जयपुर का इतिहास

जयपुर का इतिहास

कच्छवाह अपने को भगवान राम के पुत्र कुश का वंशज मानते हैं। इन्हें ‘रघुकुल तिलक’ कहा जाता है। इनका आदर्श वाक्य है यतो धर्मस्ये जयते (जहां धर्म है वही विजय है) कछवाह सूर्यवंशी कहलाते है । कूर्म के कुल के होने के कारण आमेर के कच्छवाह कूर्म भी कहे जाते हैं। ढोला नरवर का राजा था जो राजा नल का पुत्र था। यह ढोला कच्छवाह वंश में ही था
सुर्यमल्ल मिश्रण के अनुसार कुश के वंशज कुर्मी से कुर्मवंशिय बना हैं। राजा नल ने 826 ई नरवर में नींव रखी। राजा नल बेटा ढोला / साल्हकुमार हुआ।
नल की 21 वीं पीढ़ी (33वॉ शासक) सोढ सिह, सोद सिंह का पुत्र तेजकरण / दुल्हेराय थे। दुल्हेराय विवाह दौसा-रालपंसी चौहान सुजान कंवर से हुआ।
नोट – मेवाड महाराणाओं को “हिन्दुआ सूरज” कहा जाता है तथा उनका आदर्श वाक्य है- “जो दृढ राखै धर्म ताही राखै करतार ।
आमेर की कच्छवाह शाखा का संस्थापक सोदासिंह का पुत्र दुलेहराय / तेजकरण (1137) था।
कच्छवाह प्रारम्भ से चौहानों के सामन्त थे फिर गुहिलो के (सिसोदिया, मेवाड) तथा उसके पश्चात मुगलों के मनसबदार बन गए।

कच्छवाहों का पूर्व का इतिहास

ग्वालियर का शासक ईसा सिंह था । इसने पण्डितों के कहने पर ग्वालियर अपने भाणजे जैसिंह बडगुर्जर को दान कर दिया। ईसा सिंह का पुत्र सोढ देव व पौत्र दुलेराय नरवर व बरेली क्षेत्र में आ गये। सोढदेव की रानी जादमदे से दूलेहराय का जन्म हुआ। दूल्हेराय का विवाह पंचवारे के चौहानों की पुत्री सिलारसी से हुआ। जब दूल्हेराय अपने ससुराल पंचवारे आया हुआ था। तब सोढ देव ने पत्र लिखा कि हमारे लायक कोई स्थान हो तो बताना। तब चौहानों ने कहा दौसा है। जो आधा हमारे व आधा बडगुर्जरो के अधीन है। आप वह आधा क्षेत्र जीत लो।

दुल्हेराय/ तेजकरण

दुल्हेराय कच्छवाह वंश का संस्थापक / आदिपुरुष / मूल पुरुष है। इसने 1137 में बडगुर्जरों से दौसा छीनकर अधिकार कर लिया। दुल्हेराय ने कच्छवाहों की प्रारम्भिक राजधानी दौसा को बनाई। दुल्हेराय ने मांझी पर आक्रमण किया मांझी में माओं से लड़ते हुए युद्ध में घायल हो गया। तब देवी बुढवाय आई ने रण क्षेत्र सम्भाला माता के आशीर्वाद से माझी को जीतकर उसका नाम रामगढ़ कर दिया। रामगढ़ का पुराना नाम मांझी था। बुढवाय माता ने कहा आज से मुझे जमवाय माता के नाम से पूजना दुल्हेराय ने लालसोट (दौसा) के चौहान राजा रत्नहन्सी की पुत्री भारोनी से विवाह किया। इस प्रकार कच्छवाहों का हस्तक्षेप लालसोट क्षेत्र में हुआ ये दुल्हेराय ग्वालियर / नरवर से था।
रामगढ में दुल्हेराय ने जमुवाय माता का मंदिर बनवाया। जमवाय माता कच्छवाहों की कुल देवी है।
नोट – कच्छवाहों की आराध्य देवी-शिला माता। दुल्हेराय ने गैटोर जटिया मीणा से, झोटवाडा झोटा मीणा से खोह चान्दा मीणा से छीना।

राजा पंजवन –

इन्होंने 64 युद्ध जीते यह पृथ्वी राज चौहान के समकालीन बताये जाते हैं। संयोगिता हरण के समय ये पृथ्वीराज के साथ थे ये कन्नौज के पास जयचंद से युद्ध में लड़ते हुए मारे गये।

कोकिलदेव :-

कोकिल देव दुल्हेराय का पुत्र था। कोकिलदेव ने मुट्टी मीणा या सुसावत मीणा से आमेर छीनकर 1207 में आमेर राजधनी बनाई। आगेर राजधानी 1727 ई. तक रहेगी। कोकिल देव ने यादवों से मेड व बैराठ छीना कोकिल देव ने आमेर में आम्बिकेश्वर महादेव मन्दिर बनवाया आम्बिकेश्वर महादेव कच्छवाहों के कुल देवता है। नरू से कच्छवाहों की नरूका शाखा का जन्म हुआ।
नरू के पुत्र शेखाजी के वंशज शेखावत कहलाए। शेखावतों ने शाहपुरा, खेतड़ी, बिसाऊ व सीकर जागीरे प्राप्त की।

रामदेव :-

इसने आमेर में कदमी महल बनवाया जहां आमेर के राजाओं का राजतिलक होता था। आमेर राजाओं का राजतिलक मीणा करते थे।
नोट:- उदयपुर महाराणाओं के राजतिलक भील व राजतिलक पानेडा’ नामक स्थान पर होता था। जोधपुर के राठौड राजाओं का राजतिलक मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थित श्रृंगार चौकी स्थान पर होता था। (श्रृंगार चवरी चितौड़ दुर्ग में है) बीकानेर राजाओं के राजतिलक गोदारा जाट करते थे।

पृथ्वीराज कच्छवाह :-

 1527 के खानवा युद्ध में पृथ्वीराज कच्छवाह ने सांगा के सामन्त की हैसीयत से युद्ध में भाग लिया था।
पृथ्वीराज के प्रमुख पुत्रों में भीमदेव पूर्णमल, सागा भारमल व रूपसिंह बैरागी थे। पृथ्वीराज ने अपने बड़े पुत्र भीमदेव के स्थान पर पूर्णमल को उतराधिकारी बनाया, क्योंकि पूर्णमल की माता वाला बाई (बीकानेर लूणकरण की पूत्री) का उस पर प्रभाव था भीमदेव ने 1533 में पूर्णमल को हटाकर सत्ता हथिया / प्राप्त कर ली।
1536 में भीमदेव के बाद उसका पुत्र रतनसिंह शासक बना रतनसिंह के चाचा सांगा ने बीकानेर शासक जेतसिंह के सहयोग से मौजमाबाद पर अधिकार करके
सांगानेर की स्थापना की। भारमल जो सागा का छोटा भाई था, ने रतनसिह के भाई आसकरण को राज्य दिलाने का प्रलोभन देकर आसकरण के हाथों रतनसिह को जहर दिला दिया। आसकरण शासक तो बना किन्तु भारमल ने उसे हराकर आमेर राज्य पर अधिकार कर लिया।
 रतनसिंह नामक शासक ने शेरशाह की अधीनता स्वीकार की।

भारमल/बिहारीमल (1547 से 1573)

1556 में मजनू खां ने भारमल की मुलाकात दिल्ली में अकबर से करवाई, वहा अकबर का हाथी बिगड़ गया भारमल ने उसे काबू किया। इसी समय पूर्णमल के पुत्र सूजा ने मेवात के सूबेदार सरफूद्दीन के साथ मिलकर आमेर पर 1558 ई. में आक्रमण कर दिया। भारमल को पहाड़ों में जाकर छिपना पड़ा। 1561 में एक बार पुनः आक्रमण कर भारमल के परिवार को भी बन्दी बनाया।

अकबर की अधीनता- 20 जनवरी 1562-

1562 अकबर अजमेर के ख्वाजा साहब की दरगाह पर जियारत के लिये जा रहा था। दौसा के जागीरदार रूपसिंह बैरागी / चकताई खां ने भारमल व अकबर से मुलाकात की सांगानेर में करवायी। भारमल प्रथम राजपूत शासक था जिसने सांगानेर में अकबर की अधीनता स्वीकार करके वैवाहिक संबंध का प्रस्ताव रखा। जियारत से वापस आते समय भारमल के परिवार को जो मिर्जा के पास धरोहर के रूप में था वापस भारमल को सुपुर्द करने का आदेश दिया।
नोट-
1. बीकानेर का प्रथम शासक जिसने मुगलों की अधीनता स्वीकार की – कल्याणमल
2. जोधपुर का प्रथम शासक जिसने मुगलों की अधीनता स्वीकार की – मोटा राजा उदयसिंह
3. जैसलमेर का प्रथम शासक जिसने मुगलों की अधीनता स्वकार की – हरराय भाटी।
4. मेवाड का प्रथम शासक जिसने मुगलों की अधिनता स्वीकार की – महाराणा अमरसिंह
5. बूंदी का प्रथम शासक जिसने मुगलों की अधीनता स्वीकार की – सुर्जन हाडा

अकबर व जोधा का विवाह :-

अजमेर से वापस लौटते समय 6 फरवरी 1562 में सामर नामक स्थान पर भारमल की पुत्री हरखाबाई / जोधा बाई / शाही बाई व अकबर का विवाह हिन्दू व मुस्लिम रीति-रिवाजों के अनुसार हुआ। हरखा बाई को जोधा बाई अथवा गरियम ऊजमानी भी कहते हैं। ये 1562 में प्रथम मुगल-राजपूत विवाह था अंतिम मुगल राजपूत विवाह 1715 अजीतसिह (जोधपुर) की पुत्री इन्द्रकवरी का विवाह फर्रुख्शीयर बादशाह से हुआ था।
डॉ. जदुनाथ की पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ जयपुर में सिर्फ भारमल की पुत्री लिखा है नाम नहीं लिखा वी ए स्मिथ ने अपनी पुस्तक महान् मुगल अकबर में भारमल की ज्येष्ठ
पुत्री लिखा है। डॉ. मथुरा लाल शर्मा की पुस्तक जयपुर राज्य का इतिहास में ये विवाह का जिक्र नहीं करते। ये लिखते हैं कि सामर में अकबर व भारमल की मुलाकात हुई। बी. एल. पानगडिया ने अपनी पुस्तक राजस्थान का इतिहास में राजकुमारी का नाम हुरका लिखा है जो अन्य कहीं भी नहीं मिलता। बीकानेर वंशवृक्ष में शाही बाई नाम लिखा है। ‘अकबर नामा’ व ‘जहाँगीर नामा में कहीं भी जोधाबाई का जिक्र नहीं है।
नोट – फतेहपुर सीकरी में अकबर ने जोधाबाई का महल बनवाया था जो फतेहपुर सीकरी का सबसे बड़ा महल है।
भारमल राजस्थान का प्रथम शासक व रियासत आमेर वंश कच्छवाह जिन्होंने मुगलों की अधीनता स्वीकार की।
सलीम (जहांगीर) इसी कच्छवाह राजकुमारी का पुत्र था। सलीम का जन्म 1569 ई. सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से हुआ इसलिए अकबर ने इसका नाम सलीम रखा जो आगे जहाँगीर नाम का बादशाह बना। अकबर इसे शेखू बाबा भी कहता था।
भारमल के पुत्र भगवन्तदास तथा पौत्र मानसिंह अकबर की सेवा में चले गए थे।
1569 में भारमल ने जयपुर में “जामा मस्जिद” का निर्माण करवाया था। ध्यान रहे आगरा की जामा मस्जिद शाहजहाँ की पुत्री जहांआरा ने बनवायी व दिल्ली की जामा मस्जिद शाहजहां ने बनवायी थी ये भारत की सबसे बड़ी मस्जिद है।
1570 के नागौर दरबार के आयोजन में भारमल की मुख्य भूमिका थी। दरबार में भारमल की अच्छी प्रतिष्ठा थी अकबर उनसे सलाह लेने के साथ साथ राजधानी से बाहर जाते समय प्रशासन का दायित्व भारमल को ही दिया जाता था।
भारमल को अकबर ने अभीर उल उमरा” व “राजा की उपाधि दी व 5000 का ‘मनसबदार’ बनाया। राजपूतों में प्रथम मनसबदार यही है।
नोट – मनसबदारी प्रथा •मुगलों ने मंगोलों से ली थी मनसबदारी प्रथा 1575 ई में अकबर के समय प्रारम्भ हुई। निम्नतम 10 अधिकतम 10,000 तक की मनसबदारी होती थी। अकबर के अन्तिम समय में ये 12,000 हो गई थी। सलीम को 12,000 की मनसबदारी थी। शाहजहाँ के समय पुन घटकर यह 9000 हो गई थी। राजस्थान का प्रथम मनसबदार भारमल था। जिसे 5,000 की मनसबदारी मिली मानसिंह राजस्थान का प्रथम मनसबदार है जिसे सर्वाधिक 7,000 की मनसबदारी मिली। अकबर के दरबार में दो ही व्यक्ति मानसिंह व मिर्जा अजीज कोका थे जिन्हें 7,000 हजार की मनसबदारी थी। सर्वाधिक हिन्दू मनसबदार (33 प्रतिशत) औरंगजेब के समय थे। हिन्दुओं में सर्वाधिक मराठा थे। भारमल ने दौसा में ‘लवाणा कस्बा बसाया।
1572 में अकबर गुजरात अभियान पर गया, तब आगरा में बादशाह ने शाही परिवार की जिम्मेदारी भारमल को सौंपकर जाता था। बंगाल से आये हुए अफगान आक्रमणकारियों को खदेडकर भारमल ने अपना उत्तरदायित्व निभाया था। भारमल की मृत्यु 1573 ई. में हुई।

भगवन्तदास/ भगवानदास (1573 से 1589)

बदायूँनी, बाकीदास, नैणसी, फरीस्ता लिखते हैं। अबुल फजल व सूर्यमल्ल मिश्रण लिखते हैं।
आमेर का शिलालेख व वृन्दावन शिलालेख व कच्छवाह वशावली में भगवन्त दास नाम मिलता हैं।
चितौड़ के तीसरे साके (1567-68) के समय भगवन्त दास अकबर के साथ था। वह महाराणा प्रताप को समझाने तीसरे अभियान (1573) के रूप में गए थे। 1583-89ई. तक भगवन्तदास पंजाब का सूबेदार रहा। भगवन्तदास को भी 5000 का मनसबदार व सिपहसालार का पद मिला ये दोनों पद पहली बार किसी व्यक्ति को मिले थे।
1585 ई. में भगवन्तदास ने अपनी पुत्री मानबाई / मनभावती / सुल्तानिशा का विवाह अपने भाणजे सलीम के साथ किया था खुसरो इसी मानबाई का पुत्र था, जिसे सलीम के विद्रोह के समय अकबर ने भावी बादशाह बनाने की सोची।
1605-06 में खुसरो ने जहांगीर बादशाह के विरुद्ध विद्रोह किया, तथा सिक्खों के पांचवे गुरु श्री अजुर्नदेव से बादशाह बनने का आशीर्वाद भी लिया था। मानसिंह ने खुसरों का पक्ष लिया था इस लिए जहाँगीर मानसिंह से नाराज हो गया।
1582 से 89 तक पंजाब का सूबेदार रहा वही लाहौर में भगवन्तदास की मृत्यु हो गई। भगवन्तदास को भी 5,000 का मनसबदार बनाया गया।

मानसिंह (1589 से 1614)

निजामुद्दीन, फरिस्ता व बदायूनी मानसिंह के पिता का नाम भगवानदास लिखते हैं। जबकि अबुल फजल मानसिंह के पिता नाम भगवन्त दास बताते हैं। जहाँगीर भगवानदास को मानसिंह का चाचा व भक्कूदास को उसका पिता बताते है।
मुहणोत नैणसी के अनुसार मानसिंह का जन्म 6 दिसम्बर 1550 ई. में मौजमाबाद जो साभर के पास है। में हुआ था।

कुँवर मानसिंह व मुगल सेवा –

मानसिंह 12 वर्ष की आयु में 1562 ई. में अकबर की सेवा में चला गया व मुगलों की सबसे लम्बी सेवा करने वाला शासक है (लगभग 55 वर्ष)
 दो बादशाह अकबर, जहाँगीर के साथ कार्य किया। मानसिह की अकबर के साथ मुलाकात रतनपुर में हुई।
 अकबर का सबसे विश्वासपात्र राजपूत सेनानायक। मुगलों की सबसे लम्बी सेवा करने वाला राजपूत मनसबदार (लगभग 55 वर्ष तक सेवा की व 67 युद्धों में भाग लिया) अकबर के नव रत्नों में से एक अकबर ने इसे “फर्जन्द” (पुत्र) व “मिर्जा राजा” की उपाधि दी।
प्रथम राजपूत मनसबदार जिसे उच्चतम सात हजार की मनसबदार दी गई थी।
नोट – सरदार मीर्जा कोका अजीज भी अकबर के समय में 7000 हजारी मनसबदार था।
 1568 से 69 रणथम्भौर के अभियान में सर्वप्रथम मानसिंह अकबर के साथ गया इस अभियान में पिता भगवन्तदास भी अकबर के साथ थे। उस समय रणथम्भौर सुर्जन हाड़ा के अधीन था। इसी समय सुर्जन हाडा से सन्धिवार्ता में सफलता मिली।
1572 में गुजरात से ईडर की और जाने वाले शेरखा फलौदी के लडके का अकबर के आदेश पर पीछा करके असवाब को लूटा अप्रैल 1573 में मानसिंह ने ढुँगरपुर के शासक आसकरण को हराया जिसने उनका विरोध किया था। इस समय रावल के दो भतीजे बाघा व दुर्गा वीरगति को प्राप्त हुए। यहां से कुँवर मानसिंह उदयपुर
गये व महाराणा प्रताप से भेंट की।
बिहार के दाउद खा ने विद्रोह किया मानसिंह इसे दबाने के लिए यहां गये इस समय अकबर भी उनके साथ था।
 1574 के बंगाल, बिहार, उडिसा के अभियान में मुगल सेना के साय था।
मानसिंह व मेवाढ – 1576 में अकबर ने 5000 सैनिकों के साथ मेवाड़ भेजा। यहां हल्दीघाटी युद्ध में मानसिंह प्रताप को बंदी बनाने या उन्हें समाप्त करने में असफल रहा। इस कारण अकबर मानसिंह से कुछ समय के लिए नाराज हो गया था व मानसिंह की मनसबदारी 5,000 कर दी थी।
मानसिंह व उत्तर पश्चिमी क्षेत्र – उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में अफगान रोशनिया तथा मिर्जा हाकिम आदि ने इस क्षेत्र में विद्रोह कर दिया। अकबर ने स्थिति को सुधारने के लिए। पंजाब क्षेत्र में विद्रोह दबाने के लिए युसुफ खां को भेजा। भगवन्तदास व कुवर मानसिंह को भी विद्रोह दबाने के लिए भेजा। कुवर मानसिंह ने कश्मीर बदख्शा आदि उपद्रवों को दबाने में सफलता दिखाई। इन सेवाओं से प्रसन्न होकर अकबर ने युसुफ खां के स्थान पर 1580 में उत्तर पश्चिमी सीमात में मानसिंह को नियुक्त किया स्वतंत्र अधिकारी बनने के बाद मानसिंह अफगानों को बाहर खदेडना प्रारम्भ किया, मिर्जा हकीम का सेनानायक शदमन अफगान ने निलव के दुर्ग पर आक्रमण किया शदमन सूरजसिंह कछवाह द्वारा घायल हुआ व मृत्यु हो गई जिसमें अफगानों की हार हुई। सेनानायक की मृत्यु का बदला लेने के लिए मिर्जा हाकिम ने पंजाब पर आक्रमण कर दिया, कुंवर मानसिंह को लाहौर के किले में घेर लिया कुछ समय बाद मिर्जा हाकिम ने घेरा उठा लिया मानसिंह ने सिन्धु नदी तक मिर्जा हाकिम का पीछा किया व वापस लाहौर आ गया। इस घटना से अकबर मानसिंह से खुश हुआ व मानसिंह को 5000 का मनसबदार बना दिया 1580 से 86 तक उतरी-पश्चिमी सीमान्त प्रान्तों में विद्राहों का दमन किया।
कुवर मानसिंह व काबुल (1581 से 1587) – कुवर मानसिंह 1581 से 87 तक काबुल रहे। बादशाह अकबर ने मानसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर सिंध प्रदेश का अधिकारी बना दिया था। 30 जुलाई 1585 में जब मिर्जा हाकिम की मृत्यु हुई तो उनके पुत्र अल्पवयस्क होने के कारण स्थानीय सामान्तों ने काबुल पर अधिकार कर लिया स्थिति का लाभ उठाने के लिए मानसिंह काबुल पहुंचा व आपसी फूट का लाभ उठाकर काबुल पर अधिकार कर लिया। काबुल जैसे क्षेत्र पर अधिकार करने के कारण अकबर ने मानसिंह को काबुल का सूबेदार बना दिया।
मानसिंह लाहौर से ब्लू पॉटरी की कला लेकर आये लाहौर में ब्लू पॉटरी पर्शिया (इरान) से आयी थी।
नोट– ब्लेक पार्टरी (कोटा)
मानसिंह व बिहार की सूबेदारी (1587 से 1594) –
काबुल के बाद मानसिंह को बिहार की सूबेदारी मिली। यहां स्थानीय जमींदार व छोटे छोटे राजा, कई अफगान व पठान मुगल सत्ता का विरोध कर रहे थे। यहां पहुंचकर मानसिह ने विद्रोह का दमन किया। जब मानसिंह बिहार में था तब 1589 ई में पिता भगवन्त दास की मृत्यु हो गई मानसिंह का राज्याभिषेक
बिहार में हुआ इसके बाद दुबारा औपचारिक रूप से आमेर में राज्याभिषेक हुआ। अकबर ने मानसिंह को 5,000 का पक्का मनसबदार बना दिया मानसिंह ने गिधोर के राजा पूर्णमल को परास्त किया व मुगल अधीनता स्वीकार करवाई।
मानसिंह व उडीसा विजय – बिहार का सूबेदार रहते हुए मानसिंह ने कतलू खा व उसके बाद उसके पुत्र नासिर खा पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की नासिर खा मुगल अधीनता स्वीकार कर ली व 150 हाथी व अनेक उपहार दिये। इस प्रकार मुगलों का उड़ीसा पर भी अधिकार हो गया।
मानसिंह व बंगाल की सूबेदारी – मानसिह तीन बार बंगाल का सूबेदार बना। 1594 में मानसिंह को बंगाल का सूबेदार बनाया गया मानसिंह ने बंगाल के तीन टुकडे किए वीर भूमि सिंह भूमि व मान भूमि बंगाल में अकबर नगर तथा बिहार में मानपुर नगर को बसाया था यहा अफगानी विद्रोही बडे शक्तिशाली हो रहे थे बिहार व उडीसा के विद्रोही भी इनके साथ मिल गये। सबसे पहले मानसिंह ने सूबे की राजधानी टण्डा से बदलकर राजमहल कर दी। इसके बाद उसने पूर्वी बंगाल के विद्रोही ईसा खा, सुलेमान खा. केदार राय को हराया । 1596 में मानसिह कूच बिहार के राजा लक्ष्मीनारायण के राज्य को मुगल सत्ता में मिलाया । लक्ष्मीनारायण से संधि कर उसकी बहन से विवाह किया। यहां रहते हुए मानसिह के पुत्र दुर्जनसिह व हिम्मत सिंह मारे गये यहां की जलवायु भी मानसिंह के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं थी। 1590 मे मानसिह बीमार हो गया। तब मानसिंह ने बंगाल के सूबे की देखरेख अजमेर रहकर की, अजमेर रहने का रहने का एक फायदा यह भी था की मानसिंह आमेर की भी देखरेख कर सकता था। यहां रहते हुए मानसिंह ने बगाल की देखरेख के लिए पुत्र जगतसिंह को नियुक्त किया 1599 में जगत सिंह की आकस्मिक मृत्यु हो गई। 1605 में अकबर की मृत्यु होने के बाद मानसिह का मुगल दरबार में उतना महत्व नहीं रहा, जहागीर मानसिंह को कभी बंगाल तो कभी दक्षिण भेज देता, जहाँगीर का मानसिंह से नाराज होने का मुख्य कारण था खुसरों के विद्रोह के समय मानसिंह ने अपने भानजे खुसरो का पक्ष लिया था। अंत में 1014 ई में इल (महाराष्ट्र) में मृत्यु हो गई।
मानसिंह प्रबल हिन्दू धर्म का संरक्षक था इसने वई मन्ति बनवाए अकबर के दीन-ए-इलाही धर्म को भी स्वीकार नहीं किया दीन-ए-इलाही धर्म के समय कहा था भगवान ने जब दिल पर हिन्दू धर्म की मुहर लगा दी है तो अन्य धर्म स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है।

मानसिंह का स्थापत्य

भवानीशंकर मन्दिर – मानसिंह ने बँकटपुर, पटना में मन्दिर बनवाया।
रोहताषगढ़ के महल – बिहार की सूबेदारी के समय मानसिंह ने यहाँ कुछ महल बनवाए।
जगतसिरोगणी मन्दिर – मानसिंह के समय उसके पुत्र जगतसिंह की याद में बनाया गया कृष्ण मंदिर, जो जगत सिंह की माता कनकावती ने बनवाया इससे कृष्ण की यह मूर्ति है जिसकी बचपन में मीरा पूजा करती थी।
शिलादेवी मन्दिर – मानसिंह ने बंगाल शासक (1586 में) केदार से शिला माता की मूर्ति छीन कर आमेर किले में मंदिर बनाकर मूर्ति को प्रतिष्ठित किया (अरावली की पहाड़ियों में मंदिर स्थापित किया) जो कच्छवाह वंश की इष्ट देवी है। यहाँ 25 प्याला शराब चढ़ती है।
नोट – ढाई शाका जैसलमेर का व ढाई दिन का झोपड़ा अजमेर का प्रसिद्ध है।
गोविन्द देव जी का मंदिर – मानसिंह ने वृंदावन मे इस मंदिर का निर्माण करवाया था। औरंगजेब के समय मूर्ति को जयपुर में लाकर प्रतिष्ठित किया। उस समय जयपुर का शासक सवाई जयसिह था।
आमेर की राज प्रासाद – बाहर से मुगल शैली व अन्दर से राजपूत शैली में बने आमेर के राज प्रासादों का निर्माण मानसिंह ने करवाया। महलों को पूर्ण मिर्जा राजा जयसिंह ने करवाया था।
आमेर भाकर मन्दिर -बैकटपुर गांव बिहार पटना में बनवाया।
 महादेव मन्दिर बनवाया गया बिहार में।
 मान पैलेस-पुष्कर में मानमहल बनवाया।
पंचमहल -बैराठ (जयुपर) में पंचमहल बनवाया जिसमें अकबर अजमेर जियारत जाते समय रुकता था।
जयगढ़ दुर्ग-जयगढ / विजयगढी दुर्ग के निर्माण को मानसिंह ने प्रारम्भ किया व मिर्जाराजा जयसिंह ने पूर्ण करवाया था।
आमेर का किला – इस किले की शुरुआत मानसिंह ने की व इसे पूर्ण जयसिंह ने करवाया। विशप हैबर ने कहा है आमेर का किला क्रेमलिन व अलब्रह्मा से बढ़कर है।
मानसिंह के समय साहित्य – रायमुरारीदान ने मान प्रकाश तथा पुण्डरीक बिट्ठल ने रागमाला व रागमंजरी की रचना की।
 दादू इनके समकालीन थे जिन्होंने दादुवाणी की रचना की।
 मानसिंह के समकालिन ही पुण्डरीक बीठल द्वारा रागमंजरी, रामचन्द्रोदय नर्तन निर्णय, दूनी प्रकाश नामक ग्रंथों की रचना की।
 जगन्नाथ ने मानसिंह कीर्ति मुक्तावली की रचना की।
 हरिनाथ व सुंदरदास मानसिंह के दरबारी विद्वान थे।
मानसिंह के दरबारी दलपतराज ने पवन-पश्चिम व पत्र  प्रशस्ति ग्रन्थ लिखा।
 हाया बारहठ मानसिंह के दरबार में थे।

भावसिंह (1614 से 1621 )

मानसिंह का पुत्र इसकी शीघ्र ही मृत्यु हो गई व इसके बाद मानसिंह के ज्येष्ठ पुत्र जयसिंह को शासक बनाया।

मिर्जाराजा जयसिंह (1621 से 67 )

प्रारम्भिक जीवन – जयसिंह मानसिंह का प्रपौत्र, जयसिंह मानसिंह के पुत्र जगतसिह (बगाल अभियान में मारा गया) के पुत्र महासिंह का पुत्र था। जयसिंह का जन्म 29 मई 1611 ई. में हुआ था। मानसिंह मृत्यु के बाद राजगद्दी का हकदार महासिंह था लेकिन राजगद्दी पर मानसिंह का पुत्र भावसिंह बैठ गया। भावसिंह के कोई पुत्र नहीं था तब आगे राजगद्दी का हकदार जयसिंह हो गया। जयसिह की उम्र 2 वर्ष थी तो उसकी माता दमयंती (उदयसिह की पोती) जयसिंह को लेकर
दौसा आ गई। दमयती को डर था कि भावसिंह कहीं जयसिंह को मरवा ना दे। माता दमयती ने जीजाबाई (शिवाजी की माता) की तरह जयसिंह का धार्मिक, व्यवहारिक व राजनैतिक शिक्षा दी। जब भावसिंह की मृत्यु हुई तब जयसिंह को दौसा से आमेर लाया गया व उसे राजा बनाया गया उस समय जयसिंह की उम्र 11 वर्ष थी। जयसिंह सबसे लम्बा (46 वर्ष) शासन करने वाला कछवाह राजा है। इन्होंने तीन मुगल
बादशाहों के समय सेवा दी थी। यथा जहांगीर (1605-27). शाहजहा (1627-58). औरंगजेब (1658-1707)
जयसिंह को मिर्जाराजा की उपाधि 1638 में शाहजहाँ ने गधार अभियान जाते समय दी थी। मिर्जा राजा जयसिंह को औरगजेब ने बाबाजी की उपाधि दी। सर यदुनाथ सरकार ने जयसिंह को मध्यकालीन भारतीय इतिहास का एक अद्वितीय विभूति की संज्ञा दी है और बताया कि उसकी अदूरदर्शिता और वीरता का परिणाम था कि उनके शासन काल में आमेर एक उच्च श्रेणी का राज्य बन गया।
नोट – सबसे लम्बी मुगलों की सेवा करने वाला कच्छवाह राजा मानसिंह (55 वर्ष), सर्वाधिक बादशाहों (संख्या में की सेवा करने वाला सवाई जयसिंह (7 बादशाह) व सर्वाधिक लम्बा शासन करने वाला कच्छवाह राजा गिर्जा राजा जयसिंह (46 वर्ष)।
मिर्जा राजा जयसिंह व जहागीर – आमेर की राजगद्दी पर बैठते ही जयसिंह को 3000 जात व 1500 सवारों का मनसबदार बनाया सर्वप्रथम 1023 में जयसिंह की नियुक्ती अहमद नगर के मलिक अम्बर के खिलाफ की जो मुगलों का विरोध कर रहा था इसके बाद 1625 में दलेल खां पठान के विरुद्ध भेजा जहां जयसिंह ने सफलता हासिल की जहांगीर ने 1627 ई 4 हजार जात व तीन हजार सवार का मनसब प्रदान की।
मिर्जा राजा जयसिंह शाहजहा – शाहजंहा ने इसे 4000 का मनसबदार बनाया व महावन के जाटों के विरुद्ध भेजा जाटों का विद्रोह दबाने में जयसिंह को लगभग 6 माह लगे। 1629 में उजबेगो के उपद्रव को दबाने के लिए जयसिंह को उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में जहां जयसिंह ने सफलता हासिल की 1630 में जयसिंह को खानेजहां लोदी के विरुद्ध भेजा दक्षिण के इस अभियान में जयसिंह के बहुत सारे कछवाह सैनिक मारे गये। 1631 में जयसिंह ने फिर हरावल सेना में रहते हुए खानेजहां का मुकाबला किया खानेजहा भाग गया। जब शाहजी भौंसले ने दौलताबाद के थाने को घेरकर मुगल सेना को परेशान किया यहां जयसिंह ने मराठों का मुकाबला किया साहजी ने छापामार पद्धति अपनाकर मुगलों को परेशान किया जयसिंह ने इसी पद्धति से मराठों का रसद रोक दिया जिसमें जयसिंह के 3000 सैनिक व 800 बैल मयरसद जयसिंह के हाथ लगे। शाहजहां ने खुश होकर जयसिंह का मनसब 5000 कर दिया। जब 1836 में शाहजहां बीजापुर व गोलकुण्डा को विजय करने के लिए दक्षिण की और चला तो जयसिंह भी हरावल सेना का प्रमुख था। यहां गौड़ क्षेत्र में भी जयसिंह ने विजय प्राप्ति में अच्छा सहयोग दिया इन सेवाओं से खुश होकर शाहजहां ने चाकसू व अजमेर को जयसिंह को सौंप दिया। 1637 में जयसिंह को शुजा के साथ कन्धार भेजा गया। इस अभियान पर जाते समय शाहजहां ने जयसिंह को मिर्जा राजा की उपाधि दी। 1651 में जयसिंह की नियुक्ति सादुल्ला खां के साथ कंधार युद्ध के लिए की, जहां जयसिंह हरावल सेना में रहा इन सेवाओं से खुश होकर सम्राट ने सुलेमान सिकोह (दारा का पुत्र) के साथ काबुल की सुबेदारी दी जहा जयसिह 1653 तक रहा उतराधिकारी युद्ध के समय 1050 में जयसिंह ने सुजा की सेना को बनारस के पास बहादुरपुर में घेर लिया लगभग 2 करोड़ रुपये हाथ लगे शाहजहाँ ने इस सेवा के उपलक्ष में मनसब 6000 कर दिया। जब अंत में औरंगजेब की विजय हुई तो जून 1658 में जयसिंह मथुरा में औरंगजेब से मिला व सहयोग का विश्वास दिया।
मिर्जा राजा जयसिंह व औरंगजेब – जब औरंगजेब व दारा का मुकाबला मार्च 1658 देवराय में किया तब जयसिंह ने हरावल सेना का नेतृत्व किया 3 दिन युद्ध के बाद जब दारा यहां से भागा तब जयसिंह ने दारा को सिंधु नदी तक खदेड़ दिया। इन सेवाओं से खुश होकर औरंगजेब ने जयसिंह को 1 करोड़ की आय की जागीर व 1 लाख नकद दिये।
जयसिंह व दक्षिण अभियान – दक्षिण में शिवाजी मराठा शक्ति के रूप में शक्तिशाली हो रहे थे सूरत की लूट और शाहिस्ता खां के परिवार की क्षति ने मुगलों के वर्चस्व को कमजोर किया। शिवाजी का वर्चस्व धीरे-धीरे बढ़ रहा था। शहजादा मुअजम व जसवत सिंह दक्षिण के अधिकारी थे लेकिन स्थिति को काबू नहीं कर सके। तब औरंगजेब ने मिर्जा राजा को दक्षिण में नियुक्त किया मुअजम व जसवंत सिंह को दिल्ली बुला लिया जयसिंह को 30 सितम्बर 1664 को 14 हजार सैनिकों का नेतृत्व देकर दक्षिण में भेजा। 9 जनवरी 1665 में मिर्जा राजा की सेना में नर्मदा नदी को पार करके पुना पहुंची मार्च 1865 में जसवंत सिंह से कार्यभार स्वयं लिया।
यहां मिर्जा राजा ने शिवाजी को घेरना शुरू किया। जयसिंह ने आदिलशाह से सहयोग मागा बम्बई से अंग्रेजों से सहयोग मांगा, कोंकण से कोलिगारो से मदद मांगी शिवाजी के समुद्री बेड़ों को नष्ट करने के लिए पुर्तगालियों से सहयोग मांगा शिवाजी को चारों और से घेरने की यह तूफानी लड़ाई थी।

पुरन्दर का घेरा व संधि 11/22 जून 1665

मिर्जा राजा ने ससवाड़ के निकट मुगल छावनी डाली पश्चिमी नाकों की रक्षा के लिए कुतुबद्दीन खां को लौहगढ़ में 7000 सैनिकों के साथ नियुक्त किया रायगढ़ में शिवाजी का खजाना था। वहां मिर्जा राजा ने दिलेर खां को भेजा मिर्जा राजा स्वयं 31 मार्च को ससवाड पंहुचा पुरन्दर के किले के घेराव के लिए यह किला पूना से 2400 मील दक्षिण में 2500 फुट पहाड़ी पर है। इसके 300 फुट नीचे एक और किला है जो माची कहलाता है यहां मराठों का सशस्त्रागार व सैनिक चौकी है इसी किले के पास 1 मील लम्बे पहाड़ पर वज्रगढ़ का किला है जो पुरन्दर का प्रमुख सैनिक मोर्चा था 14 अप्रैल को जयसिंह ने इस किले को जीत लिया इस मोर्चेबंदी से घबराकर कई मराठों ने आत्म सम्पर्ण कर दिया। इस समय जयसिह ने दाउद खां को आसपास की खेती पशु व वस्तीयो को नष्ट करने के लिए भेजा जिससे शिवाजी को कोई सहायता न मिल सके। साथ ही माची पर गोलाबारी की व नाके बन्दी तोड़ दी। माची की रक्षा के लिए दिलेर खा व मुरारबाजी वीरगति को प्राप्त हुए इनके शव को शत्रुओं के हाथों से बचाकर शिवाजी के पास भेजा इनकी वीरगति के बाद भी मराठों ने मुकाबला जारी रखा। 2 माह की घेराबंदी के बाद जब आसपास की बस्तियों नष्ट हो गई। तब शिवाजी ने संघर्ष करना आत्महत्या के तुल्य समझा। इस तरह तो मराठा राज्य का सर्वनाश हो जायेगा इस विचार से उन्होंने जयसिह के पास दूत भेजा व मिलने का प्रस्ताव दिया। परन्तु जयसिंह तब तक नहीं मिलना चाहता था जब तक शिवाजी आत्मसमर्पण न करदे और किलों को राजा को न सौंप दे। जब विश्वस्त ब्राह्मणों ने राजा से कहा कि शिवाजी किले से बाहर आ गये व मुगल अधीनता स्वीकार करना चाहते है तब जयसिंह ने शिवाजी के प्राण व सम्मान की रक्षा का वचन दिया। जब यह सवाद शिवाजी के पास पहुंचा तो शिवाजी 6 ब्राह्मण सलाहकारों के साथ पालकी में बैठकर 11 जून, 1665 को शिवाजी जयसिंह के शिविर में पहुंचे। जयसिह ने शिवाजी का स्वागत किया। रात को शिवाजी व जयसिंह के मध्य वार्ता हुई जिसे पुरन्दर की संधि कहते हैं। इस संधि के प्रत्यक्ष दृष्टा इतिहासकार नमूची व बर्नियर थे।

संधि की शर्तें –

1. शिवाजी ने 35 में से 23 दुर्ग औरंगजेब को दिए जो   40 लाख आमदनी का हिस्सा था।
2.12 छोटे दुर्ग शिवाजी के पास बचे।
3. शिवाजी के पुत्र सम्माजी को 5000 का मनसबदार बनाकर मुगल दरबार में भेजा शिवाजी को मुगल सेवा से मुक्त रखा परन्तु कमी शिवाजी को मुगल सेवा में बुलाया जायें तो वे उपस्थित होवे।
12 जून 1605 को शिवाजी ने पुरन्दर का किला मुगलों को सौंप दिया व युद्ध स्थगित कर दिया।
जयसिंह ने शिवाजी को औरंगजेब से मिलने के लिए कहा जयसिंह ने शिवाजी के जीवन व सम्मान का आश्वासन दिया जयसिंह ने आश्वासन तो दे दिया लेकिन इस सम्बन्ध में वह भी चिन्तित था लेकिन आशा के विपरित शिवाजी का स्वागत शाही दरबार में अच्छा नहीं हुआ। औरंगजेब ने शिवाजी को रामसिंह की हवेली / जयपुर हवेली (आगरा) में कैद कर लिया। इस घटना से जयसिंह और चिन्तित हो गया जयसिंह को डर था कहीं औरंगजेब शिवाजी की हत्या न करवा दे। इस सम्बन्ध में जयसिंह ने रामसिंह व औरंगजेब को पत्र लिखे जिसमें कहा ऐसा कोई कदम ना उठाये जो मुगल हित में घातक हो शिवाजी के हमशक्ल हिरोजी फर्जन्द की सहायता से शिवाजी रामसिंह की हवेली (आगरा) से फरार हो गये।
नोट – हल्दीघाटी का प्रलक्ष दृष्टा इतिहासकार बदायूँनी, 1857 की क्रांति का प्रत्यक्ष दृष्टा इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण व मीर गालिब, रणथम्भौर का प्रथम साका (1301) व चितौड़ का प्रथम साका (1303) का प्रत्यक्ष दृष्टा इतिहासकार अमीर खुसरो।
जयसिंह व बीजापुर (1665-66) – औरंगजेब ने मिर्जा राजा को दक्षिण में इसलिए भेजा था कि वह शिवाजी व बीजापुर की समस्या का समाधान कर सके। शिवाजी से तो अधीनता स्वीकार करवा ली लेकिन बीजापुर अब भी समस्या बना हुआ था। बीजापुर की समस्या को जयसिंह नहीं सुलझा पाया।
जयसिंह की मृत्यु – बीजापुर अभियान के बाद मिर्जा राजा जब उत्तर की ओर आ रहा था जब 2 जुलाई, 1668 में बुराहनपुर के निकट इसकी मृत्यु हो गई यदुनाथ सरकार लिखते है जयसिंह की मृत्यु एलिजाबेथ के दरबार के सदस्य वॉलसिधम की भाति हुई जिसमें अपने प्राणों का बलिदान ऐसे स्वामी के लिए दिया जो काम लेने में कठोर और काम के मूल्यांकन में कृतघ्न था।
जयसिंह ने औरंगाबाद में जयसिंहपुरा कस्बा बसाया। सबसे लंबा शासन करने वाला कच्छवाह राजा (46 वर्ष)।

मिर्जा राजा के दरबारी कवि –

बिहारी – इनके दरबार में बिहारी था जिसने ब्रज भाषा में बिहारी सतसई लिखी बिहारी रीति काल के प्रसिद्ध कवि माने जाते हैं। बिहारी का जन्म ग्वालियर (1595) में हुआ था। बिहारी सतसई ब्रजभाषा में है. बिहारी के एक-एक दोहे पर मिर्जाराजा सोने की एक-एक असरफी देता था व मिर्जाराजा ने बिहारी को काली पहाड़ी की जागीर भी दी थी। बिहारी सतसई में 719 दोहे है।
जयपुर-नरेश मिर्जा राजा जयसिंह अपनी नयी रानी के प्रेम में इतने डूबे रहते थे कि वे महल से बाहर भी नहीं निकलते थे और राज-काज की ओर कोई ध्यान नहीं देते। थे। मंत्री आदि लोग इससे बड़े चिंतित थे, किंतु राजा से कुछ कहने को शक्ति किसी में न थी। बिहारी ने यह कार्य अपने ऊपर लिया। उन्होंने निम्नलिखित दोहा किसी प्रकार राजा के पास पहुंचाया।
नहि पराग नहि मधुर, नहि विकास यहि काल।
अली कली ही सा बिध्यो आगे कौन हवाल।।
ये दोहा पढ़कर मिर्जाराजा राज कार्य की ओर लग गये।
बिहारी के मान्जे कुलपति मिश्र ने भी लगभग 52 ग्रंथ लिखे जो मिर्जाराजा जयसिंह के दरबार में ही थे। कुलपति दक्षिण अभियान के समय मिर्जाराजा जयसिंह के साथ था मिर्जाराजा के दरबारी रामकवि ने जयसिंह चरित्र नामक ग्रंथ लिखा।
जयसिंह के दरबारी गोपाल तैलंग ने जयचपू नामक संस्कृत काव्य लिखा। नरोत्तम दास ने सुदामा चरित लिखा। जयसिंह ने काशी में संस्कृत विद्यालय बनवाया था। गंगालहरी’ व रसगंगाधर आदि ग्रंथों के रचयिता पंडित जगन्नाथ को जयसिंह काशी से आमेर लाया था। जगन्नाथ ने आमेर में संस्कृत विद्यालय को संचालित किया। पण्डित राज जगन्नाथ ने एक काजी को शास्त्रार्थ मे हराया था। जयसिंह इन्हें शाहजहाँ के दरबार में ले गया, शाहजहाँ ने जगन्नाथ को दाराशिकोह का शिक्षक बना दिया।
पण्डित समा – मिर्जा राजा ने धार्मिक विषयों में विवाद के निर्णय के लिए देशभर के विद्वान पण्डितों की एक सभा बनाई इस पण्डित सभा का निर्णय देशभर में मान्य होते थे। इसी सभा के निर्णय के अनुसार शिवाजी के राजतिलक से पूर्व उनका यज्ञोपवीत संस्कार किया गया। यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ही उन्हें राजसिहासन पर बैठाया गया।
मिर्जाराजा जयसिंह ने मुगल उत्तराधिकार धरमत के युद्ध में दाराशिकोह का साथ दिया। जिससे औरंगजेब जयसिह से नाराज था।
उत्तराधिकारी युद्ध में सुजा की सेना को बनारस के पास बहादुरपुर में घेर लिया इस समय मुगलों के हाथ 2 करोड़ रूपये लगे, शाहजहा ने मिर्जाराजा की मनसबदार 6 हजार कर दी।
1639 में आमेर दुर्ग में गणेश पोल का निर्माण 1664 में
दिलाराम बाग का निर्माण करवाया। बर्नियर ने लिखा था कि जयसिंह जब औरंगजेब से मथुरा में मिला और दोनों के बीच खुशामद हुई तो औरगजेब ने जयसिंह को बाबाजी कहकर पुकारा। मिर्जा राजा ने औरंगाबाद में जयसिंह कस्बा बसाया।

विसनसिंह / विष्णुसिंह 1667 से 1700

ये आमेर का प्रथम शासक है जिसने आमेर के किले की किलेबदी की।

सवाई जयसिंह ( 1700 से 1743)

सवाई जयसिंह ने सर्वाधिक सात मुगल बादशाहों की सेवा की यथा औरगजेब बहादुरशाह प्रथम, जहाँदार शाह, फर्रुखसियर, रफिउददरजात, रफिउद्दौला तथा मौहम्मदशाह ।
सवाई जयसिंह का जन्म 3 सितंबर 1688 को हुआ
था जयसिंह के पिता का नाम बिशनसिह था प्रारम्भ में
इसका नाम विजयसिंह व इसके छोटे भाई का नाम जयसिंह था। औरंगजेब ने इसकी वाकपटुता से प्रभावित होकर इसे
सवाई जयसिह की उपाधि दी क्योंकि यह प्रथम जयसिंह से अधिक चतुर था और इसके छोटे भाई का नाम विजयसिंह रख दिया।

सवाई की उपाधि :- जब विजयसिंह पहली बार औरंगजेब से मिला तो औरंगजेब ने इसके दोनों हाथ पकड़ लिये औरंगजेब ने कहा बताओ अब क्या करोगे विजयसिंह ने कहा मेरे हाथ बादशाह ने पकड़ लिए अब मुझे कुछ करने की जरूरत ही नहीं है औरंगजेब ने इस हाजिरजवाबी से प्रभावित होकर कहा तुम मिर्जा राजा जयसिंह से भी बढ़कर हो इसे सवाई की उपाधि दी। सवाई का अर्थ चतुर होता है इतिहास में यह सवाई जयसिंह नाम से प्रसिद्ध हुआ आगे सभी कछवाह राजाओं ने इसी ‘सवाई’ की उपाधि को अपनाया। सवाई जयसिंह को चाणक्य भी कहा जाता है।
खेलना का घेरा व जयसिंह जयसिंह – दक्षिण में पहुंचा खेलना दुर्ग पर औरंगजेब ने घेरा डाल रखा था यह दुर्ग मराठों के अधीन था। यहां औरंगजेब ने 5 महीने लगा दिये परन्तु दुर्ग नहीं जीत पाया जयसिंह को कोंकणी फाटक के सामने वाले मोर्चे पर लगाया और जयसिंह इस मोर्चे को तोड़ने में सफल हुआ। इससे खुश होकर औरंगजेब ने जयसिंह का मनसब 2000 कर दी।
इस अभियान के बाद जयसिंह की नियुक्ति मालवा सूबेदार के रूप में हुई।
मुगल उत्तराधिकारी युद्ध व जयसिंह – 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों में राजगद्दी के लिए युद्ध छिड़ गया। औरंगजेब का एक पुत्र कामबक्श दक्षिण में रुक गया। उत्तर में आजम व मुअज्जम के बीच युद्ध छिड गया जयसिंह उस समय आजम के अधीन दक्षिण में था इसलिए उसने आजम का पक्ष लिया जयसिंह का भाई विजयसिंह भी आमेर का शासक बनना चाहता था। इसलिए उसने मुअज्जम का पक्ष लिया दोनों भाईयों आजम व मुअज्जम में 2 जून, 1707 में आगरा के नजदीक जाजऊ के मैदान में युद्ध हुआ आजम की मृत्यु हुई मुअज्जम की जीत हुई और मुअज्जम बहादुरशाह प्रथम के नाम से बादशाह बना।
जयसिंह को आमेर से बेदखल :- बादशाह बहादुरशाह जयसिंह से नाराज था क्योंकि इसने आजम का पक्ष लिया था । जयसिंह को दण्ड देने के लिये बहादुरशाह आमेर की ओर रवाना हुआ आमेर पहुँचकर विजयसिंह को आमेर का शासक बना दिया आमेर का फौजदार सैयद हुसैन खां को बनाया व बहादुरशाह ने आमेर का नाम ‘इस्लामाबाद’ कर दिया। अब जयसिंह सिर्फ एक मुगल मनसबदार ही रह गया । आमेर पुनः प्राप्त करने के लिए जयसिंह बहादुरशाह के साथ हो गया बहादुरशाह उस समय कामबख्श के विरुद्ध दक्षिण की ओर जा रहा था। रास्ते में जयसिंह ने अपने साथ जोधपुर के अजीतसिंह को मिला लिया। मेड़ता के मुकाम पर अजीतसिंह व जयसिंह बहादुरशाह से मिले व आमेर पुनः प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की। लेकिन सम्राट विजयसिंह के नाम से आमेर का फरमान जारी कर चुके थे इसलिए इस पर ध्यान नहीं दिया। मण्डलेश्वर तक अजीतसिंह व जयसिंह बहादुरशाह के साथ रहे इसके बाद वहाँ से उदयपुर महाराणा अमरसिंह द्वितीय के पास आ गये।

देबारी समझौता उदयपुर 1708 ई. :-

जोधपुर के अजीत सिंह व सवाई जयसिंह ने बादशाह के आदेशों की अवहेलना की दोनों को इनकी रियासत से वंचित कर दिया तब मेवाड के शासक अमरसिंह द्वितीय (1698 1710) के साथ देबारी समझौता की सहमति के बाद दोनों को इनकी रियासतें दिलाने में राणा ने सहयोग किया था। अमरसिंह द्वितीय की पुत्री चन्द्रकँवरी का विवाह सवाई जयसिंह के साथ इस शर्त पर हुआ कि इनका भावी पुत्र आमेर का राजा बनेगा जिनसे माधोसिंह का जन्म हुआ जबकि सवाई जयसिंह के बड़ा पुत्र ईश्वर सिंह था इस कारण इन दोनों में उतराधिकारी युद्ध प्रारम्भ हो गया था।

जयसिंह को मालवा की सूबेदारी :-

बहादुरशाह की मृत्यु के बाद जहाँदारशाह शासक बना इसने हिन्दुओं को खुश करने के लिये जजिया कर हटाया। जहाँदारशाह के बाद फर्रुखसियर बादशाह बना इसने जयसिंह को 7,000 का मनसबदार बनाया व 1713 ई. में मालवा का सूबेदार बनाया ।

जाट विद्रोह का दमन:-

के जयसिंह के समय जयपुर के आस-पास के क्षेत्र में जाट प्रबल हो चुके थे। उस समय जाटों का नेता चूड़ामन था। बादशाह फर्रूखसियर के समय जयसिंह ने चूड़ामन को थून किले में घेर लिया व सन्धि के लिये मजबूर किया। बादशाह मोहम्मदशाह के समय फिर जाट विद्रोह हुए। 1722 ई. में जाटों का विद्रोह दबाने के लिये फिर जयसिंह को भेजा गया चूड़ामन की मृत्यु के बाद चूड़ामन के पुत्र मोकल वीर रूमा के नेतृत्व में जाटों ने मुगलों का विरोध किया। जयसिंह ने चूड़ामन के भतीजे बदनसिंह को डीग (भरतपुर) की जागीर व ‘ब्रजराज’ (ब्रजनिधि उपाधि प्रतापसिंह की है) की उपाधि व ‘राजा’ की उपाधि दी । जाट विद्रोह दबाने के कारण मोहम्मदशाह ने जयसिंह को ‘राज – राजेश्वर श्री राजाधिराज सवाई’ की उपाधि दी ।

जयपुर की स्थापना 18 नवम्बर 1727 :-

1727 ई. में पण्डित जगन्नाथ ने जयपुर की नींव रखी। जाता जयपुर का वास्तुकार (इंजीनियर) विद्याधर भट्टाचार्य (बंगाल) था। जयपुर भारत का एकमात्र शहर है जो नक्शे के ऊपर बसा हुआ है जयपुर की सड़के समकोण पर काटती हैं। जयपुर चौराहों पर बसा हुआ शहर है इस तरीके के शहर सिंधु घाटी में मिले है सिंधु घाटी की तर्ज पर बसा भारत का एकमात्र शहर जयपुर है। जयपुर को नौ चौकड़ियों का शहर भी कहा ये नौ चौकड़ी, नौ ग्रहों के आधार पर बनाई गई है। जयपुर नगर के बारे में जानकारी ‘बुद्धि विलास’ नामक ग्रंथ से मिलती है यह ग्रंथ बख्तराम (चाकसू) ने लिखा था। जयपुर 1729 ई. में बनकर तैयार हुआ। अब राजधानी आमेर से सवाई जयसिंह जयपुर ले आया। 1207-1727 ई. (520 वर्ष) कछवाहों की राजधानी आमेर रही थी। आजादी के बाद जयपुर को ‘सत्यनारायण कमेटी’ के कहने पर राजधानी बना दी गई। 6 जुलाई 2019 ई. को यूनेस्को की अजरबेजान की राजधानी बाकू में आयोजित 43 वे सत्र की बैठक में विश्व विरासत सूची में शामिल कर लिया । 21 में से 16 देशों ने समर्थन किया । अहमदाबाद के बाद जयपुर भारत का दूसरा शहर है जो इस सूची में शामिल हुआ है।
नोट:- आधुनिक जयपुर का निर्माता मिर्जा इस्माइल को कहा जाता है इसके नाम पर जयपुर में m.i. रोड़ है। –
नोट:- किसी यूरोपियन द्वारा जयपुर का प्रथम वर्णन फादर जोंस टिफेनथेलर ने किया। यह 1729 ई. में जयपुर में फादर ऐन्ड्रे स्ट्रोब्ल से मिलने आया था ।
जयसिंह को दूसरी व तीसरी बार मालवा की सूबेदारी – 1730 में मोहम्मदशाह ने सवाई जयसिंह को दूसरी बार मालवा का सूबेदार बनाया। 1732 में तीसरी बार मालवा का सूबेदार बनाया ।
राजस्थान में मराठों का आगमन :- राजस्थान में मराठों का सर्वप्रथम हस्तक्षेप बूंदी रियासत में हुआ था । बूंदी का नरेश बुद्ध सिंह सवाई जयसिंह के साथ कई अभियानों में गया था बुद्धसिंह का सवाई जयसिंह की बहन अमरकंवरी से विवाह हुआ था। अमरकंवरी से 1729 में उम्मेदसिंह नामक पुत्र हुआ। बुद्धसिंह व सवाई जयसिंह की बहन अमरकंवरी के बीच मनमुटाव हो गया। सवाई जयसिंह ने करवड़ के जागीरदार सालिमसिंह के पुत्र दलेलसिंह को बूंदी का शासक बना दिया व जयसिंह ने अपनी पुत्री का विवाह 1730 में दलेलसिंह से कर दिया अमरकंवरी को अपने भाई जयसिंह की कुटिल चालों का पता चला इसने मल्हार राव होल्कर से सहायता माँगी व उसे 6 लाख रूपये देने का वादा किया। होल्कर व सिंधिया ने बूंदी पर आक्रमण कर दिया । दलेलसिंह को बूंदी की राजगद्दी से हटा दिया सालिमसिंह से को गिरफ्तार कर लिया बुद्धसिंह को बूँदी का शासक बना दिया जैसे ही मराठा सेना बूँदी से वापस गई जयपुर सेना ने दलेलसिंह को पुनः बूँदी का शासक बना दिया सालिमसिंह को 2 लाख रूपये देकर मराठों से छुडवा लिया।

हुरड़ा सम्मेलन 17 जुलाई 1734 ई. :-

हुरड़ा सम्मेलन का आयोजनकर्ता सवाई जयसिंह था । हुरड़ा सम्मेलन मराठों के विरुद्ध हुआ था। पूर्व में हुरड़ा सम्मेलन का अध्यक्ष महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय को बनाना तय हुआ था। जनवरी में संग्रामसिंह की मृत्यु हो गई थी। इस कारण हुरड़ा सम्मेलन की अध्यक्षता जगतसिंह द्वितीय ने की।
हुरड़ा सम्मेलन में निम्न व्यक्ति आये :-
1. जोधपुर से अभयसिंह राठौड़
2. बीकानेर से जोरावर सिंह राठौड़
3. किशनगढ़ से राजसिंह / रूपसिंह राठौड़
4. नागौर से बख्तसिंह राठौड़
5. कोटा से दुर्जनशाल हाड़ा
6. बूंदी से दलेलसिंह हाड़ा
7. करौली से गोपालदास
वर्षा ऋतु के बाद सेना ने रामपुरा गाँव में इकट्ठा होने की योजना बनाई ।
नाहरगढ़ / सुदर्शन का गढ़ :- 1734 ई. में मराठों के आक्रमण से बचने के लिये नाहरगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया।
राधाबाई का जयपुर आगमन:- पेशवा बाजीराव की माँ राधाबाई उत्तरी भारत की तीर्थ यात्रा करने के लिए 14 फरवरी 1735 ई. पूना से रवाना हुई, राधाबाई जब उदयपुर पहुँची तब जगतसिंह द्वितीय ने स्वागत किया। जब राधाबाई जयपुर पहुँची तब सवाई जयसिंह ने स्वागत किया व राजमहल में ठहराया व जयसिंह राधाबाई को बदनसिंह जाट की हवेली तक पहुँचाने गया
वैधशाला का निर्माण :- सवाई जयसिंह ने नक्षत्रों की शुद्ध गणना के लिये पाँच वैधशालाएँ बनवाई । यहाँ बड़े-बड़े यंत्र लगवाये जयसिंह ने राजा एमानुएल के दरबार में पुर्तगाली पादरियों के साथ अपने कुछ आदमी भेजकर वहाँ के ग्रन्थ मँगवाये । इन ग्रन्थों के आधार पर जयसिंह ने पाया कि इन ग्रन्थों में अशुद्ध गणना है क्योंकि इनके पास सूक्ष्म उपकरणों की कमी थी सवाई जयसिंह का समय वैज्ञानिक परिज्ञान का महत्त्वपूर्ण समय था।
1718 – 1734 के मध्य सवाई जयसिंह ने पाँच वैधशालाएँ स्थापित की :-
1. दिल्ली वैधशाला – ये सबसे प्राचीन वैधशाला है ।
2. जयपुर वैधशाला –  ये सबसे बड़ी वैधशाला है इस यंत्र की ऊँचाई 90 फीट है व लंबाई 147 फीट है। इस वैधशाला को जंतर-मंतर भी कहा जाता है इसे 2010 में यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल कर लिया गया । यहाँ ऊँचाई नापने के लिये ‘रामयंत्र’ लगा है। यहाँ विश्व की सबसे बड़ी घडी ‘सम्राट घडी´ भी लगी है।
3. मथुरा वैधशाला :- यह नष्ट हो चुकी है।
4. उज्जैन वैधशाला
5. वाराणसी / बनारस वैधशाला ।
नोट:- सवाई जयसिंह ने 1725 ई. में नक्षत्रों की शुद्ध सारणी बनवाई इस सारणी का नाम बादशाह मुहम्मद शाह के नाम पर ‘जीज-ए-मोहम्मदशाही’ नाम रखा । ये 1733 में प्रकाशित हुई।
अश्वमेध यज्ञ :- सवाई जयसिंह की हिन्दू धर्म के प्रति अच्छी श्रद्धा थी इसने धर्म रक्षा के लिये वाजपेय, राजसूय पुरुषमेघ आदि यज्ञ करवाये थे। सवाई जयसिंह अंतिम हिन्दू सम्राट था जिसने पुण्डरीक रत्नाकर की देख-रेख में सीटी पैलेस में अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करवाया। यज्ञ के समय सुवर्ण पट्टिका बाँधकर जयसिंह ने जो घोड़ा छोड़ा उसे कुम्भाणी के राजपूतों ने पकड़ लिया था सवाई जयसिंह ने युद्ध करके घोड़ा वापस छुड़वाया था ।

जयसिंह से सम्बन्धित अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य –

1. जयसिंह ने ‘जयसिंहकारिका’ नामक ज्योतिष ग्रंथ लिखा
2. जयसिंह के दरबारी जगन्नाथ ने युक्लिड की रेखागणित का संस्कृत में अनुवाद किया
3. जयसिंह ने ‘सिद्धान्त कौस्तुभ’ व ‘सम्राट सिद्धान्त’ नामक ग्रन्थ लिखे ।
4. नयनमुखोपाध्याय द्वारा अरबी ग्रंथ ‘ऊकर’ का संस्कृत में अनुवाद जयसिंह के काल में हुआ था।
5. जयसिंह के दरबारी पुण्डरीक रत्नाकर ने ‘जयसिंह कल्पद्रुम ग्रंथ की रचना की। इसमें तात्कालिक समाज की राजनीतिक घटनाओं का वर्णन है।
6. जयसिंह ने सभी ब्राह्मणों को एक साथ भोजन करवाया जिसे ‘छ: न्यात’ कहा गया ।
7. जयसिंह ने विवाह के अवसर पर होने वाले अपव्यय की कुप्रथा पर रोक लगाई ।
8. जयसिंह ने पानी की व्यवस्था पर हरमाड़े से नहर बनवाई।
9. सवाई जयसिंह ने जयगढ़ दुर्ग में तोप ढालने का संयंत्र लगवाया व ‘जयबाण तोप बनवाई।
जयबाण तोप :- इसका वजन 50 टन है इससे लगभग 50 किलोग्राम का गोला दागा जा सकता था। जयबाण तोप पहिये पर रखी एशिया की सबसे बड़ी तोप है। इस तोप की नली लगभग 20 फुट 2 इंच लंबी है। जब इससे गोला चलाया गया जो चाकसू में आकर गिरा था जहाँ ‘गोलेलाव’ नामक तालाब बन गया था। ये तोप लगभग 1720 ई. के आसपास बनाया गया था। वर्तमान में जयबाण तोप जयगढ़ दुर्ग में है।
10. जयसिंह ने सती प्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया व पुनर्विवाह करने हेतू नियम बनाये।
11. जयसिंह ने साधुओं के गृहस्थ जीवन के लिये मथुरा में एक नगर बसाया।
12. जयसिंह के समय कुछ यूरोपिय खगोल शास्त्री (क्लाउड बोडियर, आंद्र स्ट्रोब्ल, फादर एंटोनी, गेबेल्स परग्वे, फादर पेड्रो) जयपुर आये थे।
13. 1730 में राणा अमरसिंह द्वितीय की पुत्री सिसोदिया रानी चन्द्रकंवर के लिए सिसोदिया गार्डन बनाकर इसमें सिसोदिया रानी का महल भी बनवाया ।
14. सवाई जयसिंह के गुरू – पुण्डरीक थे व इनके गुरू जगन्नाथ थे ।
15. इतिहासकारों ने सवाई जयसिंह को “चाणक्य” की उपाधि दी। सवाई जयसिंह का अंतिम समय :- सवाई जयसिंह ने अंतिम समय में उत्तेजक औषधियों के प्रयोग करने के कारण रक्त विकार हो गया। 1 सितम्बर 1743 को उनकी मृत्यु हुई सवाई जयसिंह कूटनीतिज्ञ होते हुए भी कुछ भूल की इन्होंने उदयपुर की सिसोदिया रानी चंद्रकंवरी से विवाह करते समय महाराणा को वचन दे दिया था चंद्रकंवरी का भावी पुत्र ही आमेर का शासक बनेगा। चंद्रकंवरी से माधोसिंह का जन्म हुआ जबकि 1722 ई. में खींची रानी सूरजकंवरी से ईश्वरसिंह का जन्म हुआ जबकि माधोसिंह का जन्म 1727 ई. में हुआ था। इस कारण भावी उत्तराधिकारी युद्ध की नींव पड़ गई इस समस्या का जयसिंह निवारण भी नहीं कर सका। जयसिंह की दूसरी बड़ी गलती थी बूँदी झगड़े में हस्तक्षेप किया जिस कारण राजस्थान में मराठों का आगमन हो गया ।

सवाई ईश्वरी सिंह (1743 से 1750)

इनके समय जयपुर के उत्तराधिकार का संघर्ष था। हुआ नोट 1708 में सिसोदिया रानी चन्द्रकंवर के साथ सवाई जयसिंह का विवाह इस शर्त पर हुआ कि इनसे उत्पन्न पुत्र आमेर का भावी शासक होगा माधोसिंह चन्द्रकंवर का पुत्र था।
सवाई जयसिंह ने मालवा के अपनी तीन बार की सूबेदारी के समय मालवा में अपने पुत्र माधोसिंह के लिये राज्य की व्यवस्था करने का प्रयास करता रहा। किन्तु मराठी व मुगल दरबार में विरोधी गुटों ने इन्हें सफल नहीं होने दिया।
सवाई जयसिंह की मृत्योपरान्त ईश्वरसिंह व माधोसिंह में उत्तराधिकार के लिए दो युद्ध हुए मोहम्म्दशाह ने ईश्वरसिंह को राजा के रूप में स्वीकार कर लिया था ईश्वरसिंह के राजगद्दी पर बैठते ही बूँदी, जोधपुर व उदयसिंह के राजघराने इसके विरुद्ध हो गये।

1. राजमहल का युद्ध (1 मार्च 1747) –

ईश्वरी सिंह ने सिंधिया व मुगल बादशाह से सहयोग लिया इस युद्ध में ईश्वरसिंह का सेनापति हरगोविन्द नाटाणी था तथा माधोसिंह के मामा मेवाड़ के राणा जगतसिंह ने होल्कर, कोटा के दुर्जनशाल व बूंदी के उम्मेदसिंह से सहयोग लिया । उदयपुर, कोटा व मराठों की सेना बुरी तरह से परास्त हुई। ईश्वरसिंह ने भागती हुई मेवाड़ सेना का पीछा किया व मेवाड़ के व्यापारिक केंद्र भीलवाड़ा पर भी अधिकार कर लिया।
सरगासूली / ईशरलाट- 1749 ई. में ईश्वरसिंह ने राजमहल युद्ध की विजय के उपलक्ष में बनवायी। ये सात खण्डों में और इसे तीन विजय के उपलक्ष में बनाया और इसे जयपुर का कुतुबमीनार व जयपुर का विजय स्तम्भ भी कहा जाता है। यह जयपुर की सबसे उंची इमारत है। क्योंकि ईश्वरसिंह ने सात दुश्मनों को एक साथ हराया था। यह इमारत इतनी ऊंचाई पर बनी हुई है कि ये स्वर्ग को छूती हुई प्रतीत होती इसलिए इसे सरगासूली कहा जाता है। त्रिपोलिया में दिखने वाली यह मीनार वास्तव में त्रिपोलिया में न होकर उसके पीछे स्थित आतिश बाजार की दुकानों के उपर बनी है। इस इमारत को ईश्वर सिंह ने राजशिल्पी गणेश ख्वान के नक्शे के आधार पर बनवाया था। बाजार
सरगासूली से सम्बन्धित – बून्दी के कवि सूर्यमल्ल मिश्रण के पिगंल भाषा के ग्रंथ वंश भास्कर में लिखा है कि राजा ईश्वरसिंह ने सरगासूली का निर्माण अपने सेनापति हरगोविन्द नाटाणी की पुत्री को देखने के लिए करवाया था।
यह बात सत्य नहीं मानी जाती क्योंकि सूर्यमल्ल मिश्रण जी यह बात इसलिए लिखते है क्योंकि ईश्वर सिंह ने बूंदी को हरा दिया था। हालांकि जयपुर इतिहास के अनजाने पृष्ठ में जानकारी मिलती है कि राजा अपने सेनापति हरगोविंद की पुत्री पर अनुरक्त थे।
नोट:- विजय स्तंभ सारगपुर विजय के उपलक्ष में

2. बगरू युद्ध (1748) –

1748 ई. में पेशवा बालाजी राव, मल्हार राव होल्कर, गंगाधर तातिया आदि ने जयपुर पर धावा बोला ईश्वरसिंह का इनसे सामना हुआ। वर्षा के कारण यह युद्ध छह दिन तक चलता रहा सूरजमल जाट इस युद्ध में ईश्वरसिंह की ओर थे। बगरु के किले में घिरे ईश्वरसिंह को समझौता करना पड़ा माधोसिंह को पाँच परगने व उम्मेद सिंह को बूँदी पर अधिकार देने की बात ईश्वरसिंह को माननी पड़ी। मराठों ने 10 लाख वसूल किए। ईश्वरसिंह से भी चौथ तय करके शेष राज्य उसे दे दिया। ईश्वरसिंह को छोड़कर शेष कछवाह राजाओं की छतरी गैटोर में है।
ईश्वरसिंह की मृत्यु – तरह वीर व विद्वान नहीं था ईश्वरसिंह सवाई जयसिंह की यह सवाई जयसिंह के साथ किसी भी अभियान पर नहीं गया और इसकी सैन्य शक्ति भी कमजोर थी । बगरू की हार के बाद यह रनिवास में छिपा रहा पागल जैसे हालात में 1747 ई. में जयपुर राज्य का विद्वान व लेखक मंत्री राजा ‘आयामल’ मर चुका था इसका शोक मराठों ने भी मनाया था । आयामल का पुत्र केशवदास दीवान के पद पर बैठा 1750 ई. में हरगोविन्द नाटाणी ने इसे मरवा दिया। विद्याधर भी अब वृद्ध हो चुके थे केशवदास की मृत्यु के बाद उसकी विधवा और अनाथ बच्चों को तंग करने की जानकारी जब पेशवा तक पहुँची तब मल्हार राव होल्कर व गंगाधर तांतिया मुकुन्दरा घाटी होते हुए नैनवां पहुँचे इसके बाद जयपुर की ओर बढ़े। जब जयपुर के नजदीक पहुँचे तो ईश्वरसिंह के दूत 2 लाख रुपये लेकर पहुँचे। ये थोड़ी रकम देखकर मल्हार राव व तात्या ने अपना अभियान नहीं रोका । दूत ने आकर सूचना दी कि केशवदास की मौत का बदला लेने के लिए मल्हार राव आगे बढ़ रहा है। 12 अक्टूबर 1750 ई. 30 वर्ष की उम्र में ईश्वरसिंह ने दवाई तैयार करने के लिये अपने नौकर से जहरीला काला सर्प, दो-तीन प्रकार के विष मँगवाये रात के बारह बजे विष पी लिया और सर्प से अपने आप को कटवाया उसकी तीन रानियाँ और एक पासवान ने भी जहर खाया । पाँचों चुपचाप एक साथ मर गये बिना किसी को पता चले 18 घंटे तक उनके शव पड़े रहे एक नौकर के अलावा बिना किसी को पता चले। उस समय मल्हार राव झालानां कुड पर रुका हुआ था । दुश्मन सेना बाहर होने के कारण जल्दबाजी में ईश्वरसिंह का दाहसंस्कार यहीं किया गया। ईश्वरसिंह के अतिरिक्त जयपुर के सभी राजाओं की छतरियां गैटोर (जयपुर) में है। मल्हार राव होल्कर को जब ईश्वरसिंह की आत्महत्या का पता चला तो होल्कर ने माधोसिंह को पत्र लिखकर जयपुर की राजगद्दी पर बैठने के लिये कहा 29 दिसम्बर 1750 माधोसिंह उदयपुर से मराठा शिविर में पहुँचा मराठों से सौदा 10 लाख रुपये में तय करके जयपुर आ गया ।

माधोसिंह प्रथम (1750 से 1768)

मराठों का कत्लेआम – 10 जनवरी 1751 ई. को 4000 गराठा स्त्री-पुरुष जयपुर शहर व उसके मंदिरों को देखने के लिये आये थे। मराठों ने जयपुर को अपनी खैरात में दिया हुआ मानकर राजा का मजाक उडाया जिससे स्थानीय जनता भड़क गयी। दंगे हुए जो दोपहर में शुरू हुए ये दंगे 9 घंटे तक चलते रहे खबर राजधानी से बाहर भी पहुँच गई, गाँवों के राजपूत मराठों को मारने लगे सारे रास्ते बंद कर दिये डेढ़-दो हजार मराठा मारे गये।
भटवाड़ा युद्ध (1761) – मुगल बादशाह अहमदशाह ने माधोसिंह को रणथंभौर का किला दिया था। कोटा शासक शत्रुसाल ने इससे नाराज होकर माधोसिंह पर आक्रमण कर भटवाड़ा युद्ध में जयपुर को पराजित किया ।

मावड़ा का युद्ध (14 दिसम्बर 1767)

माधोसिंह की सेना व जाट शासक जवाहर सिंह के मध्य हुआ इसमें जवाहर सिंह की पराजय हुई। ये माधोसिंह का अंतिम युद्ध था 15 मार्च 1768 को मालवा में माधोसिंह की मृत्यु हो गई।
1751 में मराठा सैनिकों ने जयपुर में पहुंचकर उत्पात मचाया। माधोसिंह ने इन मराठा सैनिकों को मार दिया।
मुगल बादशाह ने पुनः माधोसिंह को किला दे दिया । 1765 ई. मे आस पास रणथम्भौर दुर्ग के पास सवाई माधोसिंह ने सवाई माधोपुर नगर बसाया तथा मोती डूंगरी नामक महलों का निर्माण भी करवाया।
चाकसू शीतला माता का मन्दिर बनवाया। शीतला माता कुम्हारों की कुल देवी है।
द्वारिका नाथ भट्ट :- ये माधोसिंह के दरबार में था। इसने वाणी वैराग्य व गलवा गीत नाम संस्कृत ग्रन्थों की रचना की।
नोट :- जयपुर के इतिहास का काला युग :- 1768 से 1839 ई. के 71 वर्ष का समय जयपुर के इतिहास का काला युग कहलाता है। इस युग का नाबालिगों के राज का युग भी कहा जाता है। 1768 ई. में माधोसिंह प्रथम की मृत्यु के बाद रामसिंह द्वितीय के 1839 ई. के प्रारम्भ तक यहाँ के सामन्त बगावत में सिर उठाते रहे और कुशासन के कारण खजाने खाली हो गये ।

सवाई प्रतापसिंह (1768 से 1803 ई. तक)

माधोसिंह जी सिंधिया जयपुर से खण्डनी वसूलने आया था, प्रतापसिंह के साथ सिंधिया के दो युद्ध हुए।
प्रतापसिंह के समय ‘तमासा’ लोकनाट्य प्रारम्भ हुआ तथा ‘तमासा’ महाराष्ट्र का प्रसिद्ध है।
1. तूंगा का युद्ध (1787) – इस युद्ध में जोधपुर के राठौड़ विजय सिंह, प्रताप सिंह के साथ थे। महादजी सिंधिया पराजित हुआ। महादजी सिधिया जाते समय कहा था मैं जिंदा रहा तो जयपुर को मिट्टी में मिला दूंगा।
2. पाटन (सीकर) का युद्ध (1790) –  इसमें महादजी सिंधिया ने प्रतापसिंह को पराजित कर खण्डनी वसूल की 1 इस युद्ध में मराठा सैनिक का नेतृत्व डी. बोई नामक फासिसी सेनापति ने किया इसमें जयपुर की हार हुई। पाटन युद्ध विजय का श्रेय डिबॉय को जाता है। पाटन युद्ध अंतिम युद्ध था जिसमें जयपुर की सेना पुराने ढंग से लड़ी।
ब्रजनिधि :- ये अपने आराध्य ईष्ट देव गोविंद देव कम से कम पांच रचनाएं रोज भेंट करते थे।
 प्रताप सिंह ‘ब्रजनिधि’ के नाम से काव्य रचना करते थे। इन्होंने ब्रजनिधि नामक कविता संग्रह की भी रचना की थी।
 राधागोविन्द संगीत सार नामक संगीत ग्रंथ की रचना प्रतापसिंह ने करवाई थी। इसमें विशेष योगदान देव ऋषि ब्रजपाल भट्ट का था।
 गन्धर्व बाईसी प्रतापसिंह के दरबार में 22 विद्वानों की मण्डली थी, जिन्हें गन्धर्व बाईसी / गुणीजन खाना कहते हैं। इस मंडली में देवर्षि ब्रजपाल भट्ट, गणपति, चाँद खाँ, द्वारिका नाथ भट्ट आदि प्रमुख थे। चाँद को प्रतापसिंह ने ‘बुद्धप्रकाश की उपाधि दी। चाँद खाँ ने ‘स्वरसागर’ ग्रंथ की रचना की थी।
 चाँद खाँ के दरबारी पद्माकर ने ‘जगद्विनोद’ व कवि राधाकृष्ण ने ‘राग रत्नाकर की रचना की। प्रतापसिंह ने पद्माकर को ‘कविचक्र चूड़ामणि की उपाधि दी।
✰ हवामहल – हवामहल का निर्माण प्रतापसिंह ने 1799 में करवाया, जिसका शिल्पी लालचन्द था। इसे राजस्थान का एयर दुर्ग / कृष्ण मुकुट समान कहा जाता है। इसमें 953 खिड़कियाँ 152 झरोखे है, ये रानियों को बाहर के दृश्य देखने के जिए बनवाया था, जैसे गणगौर आदि उत्सव। बिना नींव का समतल जमीन पर बना (गागरोन दुर्ग की भी नींव नहीं है)
हवा महल पांच मंजिल है
1. प्रथम मंजिल शरद् मन्दिर या प्रताप मंदिर
2. रतन मन्दिर
3. विचित्र मन्दिर
4. प्रकाश मन्दिर
5. हवा मन्दिर
प्रतापसिंह के समय प्रसिद्ध चित्रकार साहिबराम थे जिन्होंने ईश्वरसिंह की आदमकद मूर्ति बनायी थी।
इनके समय जयपुर में तमाशा लोकनाट्य प्रारंभ हुआ था।
नोट – तमाशा लोक नाट्य जयपुर का प्रसिद्ध है इस स्त्री की भूमिका स्त्रिया निभाती है रमत जैसलमेर व बीकानेर की है। नौटंकी भरतपुर की चारबेत टोंक की प्रसिद्ध है।
प्रतापसिंह के संगीत गुरू वाद खाया दलखा जी थे। जिन्होने स्वरसागर ग्रन्थ की रचना की प्रतापसिंह ने इनको कुलप्रकाश की उपाधि दी थी।
प्रतापसिंह के समय 1778 ई में अग्रेज अधिकारी जार्ज थॉमस ने जयपुर पर आक्रमण किया था।

सवाई जगतसिंह (1803 से 1818 ई )

रसकपुर वेश्या से लगाव के कारण इसे जयपुर का “बदनाम बादशाह कहा गया ।
कृष्णाकुमारी विवाद :- गेवाड के भीगसिंह की पुत्री कृष्णा कुमारी का रिश्ता जोधपुर के भीमसिंह के साथ हुआ भीमसिंह की मृत्यु हो गई जोधपुर में भीमसिंह का भाई मानसिंह शासक बना मेवाड के भीमसिंह ने अपनी पुत्री का रिश्ता जयपुर के जगतसिंह से कर दिया। जोधपुर के मानसिंह ने इस रिश्ते पर आपत्ति जताई।

गिंगौली (परबतसर, नागौर) युद्ध – 1807

जयपुर के जगतसिंह व मानसिंह (जोधुपर) के मध्य मेवाड राजकुमारी कृष्णा कुमारी को लेकर हुआ था, अमीर खां पिण्डारी के सहयोग से जगतसिंह विजय हुआ।

सवाई जयसिंह तृतीय (1818-1835 )

रामसिंह द्वितीय (1835-1880)

16 माह की सबसे छोटी उम्र में जयपुर का शासक बना नाबालिग होने के कारण मेजर लुडलो ने जयपुर प्रशासन को चलाया। मेजर लुडलो को ‘लड्डू साहब भी कहा जाता है। मेजर लुडलो ने प्रथम कार्य के रूप में सती प्रथा को समाप्त किया। झिलाय के ठाकुर भूपाल सिंह राजावत राज्य का प्रथम सामंत था जिसने सती प्रथा को निंदनीय बताया। अगस्त 1844 ई. में जयपुर की सीमा में सती प्रथा को बंद कर दिया । लुडलो ने दूसरा कार्य बंधुआ मजदूरों से सम्बन्धित नियम बनाये, दासों से सम्बन्धी कठोर नियम बनाये व गुलाम शब्द के प्रयोग पर ही राज्य में प्रतिबन्ध लगा दिया। मेजर लुडलो ने सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य यही किया शादी में अनिवार्य दहेज व त्याग के खर्च को कम कर दिया ।
1857 के स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजों की सहायता की, अंग्रेजों ने इन्हे “सितार-ए-हिन्द” की उपाधि दी व कोटपूतली की जागीर दी।
रामसिंह के समय किए गए कार्य :-
1. पुलिस एवं जेल – राज्य में पुलिस की व्यवस्था प्रारंभ से ही थी। 1836 ई. में जिलों में भी पुलिस तैनात कर दी गई। एक पुलिस मुख्यालय शेखावाटी में बनाया गया। 1865 ई. में ठगी एवं डकैती के लिये अलग से सुपरिन्टेन्डेन्ट नियुक्त किया गया। रामसिंह के समय पुलिस के दो हिस्से किए गए प्रथम देहात की पुलिस जिसमें चौकीदार व तहसील के सिपाही थे जो मजिस्ट्रेट के आदेश पर चलते थे दूसरी सामान्य पुलिस जो सीधे दरबार या एजेन्ट के प्रति जिम्मेदार थे। पहले कैदियों को किले में रखा जाता था बाद में इन्हें नाहरबाड़े (रामगंज) में बंद किया जाने लगा। 1840 ई. में जेल को नाहरबाड़े से हटाकर लूणकरण नाटाणी की हवेली में किया गया व वहाँ कोतवाली बनाई गई। वर्तमान केन्द्रीय कारागृह 1854 ई. में बना था।
2. शिक्षा – वर्तमान शिक्षा प्रणाली मेजर लुडलो द्वारा 1844 ई. में लागू की गई। 1844 ई. में 40 छात्रों को लेकर एक कॉलेज खोला गया जिसकी आगे चलकर 800 तक उपस्थिति हो गई। इसमें शिक्षा का सारा व्यय रामसिंह की तरफ से किया गया। 1845 में एक संस्कृत कॉलेज की भी स्थापना की गई। संस्कृत महाविद्यालय के कारण जयपुर को छोटा काशी कहते हैं क्योंकि यहाँ संस्कृत विद्वान रहते थे। जून 1867 में सर चार्ल्स ट्रेवेलियन की सलाह पर रामसिंह ने जयपुर में एक स्कूल ऑफ आर्ट्स की स्थापना की इसमें काष्ठकला, हाथीदाँत, हड्डियों पर कलाकारी, लोहारी पॉटरी, चित्रकला आदि विषय रखे गये। 1861 में एक मेडिकल स्कूल खोला गया और 1868 में इसे बन्द कर दिया गया। 26 मार्च 1869 को महाराजा ने “सोशल साइंस कॉन्फरेन्स संस्था की स्थापना की। ये संस्था सामाजिक रूढ़ियो, कुरीतियों में सुधार का कार्य करती थी। इस संस्था ने सफाई के नए तरीके सुझाएं, कृषि के नये यंत्र विकसित किये। 1869 में रामसिंह के समय नाट्यकला के विकास के लिये रामप्रकाश थियेटर बनाया गया। 1871 में एक सार्वजनिक पुस्तकालय की स्थापना हुई। रामसिंह ने 1857 में रामप्रकाश थियेटर बनवाया जो उत्तरी भारत का प्रथम रंगमंच है। 1870 में लार्ड मेओ राजस्थान आए थे, 1875 में इनकी स्मृति में अजमेर में मेओ कॉलेज की स्थापना की गई, मेयो कॉलेज में राजा-महाराजाओं के राजकुमार पढ़ते थे। रामसिंह ने संस्कृत की चर्चा हेतु मौज- मन्दिर की स्थापना की।
नोट – द्वितीय काशी बून्दी को भी कहते हैं, सूर्यमल्ल मिश्रण के कारण।
3. अस्पताल :- 15 अक्टूबर 1870 में एक लाख 63 हजार की लागत से रामसिंह ने मेयो अस्पताल जयपुर में बनवाया इसका उद्घाटन लार्ड मेयो ने किया।
4. संचार – रामसिंह के समय जयपुर रेलवे लाईन द्वारा दिल्ली से जुड़ गया। रामसिंह के समय शहर में पक्की सडकें पुल व विश्रांमघर बनाये गये। रामसिंह के समय डाकसेवा भी प्रारंभ हुई।
5. अकाल सहायता – 1868-69 में राजपूताने में अकाल पड़ा। अकाल के समय रामसिंह ने अनाज की आवाजाही पर चुंगी कर समाप्त कर दिया। किसानों को कर्ज भी दिया गया।
‘प्रिन्स ऑफ वेल्स’ ने रामसिंह को जी.सी.एस.आई. की उपाधि दी।
1875 में रामसिंह को मल्हार राव गायकवाड़ के मुकदमे की सुनवाई के बने आयोग के 6 सदस्यों में चुना गया। गायकवाड़ पर स्थानीय रेजीडेन्ट फेअरे को जहर देने का आरोप था ।
रामसिंह ने जयपुर को दूसरा कलकत्ता बनाने का निर्णय लिया था जयपुर को सजाने-सवाँरने में रामसिंह ने कोई कसर नहीं छोड़ी।
जयपुर का गुलाबी रंग 1868 में प्रिंस ऑफ वेल्स एडवर्ड पंचम के जयपुर आगमन पर जयपुर शहर को गैरूआ / गुलाबी रंग से रंगवाया, इस यात्रा का वर्णन स्टेण्डरी ने अपनी पुस्तक “द रायल टाउन आफ इण्डिया” में किया है।
नोट – गुलाबी नगरी जयपुर गुलाब नगरी पुष्कर (अजमेर) 1875 में लॉर्ड नार्थ बुक भी राजस्थान आए थे।
अल्बर्ट हॉल:- 1876 में प्रिंस अलबर्ट ने जयपुर की यात्रा की थी जिनकी स्मृति में अल्बर्ट हॉल का निर्माण किया गया। अल्बर्ट हॉल का वास्तुकार स्टीवन जैकब था। अल्बर्ट हॉल का उद्घाटन 1887 में माधोसिंह द्वितीय के समय सर हेडवर्ड ब्रेडफोर्ड ने किया। अल्बर्ट हॉल वह इमारत है जिसमे हिन्दू इस्लामिक ईसाई शैली का प्रयोग हुआ हैं।
इनके नाम से जयपुर के ताजियों के साथ एक अलग से ताजिया होता है।
रामसिंह के शासनकाल में स्वामी दयानंद सरस्वती जी 3 बार (1865, 1866, 1878 ) जयपुर आये थे। रामसिंह के समय रानी भटियाणी ने रामनिवास बाग की नींव रखी। रामसिंह ने रामगढ़ बाँध बनवाया। रामसिंह ने जयपुर में राजस्थान का प्रथम चिड़ियाघर खुलवाया।

माधोसिंह द्वितीय (1880-1922)

17 सितम्बर 1880 रामसिंह की निःसन्तान मृत्यु हो गई तब ईसरदा शाखा के कायम सिंह को ‘महाराजाधिराज सवाई माधोसिंह बहादुर द्वितीय के नाम से रामसिंह का दत्तक पुत्र जयपुर का शासक बना।
अलबर्ट हॉल के निर्माण को पूर्ण किया। में एक जैसे 9 महलों को पूर्ण करवाया। की स्थापना की ये भी हिन्दू इस्लामिक से बनाया गया । नाहरगढ़ दुर्ग मुबारक महल ईसाई शैली
माधोसिंह की लंदन यात्रा – महाराजा माधोसिंह एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह में लंदन गये। हिन्दू रिवाज के अनुसार काले पानी को पार करके विदेशी धरती पर पाँव रखने वाले को हिन्दू जाति से बाहर कर दिया जाता था ऐसा माना जाता था कि विदेश जाने से आदमी का धर्म भ्रष्ट हो जाता है। इस कारण माधोसिंह ने इंग्लैण्ड जाने से पूर्व ‘ओलम्पिया’ नामक जहाज किराये पर लिया उसे गंगाजल से धोया 345-345 किलोग्राम के चाँदी के पात्रों में गंगाजल भरवाया हाथ धोने के लिये मिट्टी साथ ली, पूजा के लिये अपने आराध्य गोविन्द देव जी की मूर्ति साथ में ली साथ ही चार माह की खाद्य सामग्री ली। माधोसिंह के साथ 124 हिन्दू अधिकारी और थे। इंग्लैण्ड रहते हुए माधोसिंह ने नित्यकर्म व पूजापाठ जारी रखे । माधोसिंह मुम्बई से मई 1902 में रवाना हुआ जहाज के ऊपर पंचरंगा झण्डा लगाया । माधोसिंह ने सभी भूमि गोपाल की है ये समझकर देश की भूमि को पार किया। 3 जून को महाराजा लंदन पहुँचे सबसे आगे गोपाल जी की सवारी की। लंदन में महाराजा कैम्पडेन हिल पर स्थित मोरे लॉज में रुके। इग्लैण्ड की धरती पर उतरते ही कॉरपोरेशन के मेयर डोवर ने माधोसिंह का स्वागत किया । राजतिलक समारोह में महाराजा ने भाग लिया। लंदन से 22 अगस्त होकर 14 सितम्बर 1902 को महाराजा पुनः जयपुर पहुँचे। माधोसिंह द्वारा बनवाये गये ये 345–345 किग्रा के चाँदी के पात्र “गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड” में अंकित है, वर्तमान में ये पात्र “सिटी पेलैस” में रखे है।
नोट :- भारत से विदेश जाने वाले प्रथम व्यक्ति राजा राममोहन राय माने जाते है।
छप्पनियाँ अकाल के समय जयपुर का शासक माधोसिंह द्वितीय था। 1911 में महारानी मेरी आगरा से जयपुर आई थी, महारानी मेरी ने जयपुर की प्रजा के लिए 50 लाख रुपये का बकाया लगान माफ किया था। महारानी मेरी के नाम पर झोटवाड़ा- खातीपुरा से जाने वाली एक सड़क का नामकरण किया गया। वर्तमान में इसे क्वीन्स रोड के नाम से जाना जाता है।
1921 में एडवर्ड अष्टम अपनी ताजपोशी से पूर्व जयपुर आया था ।
1903 में एडवर्ड सप्तम का बड़ा भाई ड्यूक ऑफ कनोट जयपुर आया था। इसके साथ डचेज भी था । जयपुर के सिटी पैलेस में एक दरबार का आयोजन हुआ इसमें ड्यूक ने माधोसिंह को जी. सी. वी. ओ. (ग्रान्ड कमाण्डर द विक्टोरियन ऑर्डर) की उपाधि दी। ये उपाधि इन्हें हिज़ मैजेस्टी किंग ऐम्परर की ओर से प्रदान किया गया।
1893 में लार्ड राबर्ट्स जयपुर आया था।
1905 में माधोसिंह ने फुलेरा का रोमन कैथोलिक चर्च बनवाया। 1913 में चाँदपोल दरवाजे के बाहर एक प्रोटेस्टेन्ट चर्च बनवाया। महाराजा रामसिंह ने 1868 में घाटगेट पर एक रोमन कैथोलिक चर्च बनवाया था। माधोसिंह ने 1892 में पुष्कर झील की सफाई करवाई थी ।
लखनऊ में राजपूत कॉलेज के लिये 25000 रुपये दान दिये। विक्टोरियो मेमोरियल को साढ़े तीन लाख रूपये दान दिये।
माधोसिंह ने बनारस विश्वविद्यालय निर्माण में मदन मोहनमालविय को 5 लाख रूपये दान दिये ।
माधोसिंह ने अमानीशाह नाले के पास 1883 में पशुओं का मेला शुरु करवाया जो वर्तमान में भी शुरु है।
माधोसिंह के समय महाराजा कॉलेज में 1880 में बी.ए. की कक्षाएँ 1900 में एम. ए. की कक्षाएँ प्रारम्भ हुई। माधोसिंह के समय ही महाराजा कॉलेज में बी.एस.सी. के लिए विज्ञान की प्रयोगशाला 1905 में स्थापित की गई ।
माधोसिंह के समय जयपुर में एक जनाना स्थान लेडी हार्डिज के नाम से खोला गया । कर्जन ने इसे भारत के सर्वोत्तम अस्पतालों में से एक बताया ।
माधोसिंह ने 1900 ई. में ट्रान्सवाल युद्ध के लिये 1 लाख रूपये, सीमान्त क्षेत्र में 1888 में 15 लाख रूपये प्रथम विश्व युद्ध में 1914 – 1918 चौदह लाख रूपये व माधोसिंह के सरदारों द्वारा 14 लाख 50 हजार रूपये दिए गये ।
माधोसिंह ने नाहरगढ़ में अपनी पासवान रानियों के लिए एक जैसे 9 महल बनवाये। सवाई जयसिंह द्वारा बनवाई गई वेधशालाओं का जीर्णोद्धार करवाया ।
माधोसिंह ने जयपुर में मुबारक महल का निर्माण करवाया । 1904 में माधोसिंह ने जयपुर में डाक टिकिट व पोस्टकार्ड का प्रचलन करवाया ।
1922 में माधोसिंह की मृत्यु हुई गैटोर में इसकी सफेद संगमरमर की छतरी है जो इसकी पत्नी तँवर रानी ने बनवाई थी ।

मानसिंह द्वितीय (1922-1949 )

जयपुर का अंतिम शासक । माधोसिंह के भी कोई सन्तान नहीं थी इसलिए उसने अपने बड़े भाई के पुत्र मोर मुकुटसिंह को गोद लिया, मोर मुकुट सिंह आगे मानसिंह द्वितीय के नाम से जाना गया। शासक बना तब वह 11 वर्ष का था इस कारण जयपुर का राजकाज रीजेन्सी कौन्सिल चलाती थी । 1931 में राजा को मानसिंह को पूर्णतः अधिकार मिल गये।
मानसिंह का विवाह कूच बिहार (प. बंगाल) की राजकुमारी गायत्री देवी से हुआ था। गायत्री देवी लोकसभा में जाने वाली राजस्थान की प्रथम महिला है।
मानसिंह की शिक्षा मेयो कॉलेज में हुई थी मानसिंह को सैनिक प्रशिक्षण के लिये 1929 में वूलविच की रॉयल मिलिट्री एकेडमी इग्लैण्ड भेजा गया । 1937 में जब मानसिंह ट्रैनिंग ले रहा था तब इनका चयन जार्ज पंचम ने लाइफ गार्ड्स में किया था यह सम्मान इससे पूर्व किसी अन्य भारतीय को नहीं मिला था।
एकीकरण के समय मानसिंह को वृहत् राजस्थान संघ का राजप्रमुख बनाया गया। 1956 में राजप्रमुख पद समाप्त हो गया इसके स्थान पर राज्यपाल पद सृजित हो गया । 1962 में मानसिंह को राज्यसभा सदस्य के रूप में चुना गया। 2 अक्टूबर 1965 को मानसिंह को स्पेन का राजदूत बनाया गया। मानसिंह पोलो के बहुत बड़े खिलाड़ी थे 1933 में मानसिंह अपनी पोलो टीम लेकर इंग्लैण्ड गये वहाँ आठ के आठ खुले टूर्नामेन्ट जीतकर एक रिकॉर्ड बनाया।
मानसिंह अच्छे विमान चालक थे मानसिंह ने सांगानेर में हवाई अड्डा बनवाया व 1937 में जयपुर ‘फ्लाइंग क्लब’ की स्थापना की इसकी संरक्षक स्वयं मानसिंह थे। मानसिंह ने क्लब को टाइगर मोथ नाम हवाई जहाज भी भेंट किया ।
मानसिंह अपनी सेना के प्रधान सेनापति थे । मानसिंह ने 1925 में पुलिस बल का आधुनिकीकरण किया 1932 में पुलिस ट्रेनिंग स्कूल की स्थापना हुई। 1933 में पुलिस गाइड नामक पुस्तक तैयार की गई। 1928 में जयपुर में कृषि विभाग भी खोला गया। कृषि सीखने का एक स्कूल भी शुरू हुआ।
1938 में जयपुर में पंचायत कानून के अंतर्गत पंचायतों की स्थापना की गई।
महाराजा कॉलेज में एम. ए., एम. एस. सी. की पढ़ाई होती थी। 1939 में बी. कॉम. की भी पढ़ाई शुरु हुई ।
मानसिंह के समय महारानी गायत्री देवी ने बच्चों के लिये एम. जी. डी. पब्लिक स्कूल खोला, लड़कियों की उच्च शिक्षा के लिये ‘महारानी कॉलेज’ खोला ।
पावटा (जयपुर) में एक टीचर ट्रैनिंग स्कूल खोला गया । मानसिंह ने ‘सवाई मानसिंह अस्पताल’ खोला जो एस. एम.एस. हॉस्पिटल के नाम से जाना जाता

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