JPSC मॉडल प्रश्न-पत्र विषय : सामान्य विज्ञान, पर्यावरण एवं प्रौद्योगिकी विकास
JPSC मॉडल प्रश्न-पत्र विषय : सामान्य विज्ञान, पर्यावरण एवं प्रौद्योगिकी विकास
Model Question-Paper
Subject : General Science, Environment & Technology Development
विषय : सामान्य विज्ञान, पर्यावरण एवं तकनीकी विकास
सामान्य निर्देश : (i) अभ्यर्थी से सभी प्रश्नों के उत्तर अपेक्षित हैं।
(ii) प्रश्न संख्या 1 (एक) अनिवार्य है एवं वस्तुनिष्ठ प्रकार का है।
(iii) प्रश्न संख्या 1 (एक) में 20 (बीस) प्रश्न हैं। प्रत्येक 2 (दो) अंक के हैं।
(iv) प्रश्न संख्या 2 से 6 विवरणात्मक है जिनके उत्तर 500-600 शब्दों से अधिक न हों।
(v) प्रश्न संख्या 2 से 6 के सभी प्रश्नों के मान बराबर हैं तथा प्रत्येक प्रश्न 32 (बत्तीस) अंक का है।
Instruction : (i) Candidates are required to answer all questions.
(ii) Question number 1 (One ) is compulsory and is of objective type.
(iii) Question number 1 has 20 (twenty ) questions carrying 2 (two) marks each.
(iv) Question number 2 to 6 are of descriptive nature and answer should not exceed 500-600
(v) Question number 2 to 6 are of equal value carrying 32 ( thirty two) marks each.
1. निम्नांकित बहुवैकल्पिक प्रश्नों का सही उत्तर विकल्प में से दें।
(i). एक खगोलीय मानक औसत दूरी है :
(a) पृथ्वी और सूर्य के बीच की
(b) पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच की
(c) वृहस्पति और सूर्य के बीच की
(d) प्लूटो और सूर्य के बीच की
(ii). एक लड़की झूले पर बैठी स्थिति में झूला झूल रही है। उस लड़की के खड़े हो जाने पर दोलनों का आवर्तकाल होगा :
(a) लड़की की ऊंचाई पर निर्भर करेगा
(b) अधिक हो जाएगा
(c) कम हो जाएगा
(d) अपरिवर्तित होगा
(iii). हम प्रतिध्वनि कैसे सुनते हैं ?
(a) ध्वनि तरंगों के कम्पन के कारण
(b) ध्वनि तरंगों के अपवर्तन के कारण
(c) ध्वनि तरंगों के परावर्तन के कारण
(d) उपरोक्त सभी
(iv). सूर्य के बाद सबसे अधिक चमकीला तारा है
(a) अल्फा सेन्चुयरी
(b) कैपेला
(c) कैनोपस
(d) सिरियस
(v) ATP का निर्माण होता है :
(a) राइबोसोम में
(b) गॉल्जीकाय में
(c) माइट्रोकॉन्ड्रिया में
(d) इनमें से कोई नहीं
(vi). वह कौन-सा हार्मोन है, जो गैसीय अवस्था में पाया जाता है ?
(a) जिबरेलिन
(b) साइटोकाइनिन
(c) फ्लोरिजन
(d) इथिलीन
(vii). अर्द्धसूत्री विभाजन होता है
(a) पत्ती में
(b) जनन कोशिकाओं में
(c) मूलाग्र में
(d) इनमें से कोई नहीं
(viii). लिंग का निर्धारण किस गुणसूत्र द्वारा होता है?
(a) 22वें जोड़े द्वारा
(b) 20वें जोड़े द्वारा
(c) 23वें जोड़े द्वारा
(d) उपरोक्त सभी
(ix). इनमें से कौन-सा खरीफ फसल नहीं है ?
(a) कपास
(b) मूंगफली
(c) मकई
(d) सरसों
(x). निम्न में से कौन-सा जीवाणु नाइट्रोजन यौगिकीकरण में समर्थ है ?
(a) क्लॉस्ट्रीडियम
(b) एजोटोबैक्टर
(c) A और B दोनों
(d) इनमें से कोई नहीं
(xi). झारखण्ड में पायी जाने वाली मिट्टियों में सबसे नवीन मिट्टी
(a) लाल मिट्टी
(b) काली मिट्टी
(c) लैटराइट मिट्टी
(d) जलोढ़ मिट्टी
(xii). राजमहल पहाड़ी के कृषि क्षेत्र की औसत ऊंचाई कितनी है ?
(a) 100-130 फीट
(b) 150-200 फीट
(c) 300-400 फीट
(d) 500-1000 फीट
(xiii). भारत में सर्वप्रथम तेल कुंआ खोदा गया :
(a) डिग्बोई में
(b) माकूम में
(c) नहरकटिया में
(d) लकवा में
(xiv). वायु में प्रदूषक कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) के अत्यधिक मात्रा में मोचन से मनुष्य के शरीर में ऑक्सीजन आपूर्ति में कमी लाने वाली अवस्था उत्पन्न हो सकती है। यह अवस्था किस कारण उत्पन्न होती है?
(a) अन्तःश्वसन में ली गई CO शरीर में पहुंचने पर CO, में रूपान्तरित हो जाती है
(b) अन्त: श्वसन में ली गई CO की, ऑक्सीजन की तुलना में हीमोग्लोबिन के प्रति कहीं अधिक बन्धुता है
(c) अन्त: श्वसन में ली गई CO हीमोग्लोबिन की रासायनिक संरचना को नष्ट कर देती है
(d) अन्त:श्वसन में ली गई CO मस्तिष्क के श्वसन केन्द्र पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है
(xv). निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए :
1. जैव विविधता हॉटस्पॉट केवल उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में स्थित है।
2. भारत में चार जैव विविधता हॉटस्पॉट अर्थात् पूर्वी हिमालय, पश्चिमी हिमालय, पश्चिमी घाट तथा अण्डमान एवं निकोबार द्वीप हैं।
> उपरोक्त कथनों में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?
(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) ना तो 1 और न ही 2
(xvi). ओजोन की परत किस रसायन से मुख्यतया नष्ट हो रही है ?
(a) सी. एफ. सी
(b) मीथेन गैस
(c) एल. पी. जी
(d) नाइट्रोजन गैस
(xvii). नई विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति 2003 के उद्देश्यों के संबंध में निम्न कथनों पर विचार कर कूट की सहायता से बताइए कि इनमें से कौन-सा सही है?
1. विद्यमान भौतिक एवं बौद्धिक स्रोतों का सर्वाधिक उपकरणीय उपयोग
2. नवीन प्रवर्तनीय प्रौद्योगिकी का विकास
3. प्राकृतिक संकटों को कम करने और उनसे निपटने हेतु पद्धति और प्रौद्योगिकी का विकास
4. बौद्धिक सम्पत्ति का संबंध
कूट :
(a) 1 और 2
(b) 1, 2 और 3
(c) 1, 3 और 4
(d) ये सभी
(xviii). निम्न में से प्राक्षेपिक मिसाइल (Balistic Missile) कौन है ?
(a) आकाश
(b) त्रिशुल
(c) अग्नि
(d) पृथ्वी
(xix). निम्नलिखित में से कौन-सा अंतरिक्ष उपग्रह (Space Satellite) नहीं है ?
(a) एस. एल. वी. – 3 (SLV-3)
(b) ओशियनसेट-I (OCEANSET-I)
(c) आई. आर. एस. – 1 डी (IRS-1D)
(d) आई. एन. एस. ए. टी. – 2 डी ( INSAT-2D)
(xx). निम्नलिखित में से कौन सूचना प्रौद्योगिकी की
शब्दावली का भाग है ?
(a) प्रोटाकॉल
(b) लोगिन
(c) आर्ची
(d) ये सभी
2. ऊर्जा से क्या समझते हैं? ऊर्जा संरक्षण सिद्धान्त की व्याख्या करें ।
3. ध्वनि की अवधारणा एवं प्रकृति को स्पष्ट करें। इसकी मुख्य विशेषताओं का उल्लेख करें ।
4. जीनोम तकनीक से आप क्या समझते हैं? चिकित्सा विज्ञान में इसे कैसे उपयोग किया जा सकता है ?
5. ‘स्टेम सेल’ से आप क्या समझते हैं? चिकित्सा विज्ञान में इसकी उपयोगिता बताएं।
6. झारखण्ड में वन्य जीव संरक्षण के लिए कौन-कौन से कदम उठाए गये हैं?
7. जैविक खेती की अवधारणा को स्पष्ट करें। झारखण्ड में जैविक खेती की स्थिति की विवेचना करें।
8. वायुमंडल में ओजोन निर्माण की क्या प्रक्रिया है? उन क्षेत्रों का वर्णन करें, जहां ओजोन परत का क्षरण हो रहा है।
9. जैव विविधता से आप क्या समझते हैं? जैव विविधता के महत्व की विवेचना करें।
10. विज्ञान प्रौद्योगिकी और नवोन्मेष नीति, 2013 की विशेषता सहित विवेचना करें।
11. भारत में जैव तकनीक राष्ट्रीय विकास को निश्चित करता है, स्पष्ट करें।
> व्याख्या एवं आदर्श उत्तर (Model Answer)
उत्तर 1 : वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर
(i). (a) : सूर्य व पृथ्वी के बीच की औसत दूरी को एक खगोलीय इकाई कहते हैं ।
एक खगोलीय इकाई = 1.496 × 10¹¹ मीटर
(ii). (c) : झूले को एक सरल लोलक माना जा सकता है, जिसका दोलनकाल होता है :
T=2π√i/g,L = लोलक की प्रभावी लंबाई । जब लड़की खड़ी होगी, तो उसके शरीर का गुरुत्व केन्द्र ऊंचा हो जाएगा और L का मान कम हो जाएगा। फलस्वरूप T का मान भी कम हो जाएगा। स्मरणीय है कि L = लड़की के गुरुत्व केन्द्र और रस्सी ऊपर जहां पर बांधी गई है (ऊपर किसी वृक्ष की डाली से या कुन्दे से) उस बिन्दु के बीच की दूरी है।
(iii). (c): प्रतिध्वनि में हमारे कान पर सुनी गई ध्वनि का प्रभाव 9.1 सेकण्ड तक रहता है। अतः हमें प्रतिध्वनि अर्थात् परिवर्तित ध्वनि तभी स्पष्ट सुनाई देगी, जब वह कम से कम 0.1 सेकण्ड पश्चात् पहुंचे। चूंकि वायु में ध्वनि 1 सेकण्ड में 332 मीटर चलती है। अतः 0.1 सेकण्ड में चली गई दूरी = 33.2 मीटर | अतः प्रतिध्वनि सुनने के लिए परावर्तक तल की दूरी श्रोता से कम से कम 33.2/2 = 16.6 मीटर या लगभग 17 मीटर होनी चाहिए ।
(iv).(d) : सिरियस की पृथ्वी से दूरी 8.8 प्रकाश वर्ष है, जबकि सूर्य की दूरी 1.6 × 10 – 5 प्रकाश वर्ष है। सूर्य की चमक का परिणाम – 26.5 है, जबकि सिरियस का – 1.5 है। चन्द्रमा (एक उपग्रह) का – 12.5 व शुक्र ( एक ग्रह ) का 4 है।
(v). (c) : ATP का निर्माण माइटोकॉन्ड्रिया में होता है। एक माइटोकॉन्ड्रिया 1.5-40p तक लंबी तथा 0-5u तक मोटी हो सकती है। कोशिका के अंदर इसका निर्माण पुरानी माइटोकॉन्ड्रिया की बडिंग से बनी माइटोकॉन्ड्रिया से होता है। इसे कोशिका का ‘पावर हाउस’ कहा जाता है, क्योंकि इसमें मौजूद बहुत सारे श्वसन प्रकिण्व की मदद से इलेक्ट्रॉन स्थानांतरण द्वारा एडिनोसिन ट्राइफॉस्फेट ATP का निर्माण होता है।
(vi). (d): इथिलीन एकमात्र ऐसा हार्मोन है, जो गैसीय अवस्था में पाया जाता है। हार्मोन के रूप में इसे 1962 में बर्ग ने में प्रतिस्थापित किया। यह फलों के पकने में सहायक होता है। साथ ही, तने के फूलने में भी मदद पहुंचाता है। यह
मूलरोमों (Root Hairs) के निर्माण, बीजों के अंकुरण तथा मादा पुष्पों की संख्या में वृद्धि को प्रेरित करता है।
(vii). (b) : अर्द्धसूत्री विभाजन जनन कोशिकाओं-शुक्राणु एवं अंडाणु में होता है। इसके द्वारा जंतुओं में शुक्राणु एवं अंडाणु तथा पादप में नर एवं मादा युग्मक बन जाते हैं। इसमें कोशिकाओं का विभाजन दो बार होता है।
(viii). (c) : मनुष्य के 23जोड़े गुणसूत्रों में से नर एवं मादा दोनों में 22 जोड़े गुणसूत्र समान ही होते हैं, जिन्हें ऑटोसोम्स कहते हैं। मादा के 23वें जोड़े के दोनों गुणसूत्र भी समान होते हैं, जबकि नर के 23वें जोड़े के गुणसूत्र असमान होते हैं। इनमें से एक लंबा एवं दूसरा छोटा होता है। मादा एवं नर गुणसूत्र के विशेष जोड़े, जिन्हें लिंग गुणसूत्र कहते हैं, को क्रमशः ‘XX’ एवं ‘XY’ द्वारा निरूपित किया जाता है। मादा एवं नर के ये 23वें जोड़े गुणसूत्र ही लिंग गुणसूत्र कहलाते हैं, क्योंकि इन्हीं के द्वारा लिंग का निर्धारण हो पाता है।
(ix). (d) : खरीफ फसलों को बोते समय अधिक तापमान एवं आर्द्रता तथा पकते समय शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है। धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, मूंग, मूंगफली, गन्ना, कपास आदि प्रमुख खरीफ फसले हैं, जबकि रबी फसलों (Rabi crops) को बोते समय कम तापमान तथा पकते समय शुष्क और गर्म वातावरण की आवश्यकता होती है। ये फसलें सामान्यतः अक्टूबर, नवम्बर के महीनों में बोई जाती हैं। गेहूं, जौ, चना, सरसों, बरसीम आदि प्रमुख रबी फसलें हैं ।
(x). (b) : एजोटोबैक्टर नामक जीवाणु नाइट्रोजन यौगिकीकरण में समर्थ है। इसमें नाइट्रोजन यौगिकीकरण के अलावा बीजों के अंकुरण में वृद्धि की क्षमता पायी जाती है, परिणामस्वरूप प्रति इकाई क्षेत्रफल में पौधों की संख्या में वृद्धि होती है। साथ ही पौधों की जड़ों के जीव-भार में भी वृद्धि हो जाती है, जिसके फलस्वरूप प्रारंभ में पौधों में विशेष प्रकार की शक्ति का संचार हो पाता है । (xi).(d) : झारखण्ड में पायी जाने वाली जलोढ़ मिट्टी सबसे नवीन मिट्टी है। इसमें मृदा परिच्छेदिका विकसित नहीं हुई है। इस मिट्टी में चूना तथा पोटाश की अधिकता पायी जाती है, जबकि इसमें नाइट्रोजन एवं ह्यूमस की कमी पायी जाती है।
(xii ). (d) : राजमहल पहाड़ी कृषि क्षेत्र की औसत ऊंचाई 500-1000 फीट के बीच पाई जाती है। यहां औसत वार्षिक वर्षा 100-130 सेमी. के बीच होती है।
(xiii). (a) : डिग्बोई असम की तेल नगरी के रूप में जाना जाता है। डिग्बोई में (एशिया में) पहली बार तेल कुएं का खनन हुआ था। 1901 में यहां एशिया की पहली रिफाइनरी को शुरू किया गया था। डिग्बोई में अभी तक उत्पादन करने वाले कुछ सबसे पुराने तेल कुएं हैं ।
(xiv). (b) : हीमोग्लोबिन के प्रति ऑक्सीजन की बंधुता, कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) की तुलना में कम है। कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) की हीमोग्लोबिन के प्रति बंधुता ऑक्सीजन की तुलना में 200 गुना ज्यादा है। जब हीमोग्लोबिन कार्बन मोनोऑक्साइड से मिलता है, तो कार्बोक्सी हीमोग्लोबिन बनाता है। कार्बोक्सी हीमोग्लोबिन बहुत ही चमकीला लाल यौगिक है, जो मनुष्य के शरीर में ऑक्सीजन आपूर्ति में कमी लाता है।
(xv). (d) : जैव विविधता का तात्पर्य है- सभी तरह के जीव जंतुओं और पौधों की अलग प्रजातियों की कुल संख्या । जैव विविधता हॉटस्पॉट केवल उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में स्थित नहीं है। बल्कि यह उपोष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में भी पाया जाता है। जैसे – कैलिफोर्निया फ्लोरिस्टिक राज्य, जापानी द्वीप समूह इत्यादि । अतः कथन 1 गलत है। भारत में पश्चिमी हिमालय एवं अण्डमान निकोबार द्वीप जैव विविधता हॉटस्पॉट नहीं है। अतः कथन 2 भी गलत है। अत: उत्तर विकल्प (D) होगा।
(xvi). (a) : ओजोन परत क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सी. एफ. सी) से नष्ट हो रही है। सी. एफ. सी. ओजोन गैस को ऑक्सीजन में विघटित कर देती है, जिसकी वजह से ओजोन परत पतली हो जाती है और उनमें छिद्र हो जाते हैं। ओजोन परत में छिद्र का आकार यूरोप के कुल आकार के बराबर हो गया है ।
(xvii). (d) : भारत सरकार ने वर्ष 2003 में नई विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति जारी की। इसके अंतर्गत उपरोक्त चारों तथ्य सम्मिलित हैं –
1. विद्यमान भौतिक एवं बौद्धिक स्रोतों का सर्वाधिक उपकरण उपयोग,
2. नवीन प्रवर्तनीय प्रौद्योगिकी का विकास
3. प्राकृतिक संकटों को कम करने और उनसे निपटने हेतु पद्धति और प्रौद्योगिकी का विकास एवं
4. बौद्धिक सम्पत्ति का प्रबंध ।
(xviii).(c): अग्नि मध्यम दूरी तक सतह से सतह पर मार करने वाली प्राक्षेपिक मिसाइल है। इसका पहला परीक्षण 22 मई, 1989 ई. को ओडिशा के बालासोर जिले में स्थित चांदीपुर के अंतरिम परीक्षण केन्द्र से किया गया, जो सफल रहा था। यह IRBM (Intermediary Range Balistic Missile) मिसाइल है। इसकी मारक क्षमता 1000-2500 किमी. है।
(xix ) . (a) : एस. एल. वी. 3 (SLV-3) अंतरिक्ष उपग्रह नहीं है। यह एक उपग्रह प्रक्षेपित यान है। भारत का पहला प्रक्षेपण यान एस. एल. वी. – 3 था, जिसका 18 जुलाई, 1980 को सफल परीक्षण किया गया। यह चार चरणों वाला साधारण क्षमता का प्रक्षेपण यान था, लेकिन इसमें कुछ खराबी आने के कारण यह उड़ान असफल सिद्ध हो गई। इसकी दूसरी और चौथी उड़ान पूर्णतः सफल रही थी। ओशियनसेट-I (OCEANSET – I), आई. आर. एस. – 1 डी. (IRS-1D) एवं इन्सेट-2D अंतरिक्ष उपग्रह हैं।
(xx). (d) : प्रोटोकॉल, लोगिन एवं आर्ची आदि सभी सूचना प्रौद्योगिकी की शब्दावलियां हैं। कम्प्यूटर विज्ञान या सूचना प्रौद्योगिकी के संदर्भ में प्रोटोकॉल कम्प्यूटरों के बीच सूचना विनिमय करने के लिए विषयों का क्षेत्र है। कम्प्यूटर सुरक्षा के संदर्भ में लोगिन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा कोई व्यक्ति अपनी पहचान साबित कर किसी कम्प्यूटर या सुविधा के प्रयोग का अधिकार प्राप्त कर सकता है। आर्ची इटंरनेट आधारित एक खोज सुविधा है।
प्रश्न 2 : ऊर्जा से क्या समझते हैं? ऊर्जा संरक्षण सिद्धान्त की व्याख्या करें।
उत्तर : ऊर्जा (Energy ) : किसी कर्त्ता के कार्य करने की कुल क्षमता उसकी ऊर्जा कहलाती है। इसका SI मात्रक जूल होता है। ऊर्जा एक अदिश राशि है। उदाहरण के लिए वास्तव में जब कभी कोई वस्तु अन्य वस्तु पर कार्य करती है, तो कार्य करने वाली वस्तु की ऊर्जा खर्च होती है और जिस पर कार्य किया जाता है उसकी ऊर्जा बढ़ जाती है। इस प्रकार, किया गया कार्य = स्थानान्तरित ऊर्जा। कार्य द्वारा प्राप्त ऊर्जा यान्त्रिक ऊर्जा कहलाती है। यह दो प्रकार की होती है
(i) गतिज ऊर्जा (Kinetic Energy ) : पिंड में उसकी गति के कारण कार्य करने की जो क्षमता होती है, उसे उसकी गतिज ऊर्जा कहते हैं ।
K.E. = 1/2mv2 (जहां, m = द्रव्यमान, v = वेग)
उदाहरणार्थ, हवा का बहना, पानी का बहना, बंदूक से गोली का निकलना, लट्टू का घूमना आदि।
वस्तु का आरंभिक वेग जितना ही अधिक होता है, वह विरामावस्था में आने तक उतना ही अधिक कार्य करती है। वस्तु का द्रव्यमान जितना ही अधिक होगा, उसकी कार्य करने की क्षमता भी उतनी ही अधिक होगी, क्योंकि बल, द्रव्यमान का समानुपाती होता है।
संवेग तथा गतिज ऊर्जा में संबंध ( Relation between Momentum & Kinetic Energy ) :
(ii) स्थितिज ऊर्जा (Potential Energy) : किसी पिंड में अपनी स्थिति के कारण कार्य करने की जो क्षमता होती है, उसे उसकी स्थितिज ऊर्जा कहते हैं।
P.E. (4) = mgh द्रव्यमान × गुरुत्वीय त्वरण x ऊंचाई = उदाहरणार्थ, कांटी ठोंकने हेतु उठाया गया हथौड़ा, किसी ऊंचाई पर स्थित वस्तु, घड़ी के कमानी की ऊर्जा, खींची हुई स्प्रिंग की ऊर्जा आदि।
ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत (Law of Conservation of Energy) : सर्वप्रथम जर्मनी के रॉबर्ट मेयर ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसके अनुसार, “विश्व की कुल ऊर्जा हमेशा नियत रहती है। ऊर्जा का न तो नाश किया जा सकता है और न निर्माण। इसका सिर्फ रूपांतरण संभव है । “
जब कोई ऊर्जा एक रूप में नष्ट हो जाती है, तो वह ठीक उतने ही परिमाण में किसी अन्य रूप में प्राप्त हो जाती है। उदाहरणार्थ, जब बंदूक से गोली छूटती है, तो उस समय गोली में गतिज ऊर्जा रहती है, किसी चीज से टकराने पर गोली की यह गतिज ऊर्जा ऊष्मा, ध्वनि एवं स्थितिज ऊर्जा के रूप में प्राप्त हो जाती है।
यदि वस्तु को स्वतंत्र रूप से गुरुत्व के अधीन गिरने दिया जाये, तो इसका वेग बढ़ता जाएगा तथा जमीन की सतह से इसकी ऊंचाई घटती जाएगी। फलतः इसकी गतिज ऊर्जा (K.E.) बढ़ती जाएगी और स्थितिज ऊर्जा (P.E.) घटती जाएगी। जब वस्तु पृथ्वी को स्पर्श करने पर होगी, तो उसकी कुल ऊर्जा, गतिज ऊर्जा में रूपांतरित हो चुकी होगी । पृथ्वी की सतह पर जब वस्तु रुक जाती है, तो उसकी कुल ऊर्जा, ऊष्मा एवं ध्वनि के रूप में बदल जाती है ।
प्रश्न 3 : ध्वनि की अवधारणा एवं प्रकृति को स्पष्ट करें। इसकी मुख्य विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर : ध्वनि सदैव किसी-न-किसी वस्तु के कम्पन करने से उत्पन्न होती है। जब हम किसी घंटे पर चोट मारते हैं, तो हमें ध्वनि सुनाई पड़ती है तथा घंटे को हल्का-सा छूने पर उसमें झनझनाहट (कम्पनों) का अनुभव होता है। जैसे ही घंटे के कम्पन बंद हो जाते हैं, ध्वनि भी बंद हो जाती है। इसी प्रकार, जब सितार के तार को अंगुली से दबाकर छोड़ते हैं, तो वह कम्पन करने लगता है तथा उससे ध्वनि निकलने लगती है। जीवधारी अपने गले की झिल्ली को कम्पित करके मुंह से ध्वनि निकालते हैं। इन कम्पनों की आवृत्ति 20 से 20000 प्रति सेकंड के बीच होती है। ध्वनि की विशेषताएं :
> प्रतिध्वनि ( Echo ) परावर्तित ध्वनि को प्रतिध्वनि कहते हैं। स्पष्ट प्रतिध्वनि सुनने के लिए परावर्तक सतह श्रोता से कम-से-व -कम 17 मीटर दूर होना चाहिये।
> ध्वनि का अपवर्तन (Refraction) – गरम वायु का घनत्व अधिक होता है। अत: वायु की विभिन्न सतहों से गुजरते समय ध्वनि की दिशा बदल जाती है (क्योंकि प्रत्येक सतह का ताप अलग होता है), इसे ध्वनि का अपवर्तन कहते हैं। इसी के कारण रात्रि में तथा ठंडे दिनों में ध्वनि अधिक दूर तक सुनी जा सकती है।
> ध्वनि की चाल तरंग- दैर्ध्य (2) तथा आयाम पर निर्भर नहीं करती है ।
> अनुनाद ( Resonance) जब किसी वस्तु के कम्पनों की स्वाभाविक आवृत्ति किसी चालक बल के कम्पनों की आवृत्ति के बराबर होती है, तो वह बहुत अधिक आयाम से कम्पन करने लगती है। इस घटना को अनुनाद कहते हैं।
> चन्द्रमा पर ध्वनि का न सुनाई देना – चन्द्रमा पर वायु नहीं है, अतः वहां पर यदि दो व्यक्ति बातें करेंगे तो ध्वनि नहीं सुनाई देगी। ध्वनि संचरण के लिए माध्यम का होना आवश्यक है।
> बादलों की विद्युत का प्रकाश पहले दिखाई देता है उसकी ध्वनि बाद में सुनाई देती है वायु में ध्वनि की चाल 332 मीटर/सेकंड है तथा प्रकाश की चाल 3 लाख किलोमीटर/सेकंड है। अतः बरसात में जब बिजली कड़कती है तो ध्वनि तथा प्रकाश एक साथ उत्पन्न होते हैं, किन्तु हमें प्रकाश पहले दिखाई देता है, उसके कुछ समय बाद ध्वनि सुनाई देती है।
प्रश्न 4: जीनोम तकनीक से आप क्या समझते हैं ? चिकित्सा विज्ञान में इसे कैसे उपयोग किया जा सकता है ?
उत्तर : विज्ञान की जिस शाखा के अन्तर्गत हम जीन या आनुवंशिकी को कृत्रिम उपायों से परिवर्तित करने का प्रयास करते हैं, उसे जीनोम तकनीक कहा जाता है ।
इस तकनीक के अन्तर्गत किसी विशेष डी.एन.ए. खण्ड को यहां तक की किसी विशिष्ट जीन या जीनों को अलग करके उन्हें बिल्कुल असम्बद्ध जीवों में हस्तांतरित कर दिया जाता है, जैसेकिसी जीन या जीवों का जीवाणु से मानव में अथवा इसके विपरीत हस्तांतरित करना या फिर जीवाणु से किसी पुष्पी पौधे में हस्तांतरण | इससे जीनों का एक बिल्कुल ही नये प्रकार का पुनर्योजन (Recombination) बनता है। इस पुनर्योजन को डी.एन.ए. तकनीक (Recombinant DNA technology) या आनुवंशिक इंजीनियरी
भी कहते हैं। इन तकनीकों के लाभदायक उपयोग से एक नया उद्योग-बायोटेक्नोलॉजी विकसित हो रहा है, जिसके अन्तर्गत हम जैव प्रक्रियाओं का उपयोगी पदार्थों के उत्पादन में प्रयोग करते हैं। यहां तक कि ट्रांस्जैनिक पौधे और प्राणी भी इस तकनीक से बनाए जा रहे हैं।
चिकित्सा विज्ञान में जीन की मरम्मत कर विभिन्न रोगों की रोकथाम के लिए जीन उपचार की सहायता ली जाती है। इसके अन्तर्गत एक अतिरिक्त जीन का प्रत्यारोपण किया जाता है। सोमैटिक जीन थेरेपी में प्राप्तकर्ता का जीनोम बदल दिया जाता है, परन्तु यह दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित नहीं हो पाता। दूसरी ओर, जर्मलाइन जीन थेरेपी में जीन के बदलने का उद्देश्य पैतृक विकास को विकसित करना है। इस तकनीक के उपयोग से, Cystic fibrosis, Duchmenn’s Muscular Disease, Sickle-cell Anaemia, Sugar आदि जैसी बीमारियों को ठीक करने में सफलता मिली है।
इस प्रकार, जीनों की मरम्मत करके, नये जीन संस्करणों का निर्माण करके आज के आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के माध्यम से सभी लोगों को चिकित्सकीय सहायता प्रदान कर राहत पहुंचायी जा सकती है।
प्रश्न 5 : ‘स्टेम सेल’ से आप क्या समझते हैं? चिकित्सा विज्ञान में इसकी उपयोगिता बताएं।
उत्तर : स्टेम कोशिकाएं (Stem Cells) शरीर के विविध ऊतक बनाती हैं और सभी अंगों की रचना करती हैं। कौन-सा ऊतक कौनसा अंग बनाएगा, यह हर स्टेम कोशिका में डीएनए की चतुराक्षरी भाषा में लिखा होता है। ये कोशिकाएं स्वतः विभाजित होती रहती हैं और कई अवस्थाओं से गुजर कर नवीन ऊतकों की रचना करती हैं।
स्टेम कोशिकाओं का मनुष्य के अंगों के पुनर्निर्माण में प्रयोग विज्ञान की एक क्रांतिकारी घटना है। इस पुनर्निर्माण तकनीक द्वारा स्टेम कोशिकाओं को बंद पड़ी धमनियों में डाला जाता है, जिसे बैलून एंजियोप्लास्टी कहा जाता है। ये कोशिकाएं जरूरत के अनुसार धमनियों के अंदर कई तरह की विशेष कोशिकाओं का निर्माण करती है। ये कोशिकाएं रक्त के आयतन को बढ़ा देती है जिससे उसके प्रवाह में आसानी बनी रहती है। ये कोशिकाएं नयी रक्त नलिकाओं का निर्माण कर सकती हैं तथा रक्त के सामान्य बहाव को बनाये रखती हैं। ये कोशिकाएं हृदयी पेशियों में बदल कर हृदयाघात के दौरान घायल हुई पेशियों की मरम्मत भी कर सकती हैं। इस प्रक्रिया के बाद हृदय पुनः सुचारू रूप से काम करने लगता है।
इन कोशिकाओं की मदद से पार्किंसन रोग, हृदयाघात, मेरुरज्जू से संबंधित बीमारियां, कैंसर, तंत्रिका संबंधी रोग तथा कई अन्य प्रकार की विसंगतियों से छुटकारा मिल सकता है। इन कोशिकाओं से बनाये गये ऊतकों पर नयी दवाएं प्रयोग की जा रही हैं, जिनसे कई तरह के जन्मजात रोगों की गुत्थियां सुलझ सकती हैं। इन ऊतकों को विविध अंगों के प्रत्यारोपण में भी प्रयोग किया जा सकता है। मधुमेह के रोगियों में इंसुलिन बनाने वाली लैंगरहैंस कोशिकाएं भी बदली जा सकती हैं। इस प्रकार, स्टेम कोशिकाओं के कई उपयोग संभव हैं और अभी तक के ज्ञात दो हजार के करीब जन्मजात असाध्य रोगों से मनुष्य को छुटकारा दिलाया जा सकता है।
प्रश्न 6 : झारखण्ड में वन्य जीव संरक्षण के लिए कौन-कौन से कदम उठाए गये हैं?
उत्तर : झारखण्ड में वनों का उपयोग वन्य जीवों को आश्रय व संरक्षण देने के रूप में होता है। वन्य जीवों को उनकी सुरक्षा के लिए प्राकृतिक निवास स्थलों और अभयारण्यों में रखा जाता है। झारखण्ड में अनेक वन्य प्राणी क्षेत्र स्थापित किए गए हैं, जिनका मुख्य उद्देश्य वन्य-प्राणियों को संरक्षण देना एवं प्रकृति के साथ उनके संतुलन को बनाए रखना है। इस समय राज्य में कुल 11 वन्य प्राणी अभयारण्य एवं 1 राष्ट्रीय उद्यान है, जिसमें वन्य प्राणियों के संवर्द्धन हेतु सड़कों का निर्माण, रख-रखाव एवं मरम्मत, आग से वन की सुरक्षा, अवैध पातन रोकना, वन्य प्राणियों के पीने के लिए जल संचयन संरचना का निर्माण आदि विभिन्न कार्य किये जा रहे हैं। राष्ट्रीय उद्यान में शाकाहारी प्राणियों के लिए चारागाह का विकास, बाघों की गतिविधियों पर नियंत्रण रखने हेतु कैमरा ट्रैप लगाए गये हैं। आश्रयणी में वन्यप्राणियों के संरक्षण कार्य पर कुल 700 लाख रुपये की योजना का कार्यान्वयन किया जा रहा है। व्याघ्र परियोजना के लिए राज्य योजना के अतिरिक्त केन्द्रीय सहायता राशि का भी उपयोग किया जा रहा है। कुल 270 लाख रुपये व्याघ्र संरक्षण पर व्यय किया जाएगा। मानव-वन्यप्राणी प्रबंधन के अंतर्गत जंगली हाथियों से जान-माल की क्षति को रोकने का कार्य ग्राम समुदाय की सहभागिता से किया जा रहा है तथा क्षति के एवज में मुआवजा का भुगतान भी किया जा रहा है। एफ.एस.आई. की रिपोर्ट के अनुसार झारखण्ड राज्य में वनों की भी वृद्धि हुई है।
निष्कर्षतः हम यह कह सकते हैं कि झारखण्ड सरकार प्राकृतिक, आर्थिक एवं ग्रामीण समुदाय की सहभागिता से वन्य जीवन संरक्षण के लिए वह सारे कदम उठा रही है जिससे वन्य जीवों को सुरक्षित एवं संरक्षित रखा जा सके एवं उन्हें प्राकृतिक वातावरण एवं निवास स्थान प्रदान किया जा सके।
प्रश्न 7 : जैविक खेती की अवधारणा को स्पष्ट करें। झारखण्ड में जैविक खेती की स्थिति की विवेचना करें।
उत्तर : जैविक खेती (Organic farming) कृषि की वह विधि है, जो संश्लेषित उर्वरकों एवं संश्लेषित कीटनाशकों के अप्रयोग या न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है तथा जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बचाये रखने के लिए फसल चक्र, हरी खाद, कम्पोस्ट आदि का प्रयोग करती हैं। वर्ष 1980 के बाद से विश्व में जैविक उत्पादों का बाजार काफी बढ़ गया है।
जैविक खेती की अनिवार्यता : संपूर्ण विश्व में बढ़ती हुई जनसंख्या एक गंभीर समस्या है, बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ भोजन की आपूर्ति के लिए मानव द्वारा खाद्य उत्पादन की होड़ में अधिक से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए तरह-तरह की रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों का उपयोग, प्रकृति के जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान के चक्र को (इकॉलाजी सिस्टम) प्रभावित करता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब हो जाती है साथ ही वातावरण प्रदूषित होता है तथा मनुष्य के स्वास्थ्य में गिरावट आती है।
प्राचीनकाल में मानव स्वास्थ्य के अनुकूल तथा प्राकृतिक वातावरण के अनुरूप खेती की जाती थी, जिससे जैविक और अजैविक पदार्थों के बीच आदान-प्रदान का चक्र निरंतर चलता रहा था, जिसके फलस्वरूप जल, भूमि, वायु तथा वातावरण प्रदूषित नहीं होता था।
मध्य प्रदेश में सर्वप्रथम 2001-02 में जैविक खेती का आन्दोलन चलाकर प्रत्येक जिले के प्रत्येक विकास खण्ड के एक गांव में जैविक खेती प्रारम्भ की गयी और इन गांवों को जैविक गांव का नाम दिया गया। इस प्रकार प्रथम वर्ष में कुल 113 ग्रामों में जैविक खेती की शुरुआत हुई।
झारखण्ड में जैविक खेती की स्थिति : झारखण्ड में रासायनिक खादों एवं दवाओं का उपयोग अन्य राज्यों की अपेक्षा बहुत कम है। कई ऐसे जिले हैं, जहां के किसान इनका उपयोग नहीं के बराबर करते हैं और इनकी कृषि को जैविक कृषि ही कहा जा सकता है। इन्हें राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लाने के लिए प्रमाणीकरण की आवश्यकता है। इसके लिए सरकारी, गैर सरकारी संस्थानों तथा बैंकों को सार्थक पहल करनी होगी। भूमि के प्रमाणीकरण के लिए बहुत सी प्रमाणीकरण संस्थाएं हैं, जो कि राष्ट्रीय मानकों के अनुसार प्रमाणीकरण करती हैं, जिससे विश्वस्तरीय जैविक उत्पादन संभव हो सके और किसानों के आर्थिक तथा सामाजिक स्तर में सुधार हो सके। जैविक कृषि हेतु आवश्यक उपादान : झारखण्ड में कई ऐसे संसाधन हैं, जो जैविक कृषि को बढ़ावा देने में मदद कर सकते हैं।
1. परती जमीन की उपलब्धता – राज्य के भौगोलिक क्षेत्र 79.10 खेती लाख हेक्टयर में 38 लाख हेक्टयर (48 प्रतिशत) ही योग्य भूमि है। इनमें भी बुआई का क्षेत्रफल सिर्फ 22.38 लाख हेक्टेयर (28.29 प्रतिशत) है। वर्तमान में परती भूमि 6.74 लाख हेक्टेयर (8.52 प्रतिशत) है। जैविक खेती हेतु इनमें से प्रतिशत परती भूमि को लिया जा सकता है।
2. मिट्टी में जैविक अंश की मात्रा – झारखण्ड में खेती योग्य भूमि टांड़ और दोन में बंटी हुई है। सबसे ऊंची भूमि को टांड़-1 उससे नीचे टांड़ – 2, तथा टांड़ – 3, दोन-2 और सबसे नीचे की भूमि को दोन-1 कहते हैं। जहां टांड़ में जैविक अंश की मात्रा कम होती है, वहीं दोन में यह मात्रा बढ़ जाती है। किसान अपने जानवरों को ज्यादा संख्या में रखते हैं, इसलिए जैविक खाद की उपलब्धता आसान हो जाएगी।
3. रासायनिक खाद एवं दवा का कम उपयोग झारखण्ड में अधिकतर छोटे एवं सीमांत कृषक हैं, जो सुविधा के अभाव में रासायनिक दवाओं एवं खादों का उपयोग नहीं करते। अतः जैविक कृषि में सावधानी रखते हुए इस कार्य को बढ़ाया जा सकता है।
4. छोटे एवं सीमांत किसानों के लिए – जैविक कृषि उपयोगी है। राज्य में इनकी संख्या अधिक है।
5. केन्द्र एवं राज्य सरकार द्वारा जैविक खेती को प्रोत्साहनजैविक खेती में कई राज्यों ने काफी उन्नति की है। झारखण्ड ने भी इस ओर कदम बढ़ाये हैं। राष्ट्रीय बागवानी मिशन पिछले दो-तीन वर्षों से जैविक खेती की ओर अग्रसर है। राज्य में 500 हेक्टयर में बागवानी फसलों की जैविक खेती हो रही है, जिसका प्रमाणीकरण भी कराया जा रहा है। इसमें केन्द्र सरकार का 85 प्रतिशत एवं राज्य सरकार की 15 प्रतिशत राशि व्यय होती है।
राज्य सरकार द्वारा वर्ष 2012-13 से एक नयी पहल की गयी है। राज्य में जैविक खेती को तीव्र गति से आगे बढ़ाने हेतु एक जैविक कोषांग की स्थापना की गयी है एवं राज्य जैविक कृषि प्राधिकार का गठन कर उसके अंतर्गत तीन नयी योजनाएं प्रारंभ की गयी है, जो निम्नवत् हैं
1. राज्य जैविक मिशन- इस मिशन के अंतर्गत मुख्यतया सब्जियों (मटर, ब्रोकली, फ्रैंचबीन, शिमला मिर्च, पत्तागोभी इत्यादि) की जैविक खेती 15000 हेक्टयर में की जाएगी।
2. जैविक मसाला मिशन- इस मिशन के अंतर्गत मुख्यतया मसालों (अदरक, हल्दी, मिर्च, धनिया आदि) की खेती 7000 हेक्टयर में की जायेगी।
3. जैविक औषधीय मिशन – मानव रोगों के निवारण हेतु औषधीय पौधों का प्रचालन बढ़ रहा है। देश के अंदर एवं विदेशों में भी औषधीय पौधों की मांग तेजी से बढ़ रही है। इस मांग की पूर्ति के लिए राज्य में औषधीय पौधों में मुख्यतः शतावर, कालमेघ एवं घृतकुमारी की खेती की जायेगी ।
झारखण्ड में जैविक कृषि अभी शैशवावस्था में है, लेकिन राज्य सरकार द्वारा इसे कुछ ही वर्षों में जैविक राज्य के रूप में विकसित किया जाना है। इससे हमारी खेती दूसरों पर निर्भर नहीं रहेगी, मिट्टी की उर्वरा शक्ति एवं पर्यावरण में सुधार होगा, लोगों का स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, रोग और व्याधियां कम होगी, भोजन स्वादिष्ट एवं पोषक होगा।
वर्तमान परिदृश्य : कृषि में पेस्टिसाइड और फर्टिलाइजर के बढ़ते उपयोग के बीच झारखण्ड के किसान जैविक खेती की तरफ वापस लौट रहे हैं। इसके लिए उन्हें एक ओर प्रशिक्षण दिया जा रहा है, तो दूसरी तरफ उन्हें खुद ही जैविक खेती करने के लिए अपने अन्य साथियों को प्रेरित करने के लिए भी तैयार किया जा रहा है। जर्मनी की जीआईजेड प्रोजेक्ट के तहत प्रदेश के रांची और जमशेदपुर के कुछ इलाकों में इसे पायलट प्रोजेक्ट के तहत चलाया जा रहा है। रांची के मोरहाबादी स्थित दिव्यायन कृषि विज्ञान केन्द्र से पिछले दो साल में करीब 1000 से अधिक वैसे किसानों को ट्रेनिंग दी गयी है, जो अब जैविक खेती कर अपना जीवनयापन कर रहे हैं। रांची के ओरमांझी और अनगड़ा के अलावा जमशेदपुर के बोड़ाम और पटमदा ऐसे इलाके हैं जहां इस पायलट प्रोजेक्ट के तहत किसान आर्गेनिक फार्मिंग कर रहे हैं। राजधानी के अनगड़ा का तिरलाकोचा पूरी तरह से आर्गेनिक फार्मिंग वाला गांव है।
प्रश्न 8 : वायुमंडल में ओजोन निर्माण की क्या प्रक्रिया है ? उन क्षेत्रों का वर्णन करें, जहां ओजोन परत का क्षरण हो रहा है।
उत्तर : ओजोन (O3 ) एक हल्के नीले रंग की गैस है, जो समताप मंडल (Stratosphere) में पायी जाती है। इसका मुख्य कार्य सूर्य की पराबैंगनी किरणों ( Ultraviolet Rays) का अवशोषण करना है। सी. एफ. सी. जैसे अत्यधिक स्थायी एवं अज्वलनशील पदार्थ लंबे समय के बाद समताप मंडल स्थित ओजोन परत तक पहुंच जाते हैं। यही सूर्य से प्राप्त पराबैंगनी किरणें, सी.एफ.सी. को तोड़ कर क्लोरिन परमाणु उत्पन्न कर देती है। क्लोरिन परमाणु ओजोन से प्रतिक्रिया कर क्लोरिन मोनोक्साइड (CIO) बना देता है, जो परमाणवक ऑक्सीजन (O) से प्रतिक्रिया कर आणविक ऑक्सीजन (O)) तथा पुनः क्लोरिन परमाणु को उत्पन्न कर देता है। इस प्रकार, क्लोरिन परमाणु के चलते एक प्रकार की श्रृंखला अभिक्रिया (Chain Reaction) उत्पन्न हो जाती है, जिससे अनुमानतः एक क्लोरिन परमाणु ओजोन के लगभग 1 लाख अणुओं को विखंडित करने में समर्थ हो पाता है। इस संपूर्ण अभिक्रिया के फलस्वरूप ओजोन के दो अणु आणविक ऑक्सीजन के तीन अणुओं में बदल जाते हैं। इसके चलते समताप मंडल स्थित ओजोन की सांद्रता में लगातार कमी आती जाती है, जिसे ओजोन क्षरण की प्रक्रिया (Process of Ozone Depletion) कहते हैं।
> प्रतिक्रियाएं निम्न रूपों में घटित होती हैं
सर्वप्रथम 1960 में ओजोन क्षरण की जानकारी प्राप्त हुई तथा 1984 में वैज्ञानिकों ने दक्षिणी ध्रुव के ऊपर 40 किमी. व्यास वाले ओजोन छिद्र (Ozone Hole) का पता लगाया।
समताप मंडल में ओजोन गैस का 20 किमी. मोटाई वाला सघन घेरा इस मंडल को पृथ्वी की सतह से 40 किमी. की ऊंचाई पर घेरे रहता है। जिसके कारण वायुमंडल में प्रवेश करने वाली पराबैंगनी किरणें इसी घेरे में अवशोषित हो जाती है।
वैसे तो ओजोन क्षय का दुष्प्रभाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण पृथ्वी पर पड़ेगा, लेकिन दक्षिणी ध्रुव स्थित देश, जैसे ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका का दक्षिणवर्ती भाग न्यूजीलैंड आदि – अधिक प्रभावित होंगे।
उन क्षेत्रों में भी ओजोन का क्षरण हो रहा है, जिन क्षेत्रों में ज्वालामुखी का विस्फोट होता रहता है। ज्वालामुखी विस्फोट से हानिकारक गैस वायुमंडल के समताप मंडल में पहुंचकर वहां उपस्थित ओजोन का क्षरण करती है।
प्रश्न 9 : जैव विविधता से आप क्या समझते हैं? जैव विविधता के महत्व की विवेचना करें।
उत्तर : जैव विविधता (Biodiversity ) शब्दावली का उपयोग सबसे पहले 1968 में आर. एफ. डेस्मेन (R. F. Dasman) ने किया था। जैव विविधता का अर्थ है पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) के जैविक घटकों की विविधता एवं उनका पारस्परिक संबंध, जो किसी पारितंत्र में पाया जाता है। जैव-विविधता से जीव- प्रजातियों ( Species), आनुवंशिक (Gentic) तथा पारितंत्र की विशेषताओं का पता चलता है। मानव समाज के लिए पारितंत्र (Ecosystem) से बहुत से प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष लाभ हैं। जीवजगत एवं वनस्पति जगत के टिकाऊ बने रहने के लिए भी पारिस्थितिकी तंत्र की बड़ी महत्ता है। मानव समाज को भोजन, उद्योगों के लिए कच्चा माल तथा औषधियां पारितंत्र से प्राप्त होती हैं। पारिस्थितिकी तंत्र महत्वपूर्ण सौन्दर्यपरक (Aesthetic) संसाधन भी है। जैव-विविधता से पर्यावरण संरक्षण प्रकाश-संश्लेषण (Photosynthesis), परागण (Pollination), प्रस्वेदन (Transpiration), रासायनिक चक्र (Chemical cycling), पोषकचक्र (Nutrient cycling), मृदा संरक्षण (Soil conservation), जलवायु नियम (Climate regulation), वायु – जल तंत्र (Wind-Water system) के प्रबंधन, जल-शोधन (Water Treatment) तथा कीटाणु नियंत्रण में भी सहायता मिलती है। पारितंत्र तथा जैव-विविधता हास का विश्व जलवायु परिवर्तन पर भी प्रभाव पड़ता है। तापमान तथा वर्षण की मात्रा में परिवर्तन होता है, फलस्वरूप बाढ़ तथा सूखे की परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसका प्राणी जगत एवं मानव समाज पर खराब असर पड़ता है।
जैव-विविधता का महत्व (Importance of Bio-diversity) : एडवर्ड विल्सन के शब्दों में, ‘जैव-विविधता का नाश मानवता के लिए महासंकट है। धरती का चढ़ता पारा (ग्लोबल वार्मिंग), ओजोन क्षरण तथा प्रदूषण से उत्पन्न तमाम विपदाएं भी इस ‘महाविपदा’ के समक्ष बौनी नजर आएंगी।’ विल्सन के ये शब्द जैव-विविधता के महत्व को रेखांकित कर देते हैं। जैव-विविधता के महत्व का मूल्यांकन सिर्फ भरण-पोषण तथा स्वास्थ्य के संदर्भ में ही करना तर्कसंगत नहीं होगा। इसका संबंध मानव के संपूर्ण परिवेश एवं पर्यावरण से है। उपजाऊ भूमि, ऊर्जा, स्वच्छ जल एवं वायु जैसे जीवनदायी उत्पाद उपलब्ध कराने में भी जैव-विविधता की महत्वपूर्ण भूमिका नजर आती है। अनुमान है कि 22वीं सदी में प्रवेश करते समय मनुष्य की आबादी 8 अरब के करीब होगी और उस समय मानवता का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि इतनी आबादी के साथ आवश्यक मात्रा में जैव-विविधता भी मौजूद रह पाती है, अथवा नहीं ।
मनुष्य ने आहार के लिए आज तक कुल 7 हजार वनस्पतियों की खेती की है, परन्तु यह भी एक हकीकत है कि आज वह इनमें से मात्र 20 जातियों की ही खेती करने में जुटा हुआ है। वनस्पतियों की ये 20 जातियां विश्व की 90 प्रतिशत खाद्य आपूर्ति को संभव बना रही हैं और इनमें से केवल तीन अर्थात् गेहूं, धान एवं मक्का ही 50 प्रतिशत आपूर्ति करने हेतु जिम्मेदार हैं। मात्र इन फसलों के सहारे विश्व की तेजी से बढ़ रही जनसंख्या की खाद्य सुरक्षा लंबे समय तक शायद ही कायम रह सके। कृषि एवं खाद्य आपूर्ति के अलावा चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैव विविधता का अपना महत्व रहा है, परन्तु यहां भी इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु केवल कुछ सौ जंगली जड़ी-बूटियों का ही प्रयोग किया जा रहा है।
दरअसल, जैव-विविधता उन संसाधनों का प्रतिनिधित्व करती है, जिनका सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्व होता है। वनों एवं जल में पायी जाने वाली विभिन्न वानस्पतिक प्रजातियों का कृषि, उद्योग एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान होता है। साथ ही, अनेक ऐसी प्रजातियां भी हैं, जो जलवायु को स्थायित्व प्रदान करती हैं तथा जल-विभाजकों की भूमि को संरक्षित कर पाती हैं। जैव-विविधता के कारण ही मानव समुदाय को भोजन, ऊर्जा, वैज्ञानिक ज्ञान एवं सांस्कृतिक जीवन प्राप्त हो पाता है। यह वस्तुतः मानव की उत्तरजीविता (Human Survival) का आधार है, और ऐसे में यदि आज उसी की अदूरदर्शिता एवं विहित स्वार्थपरकता के कारण इसका क्षरण होता जा रहा है, तो यह वाकई चिंता का विषय है।
प्रश्न 10 : विज्ञान प्रौद्योगिकी और नवोन्मेष नीति, 2013 की विशेषता सहित विवेचना करें।
उत्तर : प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने जनवरी, 1983 में प्रौद्योगिकी नीति वक्तव्य की घोषणा की थी। इसमें प्रौद्योगिक क्षमता और आत्मनिर्भरता की आवश्यकता पर जोर दिया गया था। इस वक्तव्य की कई बातों को लागू किया गया था। इसके बाद वर्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति की घोषणा की गई थी और विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी को एक साथ रखा गया था। मुख्य रूप से इसमें सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों के कार्यक्रमों को राष्ट्रीय अनुसंधान और विकास प्रणाली के साथ एकीकृत करने और एक राष्ट्रीय नवोन्मेष प्रणाली का सृजन करने पर जोर दिया गया था। उसके बाद से विश्व में मानव गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में व्यापक बदलाव आया है। नवोन्मेष के नए प्रतिमान उभरकर सामने आए हैं और विशेष रूप से इंटरनेट और वैश्विीकरण की व्यापकता के परिणामस्वरूप स्थिति बदली है, तो भी वे प्रणालियां जिनमें नवोन्मेष को बढ़ावा मिलता है, हर देश और परिस्थिति के संदर्भ में विशिष्ट हैं। भारत ने 2010-20 के दशक को नवोन्मेष का दशक घोषित किया है। भारत की जनसंख्या के स्वरूप में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ है। युवा आबादी को देश से बहुत आशाएं और अपेक्षाएं हैं। केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा स्वीकृत विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवोन्मेष नीति, 2013 में इसी घोषणा को आगे बढ़ाया गया है और इसका उद्देश्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी आधारित नवोन्मेष को बदलती परिस्थितियों के अनुरूप विकसित करना है।
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कोलकाता में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के शताब्दी अधिवेशन के उद्घाटन सत्र में विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवोन्मेष नीति, 2013 प्रस्तुत की और इसकी पहली प्रति राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी को भेंट की थी। विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवोन्मेष नीति सार्वजनिक और निजी, दोनों क्षेत्रों के भारतीय वैज्ञानिकों को संदेश देती है कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवोन्मेष को लोगों के त्वरित, सतत् और समावेशी विकास पर ध्यान देना चाहिए। इस नीति का केन्द्र बिन्दु यह है कि यह नीति लोगों के लिए है और लोग इस नीति के लिए हैं। इसका उद्देश्य विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवोन्मेष के सभी लाभों को राष्ट्रीय विकास तथा सतत और अधिक समावेशी विकास के लिए उपयोग में लाना है। इसमें अनुसंधान और विकास, प्रौद्योगिकी तथा नवीनीकरण की गतिविधियों में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा और प्रोत्साहन देकर अनुसंधान और विकास पर होने वाले कुल खर्च का सही आकलन करने पर जोर दिया गया है।
इस नीति में विभिन्न पदधारियों के बीच भागीदारी की व्यवस्था करके और नवीनीकरण की गतिविधियों में निवेश करने के लिए उद्यमों को प्रोत्साहित करके एक ऐसी इको-प्रणाली विकसित करने की बात कही गयी है, जिससे नवोन्मेष की क्षमताओं का विकास हो । विज्ञान प्रौद्योगिकी और नवोन्मेष की गतिविधियों से स्त्री- – पुरुष की समानता तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और गठबंधनों के जरिए विशिष्ट प्रौद्योगिकी क्षेत्रों में वैश्विक स्पर्धा के लिए व्यवस्थाएं कायम करने पर जोर दिया गया है। इस नीति का उद्देश्य देश के त्वरित, सतत और समावेशी विकास की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए खोज, विसरण और वैज्ञानिक समाधानों में तेजी लाना है तथा सुदृढ़ और व्यावहारिक विज्ञान अनुसंधान और नवोन्मेष प्रणाली के जरिए देश के लिए उच्च प्रौद्योगिकी पर आधारित विकास का मार्ग प्रशस्त करना है।
> विज्ञान प्रौद्योगिकी और नवोन्मेष नीति, 2013 की मुख्य विशेषताएं –
1. समाज के सभी वर्गों में वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहित करना ।
2. समाज के सभी वर्गों के युवाओं में विज्ञान के उपयोगों के लिए कौशल को बढ़ावा देना।
3. प्रतिभाशाली युवाओं के लिए विज्ञान-प्रौद्योगिकी और नवोन्मेष में कॅरियर को आकर्षक बनाना।
4. विज्ञान के कुछ अग्रणी क्षेत्रों में वैश्विक नेतृत्व हासिल करने के लिए अनुसंधान और विकास का विश्व स्तरीय ढांचा स्थापित करना।
5. 2020 तक भारत को पांच बड़ी वैश्विक वैज्ञानिक शक्तियों में खड़ा करना (वैश्विक वैज्ञानिक प्रकाशनों में भारत के हिस्से को 3.5 प्रतिशत से बढ़ाकर सात प्रतिशत करना और विश्व की एक शीर्ष पत्रिकाओं में आलेखों की संख्या मौजूदा स्तर से बढ़ाकर चार गुना करना ) ।
प्रश्न 11 : भारत में जैव तकनीक राष्ट्रीय विकास को निश्चित करता है, स्पष्ट करें।
उत्तर : भारत जैसे विकासशील देश में राष्ट्रीय विकास सुनिश्चित करने हेतु जैव तकनीक का प्रयोग करना काफी आवश्यक जान पड़ता है । देश में इस तकनीक को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से भारत सरकार द्वारा वर्ष 1982 में ही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (Dept. of S & T) के अधीन एक राष्ट्रीय जैव प्रौद्योगिकी बोर्ड (National Biotechnology Board) की स्थापना की गयी । 1986 में इस बोर्ड के स्थान पर एक पृथक जैव प्रौद्योगिकी विभाग (Dept. of Biotechnology) की स्थापना की गयी, जो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय (Ministry of S & T) के अधीन काम कर रहा है । इस विभाग के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं
i) जैव तकनीक से संबंधित सभी कार्यक्रमों को संगठित, प्रोत्साहित तथा समन्वित करना,
ii) जैव तकनीक के क्षेत्र में संरचनात्मक विकास करना,
iii) जैव तकनीक संबंधी कार्यक्रमों को सुदृढ़ करना तथा उनके कुशल विकास हेतु विशेष कार्यक्रम चलाना,
iv) फसल सुधार हेतु विशेष कार्यक्रम चलाना,
v) सामाजिक एवं आर्थिक विकास हेतु नवीन तकनीकों का प्रयोग करना आदि।
उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति हेतु यह विभाग विज्ञान परामर्श परिषद (Scientific Advisory Council) तथा एक स्थायी परामर्श परिषद (विदेश) Standing Advisory Council (Overseas) के सहयोग से स्थापना काल से ही कार्यरत है। विभाग ने पशु-जैव रसायन, जल संवर्द्धन, जैव-रासायनिक अभियांत्रिकी, जैव सूचना विज्ञान, जैव पारिस्थितिकी, औद्योगिक जैव तकनीक, सूक्ष्म जैविकी, आणविक जैविकी तथा स्वास्थ्य के विकास एवं वृद्धि हेतु एक ‘टास्क फोर्स’ की स्थापना भी की है।
> जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने निम्नांकित तीन स्वायत्त संस्थान स्थापित किये हैं –
i) राष्ट्रीय रोग प्रतिरक्षण संस्थान, नयी दिल्ली,
ii) राष्ट्रीय पशु ऊतक एवं कोशिका संवर्द्धन संस्थान, पुणे, तथा
iii) सेंटर फॉर डी.एन.ए. फिंगर प्रिंटिंग एंड डायग्नोस्टिक्स, हैदराबाद। इन सभी विभागों द्वारा निम्न प्रकार के बहुआयामी कार्य किये जा रहे हैं
1. मानव संसाधन विकास कार्यक्रमः इसके तहत स्नातकोत्तर एवं उच्चतर स्तर के शिक्षण की व्यवस्था करना, विभाग द्वारा लघुकालीन प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करना, जैव तकनीक के क्षेत्र में प्रतिवर्ष उच्चतर अनुसंधान हेतु छात्रवृत्ति प्रदान करना तथा विदेशों से वैज्ञानिकों को आमंत्रित करना आदि जैसे कार्य संपन्न किये जा रहे हैं।
2. रोग निर्धारण: इसके तहत राष्ट्रीय रोग शोधन संस्थान, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS), महात्मा गांधी चिकित्सा संस्थान, कैंसर अनुसंधान संस्थान आदि द्वारा कई तरह के कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं ।
3. टीका उत्पादनः राष्ट्रीय रोग शोधन के तहत जैव प्रौद्योगिकी विभाग को टीका उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का कार्य सौंपा गया है।
4. जनन नियंत्रण टीका उत्पादनः जनसंख्या नियंत्रण को सरल एवं सफल बनाने हेतु जनन नियंत्रण कार्यक्रम के तहत जनन नियंत्रण टीके (Contraceptive Vaccines) का विकास किया जा रहा है।
5. भ्रूण स्थानांतरण तकनीक: इसके तहत भ्रूणों को आरोपित करने की दिशा में आने वाली कठिनाइयों को दूर करने के प्रयास किये जा रहे हैं।
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