उपन्यास किसे कहते है? उपन्यास का विकास क्रम

उपन्यास किसे कहते है? उपन्यास का विकास क्रम

उपन्यास किसे कहते हैं? उपन्यास का क्या अर्थ हैं 

Upanyan arth paribhasha visheshta vikas;उपन्यास शब्द ‘उप’ उपसर्ग और ‘न्यास’ पद के योग से बना है। जिसका अर्थ है उप= समीप, न्याय रखना स्थापित रखना (निकट रखी हुई वस्तु)। अर्थात् वह वस्तु या कृति जिसको पढ़कर पाठक को ऐसा लगे कि यह उसी की है, उसी के जीवन की कथा, उसी की भाषा मे कही गई हैं। उपन्यास मानव जीवन की काल्पनिक कथा है। प्रेमचंद के अनुसार “मैं उपन्यास को मानव जीवन का चित्रमात्र समझता हूँ । मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है।



उपन्यास की परिभाषा (upanyas ki paribhasha)

बाबू गुलाब के अनुसार,” उपन्यास जीवन का चित्र हैं, प्रतिबिंब नहीं। जीवन का प्रतिबिंब कभी पूरा नही हो सकता हैं। मानव-जीवन इतना पेचीदा है कि उसका प्रतिबिंब सामने रखना प्रायः असंभव है। उपन्यासकार जीवन के निकट से निकट आता हैं, किन्तु उसे भी जीवन में बहुत कुछ छोड़ना पड़ता हैं, किन्तु जहाँ वह छोड़ता हैं वहाँ अपनी ओर से जोड़ता भी हैं।”
श्यामसुन्दर दास के अनुसार,” उपन्यास मनुष्य के वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा हैं।”
प्रेमचंद के अनुसार,” मैं उपन्यास को मानव चिरित्र का चित्र मानता हूँ। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व हैं।”
हडसन के अनुसार,” उपन्यास में नामों और तिथियों के अतिरिक्त और सब बातें सच होती हैं। इतिहास में नामों और तिथियों के अतिरिक्त कोई बात सच नहीं होती।”

उपन्यास की विशेषताएं (upanyas ki visheshta)

उपन्यास की उपरोक्त परिभाषाओं के विश्लेषणणोपरान्त उपन्यास की निम्नलिखित विशेषताएं हैं–
1. यह अपेक्षाकृत विस्तृत रचना होती हैं।
2. उपन्यास जीवन के विविध पक्षों का समावेश होता हैं।
3. उपन्यास में वास्तविकता तथा कल्पना का कलात्मक मिश्रण होता हैं।
4. कार्य-कारण श्रंखला का निर्वाह किया जाता हैं।
5. उपन्यास में मानव-जीवन के सत्य का उद्घाटन होता हैं।
6. जीवन की समग्रता का चित्र इस प्रकार उपस्थित किया जाता है कि पाठक उसकी अन्तर्वस्तु तथा पात्रों से अपना तादात्मीकरण कर सके।



उपन्यास के तत्व

उपन्यास के निम्नलिखित तत्व प्रायः सभी विद्वान स्वीकार करते हैं–
1. कथावस्तु,
2. पात्र और चरित्र-चित्रण,
3. संवाद या कथोपकथन,
4. देश-काल या वातावरण,
5. भाषा-शैली,
6. उद्देश्य।

उपन्यास का विकास 

Upanyas ka vikas;हिन्दी उपन्यास का प्रारंभ 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से ही होता है। उपन्यास की परंपरा भारत मे संस्कृत से ही चली आ रही है। आचार्य भरत के अनुसार ‘किसी अर्थ को युक्तियुक्त रूप से उपस्थित करना उपन्यास कहलाता हैं।’ कहकर संभाव्यता, विश्वसनीयता और रोचकता के समावेश को उपन्यास मे अनिवार्य बताते हुए उसे परिभाषित किया। ‘कादम्बरी’ उपन्यास की व्याख्या के करीब है। बंगाल मे उपन्यास शब्द का प्रयोग इसी अर्थ मे हुआ। गुजराती मे इसे नवलकथा नाम दिया तो अंग्रेजी मे नाॅवेल शब्द से अभिहित किया गया ।




हिन्दी उपन्यास का विकास क्रम 

1. भारतेंदु युग 
हिन्दी के भारतेन्दु  युगीन मौलिक उपन्यासों पर संस्कृत के कथा साहित्य एवं परवर्ती नाटक साहित्य के साथ ही बंगाल उपन्यासों की छाया पाई जाती है। इस दृष्टिकोण से हिन्दी का प्रथम उपन्यास “परिक्षा गुरू” 1882 माना जाता हैं।  भारतेंदु युग मे सामाजिक, ऐतिहासिक, तिलिस्मी, ऐय्यारी, जासूसी तथा रोमानी उपन्यासों की रचना परंपरा का सूत्रपात हुआ। इस युग की प्रमुख अनूदित कृति है बंकिमचन्द्र की “दुर्गेशनंन्दिनी”।
2. द्विवेदी युग 1900 से 1918
द्विवेदी युग मे खड़ी बोली ने अपने रूप को निखारा, परिमार्जित रूप ग्रहण किया, काव्य मे नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा की, किन्तु उपन्यास क्षेत्र मे कुतूहल, रहस्य और रोमांच एवं मनोरंजन की ही प्रमुखता रही हैं। इस युग मे अंग्रेजी और बंगला के बहुत से उपन्यास अनूदित हुए। देवकीनन्दन खत्री का “काजर की कोठरी” अनूठी बेगम” “भूतनाथ”। किशोरीलाल गोस्वामी का “लीलवती” व “आदर्श सती” आदि।
3. प्रेमचंद युग 1919 से 1936 
उपन्यास लेखक क्षेत्र मे प्रेमचंद के अमूल्य योगदान के कारण इस युग को प्रेमचंद युग की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। उपन्यास रचना की दृष्टि से यह अत्यंत समृद्ध काल है। विषयगत विविधता, रूपगत विविधता एवं औपन्यासिक ढांचे का सुगठित एवं प्रौढ़ रूप इस काल मे देखने को मिलता है। सामाजिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की रचना हुई।
हिन्दी उपन्यास को प्रेमचंद की बहुमुखी देन है। इस युग मे प्रायः मध्यवर्ग उपन्यास के केन्द्र मे रहा। किन्तु प्रेमचंद ने टूटते सामन्ती समाज और पूंजीवादी व्यवस्था दोनों की विकृतियों को अपनी रचनाओं के माध्यम से व्यक्त किया ही नारी की समस्या को भी मुखर अभिव्यक्ति दी।
इस युग के प्रमुख उपन्यास एवं उपन्यासकार है— प्रेमचंद का   सेवासदन, कर्मभूमि, गोदान; आचार्य चतुर सेन शास्त्री का– अमर अभिलाषा; जयशंकर प्रसाद का कंकाल, वृन्दावनलाल वर्मा का– गढ़कुड़ार, विराटा की पद्मिनी आदि।




4. प्रेमचन्दोत्तर युग 1937 से अब तक
प्रेमचन्दोत्तर युग मे अनेक प्रवृत्तियां एवं प्रभाव उपन्यास के क्षेत्र मे परिलक्षित हुए। यह काल पर्याप्त प्रौढ़ एवं विकसित काल है। इस काल खण्ड की महत्वपूर्ण घटनाएं जिन्होंने उपन्यास एवं अन्य विधाओं को प्रभावित किया उसमे प्रमुख रूप से द्वितीय विश्वयुद्ध, भारत की स्वतंत्रता एवं गाँधी की हत्या रहा आदर्शवाद का टूटना, आर्थिक सामाजिक विषमता, टूटते परिवार, क्षीण होते नैतिक मूल्य, व्यक्ति का आत्मकेन्द्रित रूप इस काल की औपन्यासिक कृतियों के विषय रहे।
इस युग के प्रमुख उपन्यास एवं उपन्यासकार है— जैनेन्द्र का    त्यागपत्र; सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय का का– शेखर एक जीवनी; नरेश मेहता का– डूबते मस्तूल; उपेन्द्रनाथ “अश्क” का– गिरती दीवारें; अमृतलाल नागर का– मानस का बाण भट्ट की आत्मकथा; यशपाल का–  झूठा-सच, देशद्रोही, दिव्या।

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