपुर जलमार्ग को राष्ट्रीय जलमार्ग – 6 कहा गया है। अभी यह जलमार्ग की कुल लंबाई 121 किमी. है।
> जलमार्ग परिवहन में जुड़ा एक नया अध्याय :
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 12 नवंबर, 2018 को वाराणसी में देश का पहला मल्टी मॉडल वाटर टर्मिनल राष्ट्र को समर्पित किया। देश के पहले इनलैंड वाटरवे टर्मिनल पर पीएम मोदी ने हल्दिया से वाराणसी पहुंचे पहले मालवाहक जहाज ‘रवींद्रनाथ टैगोर’ की अगवानी की। इस दौरान उन्होंने ‘रवींद्रनाथ टैगोर’ से कंटेनर अनलोडिंग की शुरुआत भी की। इस परियोजना की कुल लागत ₹5370 करोड़ है। इससे चार राज्य – उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और प. बगाल जुड़ेंगे।
जल परिवहन मंत्रालय ने 1982 में गंगा में जल परिवहन की योजना पर काम शुरू किया था। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जहाजरानी मंत्री रहे राजनाथ सिंह ने इसके लिए पहल की थी। सरकार गिरने के बाद यह योजना ठप हो गयी थी। 2014 में नये सिरे से इस पर काम शुरू हुआ और देश में पहली बार कार्गो सेवा शुरू हुई। इस राष्ट्रीय जलमार्ग-1 की निम्नांकित विशेषताएं होगी
> 1,30,000 लोगों को मिलेगा रोजगारः जलपोत निर्माण व संचालन संरंध्रों से 46,000 प्रत्यक्ष और 84,000 अप्रत्यक्ष रोजगार मिलने की संभावना है।
> 10 से अधिक देश जुड़ेंगे : गंगा के रास्ते व्यापारिक गतिविधियां शुरू होने से उत्तर व पूर्वोत्तर भारत, बांग्लादेश, चीन, नेपाल, भूटान, म्यांमार, थाईलैंड और अन्य दक्षिण एशियाई देशों से जुड़ जायेगा।
> 45 मीटर चौड़ा गंगा चैनल तैयार: बड़े जहाजों को चलाने के लिए 45 मीटर चौड़ा गंगा चैनल तैयार किया गया है। पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए गंगा में ड्रेजिंग करवाया गया है।
> 1982 में पहली बार हुआ विचार: जल परिवहन मंत्रालय ने 1982 में गंगा में जल परिवहन की योजना पर काम शुरू किया था।
प्रश्न 5. (a) : झारखंड क्षेत्र के भौतिक स्वरूप का विभाजन |
उत्तर : भू-भाग का उच्चावच उसकी भू-गर्भिक बनावट का परिणाम होता है, ठीक उसी तरह भू-गर्भिक बनावट एवं उच्चावच के आधार पर उस भू-भाग का भौतिक स्वरूप निश्चित होता है। झारखण्ड का भौतिक स्वरूप अपनी भू-गर्भिक बनावट तथा उच्चावच  के साथ साथ भू गर्भिक हलचलों के परिणामस्वरूप भी निश्चित होता है। ये हलचलें प्री कैम्ब्रियन काल में लेकर टर्शियरी कल्प तक होती रहे हैं और अनेक निर्माण इनकी रूपरेखा निश्चित करने में सहयोगी रही है। झारखण्ड राज्य उत्तरी गोलार्द्ध में 21°59′ उत्तरी अक्षांश से 25°18′ उत्तरी अक्षांश तथा 83°20′ पूर्वी देशांतर से 87°57′ पूर्वी देशांतर के मध्य विस्तृत है। यह राज्य उत्तर में बिहार, दक्षिण में उड़ीसा, पश्चिम में उत्तर प्रदेश व छत्तीसगढ़ तथा पूर्व में प. बंगाल से घिरा हुआ है। भौतिक दृष्टि से यह सम्पूर्ण राज्य छोटानागपुर पठार पर विस्तृत है। यह पठार विश्व के प्राचीनतम भू-खण्डों में से है, जिसमें आर्कियन चट्टानों की प्रधानता है। यह पठार एक अपरदित पठार है, जिसकी औसत ऊंचाई 700 मी. है।
उच्चावच के दृष्टिकोण से झारखण्ड को निम्न भौतिक विभागों में बांटा जा सकता है
(i) पाट क्षेत्र : यह झारखण्ड का सबसे ऊंचा भू-भाग है, (पारसनाथ पहाड़ी को छोड़कर) राज्य के पश्चिमी भाग में स्थित चौरस धरातल वाले पठारों को पाट कहा जाता है। यह पठार उत्तरी कोयल तथा शंख इत्यादि नदियों की गहरी घाटियों द्वारा कई छोटे-छोटे पठारों में विभक्त है। ऐसे पठारों में नेतरहाट पाट, बगरु पाट, जमीरा पाट, खामेर पाट, राजडेरा पाट आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पाटों से उतरने वाली नदियां मार्ग में गहरी घाटियां व जलप्रपात बनाती हैं। जमीरा पाट से उतरने वाली बुरहा नदी के मार्ग पर बुरहा घाघ झारखण्ड का एक प्रमुख जलप्रपात है। इसका विस्तार लातेहार, लोहरदगा और गुमला जिलों में पाया जाता है। इस क्षेत्र की औसत ऊंचाई 900-1100 मीटर है। यहां नेतरहाट सबसे ऊंचा क्षेत्र है। इस क्षेत्र की तुलना दक्षिण पठार की मेसा आकृत्ति से की जा सकती है। इस क्षेत्र में दक्कन लावा के अवशेष पाये जाते हैं।
(ii) रांची एवं हजारीबाग का पठार / मध्यवर्ती पठार : यह झारखण्ड का दूसरा ऊंचा भू-भाग है। इसकी औसत ऊंचाई लगभग 600 मीटर है। दामोदर नदी हजारीबाग एवं रांची के पठार को दो भागों में बांटती है। पाट पठार के पूर्वी भाग में रांची का पठार स्थित है। यह रांची, गुमला एवं लोहरदगा जिलों में विस्तृत है। सम्पूर्ण पठार की ढाल दक्षिण व पूर्व की ओर है। यह पठार अपरदनात्मक समप्राय मैदान है, जहां ग्रेनाइट व नीस की गुम्बदाकार अवशिष्ट पहाड़ियां नजर आती हैं। छोटानागपुर पठार के मध्य में हजारीबाग का पठार स्थित है। इस पठार की औसत ऊंचाई 600 मीटर है तथा इसके पश्चिम में स्थित चतरा पठार की ऊंचाई 300 से 500 मीटर है।
(iii) कोडरमा पठार: यह पठार गंगा के दक्षिणी मैदान व हजारीबाग पठार के मध्य स्थित है। इसकी औसत ऊंचाई 450 मी. है। इसी पठार पर पारसनाथ की पहाड़ी स्थित है, जिसकी ऊंचाई 1,365 मी. है। यह झारखण्ड का सबसे ऊंचा भाग है।
(iv) चाईबासा का मैदान : पश्चिमी सिंहभूम का पूर्वी मध्यवर्ती भाग चाईबासा का मैदान कहलाता है। इसकी औसत ऊंचाई लगभग 150 मीटर है। यह उत्तर में दलमा श्रेणी, पूर्व में धालभूम की श्रेणी, दक्षिण में कोल्हान पहाड़ी, पश्चिम में सारंडा तथा उत्तर-पश्चिम में पोड़ाहाट की पहाड़ी से घिरा है।
(v) दलमा श्रेणी : यह श्रेणी कैम्ब्रियन पूर्व की कायांतरित चट्टानों तथा लावा से निर्मित है। यह श्रेणी रांची के पठार को चाईबासा के मैदान से अलग करती है । दलमा श्रेणी से निकलने वाली नदियों ने इस क्षेत्र में कई गहरी घाटियों का निर्माण किया है। पूर्व में स्वर्णरेखा नदी चांडिल के समीप दलमा श्रेणी को काट कर दक्षिण की ओर प्रवाहित होती है।
(vi) राजमहल क्षेत्र : छोटानागपुर पठार के उत्तर-पूर्वी भाग में स्थित राजमहल पहाड़ी कोडरमा व हजारीबाग के पठार से पूर्व में बिहार व बंगाल की सीमा रेखा तक विस्तृत है। इस क्षेत्र की औसत ऊंचाई 300 मी. है। इसका उत्तरी भाग राजमहल पहाड़ियों का क्षेत्र है, जिसका निर्माण लावा प्रवाह से हुआ है। इस पहाड़ी का दक्षिण भू-भाग ग्रेनाइट व नीस चट्टानों से बना है। इस सम्पूर्ण प्रदेश का ढाल पूर्व व दक्षिण-पूर्व की ओर है। गुमानी एवं अजय जैसी नदियों का प्रवाह धरातलीय ढाल की विशेषताओं के अनुरूप है।
(vii) पलामू क्षेत्र : छोटानागपुर पठार के उत्तर-पश्चिम भाग में स्थित पलामू क्षेत्र की औसत ऊंचाई 400 मी. है। मूल रूप से ग्रेनाइट व नीस चट्टानों से बने इस क्षेत्र में विंध्यन काल की परतदार चट्टानें भी मिलती हैं। इसके उत्तर में सोन नदी व दक्षिण में उत्तरी कोयल नदी प्रवाहित होती है।
प्रश्न 5. (b) : झारखंड प्रदेश में नगरीय विकास |
उत्तर : झारखण्ड में आधुनिक नगरीय क्षेत्रों का विकास संक्रमण काल में प्रारंभ होता है। संक्रमण काल का तात्पर्य है, मुगल काल का अंत और ब्रिटिश काल का आरंभ (18वीं से 19वीं सदी) । वेस्ट फ्रंटियर एजेन्सी के एजेन्ट के रूप में अंग्रेजों का जब प्रथम आगमन झारखण्ड क्षेत्र में हुआ तो अपना मुख्यालय शेरघाटी के बाद सर्वप्रथम चतरा में ही बनाया। 1771 से 1780 के बीच चतरा कमिश्नरी मुख्यालय रहा। इस समय अंग्रेजों का आना-जाना शेरघाटी और चतरा दोनों जगह था, किन्तु स्थायी रूप में इनका निवास 1780 में रामगढ़ में हुआ। यहां 1834 तक इनका मुख्यालय रहा। इस प्रकार, झारखण्ड का प्रथम शहर देवघर के बाद चतरा दूसरा और रामगढ़ तीसरा नगर था । 1780 तक झारखण्ड के तीन प्रमुख नगरों की स्थापना हो चुकी थी।
1843 में लोहरदगा मुख्यालय बनाया गया। यह वह काल है, जब 1845 में देश पहली बार रेल से परिचित हुआ था। इससे पूर्व यहां रेल नहीं थी। 1852 में रांची की नींव किशुनपुर में रखी गयी, जब लोहरदगा से मुख्यालय हटाकर यहां ले आया गया। 1856 में संथाल परगना जिले का मुख्यालय दुमका बना। 1860 में डाल्टन ने डाल्टेनगंज शहर की स्थापना पलामू में की। बाद में (1892 में) यह जिला बनाया गया। 1880 में धनबाद शहर की स्थापना हुई और 1886 में हजारीबाग नगरपालिका का गठन हुआ, जिसमें अंग्रेज ही चेरयमैन होता था। 1891 में झरिया शहर की स्थापना कोयला खनन के लिए हुई और इस शताब्दी के अंत में ( 1900 ई. में) कोडरमा की स्थापना हुई। यह 19वीं शताब्दी का अंत था।
20वीं शताब्दी के आरंभ में गुमला सब-डिवीजन घोषित हुआ है। 1905 में खूंटी अनुमण्डल बना। इसी समय झारखण्ड में प्रथम बार पुरूलिया-रांची रेलवे की शुरुआत छोटी लाइन के रूप में हुई। 1907 में साकची में जमशेदपुर या टाटानगर की स्थापना हुई और यहीं से झारखण्ड के बड़े निर्माण उद्योग की शुरुआत हुई। 1915 में सिमडेगा को अनुमण्डल बनाया गया। 1949 में चाईबासा शहर चिन्हित हुआ और सिंहभूम जिले का गठन हुआ। इससे दो वर्ष पूर्व देश आजाद हुआ था। आजादी के बाद झारखण्ड की बड़ी उपलब्धि थी 1964 में बोकारो इस्पात कारखाना की स्थापना या इस्पात नगर की स्थापना।
आजादी के पूर्व झारखण्ड में नगरीकरण की गति धीमी रही जो आजादी के बाद काफी तीव्र हो गयी है। खनन उद्योग, दामोदर घाटी परियोजना, टाटा इस्पात नगर आदि के कारण अनेक उद्योगों की शुरुआत इस क्षेत्र में हुई, जिससे अनेक छोटे-छोटे नगरीय केन्द्र उद्भूत हुए। सिंदरी, कतरास, बोकारो, करगली, जसीडीह, बेरमो, फुसरो आदि कई नगर उभरे। लोहा और तांबा खनन उद्योग के कारण जमशेदपुर, घाटशिला, मुसाबनी, गुआ आदि शहरों का विकास हुआ है।
आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि 1872 में झारखण्ड क्षेत्र के अंतर्गत केवल 8 नगर थे। ये नगर जनसंख्या के साथ इस प्रकार थे- रांची (12641), हजारीबाग (11050) चाईबासा (4641), डाल्टेनगंज (1113) ये सभी जिला मुख्यालय थे। सभी नगर सामान्यतः प्रशासकीय नगर थे। प्रशासकीय प्रकार्य के अतिरिक्त यहां की मंडी और बाजार संग्रह केन्द्र की तरह कार्य करते थे, जहां से ग्रामीणों को आवश्यक वस्तुएं प्राप्त होती थीं।
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